Wednesday 31 December 2008

मानव अधिकारों की व्यवस्था: तब और अब


डाॅ0 कृष्ण देव सिंह
विभागाध्यक्ष व रीडर, राजनीतिविज्ञान,
हंडिया पी0जी0 काॅलेज, इलाहाबाद |


मानव अधिकारों के सम्वर्धन और संरक्षण का जो आन्दोलन आज विश्व में चल रहा है, प्रतीत तो ऐसा होता है कि इसका विकास अभी हाल का ही है, किन्तु ऐसा नहीं है, इसकी जड़ें अतीत में हैं। प्राचीन काल से ही राजाओं, सामन्तों और शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा मानव जाति का शोषण किया जाता रहा है वे मनुष्यों को तरह तरह की यातनायें देते थे जैसे चोरी के अपराध के लिए हाथ काट देने से लेकर मृत्युदण्ड में मनुष्य को आरे से दो भाग में काट देना। ऐसे दंड और उत्पीड़न के विरूद्ध मानव हमेशा से संघर्ष करता रहा है और जहाँ-जहाँ और जब-जब अवसर मिला वहाँ-वहाँ उसने राजाओं और शासकों के अधिकार कम कराये। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि एक तरह से सभ्यता का इतिहास स्वतन्त्रता और शक्ति के बीच संघर्ष का इतिहास रहा है।
मानवाधिकार के संरक्षण की जड़े बेबीलोनियन विधियों जो लैगास के यूरूका गीता (3260 ई0 पू0), अक्कड़ के सारगोत (2300 ई0 पू0) और बेबीलोन के हम्मूरावी (1792-1750 ई0 पू0) के शासन काल में प्रख्यापित की गयी थी, में खोजी जा सकती है। एस्सीरियन विधियों में भी इसकी झलक देखी जा सकती है। प्राचीन भारत इससे अछूता नहीं था। वेदकाल के धर्म भी इसका संरक्षण करते थे। इसी प्रकार चीन के लाओ जे (जन्म 604 ई0 पू0) और कन्फ्यूशियस (550 से 478 ई0 पू0) के विचारों में इसे पाया जा सकता है। मानवाधिकार के अधिकांश विद्यार्थी इसकी जड़े प्राचीन यूनानी और रोमन विधियों में पाते हैं। यूनानी स्टोइसिज्म (दर्शनशास्त्र की एक शाखा जिसे सिटियम के जेनों ने स्थापित किया था) के अनुसार सभी रचना में एक विश्वव्यापी शक्ति व्याप्त है अतः सभी मानवीय आचरण को नैसर्गिक विधि के अनुसार आंकना चाहिये। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण यूनानी साहित्य में एन्टीगोन का मामला है क्रियोन ने उसे आदेश दिया था कि वह अपने हत्यारे भाई को न दफनाए। इसकी अवहेलना किये जाने पर जब क्रियोन ने उसे फटकारा तो उसने दृढ़तापूर्वक कहा कि उसने ऐसा अपरिवर्तनीय दैवी विधि के अनुसार किया है।1
पुनर्जागरण काल के दौरान जब सामन्तवाद का समापन हुआ, मानवाधिकार एक सामाजिक आवश्यकता के रूप में देखा जाने लगा। जब धार्मिक असहिष्णुता और राजनीतिक आर्थिक दासता के प्रति प्रतिरोध आरम्भ हुआ तब वास्तव में मानवाधिकार की आधारशिला रखी गयी। इसके साक्ष्य के रूप में थामस एक्वीनास, ह्यूगो ग्रोश्यस के विचारों को और इंग्लैण्ड में मैग्नाकार्टा पिटीशन आॅफ राइट्स और बिल आॅफ राइट्स को लिया जा सकता है।2
17 वीं सदी की वैज्ञानिक और बौद्धिक उपलब्धियों, गैलीलियो, सर आइजक न्यूटन की वैज्ञानिक खोजों, थामस हाॅब्स के भौतिकवाद, रेने डेकार्ट के बुद्धिवाद फ्रांसिस बेकन और जाॅन लाॅक के अनुभववाद तथा स्पिनोजा के विचारों ने नैसर्गिक विधि और विश्वव्यापी व्यवस्था में आस्था को प्रोत्साहित किया। 18वीं सदी के दौरान जिसे ज्ञानोदय युग कहा जाता है ने इसे विस्तृत अभिव्यक्ति दी इस दृष्टि से इस सदी के दार्शनिकांे- मांटेस्क्यू, वाल्टेयर और रूसो के कृत्य विशेष रूप  से उल्लेखनीय हैं।
अपितु यह फ्रांस में रूसो और रूसो के माध्यम से फ्रांसीसी क्रान्ति को भी लपेट लिया यह उत्तरी अमेरिकी उपनिवेशों में घुसी और सैमुअल एडम्स और थाॅमस जैफरसन के माध्यम से स्वतन्त्रता की अमेरिकी घोषणा में चली गयी 4 जुलाई 1776 को संयुक्त राज्य अमेरिका के 13 राज्यों ने सर्वसम्मत से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा को जारी किया। 15 दिसम्बर 1791 को अमेरिकी संविधान के प्रथम 10 संशोधन किये गये जिन्हें बिल आॅफ राइट्स के नाम से जाना गया और जो अमेरिकी संविधान के अंग बने। इसके माध्यम से विभिन्न प्रकार के अधिकारों की बात कही गयी (धर्म, विचार, प्रेस आदि) थामस जैफरसन ने बिल आॅफ राइट्स के बारे में कहा है कि बिल आॅफ राइट्स वह है जिसके हकदार सभी लोग प्रत्येक उस सरकार के विरूद्ध हैं, जो इस धरती पर हैं और जिन्हें किसी न्यायप्रिय सरकार को अस्वीकार नहीं करना चाहिये।
इस घोषणापत्र के पश्चात मानवाधिकार वास्तविक महत्त्व का विषय बन गया और यूरोप सहित दुनिया के विभिन्न देशों ने अपने संविधान में मानवाधिकार के उपबन्ध किया।
मानवाधिकार के सम्बन्ध में राष्ट्र संघ का एन्टी स्लेवरी कनवेंशन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके परिणामस्वरूप इस अभिसमय के सदस्य राज्य अपने क्षेत्र में गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए वचनबद्ध हैं। वास्तविक अर्थों में मानवाधिकार का सार्वभौमिकीकरण द्वितीय महायुद्ध के बाद प्रारम्भ हुआ क्योंकि द्वितीय महायुद्ध के दौरान मानवाधिकार का बहुत बड़े पैमाने पर हनन हुआ था। अतः यू0एन0ओ0 में मानवाधिकार के सम्वर्धन और संरक्षण को अपने अति प्रमुख उद्देश्यों में से एक रखा परन्तु इसमें कठिनाई यह थी कि न तो चार्टर ने मानवाधिकार और मूल स्वतंत्रताओं को परिभाषित किया, न तो इसकी अन्तर्वस्तु का निर्धारण किया और न इसके प्रवर्तन की मशीनरी की व्यवस्था की थी। इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए यह निश्चय किया गया कि मानवाधिकार की एक अन्तर्राष्ट्रीय बिल तैयार की जाय।
यू0एन0ओ0 के आर्थिक और सामाजिक परिषद (जो मानवाधिकार के पालन की देखरेख भी करती है) ने यह कार्य मानवाधिकार आयोग को सौंपा। मानवाधिकार आयोग का गठन आर्थिक और सामाजिक परिषद ने चार्टर के अनु0 68 के अधीन 1946 में किया जिसका प्रथम अधिवेशन 1947 में हुआ। मानवाधिकार आयोग के 3 कार्य निश्चित हुये प्रथम प्रक्रम में मानवाधिकार का घोषणपत्र जारी करना था। द्वितीय प्रक्रम में मानवाधिकारों के बारे में राज्यों को वाह्य करने वाली प्रसंविदाओं को तैयार करता था। तृतीय प्रक्रम में अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपाय व तंत्र का निर्माण करना।
मानवाधिकार के अन्तर्राष्ट्रीय बिल का प्रथम चरण 10 दिसम्बर, 1948 को पूरा हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अंगीकार किया। इसके अन्तर्गत मानवाधिकार की सामान्यतया स्वीकार्य सूची बनायी गयी है। इसके प्रावधान सारगर्भित शब्दों से युक्त 50 पैराग्राफ में व्यक्त किये गये हैं। अपने 30 अनुच्छेदों में यह घोषणा-पत्र मूलाधिकारों एवं स्वतंत्रताओं का विस्तृत वर्णन करता है। प्रत्येक व्यक्ति इन सभी अधिकारों व स्वतंत्रताओं का हकदार है।
इनकी महत्ता की समझते हुये ही 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के लिए एकत्र प्रतिनिधियों ने चार्टर में इन्हें स्थान दने की माँग की। चार्टर की प्रस्तावना में - ‘‘मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्त्व में तथा पुरूष और स्त्री के समान अधिकारों में विश्वास प्रकट किया गया है।’’3 इसी तरह चार्टर के अनुच्छेद 1,13,55, 56 और 62 में मानवाधिकारों के बारे में व्यवस्थायें हैं। इसमें इन अधिकारों को प्रोत्साहित करने के बारे में तो कहा गया है परन्तु मानवाधिकारों की व्याख्या नहीं की गयी है। इन आपत्तियों के निराकरण का दायित्व मानवाधिकारों के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र आयोग को सौंपा गया।
आयोग ने लगभग 3 वर्षों के प्रयास के बाद मसविदा तैयार किया जिसे कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर, 1948 को महासभा ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया।4 इस घोषणा पत्र में प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं। इसमें नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, काम का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार, ट्रेड यूनियनों विश्राम, शिक्षा, सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, सामाजिक भरण-पोषण का अधिकार, जीवन का अधिकार, विचार, धर्म, शान्तिपूर्ण सभायें करने तथा संगठन बनाने जैसे अधिकार सम्मिलित हैं। सारांश में यह घाषणा मानव स्वतंत्रता, गरिमा और समानता की बात करता है। यही नहीं यह आर्थिक कल्याण, सामाजिक विकास, सांस्कृतिक पूर्णता और साथ-साथ विश्वशान्ति एवं पारस्परिक सहकारिता की बात करता है।
चूँकि यह घोषणा राष्ट्रसंघ की महासभा के प्रस्ताव के रूप में स्वीकार की गयी थी इसलिए इसका कानूनी रूप से वाह्य करने वाला कोई स्वरूप नहीं है, परन्तु इस घोषणा का महत्त्व इस बात में है कि विश्व के अधिकांश राष्ट्रों ने पहली बार इस बात को स्वीकार किया कि ये अधिकार किसी विशेष जाति अथवा समुदाय के लिए न होकर मानवमात्र के लिए है। लेबनान के प्रतिनिधि चाल्र्स मलिक के अनुसार यह केवल प्रस्ताव मात्र न होकर संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर का अंग है। राष्ट्रों को इसका पालन करना चाहिए। अमेरिका की श्रीमती रूजवेल्ट ने इसे समस्त मानव जाति का मैग्नाकार्टा कहा है।
भले ही इस घोषणा के पीछे कोई कानूनी बन्धन नहीं है और यह एक प्रकार का सुझाव मात्र हो परन्तु इसने लोगों अथवा राष्ट्रों के लिए कुछ सामान्य नैतिक मूल्य स्थापित किये। इसका महत्त्व निम्न रूपों में देखा जा सकता है-
1. इसमें मानव अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की आधिकारिक भावना और व्यवस्था की गयी है।
2. यद्यपि यह घोषणा स्वयं में कानून नहीं है, परन्तु महासभा द्वारा स्वीकृत हो जाने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य अंगों के लिए इसका कनूनी महत्व हो जाता है।
3. यू0एन0ओ0 के सदस्य देश इस संस्था के मानव अधिकार सम्बन्धी अधिकारों को चुनौती नहीं दे सकते।
4. इसने अनेक राष्ट्रों के संविधानों और कानूनों को भी प्रभावित किया है।
5. इसने अन्तर्राष्ट्रीय कानून के इस पिछड़े हुये पक्ष को विकसित किया है।
6. आगे चलकर तो यही यू0एन0ओ0 के सदस्यों द्वारा मान्य कानूनों का आधार बन सकेगा।
7. यह घोषणा सामान्य मनुष्यों की सबसे उच्चतम आकांक्षाओं का प्रदर्शन करती है।
8. यह किसी क्षेत्र विशेष या देश विशेष तक सीमित न होकर सम्पूर्ण विश्व के लिए बनी है। महासभा के भूतपूर्व अध्यक्ष रोम्यूलो के अनुसार‘यह घोषणा राष्ट्रीय सीमाओं से परे है।
9. यह घोषणा किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के किसी समूह विशेष द्वारा नहीं बनायी गयी है बल्कि राष्ट्रों के एक संगठित समाज ने इसका निर्माण किया है।
आलोचकों के अनुसार मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा कोई वैधानिक लेखपत्र नहीं है। हंस केल्सन ने मानव अधिकारों की आलोचना इसी आधार पर की है। यह भी कहा जाता है कि इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण बातों को छोड़ दिया गया है और अनावश्यक बातों को स्थान दिया गया है। जार्ज स्वर्जनवर्जर के अनुसार घोषणा के चैथे अनुच्छेद में दासता को निषिद्ध ठहराया गया है लेकिन बेगार के प्रश्न पर विचार नहीं किया गया है। घोषणा में अल्पमतों की सुरक्षा के लिए उपबन्ध नहीं है।5 वस्तुतः इस अन्तर्राष्ट्रीय अभिलेख का कोई अर्थ नहीं है यदि उन अधिकारों की अवहेलना के समय विवादों को सुलझाने के लिए किसी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की व्यवस्था न हो।
आलोचनाओं के बावजूद स्वीकार करना पड़ेगा कि इस घोषणा ने विश्व के अनेक राष्ट्रों के संविधानों एवं कानूनों के अतिरिक्त बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को भी प्रभवित किया है। यू0एन0ओ0 ने इन्हीं के अन्तर्गत अनेक मानवाधिकार सम्बन्धी कार्यक्रम यथा-महिलाओं के स्तर में सुधार, भेद-भाव की समाप्ति, बेगारी का अंत, अल्पमतों की सुरक्षा, दासता का अंत आदि को लागू किया। महासभा ने इन अधिकारों की और अधिक स्पष्ट व्याख्या करने के उद्देश्य से और इन्हें न्यायिक संरक्षण देने के उद्देश्य से दो प्रसंविदायें- एक नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में और दूसरा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के सम्बन्ध में, तैयार करना था।
मानवाधिकारों के क्रियान्वयन के लिए अनेक कदम उठ गये हैं। स्मरणीय रहे मानवाधिकार आयोग महासभा को मानवाधिकारों से सम्बन्धित विवादों पर अपनी जांच रिर्पोट प्रस्तुत करता है। आयोग का एक उप आयोग भी है जिसका कार्य नस्लीय, धार्मिक, जातीय और भाषायी अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव को रोकना और उनका संरक्षण करना है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद सदस्य राज्यों से अधिकारों के सम्बन्ध में वार्षिक प्रतिवेदन मांगती है। दिसम्बर 1993 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मानवाधिकार के लिए एक संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त के पद का गठन किया। फरवरी 1994 में इस तरह के पहले उच्चायुक्त की नियुक्ति की गयी। उच्चायुक्त को मानवाधिकार सम्बन्धी गतिविधियों पर नजर रखने के साथ महासचिव के निर्देशानुसार कार्य करना होता है। उच्चायुक्त पर मानवाधिकार केन्द्र की देख भाल का दायित्त्व भी है। मानवाधिकार केन्द्र जिनेवा में स्थित है। इसमें उप-महासचिव व कार्यालय और पाँच शाखाओं के अतिरिक्त मानवाधिकारों से सम्बन्धित उच्चायुक्त का कार्यालय है। इस केन्द्र का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र संघ के अंगों को मानवाधिकारों के प्रोत्साहन और संरक्षण के कार्य में सहायता देना, सम्बन्धित अंगों द्वारा अनुरोध करने पर शोधकार्य करना और मानवाधिकारों से सम्बन्धित सूचनाओं को प्रकाशित करना है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिशा में अनेक सार्थक कदम उठाये हैं। यथा-सितम्बर, 1952 में महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में महासभा ने एक उपसंधि बनायी, जो 1954 में लागू की गयी और जिसे 12 अप्रैल 1955 तक 21 देशों ने स्वीकार कर लिया। 1956 में दासता और दास व्यापार के उन्मूलन के सम्बन्ध में आर्थिक व सामाजिक परिषद द्वारा एक सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें एक पूरक उपसंधिे तैयार की गयी। इसी तरह शिक्षा के सम्बन्ध में भेद-भाव को दूर करने के लिए 1960 में एक उपसंधि स्वीकार की गयी। इसी प्रकार 16 सितम्बर, 1966 को मानवाधिकार को सुदृढ़ बनाने के लिए तीन अन्तर्राष्ट्रीय प्रलेख स्वीकार किये। इसी दिशा में कदम बढ़ाते हुये जातीय विभेद के उन्मूलन के सम्बन्ध मे 16 अप्रैल, 1973 को मानवाधिकार आयोग ने शीघ्र कार्यवाही का प्रस्ताव पास किया।
इस तरह के प्रयासो के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक मानवाधिकार संगठनों की स्थापना हुयी। इनमें हैं-इण्टरनेशनल कमीशन फाॅर ज्यूरिस्ट्स (1952), एमनेस्टी इण्टरनेशनल लंदन (1962), माइनारिटी राइट्स ग्रुप लंदन (1965), सरवाइवल इण्टरनेशनल (1969) आदि इतना ही नहीं 1968 में यू0एन0ओ0 ने अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार वर्ष घोषित किया। इस अवसर पर तेहरान में मानवाधिकारों पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। वर्ष 1993 इस दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि 1993 में वियना में एक विश्व सम्मेलन किया गया। वियना घोषणापत्र और कार्यवाही कार्यक्रम के प्रति 171 देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की तथा दिसम्बर, 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस सम्मेलन में पहली बार सर्वसम्मति से यह माना गया कि विकास का अधिकार एक अविभाज्य अधिकार है। इसी तरह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को अविभाज्य मानते हुये उनके एकीकरण और नागरिक व राजनीतिक अधिकारों के साथ उनके सम्बन्ध को स्वीकार किया गया। सम्मेलन में लोकतंत्र को एक मानवाधिकार मानते हुए इसे सुदृढ़ करने के साथ लोकतांत्रिक एवं कानून के शासन सम्बन्धी प्रक्रियाओं पर बल दिया गया। इस सम्मेलन में आतंकवादी गतिविधियों को मानवाधिकार पर चोेट माना गया।
भारत जैसे विकासशील देशों के संविधान भी मानवाधिकार से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सके हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के विभिन्न खंडों में संचरण की स्वतंत्रता, निवास की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आदि को मान्यता दी गयी है। अनुच्छेद 20 द्वारा अपराध की दोषसिद्धि के विषय में संरक्षण है। अनुच्छेद 21 में प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार है। अनुच्छेद 23 में शोषण के विरूद्ध अधिकार का विवेचन है इसीतरह अनुच्छेद 24 में बालश्रम का निषेध है। इस तरह के अधिकार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के विभिन्न अनुच्छेदों से साम्य रखते हैं।
मानवाधिकारों की व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने के लिए मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम की व्यवस्था 1993 में की गयी। इस अधिनियम की धारा-3 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन की व्यवस्था है।5 इसी तरह अधिनियम की धारा-21 के अन्तर्गत व्यवस्था है कि प्रत्येक राज्य सरकार राज्य मानवाधिकार आयोग का गठन करेगा।6 इसी तरह अधिनियम की धारा 38 के अनुसार मानव अधिकार के उल्लंघन से उत्पन्न मामलों के शीघ्र निपटारा करने के लिए राज्य सरकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सलाह से प्रत्येक जनपद के सेशन न्यायालय को मानवाधिकार न्यायालय के रूप में कार्य करने का आदेश दे सकती है।
इस दिशा में आगे बढ़ते हुये 31 जनवरी, 1992 को राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया, जो महिलाओं के सांविधानिक व कानूनी सुरक्षा के अधिकारों को ठीक ढंग से लागू करता है। इसी प्रकार अल्पसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यक संरक्षण आयोग 1992 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया। इतना ही नहीं 29 दिसम्बर 2006 को संसदीय अधिनियम द्वारा ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ का गठन किया गया। इसका मुख्यालय नयी दिल्ली में है तथा मैग्सेसे पुरस्कार विजेता श्रीमती शांता सिंन्हा इसकी अघ्यक्ष है।
अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर इतनी प्रभावशाली व्यवस्था के बावजूद मानवाधिकार के सम्बन्ध में सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। मानवाधिकार की रक्षा के लिए विख्यात विश्व संस्था एमनेस्टी इण्टरनेशनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट 2008 में कहा है कि विश्व के बड़े देश मानवाधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीयता (यू0डी0एच0आर0) को संरक्षण देने में विफल रहे हैं। 1948 में यू0डी0एच0आर0 को अपनाये जाने के बावजूद 81 देशों में लोगों के साथ अभी दुव्र्यवहार हो रहा है या उनको प्रताडि़त किया जा रहा है और 54 देशों में लोगों को झूठे मुकदमों का सामना करना पड़ रहा है। उसी भाँति 15 अप्रैल, 2008 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भले ही केन्द्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में मानवाधिकारों के हनन से सम्बन्धित एक भी मामला दर्ज न किया गया हो तथा नागालैण्ड, सिक्किम और दादरा नागर में क्रमशः 2, 5, और 5 मामले दर्ज किये गये हों किन्तु मानवाधिकारों के हनन मामले में उ0प्र0 (44560), राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (5027 मामले) और बिहार क्रमशः प्रथम द्वितीय तृतीय स्थान पर रहे। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वर्ष 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2005-06 के दौरान आयोग को देश भर से 74444 रिपोर्ट मिली।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनेक तरह के प्रावधानों के बावजूद आज विश्व में मानवाधिकार पूर्णतया सुरक्षित नहीं हैं। आज भी द0 अफ्रीका जैसे देशों में रंगभेद के आधार पर अधिकांश निवासियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। मुस्लिम देशों में इस्लाम के आधार पर भेद-भाव किया जाता है आज भी कुछ लोगों को अर्द्ध गुलामों की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है।7 इसके बावजूद स्वीकार करना पड़ेगा कि मानवाधिकार सम्बन्धी उपबन्धों को लागू करने में संयुक्त राष्ट्र ने लोकचेतना जागृत करने का सराहनीय प्रयास किया है।

संदर्भ ग्रन्थ-

1. टी0 पी0 त्रिपाठी: मानवाधिकार पृ0-2, इलाहाबाद लाॅ एजेन्सी पब्लिकेशन्स
2. टी0 पी0 त्रिपाठी: मानवाधिकार पृ0-5, वही
3. हंस केल्सन के अनुसार संयुक्त राष्ट्रीय चार्टर में जितना अधिक उल्लेख मानवाधिकारों का है उतना किसी भी विषय पर नही। हंस केल्सन: द लाॅ आॅफ द यूनाइटेड नेशन्स पृ0 564
4. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग 54 सदस्यीय आर्थिक व सामाजिक परिषद के अधीन कार्यरत था। इसके स्थान पर जून 2006 में 47 सदस्यीय मानवाधिकार परिषद का गठन किया गया है, जो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यू0 एन0 ह्यूमन राइट्स कौन्सिल) हेतु भारत दोबारा निर्वाचित हुआ है। -परीक्षा मंथन भाग-6 पृ0-568
5. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के लिए 1 अध्यक्ष एवं 7 अन्य सदस्यों की व्यवस्था की गयी है। अध्यक्ष के लिए वही पात्र होगा जो उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश रह चुका हो। सदस्यों में- एक उच्चतम न्यायालय का वर्तमान या निवर्तमान न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय का वर्तमान या निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश, दो सदस्य ऐसे व्यक्तियों में से नियुक्त किये जायेंगे जो मानवाधिकार से सम्बन्धित विषयों में ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखते हों। इसके अलावा तीन पदेन सदस्य होंगे- क. अल्पसंख्यक के लिए राष्ट्रीय आयोग का अध्यक्ष, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग का अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय महिला आयोग का अध्यक्ष। इस आयोग का मुख्यालय दिल्ली में रखा गया है,और इसके प्रथम अध्यक्ष रंगनाथ मिश्र थे। डाॅ0 बसन्ती लाल बाबेल: मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम पृ0-35
6. राज्य मानवाधिकार आयोग में 1 अध्यक्ष और 4 सदस्य होंगे। अध्यक्ष के लिए वह व्यक्ति पात्र होगा जो उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश हो या रह चुका हो। सदस्यों में एक ऐसा व्यक्ति होगा जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश  हो या रह चुका हो। दूसरा ऐसा व्यक्ति होगा जो राज्य में जिला न्यायालय का न्यायाधीश हो या रह चुका हो तथा अन्य दो सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे, जिन्हें मानवाधिकार से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव हो। -डाॅ0 बसन्ती लाल बाबेल: मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम पृ0-122, सुविधा लाॅ हाउस, भोपाल।
7. गांधी जी राय: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पृ0-368

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