Wednesday 2 January 2013

म्©त्रेयी पुष्पा के उपन्यासांे में आंचलिकता एवं बुनियादी समस्याएँ


सन्ध्या सचान

हिन्दी कथा साहित्य में आंचलिक कथा साहित्य का विषेष महत्व है। लगभग छठे दशक से विकसित आंचलिक उपन्यासों की एक सशक्त परम्परा हिन्दी साहित्य में विद्यमान है। आंचलिक शब्द अंचल से बना है जिसका अर्थ है कोई स्थान विशेष अर्थात् भौगोलिक सीमाओं द्वारा घिरा हुआ कोई जनपद या क्षेत्र। अंचल एक गाँव, शहर, मोहल्ला अथवा किसी वन की उपŸिाका कुछ भी हो सकता है। विशिष्ट अर्थ में आंचलिक उपन्यास वह है जिसमें किसी स्थान-विशेष का सम्पूर्ण जन-जीवन अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ प्रतिबिम्बित हो उठता है। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, नागार्जुन, रांगेय राघव, षिवप्रसाद सिंह आदि प्रमुख हैं।1 यह कहा जा सकता है कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कथा साहित्य में आंचलिक उपन्यासकारों की गौरवपूर्ण विरासत को जीवंत विस्तार दिया है।

मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य की भावभूमि, रंग-चेतना, विषयवस्तु अद्भुत एवं वैविध्यपूर्ण हैं। इनके उपन्यासों में एक ओर बुन्देलखण्ड के लोक जीवन की सादगी, सहजता, लोकसंस्कृति, लोकजीवन का राग-विराग, हर्ष-विषाद, संवेदना, प्राकृतिक जीवन आदि समग्रता के साथ चित्रित है। वहीं दूसरी ओर समसामयिक राजनीतिक उतार-चढ़ाव, आर्थिक संकट, जातिगत संघर्ष एवं सामाजिक सरोकार जीवंत रूप में उद्घाटित हुए हैं। मैत्रेयी के उपन्यासों के अध्ययन अनुषीलन से स्पष्ट होता है कि आंचलिकता मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों की प्रमुख विषेषता है। बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्र को अपने उपन्यासों की कथावस्तु बनाने वाली मैत्रेयी पुष्पा बुन्देलखण्ड की पहचान बन चुकी हैं। मैत्रेयी ने अपने ग्रामीण अंचल एवं उससे जुडे़ पात्रों का सजीव चित्रण उपन्यासों में किया है। जिससे अंचल विषेष की सकारात्मक एवं नकारात्मक स्थितियाँ उजागर हुई हैं। ‘इदन्नमम’, ‘चाक’, ‘बेतवा बहती रही’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘अगनपाखी’, ‘झूलानट’, ‘कही ईसुरी फाग’, ‘त्रियाहठ’ आदि उपन्यासों में ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है।
आंचलिक तत्व की दृष्टि से ‘इदन्नमम’ उपन्यास का मूल्यांकन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि उसमें बुन्देलखण्ड की दयनीय स्थिति जैसे- प्राकृतिक आपदाओं से जूझते किसान, उनकी अभावग्रस्तता, परम्परागत पूँजी के रूप में उनकी जमीनों पर क्रेषर मषीन के ठेकेदारों का कब्जा, खेतों की कम होती उर्वरता आदि का यथा तथ्य वर्णन मिलता है। यह स्थिति ‘इदन्नमम’ उपन्यास में चित्रित मात्र सोनपुरा गाँव की ही नहीं बल्कि पूरे बुन्देलखण्ड अँँचल की है। ‘सोनपुरा के बहाने मैत्रेयी ने पूरे बुन्देलखण्ड की करुण कथा इस उपन्यास में सुनाई है। आज पूरा बुन्देलखण्ड गिट्टी के क्रेषरों की घड़घड़ाहट से काँप रहा है, उसकी धूल से लोगों की जीवन-षक्ति और खेतों की उर्वराषक्ति नष्ट हो रही है। ऐसे क्षेत्रों में कानून का नहीं, गुंडागर्दी का बोलबाला है। बोली और जिसकी लटक तो मैत्रेयी पुष्पा की खास धरोहर हैं, जिसे वे बड़ी कुषलता से अपने पात्रों के मुँह से झरने की तरह अनवरत बहाती रहती हैं।’2
मैत्रेयी पुष्पा ने ग्रामीण अंचल एवं उसके प्राकृतिक वैभव सम्पदा का सूक्ष्म दृष्टि से चित्रण करते हुए वनजातियों के जीवन-संघर्ष को भी चित्रित किया है, जो उनकी मानवीय संवेदना एवं लोकजीवन के दःुख-दर्द की अनुभूति का द्योतक है। ‘पहाड़, वन, नदियाँ, महुआ, बेर, करौंदी, चिरौंजी, हल्दी, अदरख, अरे तमाम संपदा है, पर दुर्भाग्य है हमारा, कि हम नहीं बरत पाते दलालों के सुपुर्द हो जाती हैं, हमारी सम्पत्ति। पहाड़ों की निलामी, वनों की बोली, तहस-नहस कर देती है माहौल को। पहाड़ टूट रहे हैं, वन कट रहे हैं। सुनसान, सपाट मैदानों में फड़फड़ाते डोल रहे हैं पंक्षी-परेवा।’3
मैत्रेयी के ‘अगनपाखी’ उपन्यास में भी बुन्देलखण्ड के जन जीवन की अज्ञानता, धर्मभीरूता, एवं कृषक शोषण आदि का चित्रांकन हुआ है। ‘नाना को आगे कुछ न सूझा। अमान सिंह और सोच भी क्या सकते थे सिवा इसके कि जो हुइहैं असल बुंदेला लै लैहें मुखिया कौ मूँड। किसी हथियार की जरूरत न पड़ी, हाथ-हथौड़ा हो गये। लोहे का षिकंजा बन गये। गले का फंदा.....। मौत के जितने साधन हो सकते थे, नाना के शरीर से ही बने। नानी बताती है- मुखिया ने दुनिया से विदा ली। सच ने अपना भाँड़ा खुद फोड़ा, नाना खुद ही कबूल गये हों, हाँ मैंने मारा है, क्योंकि मारने के काबिल था। अन्याय किसे अच्छा लगता है? मैं कायर नहीं।4 यहाँ पर अन्याय के विरुद्ध किसानों के विद्रोह का प्रदर्षन उन्हीं की बोली-भाषा में होता है।
लेखिका ने ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास में चित्रित किया है कि अभावग्रस्त जीवन जीते कबूतरा जाति के लोग जातिगत विद्वेष रूपी दंष को झेलते हुए अमानवीय जीवन जीने को बाध्य हैं-‘हम तो मरा मूसा भी खा लेते हैं। खाने और हगने की चिंता के सिवा और जिंदगी है क्या? 5 मैत्रेयी किस प्रकार मानवीय संवेदना की गहराई पर बैठकर अपराधी कही जाने वाली कबूतरा जाति की पीड़ा एवं विवषता को सभ्य समाज के सामने लाती हैं। यह उनका लेखकीय साहस व ऋषि दृष्टि है।
ग्राम्य जीवन की विविध परम्पराओं, रूढि़यों, रीति-रिवाजों को समस्यात्मक रूप में ‘बेतवा बहती रही’ उपन्यास में चित्रित किया गया है। बाल-विवाह के सम्बन्ध में दृष्टव्य है- ‘बैरागी का ब्याह बचपन में ही हो गया था। बुन्देलखण्ड की परम्परा के अनुसार माता-पिता द्वारा लिए गये निर्णय को तोड़ने का साहस कर पाना असंभव था, फिर भय भी तो रहता है कि यदि लड़के-लड़की ने किषोरावस्था पार कर ली तो कुँवारे ही रह जायेंगे। कहाँ मिलेगा बड़ी उमर का वर और कहाँ बैठी होगी इतनी उमर की कन्या। यादवों, लोधियों, कुर्मियों में यही धारणा शत-प्रतिषत अपना प्रभाव जमाए हुए है।’6
‘कही ईसुरी फाग’ उपन्यास में बुन्देलखण्ड के ग्रामीण जीवन एवं समाज के दोहरेपन, संकीर्ण मानसिकता तथा स्त्री के प्रति दुर्भावना व दुव्र्यवहार, स्वार्थपरता, परम्पराओं के प्रति मोह, रूढि़ग्रस्तता तथा असहिष्णुता आदि का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण है ‘सत्रह गाँवों की खाक छानकर आयी मैं ऋ़तु। जहाँ रजऊ की खोज में जाती वहाँ ईसुरी के निषान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेष्या का पता देना है। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आस-पास की स्त्री मानने से मुकर जाते।’ प्रारम्भ से ही बुन्देलखण्ड अंचल की सबसे बड़ी व चिंतनीय समस्या दस्युओं की रही है। जो मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में उभरकर सामने आता है- ‘डाकू और डकैती पहूज और चम्बल के भरकों में कोई नई बात नहीं। औरतों के गहने-गुरिया जान की फजीहत बने हुए थे।’7
इतना ही नहीं बुन्देलखण्ड के ग्रामीण विकास हेतु चलाई जा रही विविध योजनाओं का भी मानो लेखिका लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। सरकारी, गैर सरकारी षिक्षण संस्थानों, सरकारी योजनाओं तथा सर्व-षिक्षा अभियान का प्रयास बुन्देलखण्ड के ग्रामीण स्त्री षिक्षा एवं गरीब परिवार के बच्चों की षिक्षा के स्तर में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाये हैं। बालिका षिक्षा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए समस्या बनी हुई है। ‘इदन्नमम’ उपन्यास की नायिका मन्दा चाहते हुए भी पढ़ने की इच्छा पूरी नहीं कर पाती है-‘बऊ हम पढ़ने जाया करेंगे, उसने उत्साह में कह डाला। ‘पढ़वै’?, ‘हाँ बऊ, यहीं के स्कूल में छः में दाखिल हो जायंेगे।’ बऊ दो क्षण मौन हो देखती रही। ‘कल से ही जायेंगे बऊ। मकरन्द किताबें ला देंगे मांेठ से पइसा दे देना।’ ‘बेटा न, ना मन्दा।’ ‘‘ना क्यों बऊ’? ‘‘बिटिया और बालकों की होड़, जिद न करो तुम्हारा बाहर पढ़ना ही मुसीबत हो पडे़गा। मन्दा फिर क्या मालूम कि हम कितेक दिना तक रह पाते हैं जम के, कब उखड़ना पड़े यहाँ से।’8 षिक्षा एक बुनियादी आवष्यकता एवं अधिकार है किन्तु मंदा जैसी न जाने कितनी बालिकाएँ व स्त्रियाँ षिक्षा से वंचित रह जाती हैं। स्त्री षिक्षा जैसी सार्वभौमिक समस्या को लेखिका ने अपने षिल्प कौषल से आँचलिकता का रंग दिया है जो कथावस्तु को प्रमाणिक बना रहा है।
अंधविष्वास, धार्मिक रीति-रिवाजों, पूजा-पाठ और कर्मकाण्डों के चलते स्त्रियों का दैहिक तथा मानसिक शोषण ‘झूलानट’ में समस्या के रूप में चित्रित हुआ है- ‘इसके बाद व्रत-उपवासों का सिलसिला सोलह सोमवार, संतोषी माता के शुक्रवार, केला पूजन के बृहस्पतिवार, शनिग्रह शांति के शनिवार। भाभी सूख-सूख कर कांटा होती चली जा रही हैं। उनका रंग बेरौनक हो गया। चेहरा लंबोतरा, सुन्दर दाँत बाहर निकल आये, बाल किषन डर गया, उसने मंगलवार का व्रत अपने जिम्मे ले लिया।’9
धर्म के नाम पर ग्रामीण समाज की मनःस्थिति, अंधविष्वासों के प्रति समर्पण, साधु-संन्यासियों की ढपोलषंख बातें तथा तंत्र-मंत्र के बहाने कुण्ठित अवसरवादियों की सच्चाई को ‘अगनपाखी’ उपन्यास उजागर करता है। ‘जोगिया धोती पहने भुवन बड़े-बड़े मनकों की कंठी दिखाने लगी-देखो नीम का तेल, कपूर का धुआँ और कबूतर की देह जलाकर जोत जगाई थी। भभूत बनाकर तैयार की और बताया कि रोगी के माथे, कान और भुजाओं पर भभूत लगाओ, मंत्र पढ़ो और माला फेरो, दिनभर उपासे रहो, रात को दो केलों से व्रत तोड़ो, चटपटा, चिकनाई और खट्टा मत खाओ, खटिया पर सोना नहीं, कहीं आना-जाना नहीं, कंठी का परहेज है, माला गंगाजल के पानी से फूंकी थी, वही पानी हमारे ऊपर छिड़का, हम बेहोष हो गये। स्वामी के चरणों पर गिरे सो चोट नहीं आई।’10
‘चाक’ उपन्यास के विष्लेषण पर यह तथ्य सामने आता है कि वंष परम्परा के आधार पर रोजगार करने तथा सरकारी योजनाओं के प्रति ग्रामीण समाज की मानसिकता रूग्ण है। प्रतिभाषाली युवक रंजीत सरकारी योजना के अन्तर्गत गाँव में ही व्यापार करने की योजना को बनाता है किन्तु इसकी इस भावना को जानकर गाँव वाले उसे लगातार उपेक्षित और लांक्षित करते हैं- ‘मैंने कितने विष्वास और भरोसे से कहा था कि गाँव की पोखर में मैं मछलियां पालँूगा। तो लोग ऐसे देखने लगे जैसे मैं कसाईखाना खोलने जा रहा हंू। एक राय होकर कहा गया रंजीत, जिस गाँव में सक्का तक अण्डा, प्याज छिपाकर खाते हैं तू वहाँ मच्छी-गोस्त के ढेर लगाएगा। भइया षिवजी की मढि़या सौ कदम के फासले पर है यह अधरम, महापाप इस गाँव में तो मत करे।’11
इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों की कथा वस्तु को शहरी जीवन तथा शहरी सभ्यता से मुक्त कर उपेक्षित ग्रामीण जीवन में प्रतिष्ठित किया है। इनके कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन शहरी जीवन की चकाचैंध से दूर अपनी अलग पहचान व वैषिष्ट्य के साथ अभिव्यंजित है। बुन्देलखण्ड का पूरा का पूरा परिदृष्य गाँव की संस्कृति, ग्रामीण जीवन की समस्याओं, अन्धविष्वासों, रूढि़यों, अभावों, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों आदि का नयी चेतना, नई दृष्टि एवं नयी भावभंगिमा के साथ चित्रित हुआ है।
सन्दर्भ ग्रन्थः
1. रांग्रा रणवीर रांग्रा- समकालीन हिन्दी उपन्यास की भूमिका, पृ0सं0 72
2. दीक्षित दया - मैत्रेयी पुष्पा तथ्य और कथ्य, पृ0सं0 134
3. पुष्पा मैत्रेयी, इदन्नमम, पृ0सं0-357
4. पुष्पा मैत्रेयी, अगनपाखी, पृ0सं0-15
5. पुष्पा मैत्रेयी, अल्मा कबूतरी,, पृ0सं0-63
6. पुष्पा मैत्रेयी, बेतवा बहती रही, पृ0सं0-20
7. पुष्पा मैत्रेयी, कही ईसुरी फाग, पृ0सं0-14
8. पुष्पा मैत्रेयी, इदन्नमम, पृ0सं0-57
9. पुष्पा मैत्रेयी, झूला नट, पृ0सं0-43
10. पुष्पा मैत्रेयी, अगनपाखी, पृ0सं0-86
11. पुष्पा मैत्रेयी, चाक, पृ0सं0-53

डाॅ0 संध्या सचान
प्रवक्ता हिन्दी विभाग
श्री शक्ति डिग्री काॅलेज, कानपुर नगर, उ0प्र0