Wednesday 2 January 2013

धर्म और मध्यकालीन मूर्तिकला की परस्पर सहभागिता


सुनीता राय

भारतीय कला भारतीय धर्म और संस्कृति की मूर्त अभिव्यक्ति रही है जिसमें जीवन के विविध धार्मिक और लौकिक पक्षों को विस्तृत आयाम में रूपायित किया गया है। वस्तुतः भारतीय कला में देवता, मनुष्य, पशु और वनस्पति जगत को एक विराट सन्दर्भ में समष्टि के रूप में दर्शाया गया है। कला के विभिन्न माध्यमों- स्थापत्य, मूर्ति एवं चित्र में भारतीय समाज का सामूहिक अनुभव और चिंतन ही अभिव्यक्त हुआ है। कला के विभिन्न माध्यमों में मूर्तिकला निःसन्देह सर्वाधिक सशक्त और बहुआयामी रही है जिसमें धर्म और जीवन, काल एवं क्षेत्र के सन्दर्भ में विविधता और विस्तार के साथ व्यक्त हुआ है। मध्यकालीन मूर्तियों में जीवन का गहरा मर्म भी छिपा है। शिल्पी की तकनीकी दक्षता इन मूर्तियों में श्रेष्ठतम स्तर पर अभिव्यक्त हुई है। 1

भारतीय कला प्रारम्भ से ही धर्म से जुड़ी रही है, जिसमें धार्मिक भावनाओं एवं आस्थाओं की मूर्त अभिव्यक्ति हुई है। उसके विकास में समाज के सभी वर्गों का पूरा सहयोग और संरक्षण मिलता रहा है। मथुरा के कुषाणकालीन मूर्तिलेखों में श्रेष्ठिन, गन्धिक, स्वर्णकार आदि के आर्थिक सहयोग से सम्बन्धित उल्लेख उपर्युक्त तथ्य के साक्षी हैं। मध्यकालीन मूर्तिकला के अध्ययन में क्षेत्रीय कला शैलियों को किस दृष्टि से विभाजित किया जाय यह हमेशा विवाद का विषय रहा है। कला में शैलियां कभी भी राजवंशों से बंधी नहीं रही हैं, किन्तु इनमें क्षेत्रों का निश्चित ही अधिक महत्व रहा है। इसी दृष्टि से मध्यकालीन मूर्तिकला को उसकी शैलीगत विशेषताओं के अध्ययन के लिए मुख्यतः राजनीतिक या भौगोलिक आधार पर विभाजित किया गया है। मध्यकालीन मूर्तिकला के सन्दर्भ में शैली की दृष्टि से भौगोलिक क्षेत्र की प्रधान भूमिका के बाद भी अध्ययन की सुविधा तथा तिथि निर्धारण की दृष्टि से विभिन्न राजवंशों के आधार पर उनके समय और क्षेत्र में विकसित मूर्तिकला का अध्ययन ही अधिक सुविधाजनक और ग्राह्य प्रतीत होता है। लेकिन ऐसा करते समय इस बात पर ध्यान रहे कि किसी राजवंश के शासन क्षेत्र की मूर्तिकला के तत्व किस रूप और सीमा तक अन्य क्षेत्रों से सम्बन्धित और प्रभावित रहे हैं। उदाहरण के लिए महाबलिपुरम की पल्लवकालीन मूर्तियों का परवर्ती विकास तंजौर, गंगैकोण्डचोलपुरम एवं अन्य चोल कला केन्द्रों की मूर्तियों में देखा जा सकता है। कहीं-कहीं तो पूरे मूर्ति स्वरूप को ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में उसी रूप में ग्रहण किया गया। जैसे बादामी की गुफा सं0-1 की बहुमुखी नटराज मूर्ति की अनुकृति भुवनेश्वर के मन्दिर पर देखी जा सकती है।
डाॅ0 मारुतिनन्दन तिवारी और डाॅ0 कमलगिरि2 ने मध्यकालीन मूर्तिकला का प्रारम्भ सातवीं शती ई0 के प्रारम्भ से ही स्वीकार किया है और अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से मध्यकालीन मूर्तिकला को मुख्यतः दो युगों में बाँटा गया है-
1.प्रारम्भिक या पूर्व मध्यकाल (7वीं - 9वीं शती ई0) 2. मध्यकाल (10वीं - 13वीं ई0)
पूर्वमध्यकाल मूर्तिकला के विकास की दृष्टि से वस्तुतः संक्रमण काल रहा है जिसमें रूप और भावपक्ष के समन्वय की दृष्टि से श्रेष्ठ कलात्मक प्रवृत्तियों का स्थान धीरे-धीरे मध्ययुगीन प्रवृत्तियां ले रही थी, जिनमें क्षेत्रीय तत्वों की प्रधानता थी। निहार रंजन रे के अनुसार सातवीं शती ई0 के अंत और आठवीं शती ई0 के मध्य भारतीय मूर्तिकला एवं सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पक्षों में क्षेत्रीय भावना का प्रभाव क्रमशः बढ़ रहा था। एस0के0 सरस्वती3 के अनुसार आठवीं शती ई0 के मध्य के आस-पास भारतीय मूर्तिकला का मध्यकाल प्रारम्भ हुआ। सरस्वती जी ने यह भी उल्लेख किया है कि 8वीं शती ई0 और उसके बाद की मूर्तिकला में क्षेत्रीय विशेषताओं की प्रमुखता के बाद भी गुप्तकालीन कला का श्रेष्ठ एवं राष्ट्रीय स्वरूप पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था। वस्तुतः पूर्वकाल की गुप्तकालीन श्रेष्ठ कला परम्पराओं की नींव पर ही मध्ययुगीन मूर्तिकला का विकास हुआ जिसके अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में मूर्तिकला की क्षेत्रीय प्रवृत्तियां क्रमशः मुखर हुई। उनमें गुप्तशैली की मूर्तियों की शरीर रचना का स्वाभाविक एवं सहज प्रवाह, लयात्मकता, मृदुता तथा अलंकरणों का सहज और सौन्दर्यवृद्धि में सहायक साधन के रूप में अंकन क्रमशः शिथिल पड़ता गया। मध्यकालीन मूर्तिकला में उपर्युक्त विशेषताओं के स्थान पर क्रमशः नवीन तत्वों का प्रभाव बढ़ता गया जिनमें विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों की स्थापना के कारण मूर्ति लक्षणों की दृष्टि से विवरणों में वृद्धि हुई और साथ ही भाव एवं भंगिमाओं में कृत्रिमता और वक्रता या तीखापन आ गया, जो वाह्य दृष्टि से आकर्षक होते हुए भी सहज और स्वाभाविक नहीं था।
ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्म भारतीय परम्परा के तीन मुख्य धर्म रहे हैं। मौर्य, शंुग और कुषाण काल में विकास के उत्कर्ष पर पहुँचने वाला बौद्ध धर्म गुप्तकाल के बाद पूर्वी भारत (बिहार, बंगाल) के क्षेत्र में ही सीमित रह गया, जिसे पाल शासकों का समर्थन मिला। जैन धर्म अपने उदारवादी समन्वयात्मक दृष्टिकोण के कारण बिना किसी विशेष शासकीय संरक्षण के व्यापारियों एवं व्यवसायियों तथा सामान्य जनों के समर्थन के कारण लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय रहा। ब्राह्मण धर्म वैदिक परम्परा का प्राचीन धर्म था जिसके पाँच प्रमुख सम्प्रदायों वैष्णव, शैव, शाक्त, गाण्पत्य और सौर-से सम्बन्धित मन्दिरों और मूर्तियों के प्रभूत उदाहरण भारत के सभी क्षेत्रों में मिलते हैं। इनमें विष्णु और शिव से सम्बन्धित मंदिरों और मूर्तियों की प्रधानता रही है।
मध्ययुगीन कला सामान्यतः 12वीं या 13वीं शती के अंत में उत्तरी भारत और पूर्वी भारत में समाप्त हुई, किन्तु दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रभाव बाद में पहुँचने के कारण इस क्षेत्र में 16वीं शती ई0 तक मध्यकालीन मूर्तियों का निर्माण होता रहा। ये मूर्तियाँ प्रस्तर, धातु और मिट्टी तीनों की माध्यमों में बनीं।
लगभग सातवीं से 10वीं शती ई0 के मध्य तीनों धर्मों पर तांत्रिक प्रभाव के फलस्वरूप देवकुल की संख्या और स्वरूप दोनों में वृद्धि हुई। इसमें नवीन देवी-देवताओं की कल्पना के साथ ही शिव, विष्णु, शक्ति, गणेश और ऐसे ही जैन तीर्थंकरों एवं बौद्ध देवी-देवताओं के अनेक नवीन स्वरूपों की भी कल्पना की गयी। उदाहरण के लिए केवल शिव के ही सौम्य स्वरूपों के अन्तर्गत एकाकी शिव, उमा-महेश्वर, गंगाधर, दक्षिणामूर्ति, सदाशिव, नटराज, कल्याणसुन्दर, महेश, चन्द्रशेखर एवं अनुग्रह स्वरूपों के अन्तर्गत रावणानुग्रह, चण्डेशानुग्रह, विष्णवानुग्रह, किरातानुग्रह तथा संहार स्वरूपों के अन्तर्गत अन्धकासुर संहार, त्रिपुरान्तक, गजासुर संहार, यमान्तक, कामान्तक एवं कई अन्य स्वरूपों की कल्पना की गयी। देवकुल एवं देवस्वरूपों में वृद्धि के साथ ही मूर्तियों में प्रतिमालक्षण की दृष्टि से भी विकास हुआ। इस प्रक्रिया में न केवल विभिन्न स्वरूपों के बीच आदान-प्रदान हुआ, बल्कि विभिन्न देवताओं के हाथों की संख्या एवं उनमें प्रदर्शित आयुधों तथा परिकर की सहायक आकृतियों की संख्या में भी क्रमशः वृद्धि हुई। विवरण में वृद्धि के कारण विभिन्न देवताओं के अलग-अलग स्वरूपों की लाक्षणिक विशेषताएं निरूपित की गयी और ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन परम्पराओं में विभिन्न शिल्पशास्त्रों की रचना की गयी, जिनमें देवमूर्तियों की विशिष्ट शास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक विशेषताएं नियत हुई। इन शिल्पशास्त्रों में देवमूर्तियों के सार्वभौमिक रूप के साथ ही क्षेत्रीय विशेषताएं भी देखी जा सकती हैं। ब्राह्मण प्रतिमालाक्षणिक ग्रन्थों में अपराजितपृच्छा, रूपमण्डन, अंशुमद्भेदागम, कामिकागम, सुप्रभेदागम, रूपप्रकाश आदि की रचना हुई। इस स्थिति में देवमूर्तियों के शिल्पांकन में कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता क्रमशः समाप्त होती गयी और शास्त्रीय परम्पराओं के प्रति प्रतिबद्धता या शास्त्रीय विवरणों के पालन की बाध्यता के कारण मूर्तियों में धीरे-धीरे यांत्रिकता का भाव बढ़ता गया और उनमें लक्षणों और विवरणों की प्रधानता हो गयी।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. मिश्र रमानाथ, भारतीय मूर्तिकला, दिल्ली, 1978, पृष्ठ संख्या 11-15;
2. अग्रवाल बी0एस0, स्टडीज इन इण्डियन आर्ट, वाराणसी, 1965, पृष्ठ संख्या 257-60
3.मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला, पृष्ठ संख्या 9
4.ए सर्वे आॅफ इण्डियन स्कल्पचर, कलकत्ता, 1957, पृष्ठ संख्या 119-87
5.जर्नल आॅफ द उ0प्र0 हिस्टोरिकल सोसायटी, 1940
6.तिवारी मारुति नन्दन, मध्यकालीन भारतीय प्रतिमा लक्षण, वाराणसी, 1997
7.बनर्जी जे0 एन0, उेवलपमेण्ट अॅाफ हिन्दू आइकानोग्राफी, कलकत्ता, 1980

सुनीता राय
शोध छात्रा
प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद