Wednesday 2 January 2013

दक्षिण-एषिया में सैन्य-नागरिक सम्बन्ध


विवेक कुमार सिंह
 
दक्षिण एशिया में घटित कई नवीनतम घटनाओं ने ‘सैन्य-नागरिक सम्बन्ध’ से सम्बंधित विचारों को एक बार पुनः ज्वलंत बना दिया हैं। एक तरफ जहाँ पाकिस्तान में मेमोगेट प्रकरण के बाद सेना-सरकार- न्यायपालिका के मध्य टकराहट को उजागर किया वहीं भारत में सेना के जनरल की जन्मतिथि से सम्बंधित विवाद ने कई राजनीतिक मोड़ लिये, मालदीव में राष्ट्रपति का अपने पद से इस्तीफा देना, नेपाल में शांति समझौता, बांग्लादेश में स्वयं सेना द्वारा तख्तापलट की कार्यवाही को विफल करना इत्यादि ने व्यापक रूप ‘सैन्य-नागरिक सम्बंध’ के विचारों को प्रभावित किया है।

सैन्य-नागरिक संबंध का निर्धारण प्रमुख रूप से नागरिक (राजनीतिज्ञ), समाज का प्रबुद्ध वर्ग एवं सैनिकों द्वारा किया जाता है। वस्तुतः सेना व समाज के बीच संबंध राज्य की उत्पत्ति के समय से विद्यमान है। प्राचीन समय से शासन का मुख्य आधार सेना (दण्ड) को ही माना गया है लेकिन अधिकांशतः राजशाही व्यवस्था के कारण राजा सैन्य व राजनैतिक दोनों विभागों का सर्वेसर्वा हुआ करता था तथा जनता का सैन्य मामलों में दखल न के बराबर थी। इसलिए उस समय सैनिक-असैनिक संबंधो पर जोर नहीं दिया जाता था।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही सेना व समाज के मध्य संबंधों की धारणा पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा, और सेना का राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में क्या योगदान होना चाहिए, क्या सेना को राजनीति (शासन) करना चाहिए या उसे केवल राजनीतिक व्यवस्था का अंग ही होना चाहिए आदि प्रश्न काफी महत्वपूर्ण हो गये।
सैन्य नागरिक संबंध से संबंधित सिद्धान्त:-
सेना व नागरिक संबंध को सुचारू रूप से चलाने के लिए राजनीतिक पार्टियां, राजनेता तथा प्रजातांत्रिक संस्थाएं नागरिक पक्ष में तथा सैनिक पक्ष में रक्षा व्यय, सेना में भर्ती, सैन्य साधनों की उपलब्धता तथा सामाजिक पक्ष में आर्थिक विकास, सामाजिक संरचना एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है सेना समाज (नागरिक) के संबंध को लेकर निम्न सिद्धांत प्रचलन में है।
1. पश्चिमी व्यवस्था:- इसका विकास यूरोपीय देशों में हुआ जिसमें कि नागरिक ही सैन्य व असैन्य दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अधिकतर देशों में नागरिक वर्ग ही सेना को लोकतांत्रिक पद्वति द्वारा संसद के माध्यम से नियंत्रित करती है।
2. साम्यवादी व्यवस्था:- इसमें राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष अपने हिसाब से केन्द्रीय रूप में सेना के क्रियाकलापों की निगरानी करते हैं।
3. तानाशाही व्यवस्था:- इसमें सेना ही शासन चलाती है तथा देश का शासनाध्यक्ष कोई सैन्य संबंधी व्यक्ति होता है।
4. मिश्रित व्यवस्था:- इसमें कुछ समय तक सेना तथा कुछ समय तक नागरिक एक दूसरे पर हावी रहते हैं।
5. राजशाही व्यवस्था:- इसमें सेना आम नागरिकों की बजाय किसी केन्द्रीय व्यक्ति के प्रति वफादार होती है। यह काफी हद तक तानाशाही व्यवस्था के समान होती है, अंतर सिर्फ इतना होता है कि तानाशाही व्यवस्था में सेना स्वयं शासन चलाती है जबकि राजशाही में व्यक्ति सेना की मदद से शासन चलाता है।
पृष्ठभूमि
दक्षिण-एशिया के तीन प्रमुख राष्ट्र भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादश ने स्वतंत्रता के पश्चात् लोकतंत्र को अपनाया किन्तु कुछ समय पश्चात् पाकिस्तान एवं बांग्लादेश अपनी लोकतांत्रिक पद्वति को कायम रखने में असफल रहें वहीं दूसरी ओर भारत सेना का नागरिक क्षेत्र में हस्तक्षेप रोकने में सफल रहा इसके कारण निम्नवत् हैः-
जिस समय भारत स्वतंत्र हुआ उस समय कांग्रेस पार्टी तथा प्रशासनिक संगठन जो हमें अंग्रेजों से प्राप्त हुआ के ऊपर देश की पूर्ण जिम्मेदारी आ गयी इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य था कैंब्रिज शिक्षित और ब्रिटिश मानसिक संपदा से प्रभावित, नये राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा नीति निर्माण और योजना प्रक्रिया से अलग रखना तय किया।1 इस प्रकार नेहरू ने एक राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक ढांचा, मजबूत प्रजातंत्र, कानून के प्रति आदर और गुटनिरपेक्ष विदेशनीति प्रदान की जिससे भारत तृतीय विश्व में एक स्थायी राजनीतिक इकाई बना।
इसके विपरीत पाकिस्तान द्वारा ैम्।ज्व् और ब्म्छज्व् में सम्मिलित होना तथा यू0एस0 सैन्य सहायता ने पाकिस्तान सेना की क्षमता बढ़ा दी।2 इस प्रकार पाकिस्तानी सेना का विकास नागरिक क्षेत्र की अपेक्षा जल्दी हुआ जिसने की सेना के अंदर विश्वास जगाया। हंटिंग्टन के अनुसार- ‘‘राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप का सबसे महत्वपूर्ण कारण सैन्य नहीं बल्कि राजनीतिक है और न ही यह सैन्य संस्थान के सामाजिक और संगठनात्मक चरित्र का प्रतिबिम्ब है बल्कि राजनीतिक एवं समाज के संस्थागत ढांचे का3’’ साथ ही नागरिक समाज और सैन्य संस्था के मध्य शक्ति संबंधी संबंध को स्पष्ट करते हुये राय व्यक्त करते हैं कि नागरिक समाज का कम से कम आर्थिक रूप में मजबूत होना सेना को नागरिक प्रशासन में हस्तक्षेप से रोकती है।
सैन्य शासन के लिए उच्च स्तर का सैन्य व्यय न तो पर्याप्त और न ही आवश्यक परिस्थिति है।4 क्योंकि 1960 से 1986 के मध्य जहाँ भारत का सैन्य व्यय ळक्च् का 1ण्9ः से 3ण्7ः पाकिस्तान का 2ण्8ः से 6ण्7ः एवं बांग्लादेश का 1973 से 1986 के मध्य व्यय 0ण्5ः से 1ण्5ः के मध्य रहा5 इस प्रकार कम रक्षा व्यय होने के बावजूद बांग्लादेश में सैन्य हस्तक्षेप हुआ।
राजनीतिक रूप से परिपक्व नागरिक समाज में इसके अवसर कम होते हैं कि सेना सुधार हेतु हस्तक्षेप करेंगी।6 जहाँ भारत में नेहरू, पटेल, इन्दिरा गांधी तथा राजीव गांधी ने मजबूत राजनीतिक स्थिरता प्रदान की तथा इन्होंने पार्टी के मुखिया के बजाय भारत सरकार के मुखिया के तौर पर कार्य किया तथा इसके विपरीत पाकिस्तान में जिन्ना एवं भुट्टो तथा बांग्लादेश मंे मुजिब ने पार्टी चीफ की तरह कार्य किया तब सरकार के मुखिया के तौर पर7 इसने राजनीतिक अस्थिरता एवं असंतोष को जन्म दिया। इस प्रकार मजबूत राजनीति संस्थान के अभाव या कमजोर स्थिति में सेना अकसर अपनी संबंधता को नागरिक समाज में फैलाने का प्रयत्न करती है संक्रमित शासन पद्वति से अधिक स्थायी सभ्य राष्ट्र बनाने हेतु लोकप्रिय सहयोग का बड़ा आधार बनाकर8 और ऐसा ही पाकिस्तान में अयूब खां, याहिया खाँ, जिया-उल-हक, परवेज मुशर्रफ तथा बांग्लादेश में जनरल जियाउर्रहमान एवम इरशाद के सैन्य हस्तक्षेप के बाद हुआ।
साथ ही साथ सैन्य नेतृत्व अक्सर अपने नियमों को न्याययुक्त करने के लिए सीधा मत लेना, चालाकी से चुनाव करना इलेक्टोरल कालेज, नयी राजनीतिक पार्टी या उभरती हुई राजनीति पार्टी का प्रयोग करते है।9 इसी आधार पर जहाँ अयूब ने अपने  आप को प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किया वहीं इरशाद एवं जियाउर्रहमान ने क्रमशः जातीय दल एवं बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया। आज ‘निर्देशित लोकतंत्र’ की अवधारणा उभर रही है। निर्देशित लोकतंत्र की अवधारणा में सत्ता की वास्तविक शक्ति सरकार के पास न होकर कहीं अन्यत्र होती है। उदाहरण पाकिस्तान को मान सकते है।
जब सेना का उपयोग नागरिक सहायता के लिए अधिक किया जाता है तो उसका महत्व बढ़ जाता है। पाकिस्तान में इसी कारण सेना का महत्व अधिक है। तथा सेना का नागरिक क्षेत्र में अधिक हस्तक्षेप है। कराची (1949) एवं ढाका (1950) के दंगे, पूर्व पाकिस्तान (1952) के भाषायी दंगे, पंजाब के प्रति अहमदिया दंगे (1953) आदि ने पाकिस्तानी सेना को नागरिक प्रशासन को सीधे चलाने का अनुभव दिया10 इसके  विपरीत भारत में अर्धसैनिक बल जैसे- ब्त्च्थ्ए प्ज्ठच्ए ठैथ्ए च्।ब् इत्यादि का उपयोग नागरिक सहायता के लिए अधिकांशतः किया जाता है केवल कुछ परिस्थितियों में ही सेना को नागरिक कार्य के लिए बुलाया जाता है और नागरिक क्षेत्र में आने के पश्चात् सेना को नागरिक प्रशासन के अधीन कार्य करना पड़ता है।
भारतीय संविधान में भारत की सेनाओं का सर्वाेच्च सेनापति भारत के राष्ट्रपति को बनाया गया। संविधान की धारा 53 के अनुसार संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में निहित होगा।11 परन्तु वास्तविकता में प्रधानमंत्री तथा मंत्रीमण्डल के पास वास्तविक ताकत रखी गयी केन्द्र की बिना आज्ञा कोई भी राज्य अर्धसैनिक बल का विकास नहीं कर सकता है।
जिस समाज में अथवा जिस देश में जितनी अधिक विभिन्नताएं होती है सेना को राजनीति में आने की संभावना उतनी कम हो जाती है भारत के बड़े आकार तथा भारत की विभिन्नताओ में सेना को सत्ता में आने से रोका। जहाँ भारत की सेना मंे विभिन्न प्रांतो का समुचित प्रतिनिधित्व है वहीं पाकिस्तानी सेना पंजाबी बाहुल्य है। भारत में सेना में विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों के वजह से सबका एक मत होना मुश्किल है जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म के नाम पर सैनिक ताकत की बात होती है।
भारत में सेना की तीनों अंगों को बराबर का दर्जा दिया गया। 1953 मंे कमाण्डर-इन-चीफ का पद समाप्त करके तीनों सेना के तीनों अंगो के लिए चीफ-आॅफ-स्टाफ पद की व्यवस्था की गयी  तथा रक्षा सचिव जनरल के बराबर का ओहदा दिया गया परन्तु सेना के तीनों अंगो के चीफ-आॅफ स्टाफ को रक्षा सचिव के अधीन ही कार्य करना होता है। साथ ही साथ सेना के तीनों सेनाध्यक्षों को रक्षा सचिव के माध्यम से रक्षा मंत्री से कार्य करना होता है जबकि यह दोनों ही गैर सैनिक होते हैं।
भारत में रक्षा मंत्री के अधिकार सेनाध्यक्षों के अधिकार से अधिक होते हैं तथा मंत्रिमण्डल को सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होते हैं इसके अतिरिक्त कई विभिन्न समितियां होती है जिनके माध्यम से रक्षामंत्री को गैर सैनिक रक्षा विशेषज्ञ प्राप्त होते हैं। इनके माध्यम से रक्षा संबंधी नीति तय करने में गैर सैनिकों का एक महत्वपूर्ण अनुदान होता है। भारत में मंत्रिमण्डल में फौज का प्रतिनिधि नहीं होता है जैसा कि पाकिस्तान में है।
भारत में आज भी सेना को नागरिकों से ज्यादा संपर्क स्थापित नहीं करने दिया गया और आज भी इनको कैंपो तथा कैंटोमेंट में ही रखा जाता है ताकि सेना समाज की बुरी आदत से दूर रहे तथा आम जनता के बीच इनका भय और सम्मान बना रहे लेकिन साथ ही साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के आंतरिक खतरों से निपटने हेतु सेना को सफलता के लिए नागरिक सहयोग की आवश्यकता होती है। यद्यिप वर्तमान समय में मीडिया के बढ़ते प्रभाव से कुछ परिवर्तन जरूर हुआ है फिर भी यह एक ऐसा संगठन है जिसकी कार्य प्रणाली के बारे में सामान्य नागरिकों को ज्यादा जानकारी नहीं है। भारत में नागरिक प्रशासन का सेना के ऊपर नियंत्रण है यद्यपि कई बार सेना का नियंत्रण जो कि नागरिक हाथों में होता है को निर्णय लेने में कठिनाई होती है। क्योंकि एक नागरिक सैन्य जटिलताओं को समझने में गलती कर सकता है क्योंकि उसे इस तरह का प्रशिक्षण व अनुभव नहीं मिला होता है जैसा कि सेना को दिया जाता है। इसलिए फौज के स्त्रातेजिक एक कूटनीतिक निर्णयों में नागरिक भागीदारी कम करनी होगी।
आज सुरक्षा के बदलते परिवेश की वजह से सैन्य-नागरिक सम्बन्धांे की पुनर्रचना की आवश्यकता महसूस की जा रही है। आज किसी भी राष्ट्र को वाह्य सैन्य खतरे की बजाय वाह्य प्रायोजित आन्तिरक सुरक्षा समस्या से अधिक जूझना पड़ रहा है। 26/11 के मुम्बई आतंकी हमले के पश्चात सैन्य-नागरिक सम्बन्धो में दूरी की वजह से उत्पन्न हुई सुरक्षा समस्या को दृष्टिगत रखा जा सकता है जहाँ सुरक्षा चूक हेतु आरोप-प्रत्यारोप का लम्बा दौर चला।
जहाँ पहले सम्बन्धों में प्रायः दूरी रहती थी, वहीं पर अब सम्मान एवं भय का स्तर बनाये रखते हुये इनके मध्य नजदीकी लाने का प्रयास हो रहा है। जैसे- सेना अस्पताल एवं सेना स्कूल में अब नागरिक क्षेत्र के लोग भी सेवा ले सकते हैं। जम्मू एवं कश्मीर जैसे क्षेत्रों में सेना नागरिक प्रशासन के साथ सहयोग कर रही है। विभिन्न जगहो पर सेना द्वारा सैन्य प्रदर्शनी लगा करके नागरिक क्षेत्रो के लोगो की सेना एवं सुरक्षा परिदृश्य के प्रति जागरूकता लाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
दक्षिण एशियाई राष्ट्रों में नवीनतम् घटनाक्रम के अनुरूप सैन्य-नागरिक सम्बन्ध:-
एक विफल राष्ट्र के रूप में एवं विश्व के सर्वाधिक खतरनाक क्षेत्र के रूप में चर्चित पाकिस्तान में सत्ता का स्रोत पाकिस्तान की जनता नहीं है बल्कि वहाँ सत्ता के कई खिलाड़ी हैं- सेना, खुफिया एजेंसियां, जेहादी तत्व, आतंकवादी राजनीतिक दल, सक्रिय न्यायपालिका एवं बाहरी देश।
2 मई, 2011 को ऐबटावाद में एकतरफा अमेरिकी आॅपरेशन में लादेन के मारे जाने के बाद, पाकिस्तान की जनता एवं सेना सभी में रोष है। विदेशी उलझाव ने पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठानों-सेना, संघीय सिविल सरकार एवं विगत पाँच वर्षों से कुछ ज्यादा ही सक्रिय हुई न्यायपालिका के बीच टकराव को उत्पन्न किया है।
पाकिस्तान की संघीय सिविल सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट में ताजा टकराव वर्ष 2007 में मुशर्रफ द्वारा जारी किए गए ‘राष्ट्रीय सुलह अध्यादेश’ को लेकर है। इस आध्यादेश को जिसके तहत पाकिस्तान के अनेक प्रमुख नेताओं समेत 8,000 से भी अधिक लोगों को भ्रष्टाचार एवं अन्य अनेक गंभीर आरोपों से क्षमादान मिल चुका था, सुप्रीम कोर्ट ने दिसम्बर, 2009 में अवैध घोषित कर दिया था।
पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र की प्रस्थापना के लिए वहां की जनता एवं बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा। न्यायिक सक्रियता एक हद तक ही लोकतंत्र के लिए ठीक है। स्थिर पाकिस्तान न केवल पाकिस्तानी जनता के हित में है अपितु, दक्षिण एशिया एवं समूचे विश्व के हित में भी है।
बांग्लादेश में अभी कुछ समय पूर्व ही सेना के छोटे अधिकारियों द्वारा सैन्य तख्तापलट की साजिश का पर्दाफाश स्वयं सेना द्वारा ही किया गया जोकि वास्तव में बांग्लादेशी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।
मालदीव में जनवरी 2012 में एक वरिष्ठ न्यायाधीश अब्दुल्ला मोहम्मद को सेना द्वारा गिरफ्तार करने के पश्चात हुए व्यापक उठापटक के बाद अन्ततः मोहम्मद नशीद को पद से त्यागपत्र देना पड़ा तथा उपराष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन ने कार्यभार ग्रहण किया। मोहम्मद नशीद एवं उनके समर्थकों ने इसे सैन्य तख्तापलट की संज्ञा दी है, वहीं कतिपय विश्लेषकों ने इसे पुलिस विद्रोह एवं बलात् सत्ता परिवर्तन माना है।
नेपाल में वर्ष 2006 के विस्तृत शांति समझौते के साथ नेपाल में माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे एक दशक पुराने गृह युद्ध की समापित हुयी थी, तथा तद्नुसार वहाँ 239 वर्ष पुराने राजतंत्र के स्थान पर गणतंत्र की स्थापना हुयी थी। परन्तु कतिपय मुद्दों को लेकर माओवादी दल और नेपाल के अन्य प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच गतिरोध जारी था जिससे जहाँ नेपाल को विगत 4 वर्षों में 4 प्रधामंत्री देखने पड़े वहीं दूसरी ओर नेपाल के नए संविधान का निर्माण कार्य भी अवरोधित होता रहा। अंततः नवम्बर 2011 के प्रारम्भ में नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों के मध्य एक महत्वपूर्ण शांति समझौता संपन्न हुआ जिसे 2006 के सीपीए के क्रियान्वयन की दिशा में अत्यावश्यक कदम माना गया है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि नागरिक समाज के कमजोर होने पर ही सेना हस्तक्षेप हेतु प्रयास करती है तथा वर्तमान समय में दक्षिण एशिया के राष्ट्रों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नागरिक प्रशासन का ही सैन्य प्रशासन के ऊपर नियंत्रण है जो कि दक्षिण एशिया में स्थायित्व हेतु आवश्यक है।
सन्दर्भ सूची
1ण् ब्वीमदण् ैण्च्ण्ए 1971ए ज्ीम प्दकपंद ।तउल ठमतामसमल रू न्दपअमतेपजल व िब्ंसपवितदपं चतमेेए चह 173.74ण्
2ण् ज्ञनातमरं टममदंए 1991ए ब्पअपस.डपसपजंतल त्मसंजपवदे पद ैवनजी ।ेपं ैंहम च्नइसपबंजपवदए च्ंहम. 237
3ण् भ्नदजपदहजवदण् ेए 1968ए चवसपजपबंस वतकमत पद बींदहपदह ैवबपमजपमेए छमू ींअमदए बजरू लंसम न्दपअमतेपजल चतमेेए चंहम 194ए 196ण्
4ण् ज्ञनातमरं टममदंए 1991ए ब्पअपस.डपसपजंतल त्मसंजपवदे पद ैवनजी ।ेपं ैंहम च्नइसपबंजपवदए च्ंहम. 134
5ण् ैप्च्त्प् लमंत इववा ब्ंउइतपकहम ंदक उंेेण् ज्ीम डपज चतमेे 1974 जव 1989ण्
6ण् च्मतसउनजजमतए ।ण्ए 1977ए ज्ीम डपसपजंतल ंदक च्वसपजपबे पद उवकमतद जपउमेए छमू ींअमद ब्ज्रू ल्ंसम न्दपअमतेपजल च्तमेेए चंहम.9
7ण् ज्ञनातमरं टममदंए 1991ए ब्पअपस.डपसपजंतल त्मसंजपवदे पद ैवनजी ।ेपं ैंहम च्नइसपबंजपवदए चंहम. 126ण्
8ण् ॅमसबीए ब्ण्म्ण्ए 1974ए डपसपजंतल तवसम ंदक त्नसम रू चमतेचमबजपअम व िब्पअपस.डपसपजंतल त्मसंजपवदे छवत ैबपजनंजम ड।रू क्नगइनतल चतमेेए चंहम 35ण्
9ण् श्रंदवूपज्रण् डए 1964ए ज्ीम डपसपजंतल पद जीम च्वसपजपबंस क्मअमसवचउमदज व िछमू दंजपवदे ब्ीपबंहवए ज्ीम न्दपअमतेपजल व िब्ीपबंहव चतमेेए चंहम. 221ण्
10ण्ज्ञनातमरं टममदंए 1991ए ब्पअपस.डपसपजंतल त्मसंजपवदे पद ैवनजी ।ेपं ैंहम च्नइसपबंजपवदए च्ंहम.4
  11ण्त्ंपण् स्ण् 1990ए ब्वदेजपजनजपवद व िप्दकपंए चंहम.45
विवेक कुमार सिंह
शोध छात्र,
रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।