Wednesday 31 December 2008

प्रतिभा वाक्यार्थ


प्रो0 डी0 एन0 तिवारी 
प्रोफेसर, दर्शन एवं धर्म विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी


वाक्यार्थ सम्बन्धी विभिन्न प्रकारक सिद्धान्तों की समीक्षा करने के उपरान्त (भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में) वैयाकरण मतानुसार अखण्ड, आन्तरिक और बोध रूप शब्द को स्फोट तथा इससे अभिन्न रूप  में प्रकाशित अर्थ को वाक्यार्थ या प्रतिभा कहा है। प्रतिभा बुद्धि में शब्द से अभिन्न रूप में प्रकाशित नवोन्मेष है। इस प्रकार स्फोट अर्थ प्रकाशक शब्द है और इससे अभिन्न रूप  से प्रकाशित अखण्ड प्रतिभा भी बोध रूप है।
भर्तृहरि के कुछ विद्वान प्रतिभा को बुद्धि और वाक्यार्थ को बुद्धि में प्रकाशित विषय के रूप में व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार वाक्यार्थ वस्तुतः प्रतिभा का विषय होता है किन्तु साधारणतया प्रतिभा को ही वाक्यार्थ कह दिया जाता है। बुद्धि में जो अर्थ या विषय प्रकाशित होता है उसे प्रतिभा के साथ तारतम्य रूप मान लेने पर कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उस स्थिति में भी वाक्यार्थ विचार रूप या बोध रूप उन्मेष ही रहता है। प्रतिभा पर गम्भीर विचार करने के पूर्व यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि भर्तृहरि के अनुसार स्फोट-वाक्य है (क्योंकि यह एक अखण्ड, आन्तरिक, पूर्ण एकार्थ की इकाई है) और इसके द्वारा अभिन्न रूप से प्रकाशित अर्थ प्रतिभा है।
वाक्यार्थ रूप में प्रतिभा भाषा के द्वारा अभिन्न रूप से बुद्धि में प्रकाशित सत्ता है- चूॅकि यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष की वस्तु नहीं है इसलिए ‘यह’, ‘वह’ इन शब्दों के द्वारा संकेतित वस्तु के रूप में इसे नहीं कहा जा सकता है। प्रत्यक्ष के अभाव में व्याप्ति नहीं बन सकती अतः अनुमान से भी इसे ज्ञात नहीं माना जा सकता। अन्य प्रमाणों के द्वारा भी यह ज्ञात नहीं सिद्ध किया जा सकता है। जो भी हो, प्रत्यक्ष (इन्द्रिय प्रत्यक्ष) न होने मात्र के आधार पर इसे अस्वीकृत भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बुद्धि में स्फोट से प्रकाशित बोध है, सत्य ज्ञान है। इसको नकारने के लिए भी प्रतिभा की आवश्यकता है। बिना प्रतिभा के उन्मेष के किसी को नकारा भी नहीं जा सकता है। अन्तःकरण सिद्ध सघोप्रत्यक्ष बोध को नकारना जगदान्ध की तरह होगा।
के0 ए0 सुब्रमनियम अय्यर और फर्नान्दों टोला तथा कार्मन ड्रेगनोरी ने उन विभिन्न अर्थों को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है जिन अर्थों में प्रतिभा शब्द का प्रयोग भारतीय परम्परा में हुआ है। यहाँ हम प्रतिभा के धार्मिक अनुभूति, प्रतिभा की सर्जनात्मक शक्ति, कवि की सर्जना, ज्ञान के अनुभूतिमूलक तत्त्व, रहस्यात्मक ज्ञान, ज्ञान की बुद्धि, योग की प्रतिभा रूप में प्रतिभा की अवधारणाओं पर विचार नहीं करेंगे अपितु स्फोट द्वारा प्रकाशित अर्थ या वाक्यार्थ रूप में प्रतिभा वाक्यों या शब्दों (यदि उनसे एक इकाई अर्थ प्रकाशित होता है) द्वारा व्यक्त अर्थ है और यह अर्थ अखण्ड शब्दानुविद्ध बोध-रूप  होने से प्रतिभा कहलाता है। द्वैतभाव से देखने पर शब्द या प्रकाशक की दृष्टि से यह स्फोट तथा उसके द्वारा अभिन्न रूप से प्रकाशित अर्थ की दृष्टि से यह पूर्वबोध की इकाई प्रतिभा कहलाती है। और स्फोट तथा प्रतिभा दोनों बुद्धि में प्रकाशित ज्ञान के ही प्रकाशक प्रकाशित रूप हैं, उनकी उपचार सत्ता स्वीकार की गयी है। वे सभी सत्ताएँ जो शब्दों द्वारा बुद्धि में प्रकाशित होती है उपचार सत्ता कहलाती है। (इन्हें वाह्य सत्ता के विरूद्ध उपचार सत्ता कहते हैं क्योंकि व्याकरण दर्शन विचार को भी सत्ता मानता है।)
अर्थ के रूप में प्रतिभा एक संप्रेषणीय सत्ता है। एक ही प्रतिभा जो वाक्य से प्रकाशित होती है, विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली ध्वनियों अथवा संकेतों से संप्रेषणीय है। राम पढ़ता है, रामः पठिति, त्।ड। त्म्।क्ै इन सभी ध्वनियों या लिपियों से एक ही वाक्य और उससे अभिन्न रूप से एक ही प्रतिभा प्रकाशित होती है। यदि प्रतिभा को स्फोट की तरह सर्वगत न माना जाए तो वक्ता और स्रोता में संप्रेषण सम्भव नहीं होता। जो लोग संकेताक्षरों एवं ध्वनियों तक भाषा को सीमित मानते हैं वे विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न तरह से प्रयुक्त होने वाले संकेताक्षरों या ध्वनियों से ‘राम पढ़ता है’, ‘रामः पठति’, ष्त्।ड। त्म्।क्ैष् द्वारा सम्प्रेषित की व्याख्या नहीं कर सकते। यही नहीं कोई संकेताक्षर (उदाहरण    
के लिए ’क’ षंष् ) के द्वारा तादात्मय बोध एक सामान्य वर्ण ‘क’ (संस्कृताक्षर ध्वनि प्रधान भाषा होने से सामान्य वर्ण ‘क’ को उदाहरण के रूप में लिया है) एक स्थिर विचार रूप अर्थ की आवश्यकता होती है और यह सर्वगत होने से विभिन्न बोलियों या भाषाओं में लिपियों या ध्वनियों द्वारा व्यक्त होता है। क्षणिक ध्वनियाँ या प्रत्येक लिखावट में भिन्न-भिन्न दिखने वाला वर्ण ‘क’ का अनुवाद या संप्रेषणीयता संभव नहीं है। यदि किसी विदेशी भाषा का कोई वाक्य (जैसे त्ंउं त्मंके ठववा ) मुझे अनुवाद करने के लिए दिया जाए तो उसका अनुवाद हिन्दी संस्कृत या किसी अन्य भाषा की लिपियों या ध्वनियों में मैं तब तक नहीं कर सकता जब तक उस विदेशी भाषा के वाक्य से हमारी बुद्धि में प्रतिभा या अर्थ प्रकाशित न हो। वाक्यार्थ प्रतिभा है और वाक्य से बुद्धि में प्रकाशित प्रतिभा या वाक्यार्थ वाक्य से अभिन्न रूप से अनुविद्ध होता है।
भर्तृहरि के दर्शन में प्रतिभा प्रतिभा के होने पर वह इतिकत्र्तव्यत्ता के प्रेरक रूप  में कार्य करती है। भर्तृहरि और उनके व्याख्याकार पुष्यराज ने प्रतिभा द्वारा उत्पन्न कत्र्तव्य या इतिकत्र्तव्यता की प्रेरक की चर्चा के सम्बन्ध में कुछ ऐसे उदाहरण दिए है जिसके आधार पर कोई भी भ्रमित हो जाता है। इसे कीट, पक्षी आदि में पायी जाने वाली स्वाभाविक वृत्ति के रूप में समझ सकता है। इस बात में शंका नहीं की जा सकती कि सभी प्राणियों में इतिकत्र्तव्यता (करें, ना करें, अन्यथा करें) का प्रेरक प्रतिभा ही होती है क्योंकि प्रतिभा के अतिरिक्त कोई दूसरा कत्र्तव्य का प्रेरक है ही नहीं। यहाँ तक की ऐसे प्राणियों कीट आदि जो (स्वाभाविक वृत्ति) या यान्त्रिक रूप से गति करते हैं के अर्थों का प्रेरक भी प्रतिभा होती है किन्तु प्रतिभा को उन प्रेरक आदि के साथ तादात्मय नहीं मान सकते क्योंकि वह प्रेरक आदि का प्रेरक विषय ही होता है। सभी प्राणियों के प्रत्येक प्रकार के कार्यों के कारण या उन कार्यों का प्रेरक प्रतिभा स्फोट से प्रकाशित इकाई होती है और सर्वगत होती है। स्फोट अर्थ प्रकाशक इकाई है जो लिपियाँ, ध्वनियाँ या संकेतों से अभिव्यक्त होने पर अपना प्रकाश करती है। जो प्राणी हम लोगों की बोलियाँ, संकेतों को नहीं प्रयोग करते उनमें यह ध्वनि आगम या चेष्टाओं के द्वारा व्यक्त होती है और योगी आदि के स्थिति में बिना किसी ध्वनि, संकेतों या चेष्टा के ही यह सीधे प्रकाशित हो जाती है। जो भी हो सभी स्थितियों में सभी प्राणियों के सभी प्रकार के व्यवहारों का प्रतिभा के अतिरिक्त दूसरा कोई कारण नहीं है। यह व्याख्या उचित प्रतीत होती है क्योंकि स्फोट तथा उससे अभिन्न रूप से प्रकाशित प्रतिभा दोनों भर्तृहरि के अनुसार सर्वगत है। आगे इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा होगी किन्तु उससे पूर्व इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि यदि स्फोट और प्रतिभा दोनों बुद्धि में प्रदत्त है तो समय, संकेत या बुद्धिव्यवहार की आवश्यकता क्या है। यद्यपि शब्द, अर्थ यहाँ तक कि उनके बीच सम्बन्ध भी वैयाकरणों के अनुसार प्रदत्त है फिर भी भाषीय बोध या संप्रेषण के लिए समय की आवश्यकता अपरिहार्य है। समय की व्याख्या इस ग्रन्थ के दूसरे अध्याय में हो चुकी है इसलिए उसके पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। इतना कहना प्र्याप्त है कि प्रदत्त और प्रदत्त का बोध में दोनों दो अलग-अलग प्रत्यय हैं। कोई भी चीज प्रदत्त हो सकती है किन्तु जात नहीं हो सकती है। स्फोट, प्रतिभा और उन दोनों के बीच सम्बन्ध प्रदत्त होते हैं किन्तु स्पष्ट बोध एवं संप्रेषणीयता के लिए समय या संकेत की आवश्यकता होती है उदाहरण के लिए एक वाक्य या एक शब्द, उसके अर्थ और उसके बीच सम्बन्ध प्रदत्त है किन्तु वृद्ध व्यवहार के निरीक्षण के बिना उनसे बोध नहीं हो सकता। समय या संकेत शब्द या वाक्य का अर्थ नहीं होता यह तो केवल शब्द और अर्थ के सम्बन्धों का अवच्छेदन मात्र होता है। ध्वनियाँ संकेतों और संकेताक्षरों के माध्यम से संकेत स्थापित होता है किन्तु बोध एवं सम्प्रेषणीयता स्फोट के द्वारा ही होता है जिसे भर्तृहरि ने स्फुटित होने के कारण स्फोट कहा है और यह प्रतिभा ही हमारे कत्र्तव्यों की प्रेरक होती है। योगियों के अंतरानुभूति में भी अर्थ प्रतिभा ही होती है। यद्यपि कि वे ध्वनियों या संकेतों के द्वारा प्रकाशित नही होती प्रतिभा ही अर्थ होती है। अन्यथा तो अर्थ के रूप में इसका बोध भी नहीं होगा और संप्रेषणीयता भी नहीं होगा किन्तु ऐसा नहीं होता।
अभी तक हमने स्फोट के द्वारा प्रकाशित पूर्ण इकाई अर्थ के रूप में प्रतिभा का विवेचन किया और विवेचन के दौरान हमने बोध या संप्रेषणीयता को ध्यान में रखा और यह निष्कर्षित किया कि व्यवहार में अर्थ बोध या वह प्रकाश है जो शब्द के प्रकाशित होता है उससे अभिन्न होता है। अगर अर्थ को विचार रूप माना जाए तो इसके लिए प्रतिभा शब्द का प्रयोग समुचित है तब यह कहना भी ठीक है कि अर्थ की सत्ता उपचार सत्ता है। (वे सभी सत्ताएँ जो विचार रूप में बोध रूप  शब्द के द्वारा प्रकाशित होती है उनकी उपचार सत्ता होती है। शब्द और अर्थ मात्र तक ही उपचार सत्ता सीमित है।) यह भी कहना उचित प्रतीत होता है कि स्फोट से प्रकाशित प्रतिभा एक सच्चा ज्ञान है एक पूर्ण चेतन इकाई या बोध है स्फोट का उपर्युक्त विचार भर्तृहरि जिस ढंग से शब्दों द्वारा संप्रेषणीयता या व्यवहार की व्याख्या करते हैं तक ही सीमित है। जो भी हो, उनकी विवेचना संप्रेषणीयता में प्रकाशित बोध तक ही सीमित नहीं है क्योंकि वे लक्ष्यैकचक्षुक अर्थात जो ध्वनि आदि माध्यमों से संप्रेषण कर सकते हैं की ही व्याख्या नहीं करते बल्कि जानवरों, कीटों, पक्षियों की जो हमारे समुदाय की भाषा नहीं बोलते अथवा वे जो लक्षणैकचक्षुक है जिसमें बिना किसी माध्यम के प्रतिभा प्रकाशित हो जाती है जैसा कि हम योगियों में पाते हैं कि व्याख्या नहीं करते हैं। दार्शनिक रूप में भर्तृहरि का लक्ष्य सभी जीवित प्राणियों के व्यवहारों की व्याख्या भाषीय अभिव्यक्ति के रूप में भी करना है। बोध एवं जीवित प्राणियों की क्रियाओं के आधार पर प्रतिभा के व्याख्या हेतु भर्तृहरि ने 146-152 कारिका लिखा है और यह विचार किया है कि कोई भी व्यक्ति इतिकत्र्तव्यता के ज्ञान हेतु स्फोट में प्रकाशित प्रतिभा का अपलाप नहीं कर सकता यहाँ तक कि पशु एवं पक्षियों में भी जो क्रियाएँ होती है उनका प्रेरक कारण प्रतिभा ही होती है और इस बात को ध्यान में रखकर स्वभाव को भी प्रतिभा प्रकाशक का हेतु माना है। वाक्यार्थ के अतिरिक्त भर्तृहरि ने छः प्रकार की प्रतिभाओं का भेद किया है-
1. प्रतिभा जो पशु पक्षियों में उनके स्वभाव रूप में प्रकाशित होती है।
2. सतत् नैतिक साधना द्वारा सिद्धि को प्राप्त महापुरूषों में प्रकाशित होने वाली प्रतिभा।
3. माता-पिता के द्वारा वंशानुक्रम प्राप्त विशेषज्ञता के अभ्यास से प्रकाशित प्रतिभा।
4. बिना किसी माध्यम के साक्षात् प्रकाशित होने वाली योगियों की प्रतिभा।
5. पूर्व जन्मों के पुण्यों के स्वभाव या अदृष्ट  से प्रकाशित प्रतिभा।
6. सिद्ध व्यक्तियों द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति में हस्तान्तरित होने पर प्रकाशित प्रतिभा।
इन छः प्रकारक प्रतिभा की विस्तार से चर्चा आगे की जायेगी किन्तु उसके पूर्व विभिन्न  प्रकारक प्रतिभा के सम्बन्ध में कुछ संशयों को स्पष्ट करने के लिए प्रतिभा के स्वरूप पर विचार करना वांछनीय है। मुझे इस बात की जागरूकता है कि इस चर्चा में हमने प्रतिभा का अर्थ, वाक्यार्थ के रूप में लिया है न कि बुद्धि या प्रातिभ ज्ञान के किसी संकाय या प्रज्ञा के रूप में। मेरा विचार है कि प्रतिभा बोध है जिससे सम्प्रेषणीयता सम्भव होती है और सम्प्रेषणीयता भाषा से प्रकाशित ज्ञान है और यह केवल बोलने तथा सुनने तक सीमित नहीं है जैसा कि हम नवजात शिशु के सम्बन्ध में पाते हैं। शिशु रोता है, हँसता है, होठों और मुँह के हिस्सों को हिलाता है, फड़फड़ाता है, शिशु के इन कार्यों का कारण क्या है? भर्तृहरि पूर्वजन्म में विश्वास रखते हैं और यह मानते हैं कि शिशु की चेतना भाषोन्मुखी होती है। शिशु बोल नहीं पाता क्योंकि उसके दृश्य, श्रौत्र अंग बोलने की सीमा तक विकसित नहीं होते फिर भी वह रोने आदि द्वारा अन्तः स्फुटित अर्थ को संप्रेषित करता है। यह सम्प्रेषणीयता सम्भव कैसे हो पाता है? भर्तृहरि का मानना है कि शब्द-भावना, संस्कार जो प्राणियों में प्रदत्त होता है यहाँ तक कि शिशुओं और गूंगे में भी जिससे उनमें भी प्रतिभा प्रकाशित होती है। भर्तृहरि ने संस्कार को आगम कहा है। व्याख्याकार (पुष्यराज) के अनुसार आगम दो तरह का होता है। 1. आसक्ति और 2. विप्रकर्ष। जो भाषीय समुदाय की भाषा से परिचालित होते हैं उनमें आगम जिसे संस्कार या स्फोट  कह सकते हैं वह लिपियों या ध्वनियों के द्वारा अभिव्यक्त होने पर अपना प्रकाश करता है क्योंकि वे लिपियाँ, ध्वनियाँ जिन्हें वृद्ध व्यवहार के निरीक्षण द्वारा प्राप्त करते हैं के माध्यम से ही भाषीय व्यवहार कर सकते हैं। इसमें जो आगम है उसको आसक्ति कहते हैं। इसके अतिरिक्त जो हमारी भाषा से व्यवहार नहीं करते जैसे नवजात शिशु, पशु, पक्षी, योगी आदि उनमें प्रतिभा आगम बिना किसी ध्वन्यात्मक, लिपियात्मक भाषा के ही प्रकाशित होती है।
भर्तृहरि के अनुसार आगम या स्फोट सर्वगत है। साक्षात् शब्देनजनिताम् भावनानुगमेन वा। इति कत्र्तव्यतायाम् ताम् कैश्चिदंतिवर्तते’ यह कारिका प्रतिभा को प्रकाशित मानती है।
1. आसत्यात्मक लिपि ध्वनि आदि से अभिव्यक्त स्फोट के प्रकाशित होने पर उससे अभिन्न रूप से प्रतिभा प्रकाशित होती है।
2. यह स्फोट से साक्षात् बिना किसी लिपि आदि के मध्यस्थ के प्रकाशित होती है जैसे योगियों की प्रतिभा
3. यह लिपि आदि के माध्यम से नहीं अपितु आगम जो कि पूर्वजन्म के संस्कार रूप होता है से प्रतिभा प्रकाशित हो जाती है जैसे कि नवजात शिशु के सन्दर्भ में पाते हैं। जो भी हो सभी सन्दर्भ में प्रतिभा स्फोट से ही प्रकाशित होती है।
भाषा व्यवहार और शिशु के बोध में जो प्रतिभा होती है उसके अतिरिक्त छः अन्य प्रकारक प्रतिभाओं की भी भर्तृहरि ने गणना की है। जिनके स्वरूप और महत्त्व को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।
1. स्वभाव प्रतिभा-अबौद्धिक प्राणियों (इन्फ्रा-रेशनल बींगस्) में प्रतिभा ध्वनियों, लिपियों के माध्यम से नहीं अपितु उनके स्वभाव से ही प्रकाशित होती है और इसी लिए उनके स्वाभाविक कर्म उनके द्वारा होते रहते हैं। पक्षियों में घोषला बनाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। कोयल में बसन्त में मधुर स्वर फूट पड़ता है पुष्यराज ने बन्दर का उदाहरण दिया है जिसमें एक शाखा से दूसरे शाखा पर कूदने में स्वाभाविक प्रतिभा काम करती है। स्वप्न में बिना किसी ध्वन्यात्मक या क्रियात्मक माध्यम के ज्ञान होता है उसी तरह सामान्य व्यक्तियों जो किसी भाषीय समुदाय से सम्बन्ध रखते है उनमें प्रतिभा उन बोली आदि माध्यमों से प्रकाशित होती है। स्वभाव प्रतिभा को प्राणियों में पायी जाने वाली स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं माना जा सकता है क्योंकि सहज वृत्ति का प्रेरक भी प्रतिभा को ही माना गया है। अतः यह कहना ही उचित है कि भिन्न प्राणियों में जो सहज वृत्यात्मक क्रिया-कलाप होते हैं। जिन्हें हम उनका स्वभाव कहते हैं उनमें प्रतिभा ही उनके क्रिया-कलापों का प्रेरक कारण है।
2. चरण प्रतिभा-जो लोग सत्त नैतिक आचरण के अभ्यास से अपने को सुसंस्कृत कर लेते हैं उनमें एक विशेष प्रकाश हो जाता है। उसे चरण निमित्त प्रतिभा कहते हैं। विशिष्ट आदि में जो अतिमानवीय क्रियाएँ बतायी गयी हैं उनका कारण चरण निमित्त प्रतिभा ही होती है।
3. योगनिमित्त प्रतिभा-व्यापक अर्थ में योग सभी प्रकार के बोध में आवश्यक है। योग के बिना ध्वनि का ग्रहण और उनसे स्फोट का स्वरूप  प्रकाशन सम्भव नहीं है और ऐसी स्थिति में कोई ज्ञान सम्भव नहीं होगा कितु उपर्युक्त अर्थ में योगनिमित्त पद का प्रयोग नहीं हुआ है। यहाँ एक विशेष प्रकारक प्रतिभा के रूप में योग पद का प्रयोग हुआ है। योगियों के पास अतिमानवीय शक्तियाँ होती हैं जिसके कारण उनके अन्दर अतिमानवीय ज्ञान बिना किसी माध्यम के होता है।
4. अदृष्ट प्रतिभा-भर्तृहरि का मानना है कि पूर्वजन्म के कर्मों के अदृष्ट या संस्कार से वर्तमान जीवन निर्धारित होता है। यह अदृष्ट कुछ लोगों में अतिविशिष्ट प्रकाश करती है। उदाहरण के लिए कुछ लोग पृथ्वी के अन्दर छिपी हुई वस्तु को जान जाते है। खनक अपने दृष्टि से जल के स्रोत का पता लगा लेते हैं। अदृष्ट से उत्पन्न बोध के कारण यह सम्भव होता है इसलिए भर्तृहरि ने उसे प्रतिभा कहा है। कुछ लोगों में अदृष्ट प्रकाश होने से वे महान कार्य को करते हैं।
5. अभ्यास निमित्ति प्रतिभा-वंशानुक्रम अभ्यास से जौहरी को रत्न पत्थरों को देखकर सीधे उनके मूल्य का ज्ञान हो जाता है। अभ्यास के कारण ही संगीतज्ञों को संगीत के स्वरों का बोध हो जाता है। इस तरह के अभ्यास के कारण प्रकाशित होने वाले अर्थ अभ्यास निमित्त प्रतिभा कहलाते हैं।
6. विशिष्टोपाहित प्रतिभा-ऋषियों, मुनियों, देवों के द्वारा किसी प्रयोजनवश किसी-किसी को ऐसी शक्ति हस्तान्तरित की जाती है जिससे उनमें विशिष्ट प्रतिभा प्रकाशित होती है। इतिहास से हम जानते हैं कि ऐसी विशिष्ट प्रतिभा कृष्ण द्वैपायन ने धृतराष्ट्र के सारथी संजय में उपहित की थी जिसके कारण वह विराट क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का युद्ध बिना नेत्र प्रत्यक्ष के देख सका। भारतीय ईश्वरवाद में यह स्वीकार्य है कि ईश्वर उदारतावश भक्तों को ऐसी शक्ति दे सकता है जिससे वे ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने ऐसी शक्ति अपने शिष्य विवेकानन्द को दिया था जिससे उनमें काली का प्रकाश हो पाया।
इन विभिन्न प्रकार की प्रतिभा के आधार पर भर्तृहरि स्वयं को उसी स्थिति में पाते हैं जिसमें न केवल व्यवहार में संकेतों से भााषा द्वारा प्रकट बोध और लक्ष्यैकचक्षु (सिद्ध और सन्त) का बिना भाषा संकेतों के माध्यम से उनके मस्तिष्क में सीधा स्फोट द्वारा प्रकट बोध, बल्कि पक्षियों, कीटों, प्शुओं, जौहरी, श्रमिकों और सिद्ध पुरूषों द्वारा प्रस्तुत असाधारण व्यवहारों की भी व्याख्या करते हैं। वे निश्चित रूप से स्वीकार करते हैं कि सभी बोध स्फोटात्मक हैं। यह स्फोट प्रकाशित है, सर्वगत अर्थात् सभी प्राणियों में उपस्थित है। जिसके आधार पर उनमें कुछ करने या न करने का प्रबोधन जागृत होता है। इस प्रकार वह प्रतिपादित करते हैं कि बोध का संसार मस्तिष्क में प्रकाशित बोध का संसार है। यह प्रतिभा है जो सभी जीवों में सभी प्रकार की गतिविधियों के प्रबोधन के कारण है। (प्रतिभामयम् अयम् विश्वम्)
प्रतिभा अर्थ है इसे मनस, प्रज्ञा या अर्थ के सीधा ग्रहण करने की क्षमता से भ्रमित नहीं होना चाहिए । यह जब व्यवहृत होती है, मस्तिष्क में अंकित होती है और श्रोता द्वारा स्फोट से मस्तिष्क में प्रकरित आभा जैसी ग्रहण होती है। यह अर्थ निम्न अस्तित्वधारियों में उनकी प्रबोधक क्रियाओं में कारण जैसा होती है, अति चेतना में उनका अन्तर्सम्बन्ध बोध जैसे और मानवों में यह भाषा द्वारा मस्तिष्क में अंकित बोध का विषय है। भर्तृहरि दर्शन के कई शोधार्थी प्रतिभा को मस्तिष्क या प्रज्ञा से अभिन्न मानते हैं लेकिन जैसा कि हमने स्पष्ट किया है प्रतिभा अर्थ है इसे बुद्धि या अतिबौद्धक तात्त्विक स्थिति जैसा नहीं माना जा सकता है। यहा ज्ञान का विषय है।

संदर्भ ग्रन्थ

1. ‘वैयाकरणस्याखण्ड एवैको’, न्यायाह शब्दह स्फोट लक्षणो वाक्यम् प्रतिभा वाक्यार्थः पुण्यराज, कमेंट्री आॅन द सेकेंड पार्ट (वाक्यखण्ड आॅफ वाक्यपदीय आॅफ भर्तृहरि), 2/1-2।
2. के0 ए0 एस0 अय्यर, भर्तृहरि, 1956, पृ0-86-87।
3. सम रिमार्क आॅन भर्तृहरि’ द काॅनसेप्ट आॅफ प्रतिभा, जरनल आॅफ इंडियन फिलाॅसफी, एडि0वाई0एम0के0 मित्तल, वाल्यूम-18, नं0-2, जून-1990।
4. साक्षात् शब्देन जानित भवनानुगमेन वा. इति कत्र्तव्यत्याम् ताम् नकश्चिदतिवर्तते। वही -2/146।
5. स्वभावचरणभ्यासयोगादृष्टोपपादितम्। विशिष्टोपहितं चेति प्रतिमां षडविधां विदुः।। वही- पृ- 2/152।
6. वही- 2/146
7. स्वभावेन यथा कपिः, पुण्यराज, वही- 2/152।
8. तद्यथा- का चरणेनैवावधृत प्रकाशविशेषाणां (व सिष्ठादीनाम्) पुण्यराजआन वा0 प0 2/152


 साभार-द सेन्ट्रल प्राब्लम आॅफ भर्तृहरिज फिलासफी, लेखक श्री देवेन्द्र नाथ तिवारी, प्रकाशक-आई0सी0पी0आर0, नई दिल्ली।
इस अंश के अनुवादक श्री राजेन्द्र तिवारी (मो0 09839878852) अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद।


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