Wednesday 2 January 2013

ग्रामीण समाज तथा राजनीतिक समाज और अपराध की अवधारणा


निशा त्रिपाठी

भारतीय समाज के स्वरूप पर जब हम विचार करना शुरू करते हैं, तो उस समाज की रूप संरचना, समाज की इकाई-परिवार, उसकी आर्थिक दशा और इनके साथ ही हमारा ध्यान उन सांस्कृतिक मान्यताओं की ओर भी जाता है, जिसका पालन करते हुए नैतिकता, सदाचार, परोपकार की भावना के कारण व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से जुड़ता है। व्यक्ति का व्यक्ति से जुड़ना सामाजिक अवधारणा की शुरूआत है। वर्तमान समाज का स्वरूप परिवर्तित होते-होते बाहर और अन्दर से विकृत हो चुका है। समाज सुधारक, विधिवेत्ता, पुलिस प्रशासन जितना ही समाज को आदर्श रूप देने में संलग्न है, उतना ही समाज मंे ऐसी बुराईयाँ भी पल्लिवत और पुष्पित हो रही है जिसके कारण अपराधीकरण को दूर करना आसान नहीं लगता। समाज की राजनीतिक दशा और अपराध की अवधारणा का सूक्ष्म विश्लेषण के लिये हमें आधुनिक काल के दो कालखण्डों की सामाजिक दशा का तुलनात्मक अध्ययन भी करना चाहिए। ये दो कालखण्ड हैं 1900 से 1950 तक भारतीय समाज तथा 1950 से 2000 तक का भारतीय समाज। इनमें पहला कालखण्ड अंगे्रज शासकों का है, जिन्होंने अपने राजतन्त्र की स्थापना के माध्यम से देश का आर्थिक शोषण किया। टैक्स और लगान के द्वारा यहाँ के गरीबों की संख्या में वृद्धि की तथा विदेश के निर्मित सामानों को यहाँ के बाजारों में पहुँचाकर भारत की स्वदेश निर्मित वस्तुओं को कौड़ी के मोल बेंचने के लिये विवश कर दिया। इनकी यह शोषण परक नीति चाहे जितनी खराब रही हो, किन्तु शासन व्यवस्था में दण्ड देने की प्रक्रिया इतनी सख्त थी कि अपराधियों को सिर उठाने का साहस नहीं होता था। इस समाज की तुलना के लिये हमारे समक्ष स्वाधीनता के बाद का भारतीय समाज है। स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के कर्णधारों ने राजनीति के क्षेत्र में जिन मूल्यों की स्थापना की थी, उनमें नैतिकता, सदाचार, परोपकार और त्याग की भावना तथा दलितों और गरीबों को सहायता देकर ऊपर उठाने की नीति थी, किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब इन नेताओं ने सत्ता का सुख भोगना आरम्भ किया तो उनकी मानसिकता धीरे-धीरे परिवर्तित होकर विलासिता के संसाधनों को जुटाने में लग गयी। इन नीतियों का सीधा टकराव पुरानी नीतियों से हुआ और पुराने मूल्य धीरे-धीरे समाप्त होने लगे और नये परिवर्तित जीवन मूल्यों ने नये-नये तरीकों से समाज को प्रभावित करना शुरू किया, जिसका परिणाम हम ग्रामीण और नगरीय समाज में समान रूप से देख रहे हैं।

प्रख्यात मनोवैज्ञानिक ‘हेनरी गोडार्ड’ ने कई प्रयोगों के बाद यह बताया कि अपराध का सबसे प्रमुख कारण मंद बुद्धिमत्ता है। जबकि इसके विपरीत आधुनिक अपराधी मन्दबुद्धि वाले नही बल्कि साइबर व ग्लोबल बुद्धिजीवी लोग हैं। 13 दिसम्बर 2001 को संसद पर आतंकवादी घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। ‘माडरेर’ (1959) ने अपराध को एक असामाजिक कार्य कहा है’ ‘काल्डवेल’ (1956) ने यह लिखा है कि ‘‘वे कार्य या उन कार्यो को करने में चूक जो समाज में प्रचलित मानदण्डों की दृष्टि में समाज के कल्याण के लिये इतने हानिकारक हैं कि उनके संबंध में कार्यवाही किसी निजी पहल करने की शक्ति या अव्यवस्थित प्रणालियों को नहीं सांैपी जा सकती परन्तु वह कार्यवाही संगठित समाज द्वारा परीक्षित प्रक्रियाओं के अनुसार की जानी चाहिए।1
सामाजिक व्यवस्था समय के साथ जटिल होती गयी है। इस जटिलता के साथ समाज में अनेक प्रकार के संगठन, समूह, वर्ग तथा कार्य आदि भी उत्पन्न हुये। इस जटिल व्यवस्था में व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति कठिनाई से होने लगी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि व्यक्ति अपने स्वार्थो, हितों, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये एक दूसरे के हितों को हानि पहुँचाने लगा है। इससे सामाजिक व्यवस्था व्यवस्थित होने के बजाय विघटित होने लगी है। व्यक्ति के साथ जाने कितनी समस्यायें जुड़ी हुयी हैं। जो समय-समय पर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों को उत्पन्न करती हैं। जिसमें व्यक्ति जाने-अनजाने सामाजिक नियमों का उल्लंघन कर बैठता है। इस तरह जब कभी भी कोई व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं कानूनों का उल्लंघन करता है तो उसे अपराधी घोषित किया जाता है। विभिन्न युगों में अपराध के सम्बन्ध में विभिन्न धारणायें रहीं हंै। प्राचीनकाल में ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करना अपराध समझा जाता था। समाज में प्रचलित परम्पराओं, विश्वासों आदि को भंग करना पाप समझा जाता था। जो आज भी निम्न जातियों के अन्दर यह देखा जाता है। ‘‘हाल्सबरी’ के अनुसार- ‘‘अपराध एक ऐसा गैर कानूनी कार्य अथवा त्रुटि है, जो जन-समाज के विरुद्ध अपराध है और जो उस कार्य या त्रुटि के कर्ता को कानूनी दण्ड का भागीदार बना देता है।2 ‘सदरलैण्ड’ का मानना है कि- अपराधिक आचरण वह आचरण है, जिससे कानून भंग होता है।3
किसी भी समाज को समझने के लिये उसके सम्पूर्ण ढांचे के विभिन्न स्तरों का विभिन्न दृष्टियों से अवलोकन करना पड़ता है। समाज में अपराध और दण्ड की परम्परावादी व्याख्यायें 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विकसित की गयी थी। ये सैद्धान्तिक व्याख्यायें हैं, जो प्रबुद्ध विचारकों और राजनैतिक सुधारकों की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुई। ये व्यक्ति न्याय की मनमानी पद्धतियों और दण्ड की बर्बर संहिताओं, जो 18वीं शताब्दी तक प्रचलित थी, के वे विरोध में थे। उन्होंने ऐसी विधि प्रणाली की मांग की जो कि अपराधियों के हितों की रक्षा करे और उनके अधिकारों और स्वतन्त्रता को बचाने की कोशिश करे। नव परम्परावादी अंगे्रज अपराध शास्त्रियों ने परम्परावादी सिद्धान्त में 1810 एवं 1819 में संशोधन किया और उसमें न्यायिक विवेक का प्रावधान किया तथा न्यूनतम और अधिकतम दण्ड के विचार को सन्निविष्ट किया। समान न्याय की अवधारणा को अवास्तविक बताते हुये उन्होंने अपराधियों का दण्ड निर्धारित करते समय आयु, मानसिक दशा, लघुकारक, परिस्थितियों को महत्व देने का सुझाव दिया। सात वर्ष से कम आयु के बच्चों और मानसिक रोगों से पीडि़त व्यक्तियों को उन्होंने अपराध कानून से मुक्त किया।
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही भ्रष्टाचार ने अपने पैर जमाना शुरू किया। वर्तमान में भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अपने विकराल रूप में इस तरह फैल चुका है, कि अब यह मात्र व्यवहार न होकर एक स्वीकृत मनोवृत्ति बन चुका है। उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक कोई भी इससे अछूता नहीं रहा है। अधिकतर राजनेताओं में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ज्यादा तीव्र होने और बार-बार सरकार बदलने से आने वाली राजनीतिक अस्थिरता ने राजनीतिक प्रतिष्ठान को भ्रष्ट बनाया है। आज लगभग एक तिहाई भारतीयों के लिये पैसा कमाना महत्वपूर्ण है, साधन की पवित्रता कोई मायने नहीं रखती। ‘तहलका प्रकरण’ ने भ्रष्टाचार को नये तरीके से उजागर किया। हाल के ‘स्टांप घोटाला’ तथा ‘टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला’, ‘लैक पेड घोटाला’, ‘एन.आर.एच.एम. घोटाला’ ने तो नैतिकता के सारे मानदण्ड ही तोड़ दिये है। इन्हीं सबने मिलकर अपराध को और भी बढ़ावा दिया है। भ्रष्टाचार की वजह से देश को आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी है। आज सम्पूर्ण समाज में भ्रष्टाचार ने अपने पांव फैला दिये है। ‘विन्ध्यवासिनी दुबे’ ने लिखा है कि- (प) कभी-कभी वरिष्ठ अधिकारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण कनिष्ठ अधिकारी भी लाभ वश इसका विरोध नहीं करते। (पप) व्यापारी वर्ग स्वार्थवश गलत तरीके से धन एकत्रित करने की कोशिश करता है। (पपपद्ध  औद्योगीकरण ने अनेक विलासिता की वस्तुओं का निर्माण किया। इसकी प्राप्ति के लिये लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं। (पअ) नौकरी पेशा व्यक्ति अपने सेवाकाल में इतना धन अर्जित कर लेना चाहता है कि जिससे अवकाश प्राप्ति के बाद उसका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो सके।4 भ्रष्टाचार के इन्हीं कारणों ने देश में अपराध को अधिक बढ़ावा दिया है।
विश्व का उन्नत से उन्नत देश भी जिसने विकास की सीमाओं की सम्भावित परिधियों को छू लिया हो वह अपनी ग्रामीण संस्कृति और सभ्यता को नही मिटा सकता। ‘भारत की आत्मा तो गांवों में ही बसती है’ या इसे ऐसे कहें कि- ‘‘भारत गांवों का देश हैं।’’ अतीत की गहराइयों में झांके तब भी पायेंगे कि भारत प्रमुख रूप से ग्रामों का देश रहा है। ‘प्रो. ब्लाक का कथन है कि - ‘‘भारत गांवों का एक उत्कृष्टतम् देश है, जहां देश की जनसंख्या का 75 प्रतिशत भाग गांवों में बसता है। गांव का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ा हुआ है।5 आज जहां जनसंख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, वही कृषि कार्यो में यांत्रिक प्रयोगों तथा ट्रैक्टर, ट्यूबेल, थ्रेसर के कारण कृषि कार्यो में मानवश्रम की विशेष आवश्यकता नही रही है। इसलिये ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या विकराल होती जा रही है। यह समस्या धीरे-धीरे ग्रामीण युवकों को या तो कस्बों, शहरों, महानगरों की तरफ पलायन करने को बाध्य कर रही है या फिर अपराध की तरफ ढकेल रही है।
दरिद्रता, गरीबी और भुखमरी का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है, गांवों में बसने वाले अधिकांश लोग गरीब और निर्धन हैं। ‘भूखा पेट सारी बुराइयों की जड़ होता है।’- ‘‘विश्व के औद्योगिक उत्पादन में भारत का 12वां स्थान है, फिर भी इसकी बड़ी जनसंख्या निर्धन है। यद्यपि स्वतन्त्रता के बाद देश में महत्वपूर्ण और व्यापक विकास दर रही है परन्तु फिर भी प्रति व्यक्ति आय में उत्तरोत्तर वृद्धि नही हो रही है। इस कारण जनसंख्या के बड़े भाग के जीवन स्तर में अवनति हुई है। विश्व के कई देशों , विशेषकर विकासशील देशों में निर्धनता एक अत्यन्त ही गम्भीर और व्यापक समस्या बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी 174 देशों की मानव संसाधन विकास सूचकांक रिपोर्ट में भारत को 127वें स्थान पर रखा गया है। देश के चार राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उ0प्र0) में देश की कुल गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्तियों में से 51 प्रतिशत लोग रहते हैं। देश में 32 करोड़ निर्धन व्यक्तियों में नितान्त साधनहीन व्यक्तियों की संख्या लगभग 5 या 6 करोड़ है।’’6 गरीबी से तात्पर्य है- वह व्यक्ति जिसके पास अपनी मूलभूत आवष्यकताओं के लिए धन नहीं है। उनमें क्रय शक्ति का अभाव है जिससे गरीब अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु क्रय करने में सर्वथा असमर्थ होते हैं। इसी से प्रेरित होकर मजबूरी में उन्हें चोरी और अपराध करने के लिये बाध्य होना पड़ता है।
ग्रामीण समाज के आर्थिक ढाँचे का आधार कृषि व्यवसाय है। ग्रामीणों की जीविका का साधन कृषि करना है। इस व्यवस्था में दो प्रकार के लोग हंै। एक प्रकार के लोगों के पास भूमि का स्वामित्व है, परन्तु कुछ ऐसे लोग हैं जो भूमिहीन हंै और दूसरों के खेतों में कृषि-मजदूर के रूप में काम करते हैं, या मवेशियों को पालकर दूध का कारोबार करते हैं। बढ़ई, लुहार, चमार, जुलाहा, कुम्हार आदि ग्रामीण अर्थ व्यवस्था से जुड़े हैं, परन्तु ग्रामीण आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर, लचर और अपंग है कि ये सभी लोग अपनी आवश्कताएँ पूरी नहीं कर पाते। निर्धनता, भुखमरी, बेकारी इनको विरासत में मिली है। रहन-सहन का निम्न स्तरीय होना इनके जीवन को नारकीय बनाए रखता है। परिवार की भूख मिटाने के लिये छोटे-छोटे बच्चों को भी काम करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। परिणामतः उपेक्षा और शोषण के शिकार ये बच्चे पहले छोटे-छोटे अपराधों की तरफ आकर्षित होते हैं, फिर वे धीरे-धीरे इनमें दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार कम उम्र की लड़कियाँ भी जो मजदूरी करती हैं उनका भी आर्थिक शोषण के साथ यौन शोषण होने लगता है।
भारतीय समाज की, चाहे वह समाज ग्रामीण हो या नगरीय हो, अनेक अनोखी विशेषताओं में से जाति व्यवस्था भी एक है। जिसकी जड़ें काफी गहरी और प्राचीन हंै। यह व्यवस्था क्यों, कैसे और किन कारणों से उत्पन्न हुई और अभी तक क्यों जीवित है? इसके अनेक कारण हैं। परन्तु यह व्यवस्था निःसन्देह भारतीय समाज व्यवस्था का मेरुदण्ड है। इसने भारतीय समाज के सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक ढाँचे को आमूल-चूल बदला है बल्कि उसे संचालित, अनुशासित और नियंत्रित भी किया हैं। ‘डा0 ए0आर0देसाई के शब्दों में- ‘‘जाति विभिन्नतायें यहाँ तक कि घरेलू और सामाजिक जीवन के तरीकों में विभिन्नताओं को निश्चित करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के निवास और सांस्कृतिक प्रतिमाओं को भी निश्चित करती है। भू-स्वामित्व भी जाति पर आधारित है। अनेक कारणवश समाज व्यवस्था के कार्यांे को भी जाति के अनुसार बाँटा गया है।’’7 जाति-व्यवस्था व्यक्ति और समाज की अनेक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सहायक है। जाति प्रथा किसी भी सभ्य समाज के लिये अभिशाप है, विशेषकर भारतीय समाज के संदर्भ में। इसने व्यक्ति को व्यक्ति सेे दूर किया है, यानी घृणा करना सिखाया है। ऊँच-नीच, छूत-अछूत के भेदभाव ने ही कुछ जातियों को हेय और घृणित बनाया है। जिनसे समाज में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ी है। जाति-प्रथा ने स्त्रियों का सबसे अधिक शोषण किया है। जहां सवर्णो की स्त्रियाँ घर के पिंजरे में बन्द रहकर परिवार द्वारा शोषित और प्रताडि़त हुईं वही पिछड़ी और दलित महिलाओं को अपने पेट की भूख और परिवार की स्थिति को ठीक करने के लिये जमीदारों, साहूकारों के यहां काम करना पड़ा, जहाँ उनका श्रम-शोषण देह शोषण और यौन-उत्पीड़न किया गया। बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, विधवा विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों ने भारतीय समाज को संकीर्ण और अंधविश्वासी बनाया। धर्म और जातिवाद से जुड़े संगठनों के कारण समाज में विभिन्न जातियों और धर्मो के मध्य टकराव, प्रतिस्पर्धा, तनाव, संघर्ष, लड़ाई- झगड़े और अलगाव की स्थिति उत्पन्न हुई है। इसीलिये ‘पं0 जवाहरलाल नेहरू’ ने कहा था कि -‘‘भारत वर्ष में जाति-पांति प्राचीनकाल में चाहे कितनी भी उपयोगी और महत्वहीन क्यों न रही हो पर वर्तमान में सब प्रकार की उन्नति के मार्ग में बड़ी भारी बांधा और रूकावट बन रही है। आज वह हमारे सौहार्द की पात्र नही है और किसी भी भावना की अधीन हमें उसके प्रति मोहग्रस्त नही होना चाहिए। इसे जड़ से उखाड़कर ही हमें अपनी सामाजिक संरचना दूसरे ढंग से करनी होगी।8 जिस जाति के व्यक्ति जिस क्षेत्र में संख्या बल में अधिक होते हंै, उनका व्यवहार अन्य जातियों के प्रति नादिरशाही होता है। वे अन्य जातियों से मनमाना व्यावहार करते है। परिणामतः अल्पसंख्यक संगठित और मरने-मारने को कटिबद्ध हो जाते है और बहुसंख्यक लोगों से मोर्चा लेने को सन्नद्ध हो जाते है। इससे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों के मध्य अनवरत तनाव बना रहता है। सामूहिक हत्यायें, बलात्कार, अपहरण, आगजनी इसी तनाव की परिणति है। जिससे अपराध बढ़ रहा है। जाति प्रथा और साम्प्रदायिक भावना को बढ़ाने में राजनीतिक पार्टियों का भी विशेष योगदान है। स्वाधीनता प्राप्ति के दो दशक बीतने के बाद ही इन क्षेत्रीय पार्टियों के गठन का सिलसिला जारी हुआ और इन पार्टियों ने एक वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर वोट की राजनीति के रास्ते से अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इन पार्टियों के प्रभाव से आन्तरिक अशान्ति, अपराधीकरण और वर्ग-संघर्ष की भावना बड़ी तीव्रता से बढ़ने लगी है। उत्तर प्रदेश में स्थापित हुई बसपा का हरिजन वोट बैंक या समाजवादी पार्टी में अन्य पिछड़ा वर्ग को जोड़ने के साथ-साथ मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में मिलाने के लिये जो कूटनीतिक चालें चली जा रहीं हैं, उससे समाज बिखरता जा रहा है। ‘श्री कृष्ण शर्मा’ लिखते हंै कि- ‘‘भारतीय सामाजिक संरचना में यदि कोई जाति आर्थिक व राजनैतिक नजरिये से सशक्त हो जाती है। तो उसका वर्चस्व अन्य गरीब व शोषित-उत्पीडि़त जातियों पर स्वतः हो जाता है। इसी धनी और बलशाली के पास राजनैतिक शक्ति होने के कारण विभिन्न अधिकारी वर्ग भी इनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करते है। इसके परिणाम स्वरूप एक अत्यन्त संवदेनशील बिन्दु पर ये शोषित और उत्पीडि़त जातियां एकत्रित होकर बाहुबलियों और धनबलियों का सामना करने को तैयार हो जाती हैं।’’9
देश की राजनीति में बढ़ते अपराध की दस्तकों ने हमारे समक्ष अनेक चुनौतियां पैदा की है। राजनीतिक अपराधीकरण के रूप में जो सबसे बड़ी चुनौती सामने आयी है वह है लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति घटता विश्वास। विभिन्न पार्टियों द्वारा निर्वाचन के समय बूथ कैपचरिंग के लिए अपराधिक तत्वों को अपने साथ मिलाना ऐसा दोष है जिससे पार्टियों में राजनीतिक अपराधीकरण बढ़ने लगा है। लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है, और विडम्बना यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के कारण जनता का ही विश्वास इस पर से डगमगाने लगा है। स्थिति इस हद तक बिगड़ चुकी है, कि हम जनतंत्र को गणतन्त्र कहने लगे हैं। ‘मनी माफिया’ और ‘मसल्स’ यानी धनबल से बड़े अपराधियों तथा बाहुबल का वर्चस्व राजनीति पर बहुत बढ़ गया है। राजनीतिक सफलता के लिये ये तीनों महत्वपूर्ण अवयव माने जाने लगे है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जिस देश में ‘महात्मा गांधी’ जैसे महान दार्शनिक एवं राजनीतिक चिन्तकों ने धार्मिक विश्वास, आस्तिकता, ईश्वर में अगाध श्रद्धा, आत्म बल की भावना भरी जहाँ अद्वैत की कल्पना, सर्वत्र चराचर में एक ही सत्ता का व्याप्त होना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह आदि के सिद्धान्तों को राजनीति के क्षेत्र में लागू किया गया। उस देश की राजनीति आपराधिक छवि के नेताओं एवं दागी मन्त्रियों के कारण जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा नही कर पा रही है।
भारत में राजनीति के अपराधीकरण की जड़ें काफी गहरी और पुरानी हंै। प्राचीन भारत में राजतन्त्र के अलावा गुटतन्त्र एवं गणतन्त्र अस्तित्व में थे किन्तु प्रधानता राजतंत्र की थी। तब राजनीति पर धर्म का अंकुश था और जब-जब राजा निरंकुश हुये उनका विनाश हुआ था।
विविध कालखण्डों में राजनीति में अपराध विविध रूपों में व्याप्त रहा और मौजूदा समय में यह अपने भयावह रूप में सामने है। अपराधी से माननीय बनने का चलन बढ़ गया है। ऐसा नही है कि भारतीय राजनीति में सुचिता नही थी। एक दौर लोक मान्य तिलक, महात्मागाँधी, जवाहर लाल नेहरू, पं0 मदन मोहन मालवीय, राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं का था जो सुचिता एवं नैतिकता के प्रबल पक्षधर थे। राजनीति में अपरााधिक संरक्षणवाद की पहली घटना ‘महात्मा गांधी’ की हत्या के रूप में सामने आयी और तब से शनैः शनैः अपराधीकरण की प्रक्रिया घनीभूत हो गयी है। पिछले तीन दशकों में यह प्रक्रिया चरम पर है। इसकी पुष्टि ‘वोहरा समिति’ एवं ‘श्रीकष्ृण समिति’ की रिपोर्टो से होती है। ‘आदर्श प्रताप सिंह का मानना है कि- ‘‘राजनीति और अपराध का गठजोड़ अनैतिक तरीकों से सत्ता हथियाने और सत्ता को प्राप्त करने के लिये हुआ है। चुनाव परिणामों को प्रभावित करने एवं बल पूर्वक सत्ता प्राप्त करने की कुत्सित भावना ने इस अपराधीकरण को बढ़ावा दिया है। जिन्हें कैदखानों में होना चाहिए था। वे किंगमेकर की भूमिका में है। यही से अपराधियों को लगा की जब वह दूसरों को सत्ता सुख दिलवा सकते है तो खुद इसको क्यों न भोगे। धीरे-धीरे राजनीतिक पार्टियों ने अपराधिक छवि वाले नेताओं की खोज शुरू कर दी और इस तरह से प्रत्येक पार्टी का उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का है। इन्हीं में से कोई एक विजयी होता है और सदन में पहुंचकर सुचिता और राजनीति का बेड़ा गर्क करता है।’10
अपराध की राजनीति को बढ़ावा देने में मतदाताओं का भी दोष है। जिसे हम अपने प्रतिनिधि के रूप में सदन में भेजते हंै, उसके चरित्र, छवि, पृष्ठभूमि का यथेष्ठ मूल्यांकन नही करते हैं। यहां पर मतदाता को पूरी तरह से दोषी ठहराना उचित नही है। क्योंकि उस पर बाहुबलियों, धनबलियों का दबाव पड़ता है। यह स्थिति इतनी विकट है कि राजनीति में शरीफ इंसान की कोई अहमियत नही होती। राजनीति के अपराधीकरण के दुष्परिणामों को हम भुगत रहे है। भ्रष्टाचार का बढ़ता बोलबाला, महँगाई, काला बाजारी, बेरोजगारी, रिश्वतखोरी, मर्डर, रेप आदि इसी की देन है।
अपराध क्या है, अपराधी कौन है, क्यों करता है, शताब्दियों से समाज में इस प्रश्न को लेकर चिंतन, विचार-विमर्श होता रहा है। धार्मिक विद्वानों ने अपराध का कारण धर्म के पतन को बताया। अर्थ शास्त्रियों ने अपराध के कारणों को आर्थिक व्यवस्था की खामियों में ढूढने का प्रयास किया। मनोवैज्ञानिकों ने मानव के मनोदशा को जानकर इसके कारणों को जाना तथा राजनीति में भी इन कारणों को समझने की चेष्टा की गयी है। आज कल चलचित्रों में नग्नता, यौनप्रदर्शन इतना अधिक दिखाया जाने लगा है कि नवयुवक-नवयुवतियों में उनके प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है। इसी कारण यौन अपराधों में भी वृद्धि हो रही है। चलचित्रों के अलावा समाचार पत्र एक ऐसा माध्यम है जिससे देश विदेश की जानकारी हम तक पहुंचती है, परन्तु समाचार पत्र भी विक्री बढ़ाने के लिये आजकल अपराधों का ऐसा रोचक वर्णन करते हैं कि लोगों को अपराध करने की प्रेरणा भी मिलती है। समाज व हमारी प्रशासन व्यवस्था भी अपराध को बढ़ाने में सहायक है। अपराध को रोकने के लिये हमें अपराधियों के साथ सहानुभूति जतानी होगी, जिससे वे उपेक्षित महसूस न करके समाज की मुख्य धारा से जुड़कर रचनात्मक कार्यो में भागीदारी कर सके।
संदर्भ-सूचीः-
1. भारत की सामाजिक समस्याएं (क्रानिकल बुक्स) संपादक-एन.एन.ओझा (प्र0सं0 2005) पृ0 400 भारतीय समाज और अपराध, श्री कृष्ण शर्मा द्वारा उद्धृत पृ0-95
2. भारतीय समाज और अपराध, श्री कृष्ण शर्मा द्वारा उद्धृत पृ0-95
3. अवध चेतना-वार्षिक पत्रिका, विन्ध्यवासिनी दुबे, एम0डी0पी0जी0 कालेज प्रतापगढ़ उ0प्र0, सन् 2011-12 पृ0-153
4. भारतीय समाज-ए0आर0एन0 श्रीवास्तव, पृ0-48
5. भारत की सामाजिक समस्यायें (क्रानिकल बुक्स) सं. एन.एन. ओझा प्र0सं0 2005, पृ0-29
6. द ज्वाइन्ट फेमिली इन इण्डिया सोसियोलोजिकल बुलेटिन-ए0आर0 देसाई, वैल्यूम नं0-2 सितम्बर 1956, पृ0 168
7. स्पीच एट बंगलौर अक्टूबर 1955-जवाहर लाल नेहरू-जी.एस. घूरे द्वारा उद्धृत सोशल टेन्शन्स इन इण्डिया, पृ0491
8. भारतीय समाज और अपराध-श्री कृष्ण शर्मा, पृ0-19
9. अवध चेतना-वार्षिक पत्रिका आदर्श प्रताप सिंह-मुनीश्वरदत्त स्नाकोत्तर महाविद्यालय प्रतापगढ़ उ0प्र0, सन् 2011-12, पृ0-96

निशा त्रिपाठी
शोध छात्रा, समाजशास्त्र
उ0प्र0रा0ट0मुक्त विश्वविद्यालय इलाहाबाद उ0प्र0