Wednesday 2 January 2013

भारतीय संस्कृति में समरसता-शिक्षा की भूमिका

चन्द्रावती जोशी एवं निम्मी पंत

भारत एक निश्चित भू-भाग है जो प्राकृतिक उपादानों से घिरा होने के कारण अपनी पृथक् सत्ता रखता है। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में समुद्र, पश्चिम में हिन्दुकुश और पूर्व में अदीली की पहाडि़यां भारत की सीमा निर्धारित करती हैं और यहाँ के रहने वाले लोग भारतीय कहलाते हैं, विष्णु पुराण में कहा गया है-
उत्तर यत्समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारत नामा, भारती यत्र सन्तति।
भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। यह विभिन्न धर्मावलम्बी समाजों मूल्यों पर विकसित हुई और गंगा, यमुना, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी और सरस्वती की धाराओं का संगम जैसी है। पुरुषोत्तम की मर्यादा, योगेश्वर का कर्मयोग, उपनिषदों का तत्व ज्ञान, सूफियों का पे्रम, इस्लाम का भाईचारा, ईसाइयों का सेवाभाव, गुरुओं का शौर्य एवं तथागत की नैतिकता, करूणा एवं निर्वाण, महावीर का संयम एवं अहिंसा, वैष्णवों की भक्ति, शैवों की साधना यहाँ के निवासियों के आदर्श प्रेरणा स्रोत रहे हैं। विश्वशांति, अहिंसा, भाईचारा, सौहार्द, क्षमा, तप एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की बुनियाद पर खड़ी भारतीय संस्कृति ही विश्व समुदाय की अग्रदूत रही है।
भारतीय संस्कृति की नींव धर्म पर रखी हुई है। भारतीय संस्कृति के अनुसार धर्म ही एक ऐसा तत्व है जो मनुष्य को पशुओं से अलग करता है। धर्म का अर्थ है- धारणा करना। जनता को एक सूत्र में बाँधने के कारण ही इसको धर्म नाम दिया गया है- धारणात् धर्ममित्याहुः, धर्मो धारयति प्रजा।
इसी धर्मबोध से लगाव के कारण विविधताओं के होते हुए भी भारतीय संस्कृति ने भौगोलिक एकीकरण और समुच्चय की भावना को बनाये रखा। डाॅ0 वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है- ‘यहाँ कोटि-कोटि जनता के मन में भारती की भौगोलिक एकता का गहरा संस्कार है। हमारी संस्कृति विविधताओं को स्वीकार करती है किन्तु एकत्व की प्राप्ति उसकी निजी विशेषता है।
भारत की भारतीयता या जिसे हम राष्ट्रत्व कह सकते हैं कोई नयी चीज नहीं है। बहुत प्राचीन काल से भारतीयता अथवा भारत में राष्ट्रीय जीवन की एक परम्परा को विदेशियों ने भी अनुभव किया था इस बात का समर्थन करते हुए प्रो0- हुमायूँ कबीर ने कहा है कि जब मेगस्थनीज, फाह्मान और ह्वेनसांग जैसे यात्री यहाँ आए तो उन्होंने यहाँ जातियों और सम्प्रदायों की भिन्नता देखी परन्तु फिर भी उन्होंने उन सबको भारतीय जनता के रूप में स्वीकार किया। बावर यहाँ आया और उसने भी भारतीयता को पहचाना। उसने भारती की जीवन-शैली को अन्य देशों की जीवन-शैली से भिन्न मानते हुए उन्हें हिन्दुस्तानी कहा। तात्पर्य यह है कि देश में रहने वाले 1 अरब 20 करोड़ लोगों में चाहे जितनी भिन्नता हो, उनमें एक मौलिक एकता है। वही एकता 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह के रूप में प्रकट हुई, वही एकता चीन और पाकिस्तान के हमलों के समय या देश पर संकट आने के समय प्रकट हुई और आज भी यह भावना विद्यमान है।
लेकिन सारे जहाँ से अच्छा की दावेदारी रखने वाले इस मुल्क में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनकी वजह से पूरे मुल्क को शर्मिंदगी उठानी पड़ जाती है, वे हिन्दुस्तानियों में ही परस्पर भेदभाव बढ़ाने की नीति से लोगों को प्रांत, जाति तथा भाषा के नाम पर बाँट कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं ये लोग कभी जम्मू-कश्मीर में, कभी पंजाब में, कभी दक्षिणी राज्यों में, कभी गुजरात में तो कभी महाराष्ट्र में लोगों को धर्म, भाषा और प्रांतीय क्षेत्रीयता के नाम पर बांटने और लड़ाने की राजनीति अपनाकर अपना स्वार्थ साधनें के प्रयास करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि कई बार इनकी दाल गल जाती है लेकिन इसका खामियाजा पूरे समाज और देश को भुगतना पड़ता है, इसमें संतोष की बात यह है कि जब कभी सही मौका होता है तब इस देश की सारी जनता अपनी एकजुटता भारतीयों के रूप में दिखाकर ऐसे ओछे प्रयासों को पलीता भी लगा देती है। इस तरह के संकट से हमारा पंजाब भी बखूबी उबरा और काश्मीर भी जहाँ कुछ गुमराह किये गये लोगों ने भी अपनी भूल सुधार कर देश की अखंड मुख्य धारा पर ही फूल चढ़ाये।
आज जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अल्पसंख्यकों की समस्या, छोटे-छोटे राज्यों की मांग, प्रादेशिकता, अत्यधिक आर्थिक विषमता, भाषागत विभिन्नता, राजनीतिक अवसखादिता, हिंसात्मक गतिविधियाँ, सामाजिक विभेद, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, आतंकवाद, भाईभतीजावाद, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, हर चीज का बाजारीकरण होना, आरक्षण, प्रकृति का अंधाधुन्ध दोहन आदि कई समस्याओं ने देश की समरसता को प्रभावित किया है।
देश में समरसता की भावना को बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय समाकलन और भावात्मक समाकलन की आवश्यकता है जिसमें आत्मीयता,, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, विशालहृदयता, संवेदनशीलता, भ्रातृत्व, दूसरों के विचारों का आदर करना, राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानना आदि मूल्य शामिल है। शिक्षा एक सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तियों में इन गुणों का विकास किया जा सकता है। समरसता को बनाये रखने में शिक्षा की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 1961 में बनी डाॅ0 सम्पूर्णानन्द भावात्मक समिति ने कहा- ‘‘राष्ट्रीय भावात्मक समाकलन को पोषित तथा सुदृढ़ करने में शिक्षा का प्रमुख स्थान है। शिक्षा द्वारा सहनशीलता तथा त्याग की भावना का विकास होना चाहिए, जिससे संकीर्ण दृष्टिकोण के स्थान पर राष्ट्रीय हितों के लिए प्रबल तथा प्रखर राष्ट्रीय दृष्टिकोण पनपे।’
जब यूरोप में राष्ट्रवादी भावना प्रबल हुई। तो विभिन्न देशों में राष्ट्रीयता के भाव को प्रकट करने में शिक्षा की भूमिका को महत्व दिया जाने लगा। फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्ड में शिक्षा की शक्ति को राष्ट्रीय भावात्मक एकता की अभिवृद्धि में सहायक माना गया। इन देशों में शिक्षा के माध्यम से देशवासियों के मन में अतीत के प्रति अनुराग उत्पन्न करने, स्वदेश प्रेम का भाव जगाने, देश का नागरिक होने पर गर्व करने और समस्त देश को अपना देश मानने की भावना उत्पन्न की गयी। इस प्रकार की भावना यदि समस्त देशवासियों में पैदा हो जाय, तो सारा राष्ट्र एकजुट होकर एक लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होता है और प्रगति की रफ्तार तेज हो जाती है। शिक्षा के द्वारा बड़े चमत्कारिक ढंग से परिणाम उत्पन्न किये गये है।
स्वयं भारत में शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय भावना भरने का प्रयास उस समय हुआ था, जब देश पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया और देशवासियों के मन में दास भावना इतना अधिक घर कर गयी कि वे पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगने लगे और अपनी संस्कृति से घृणा करने लगे। आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, प्रार्थना-समाज, रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाओं के द्वारा चलाई गयी संस्थाएँ, राष्ट्रीयता का भाव दृढ़ करने के उद्देश्य से काम करने लगी थी। राजा राममोहनराय, केशव चन्द्र, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी विवेकानन्द और दयानन्द आदि ने शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय भावना जगाने का प्रयास किया था। ‘राष्ट्रीय एकता को उत्पन्न करने में शिक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है। चूँकि एकता की या राष्ट्रीय संगठन की समस्या मूलतः विभिन्न समूहों या समाज के बड़े अंगों के दृष्टिकोण से सम्बन्धित है और व्यापक अर्थो में शिक्षा को दृष्टिकोणों या अभिवृत्तियों को प्रभावित करने का शक्तिशाली साधन माना गया है इसलिए शिक्षा की प्रक्रिया को प्रथम महत्व दिया जाना चाहिए।’
इस प्रकार राष्ट्रीय भावात्मक एकता उत्पन्न करने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से शिक्षा पर है क्योंकि यह शांतिपूर्ण तथा मूक तौर से विरोधों को समाप्त कर सकती है। शिक्षा के माध्यम से उत्तम नागरिक पैदा किये जा सकते हैं जो चारित्रिक दुर्बलताओं से ऊपर उठकर राष्ट्र की सेवा में प्रवृत्त हो सकते हैं। उनमें वर्तमान निःस्वार्थभाव, तटस्थता, निष्पक्षता और त्याग के गुण होंगे और मन में मिथ्या भय नहीं होगा। उनमें आक्रामक और शोषक प्रवृत्तियां नहीं होगी और वे राष्ट्रीय चेतना के अखंड प्रवाह में अपने को निमज्जित कर देंगे। डाॅ0 राधाकृष्णन ने कहा है- ‘राष्ट्रीय एकता ईंटों तथा प्लस्तर से नहीं स्थापित की जा सकती, न ही छेनी और हथोैड़े से इसका निर्माण किया जा सकता है। इसे चुपचाप लोगों के मनों तथा दिलों में विकसित करना होगा। इसकी एकमात्र प्रक्रिया है-शिक्षा प्रक्रिया।’
राष्ट्रीय एकता हेतु समुचित शिक्षा व्यवस्था आवश्यक है, ऐसा पाठ्यक्रम होना चाहिए कि प्रारम्भ से ही बालक भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत में ही रम जाये। पाठ्यक्रमों से ऐसे अंशों को हटा दिया जाना चाहिए जिनसे फूट, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद की गंध आती हो। महाविद्यालय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों के छात्रों, प्राध्यापकों आदि में विभिन्न गोष्ठियों, सेमिनारों द्वारा घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित किया जाना चाहिए जिससे अलगाव की प्रवृत्तियां कम होंगी और एकता प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।
शिक्षा को राष्ट्रीय तथा भावात्मक एकता पैदा करने का सर्वोत्तम साधन मान लेने पर एक बात यह भी माननी पड़ेगी कि एकता पैदा करने का उत्तरदायित्व अन्ततः शिक्षकों पर आ जाता है। कक्षा में पढ़ाते हुए अध्यापक जो भावना छात्रों में भर सकता है, वह स्थायी होती है। बालकों में स्वयं देशप्रेम की भावना हो और वे तुच्छ भेदों से ऊपर उठने की शक्ति भी रखते हों, ये गुण अनिवार्यतः होने चाहिए। विभिन्न विषयों को पढ़ाते हुए वे तटस्थ भाव से इतिहास तथा सामाजिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण हुए, छात्रों के दृष्टिकोण को उदार बनाने की चेष्टा करें और समन्वय करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करें, तभी राष्ट्रीय एकता का भाव पुष्ट हो सकता है।
सच तो यह है कि भारत की समरसता की भावना कभी नष्ट नहीं हो सकती। हमारी हस्ती ऐसी है कि वह मिट नहीं सकती। इतिहास साक्षी है कि संकट के समय पूरा राष्ट्र एकजुट हो जाता है। हाल ही में महाराष्ट्र की जनता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सरकारी और निजी प्रयासों द्वारा हमें विघटनकारी और बाधक तत्वों पर विजय प्राप्त करनी होगी साथ ही देश के सभी लोगों को एकजुट होकर प्रयास करना होगा शिक्षा जगत में क्रान्ति लानी होगी तभी द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के शब्दों में हम सब एक उपवन के सुमन बन सकेंगे, और सही मायनों में हमारी समरसता की भावना बरकरार रहेगी-
एक हमारी धरती सबकी, जिसकी मिट्टी में जन्मे हम। मिली एक ही धूप हमें है, सींचे गये एक जल से हम, पले हुए हैं झूल-झूलकर पलनों में हम एक पवन के हम सब सुमन एक उपवन के।
संन्दर्भ ग्रन्थ
1. हिन्दुस्तान- 7 फरवरी 2010 ‘हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तानी’
2. डाॅ. पुखराज जैन एवं डां. बी.एल. फडिया: भारतीय शासन एवं राजनीति पृष्ठ 741
3. रामखेलावन चैधरी एवं राधाबल्लभ उपाध्याय: भारतीय शिक्षा की सामयिक समस्याएँ, पृष्ठ 120-121

डा. चन्द्रावती जोशी (असिसटेन्ट प्रोफेसर)
एवं डा. निम्मी पंत (एसोसिएट प्रोफेसर)
एम.बी.रा.स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
हल्द्वानी, उत्तराखण्ड