Wednesday 31 December 2008

पर्यावरण और विकास का मुद्दा - नई दिशाएँ, नए प्रश्न


प्रभाकर नाथ मिश्र 
शोध छात्र, राजनीतिशास्त्र विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद |


‘‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’’। भारतीय दर्शन में मानव का प्रकृति के साथ तादात्मय रखने का भावबोध पाया जाता है, और  इस सम्बन्ध में वृहद् परंपरा है। मानव प्रकृति की एक चैतन्य रचना है। जिसकी आधारशिला क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर है। यह सभी भारतीय दर्शन का सारतत्व है। इसलिए इन पांच तत्वों का मानव एवं जीव-जगत् के अनुकूल होना आवश्यक है। ‘‘मैकाइवर व पेज जैसे विद्धानों ने मानव पारिस्थितिकी की अवधारणा के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि पारिस्थितिकी का क्षेत्र बढ़ता जा रहा हैं। इसमें मानव व समाज से सम्बन्धित विभिन्न आयामों का अध्ययन किया जाने लगा है। अपने मानवीय पारिस्थितिकी की परिभाषा के अन्तर्गत वे विभिन्न शहरी क्षेत्रों से संबंधित सामाजिक सांस्कृतिक कारको को इसके अन्तर्गत रखते हैं।’’1
यदि  यह कहा जाय कि मानव की विकास यात्रा उसका पर्यावरण के साथ-साथ चलने और उसके उपयोग का इतिहास है तो अनुचित नहीं होगा। निरन्तर विकास मानव की प्रवृत्ति है और पर्यावरण विकास का स्रोत। अपनी इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप मानव विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँच पाया है। इस विकास यात्रा में वह पर्यावरण का सतत् उपयोग करता रहा है। अतः विकास का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ा है। जब तक यह प्रभाव सीमित अथवा सामान्य होता है, उससे पारिस्थितिकी तन्त्र पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परन्तु जब यह अधिक सघन एवं विस्तृत होने लगता है, तो पर्यावरण में विकृतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं और उसका दुष्प्रभाव सम्पूर्ण जीव जगत् पर होता है।
‘‘यह सत्य है कि विकास का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास को रोक दिया जाय। आवश्यकता इस बात की है कि विकास को सही दिशा दी जाये। उसे मानवोपयोगी बनाया जाये तथा उसका पर्यावरण पर कुप्रभाव न हो। यह कार्य सम्पूर्ण विश्व को सामूहिक रूप से करना होगा। इसमें वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं के साथ-साथ प्रशासकों एवं सामान्य जनता को भी सहयोग देना होगा। यह कार्य क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय सीमाओं से ऊपर उठकर विश्व स्तर पर करना आवश्यक होगा। तभी विकास की सार्थकता होगी।’’2
मनुष्य प्राकृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप काफी समय से करता चला आ रहा है। परन्तु औद्योगीकरण के उदय और विकास ने इस हस्तक्षेप की गति और गुणवत्ता दोनों में चिन्ताजनक सीमा तक वृद्धि कर दी है। यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि औद्योगीकरण के माध्यम से उत्पादन दिन-दुगना रात-चैगुना बढ़ा है। यह गरीबी अज्ञानता बीमारी आदि को समाप्त करने और समृद्धि लाने में सफल रहा है। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यह विकास किस कीमत पर हो रहा है? औद्योगीकरण के फलस्वरूप जो प्रदूषण उत्पन्न हुआ है, उसने जैविक व्यवस्था को गंभीर हानि पहुँचायी है। ‘‘प्रकृति एक निश्चित नियमबद्धता से कार्य करती है। यदि उसके किसी अवयव के साथ ज्यादती की जाये तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग से बढ़ाई गई मानव की उत्पादन क्षमता ने पर्यावरण के प्रदूषण का संकट उत्पन्न किया है।’’3 लुई थाॅमस ने अपनी पुस्तक ष्ज्ीम स्पअमे व ि। ब्मससष् में पृथ्वी को एक जीवंत सेल कहा है, और उसके चारों ओर के वातवरण को उसकी रक्षा का एक परदा बताया है। यही रक्षा कवच पर्यावरण है, जिसकी हमें रक्षा करनी है। विकास के विभिन्न सिद्धान्तों ने स्वच्छ पानी, प्रदूषण रहित वायुमण्डल तथा स्थायी मौसम से होने वाले लाभों की तरफ ध्यान नहीं दिया। अर्थशास्त्रियों के मस्तिष्क में यह बात नहीं आयी कि हमारी गतिविधियों से प्रकृति की प्रक्रिया में हस्तक्षेप हो रहा है। ‘पर्यावरण आंदोलन’ की यह मूल धारणा है कि सीमित स्रोतो वाले संसार में असीमित विकास नहीं हो सकता। अतः विकास के संवर्धन हेतु उन्मुख सभी सिद्धान्तों को सम्पोषित विकास में रूपांतरित करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारा विकास असफल हो जायेगा और मानवीय पर्यावरण का व्यवस्थापन गंभीर दोषो से परिपूर्ण हो जायेगा।’’4
‘‘विकासशील देशों में जनसंख्या अतिरेक के कारण निर्धनता और अल्पविकास पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या को विकट बनाते हैं। जबकि विकसित देशों में समस्या की विकरालता विकास की प्रक्रिया का ही दुष्परिणाम है।’’5 औद्योगीकरण से उत्पन्न सम्पन्नता और भौतिक सुखों की चाह ने प्राकृतिक संसाधनों पर भार बढ़ाया तथा चिकित्सा विज्ञान में उन्नति के कारण मृत्यु दर में कमी ने जनसंख्या के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले भार में भी वृद्धि की।’’6
पर्यावरण और विकास की समस्या के सन्दर्भ में 1960-70 के पर्यावरणीय आंदोलनों के फलस्वरूप नया चिन्तन प्रारंभ हुआ है। इस चिंतन में कारसन रैचल की ष्ैपसमदज ैचतपदहष् 1962 पाॅल एरलिच की ष्ज्ीम च्वचनसंजपवद ठवउइष् 1968 तथा गैरट हार्डीन के ष्ज्तंहमकल व िब्वउउवदेष् 1968 का नाम लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ रिपोर्टो का भी उल्लेख किया जा सकता है। ग्लोबल 2000 रिपोर्ट, क्लब आॅफ रोम, ब्रन्टलेण्ड का आवर काॅमन फ्यूचर रिपोर्ट 1987 का उल्लेख महत्वपूर्ण है।
राजनीतिक विचार धारा के रूप में पर्यावरणवाद अभी निर्माण की प्रक्रिया में है। पर्यावरणवाद के अन्तर्गत काफी विभिन्नता है। परन्तु पर्यावरणवाद की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
1. पहली प्रवृत्ति ष्स्पहीज ।दजीतवचवबमदजतपेजष् है जिसे मानव केन्द्रित माना जाता है। इसके अनुसार प्रकृति की महत्वपूर्ण संसाधनों का मानदण्ड मनुष्य है। प्रकृति मनुष्य के लिए है। मनुष्य के उपयोगिता के बिना प्रकृति मूल्यहीन है।
2. दूसरी प्रवृत्ति ष्ठपवबमदजतंसपेजष्है। यह शाखा व्यक्ति के स्थान पर प्रकृति को प्राथमिकता प्रदान करती है। प्रकृति के मूल्य पर विकास को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रकृति का संरक्षण मानव जीवन के लिए आवश्यक है।
इन दो शाखाओं के अतिरिक्त पर्यावरणवाद की और भी शाखाएँ है-उग्रवादी, नारीवादी उदारवादी, समाजवादी आदि। पर्यावरणवाद का सिद्धान्त ‘औद्योगीकरण’ के माध्यम से विकास को न्यायसंगत नहीं ठहराता है। पर्यावरण आंदोलन से संबन्धित सभी शाखाएँ औद्योगिक समाजों में आर्थिक विकास पर प्रश्न चिह्न लगाती हैं। ये विकास की दशाओं जैसे औद्योगिक व कृषि उत्पादन, ऊर्जा का अनुप्रयोग, उपभाग की तीव्रता, जनसंख्या वृद्धि आदि की समीक्षा करती हैं। ये सिद्धान्त स्थानीयता की धारणा को स्वयत्तता से अन्तर्संम्बन्धित करते हैं। साथ ही विश्व को एक एकक के रूप में मान्यता देते हैं। भौगोलिक अस्मिता को सामाजिक संबन्धों के दायरे में लाने का महती प्रयास करते हैं। विकास के सभी सिद्धान्तों का लक्ष्य संपोषित विकास को बनाते हैं। विद्वानों ने संपोषित विकास के दो रूपो को स्पष्ट किया है-
1.अधिकतम संपोषित समाज,  2.मिताहारी संपोषित समाज
‘अधिकतम संपोषित समाज की विचारधारा व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं को प्रकृति के ऊपर प्राथमिकता प्रदान करती है। जबकि ‘मिताहारी संपोषित समाज’ व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं का समर्थन करता है, जिससे कि पर्यावरण को संरक्षित व संवर्द्धित किया जा सके।
पारिस्थितिकी संकट ने आज विश्व के सम्मुख यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि विकास की सही दिशा क्या होनी चाहिए? चिन्तकों और दार्शनिकों ने विकास की दिशा ढूँढ निकाली है- ‘जीवन धारण करने योग्य विकास’। इसी को सुस्थिर विकास, संपोषण विकास, अनुरक्षण विकास भी कहते हैं। आर्थिक समृद्धि की बहुलता को वृद्धि तो कह सकते हैं परन्तु विकास नहीं कह सकते। विकास तो पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। विकास और पर्यावरण में सामंजस्य रहता है। विकास का अर्थ वस्तुओं का विकास नहीं मनुष्यों का विकास है- ऐसा विकास जिसमें मानव मात्र की आधारभूत आवश्यकताएँ, भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा की आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी की जा सकें। विकास की कोई भी प्रक्रिया जो समाज को मानव की इन आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में नहीं ले जाती, विकास का नाम नहीं दिया जा सकता। आज के विश्व में हमें एक ओर विकास का एक अत्यधिक निम्नस्तर दिखायी देता है और दूसरी ओर विकास सभी मर्यादाओं का अतिक्रमण करता हुआ दिखायी देता है। कहा जा सकता है कि ‘‘अधिक से अधिक वस्तुओं का उत्पादन और उपभोग करने से हमें सहायता नहीं मिलती, यदि उसके परिणाम स्वरूप  हमें नींद की गोलियों और मानसिक अस्पतालों पर अधिक निर्भर होना पड़े।’’7 आज विकसित देश ही पर्यावरण पर भारी दबाव डाल रहे हैं और न केवल अपने लिए परन्तु दूसरों के लिए भी नयी नयी समस्याएँ खड़ी कर रहे हैं। ‘‘जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, और आधुनिकीकरण ने जल-स्रतों को प्रदूषित किया है, साथ ही जल संकट भी उत्पन्न कर दिया है।’’8 गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्ययन के अनुसार हमारे जल स्रोतों का 70 प्रतिशत भाग प्रदूषित हो गया है। आजकल महानगरों में बढ़ते शोर ने जन-जीवन को सूक्ष्म तरीके से परेशान करना शुरू कर दिया है। ध्वनि प्रदूषण के कारण अवसादग्रस्तता, तनाव, रक्तचाप, हृदयघात जैसी बीमारियाँ बढ़ गई है। ‘‘उत्सव, मेला, समारोह, लाउडस्पीकर, मोटरकार, वायुयान तथा रेलगाडि़यों से पर्यावरण में ध्वनि प्रदूषण की समस्या विकट हो गयी है।’’9
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से परमाणु ऊर्जा का प्रयोग व्यापक रूप से बढ़ता जा रहा है। परमाणु ऊर्जा के प्रयोग ने निर्माण व विध्वंस दोनों को अनुप्राणित किया है। परमाणु ऊर्जा ने जहाँ स्वच्छ ऊर्जा प्राप्ति का साधन उपलब्ध कराया है, वहीं परमाणु कचरे व संयंत्रों के दुर्घटनाग्रस्त होने तथा परमाणु बम के खतरे ने मानवता को खतरे में डाल दिया है। ‘‘परमाणु ऊर्जा से चलने वाले कारखानों में छोटी सी असावधानी भी बड़ी दुघर्टना का कारण बन जाती है जैसे रूस के चेरनोबिल में विस्फोट तथा 1963 में भारत के नरोरा संयत्र में अग्निकांड।’10
देश में वनों के अंधांधुध दोहन से भी पर्यावरण असंतुलन बढ़ा है। वनों की कटाई के फलस्वरूप जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। भू-तापन का एक कारण वनों का विनाश भी है। वनों की कटाई के फलस्वरूप देश की हरित भूमि कम होती जा रही है। ‘‘ वनों के ह्नास के कारण भू-कटाव, अनियमित वर्षा, बाढ़-सूखा उत्पन्न हो रहा है। इसके अतिरिक्त ईंधन लकड़ी का अभाव उत्पन्न हो रहा है तथा भू-उत्पादकता में कमी आ रही है।’’11
‘‘संयुक्त राज्य अमेरिका में 1960 के दशक में ष्थ्सवूमत ब्ीपसकतमदष् आंदोलन प्रारम्भ हुआ जो कि पर्यावरणीय संतुलन में आ रही ह्नास के प्रति समर्पित था।’’12 उसी समय वहाँ के राष्ट्रपतीय चुनावों के दौरान पर्यावरण का मुद्दा भी उठाया गया जिसके परिणामस्वरूप अमरीका में जल व वायु प्रदूषण रोकने हेतु कानून व विनियमों का निर्माण किया गया।’’13 1972 में स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण पर यू0एन0ओ0 सम्मेलन हुआ जिसमें 113 राष्ट्रों ने भाग लिया। ‘‘सम्मेलन का उद्देश्य प्रदूषण की रोकथाम और प्राकृतिक संसाधनों तथा वन्य जीवों के संरक्षण के लिए विश्वजनीन अभियान की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करना था।’’14 सम्मेलन का एक सकारात्मक परिणाम पर्यावरण के प्रति जागरूकता के प्रसार में हुआ। विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) की घोषणा हुई। ‘‘भारत उन कुछ देशों में से है जहाँ 1984 से ही वन नीति लागू है। इसे 1952 और 1988 में संशोधित किया गया। संशोधित वन नीति का मुख्य आधार वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास है। पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञों की सलाह से एक राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 तैयार की है, जो विकास और पर्यावरण की माँगों में तालमेल बैठायेगी।’’15 यद्यपि पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में कई नियमों, विनियमों व न्यायिक निर्णयों का अस्तित्व तथापि उनका कार्यान्वयन सफल ढंग से नहीं हो पाया है। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी नौकरशाही प्रवृत्ति तथा जनसहभागिता का उपेक्षित होना ऐसे कारक हैं, जिसमें पर्यावरण के संरक्षण व संवर्द्धन में यथेष्ट सफलता नहीं प्राप्त हो सकी है।
निष्कर्षः- एक अच्छे पर्यावरण का होना मानव जीवन का मूलाधिकार है। इस पृथ्वी पर सभी प्राणियों को सह-जीवन का अधिकार होना चाहिए। अंधाधुंध  औद्योगीकरण से मानव सभ्यता का विकास नहीं हो सकता। यह मनुष्य को गंभीर संकट में डाल देगा। अभी हाल में ‘इंटर गवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज’ (आइ0पी0सी0सी0) 2007 की रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट ने मानव सभ्यता के समक्ष आसन्न संकट की ओर ध्यान आकर्षित किया है। इसके अनुसार पृथ्वी का 2-30 सेंटीग्रेट बढ़ता तापमान 2050 तक मानव और पर्यावरण के लिए पूरे भूमंडल पर भयंकर आपदाएँ उत्पन्न करेगा।’’16 आई0पी0सी0सी0 की रिपोर्ट में कई ऐसे खुलासे किये गये हैं, जिसने पर्यावरणविदों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है।
पर्यावरणवादियों की कठोर माँगे जैसे औद्योगिक उत्पादन को बन्द करना विकेंन्द्रीकरण पेट्रोल दहन पर निर्बन्धन आदि को प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए मध्यम मार्ग अपनाना होगा। संपोष्य विकास की अवधारणा पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। प्रदूषण संबन्धी विधेयकों व पर्यावरण नीति पर खुली बहस के पश्चात् एक व्यापक सुनिश्चित राष्ट्रीय पर्यावरण नीति तैयार की जायें ताकि एक अच्छे, सुसंगत और समन्वययुक्त प्रबन्ध की नीव रखी जा सके। पर्यावरण को सरकारी कार्यो का एक नियम बना दिया जाना चाहिए। पर्यावरणीय अनुसंधान व शोध को गंभीरता से लिया जाय। विकास व पर्यावरण के मध्य संतुलन कायम करने वाला ढाँचा विकसित करने की आवश्यकता है ताकि विनाश रहित विकास की संकल्पना को साकार किया जा सके। भारतीय पारिस्थितिक दर्शन विकास का जो समग्र दृष्टिकोण प्रस्तावित करता है, उसमें पर्यावरण के प्रति अनुग्रहशीलता, कृतज्ञता, विनम्रता, एकांकारता का भाव है, प्रकृति के प्रति भोग्यता एवं विजेता का भाव नहीं है।
‘‘ऊँ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथ्वीशान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिब्रह्म शान्तिः सर्वशान्तिः।।’’
संदर्भ ग्रन्थ

1. मैकाइवर एवं पेज, ‘‘सोसायटी’’ पृ0-65
2. डाॅ0 हरिमोहन सक्सेना - पर्यावरण एवं प्रदूषण, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर 1995, पृ0- 183
3. संयुक्त राष्ट्र संघ, ‘विकास आयोग का रिपोर्ट 1972, पृ0-7और 8
4. विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग का प्रतिवेदन- श्व्नत बवउउवद थ्नजनतमश् 1987 वगवितक न्दपअमतेपजल चतमेेण् च्हण्-2ए3
5. गोपाल कड़कोड़ी - ‘‘पावर्टी एनवायरनमेंट सिन्ड्रोम’’ फाइनेंसियल एक्सप्रेस 23नवम्बर,1992
6. इलियट. एच. ब्लेन्स्टीन - ष्ल्वनत म्दअपतवदउमदज ंदक लवनरू न्दकमतेजंदकपदह जीम चवससनजपवद चतवइसमउए छमू लवता व्बमंदं 1974ए चहण्.66
7. कोकियौक घोषणा 1974- अक्टूबर 8-14, यू0एन0ओ0 मेक्सिको
8. अरून सी0 वकिल इकोनामिक आॅस्पेक्ट आॅफ एनवायरमेंट्स एट पाल्यूशन; बाम्बे 1984, 1993.
9. आत्या सिंह ष्ज्ीम ळतवूपदह उमदंबम व िछवपेम च्वससनजपवदण् ज्ीम ।ेेंउ ज्तपइनजमए थ्मइ 19ए 1993ण्
10. एम0 वी0 सुब्रहमण्यम श्43 भ्वनते व िच्ंदपबश् ैनदकंल.।चतपस 18.24.1993ण् च्ह.68.70
11. ळीपससमंद ज्ण् च्तंदबम श्क्मवितमेजंजपवद रू । ठवजंदपेज टपमूश् डबडपससंदए 1990 स्वदकवदण् च्ह.52.59
12. त्ण्थ्ण् क्ंेउंदण् ष्ज्ीम बवदेमतअंजपअम ।सजमतदंजपअम ब्ीपबामतेजमतए श्रवीदूपससमलए 1975ण् च्ह.2
13. ॅंसजमत ंण् त्ेवमदइंनउए म्दअपतवदउमदजंस च्वसपजपबे ंदक च्वसपबलए छमू क्मसीपए ।ििपसपंजमकए म्ंेज ॅमेज च्तमेे स्जकण् 1991ण्
14. डपबीमंस त्मकबसपिि ष्क्मअमसवचउमदज ंदक जीम म्दअपतवदउमदजंस ब्तपेपे रू त्मक वत ळतममद ।सजमतदंजपअमेष्ण् स्वदकवद डमजीनमदए 1984ण् च्ह.48.49ण्
15. भारत 2007, प्रकाशन मंत्रालय, भारत सरकार ‘‘पर्यावरण’’ - पृ0- 323-345
16. भूगोल और आप- ‘ग्लोबल वार्मिंग के शिकंजे में वैश्विक जलवायु’ मार्च-अप्रैल 2007. आईरिश पब्लिकेशन प्रा0 लि0, नई दिल्ली पृ0 2-3.

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