Wednesday 31 December 2008

भारतीय दर्शन में जीवन्मुक्त की अवधारणा


कमलेश चन्द्र पाण्डेय
शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।



भारत में दर्शन का मूल्य इसलिए नहीं है, कि वह हमारे दृश्य जगत् का ज्ञान बढ़ाता है बल्कि इसलिए है कि वह हमारे जीवन के परमशुभ जीवन्मुक्ति को प्राप्त करने में सहायक होता है। भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों का परम लक्ष्य यही दुःख-निवृत्ति एवं परमपुरूषार्थ स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति है। आत्मसाक्षात्कार से अविद्या-निवृत्ति होते ही मोक्ष यहीं और अभी हो जाता है। मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का शरीर प्रारब्ध कर्मानुसार विद्यमान रहता है परन्तु वह व्यक्ति संसार के प्रपंचों से दूर रहता है। मोह उसे सताता नहीं, शोक उसे अभिभूत नहीं करता सांसारिक विषयों के लिए उसे तृष्णा नहीं होती। यह जीवित अवस्था में ही मुक्ति है। इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति ही जीवन्मुक्त कहलाता है।
जीवन्मुक्त संघर्ष एवं द्वन्द्व की अवस्था से परे होता है, जीवन्मुक्त न तो स्वार्थ से पे्ररित होकर कोई कर्म करता है और न अन्यों के प्रति कत्र्तव्य-भावना से पे्ररित होकर। उसके लिए समाजिक आचार के सामान्य नियम और यज्ञानुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं। उसके जीवन में आवेग और इच्छा का कोई स्थान नहीं होता। परिणामस्वरूप उसके कर्म अनायास होते रहते हैं, जिस प्रकार सर्प की अपनी केंचुल को उतार फेंकने पर उसमें कोई आसक्ति नहीं रहती उसी प्रकार जीवन्मुक्त को अपने शरीर में कोई आसक्ति नहीं रहती।
ज्ञान हो जाने पर संचित-कर्म का क्षय हो जाता है, तथा क्रियमाण-कर्म बन्धनकारी नहीं होते, किन्तु प्रारब्ध कर्मो का निवारण इससे नहीं होता उनका निवारण केवल उनके भोग से ही होता है। अतः प्रारब्ध कर्मों के भोग के लिए किंचित काल पर्यन्त शरीर का बना रहना आवश्यक है। यदि इस काल में जीव मुक्ति-भाव से नहीं रहता है तो पुनः कुछ कर्म संचित कर लेगा और आवागमन का चक्र सतत चलता रहेगा। जब पूर्व के प्रारब्ध कर्मों का भोग समाप्त हो जाता है तब जीव का शरीर नहीं रहता है क्योंकि यह शरीर उन्हीं कर्मों का फल था। इसलिए जीवन्मुक्त की अवधारणा भारतीय दर्शन में प्रयोजनीय है।
भारतीय दर्शन को मूल्यों का दर्शन कहना अधिक उपयुक्त है। मूल्य को भारतीय दर्शन में पुरूषार्थ कहते हैं। भारतीय मनीषियों ने चार पुरूषार्थ बताये हैंः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। उनमें से आर्थिक (अर्थ) और नैतिक (धर्म) मूल्य साधन मूल्य हैं तथा काम एवं मोक्ष साध्य मूल्य हैं। अर्थ और धर्म क्रमशः काम और मोक्ष के साधन हैं। इस प्रकार हमारे सामने दो मार्ग हैं- सांसारिक सुखों का मार्ग (काम) और कल्याण का मार्ग (मोक्ष)। औपनिषदिक ऋषियों को धर्म, अर्थ, और काम सन्तुष्ट नहीं कर पाये। वे किसी ऐसी नित्य वस्तु को प्राप्त करना चाहते थे जिसे प्राप्त कर लेने पर सभी कुछ प्राप्त हो जाय और जिससे सभी सांसारिक दुःख दूर हो जाये। जैसा कि कहा गया है- ‘अत्र ब्रह्म समश्नुते’ अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति यहीं, इसी लोक और इसी जन्म में हो सकती है और होती है। ‘‘इहैव तदाप्नोति’’- उस परम तत्त्व को यहीं प्राप्त किया जाता है। छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि- ‘‘न प्रियाप्रिये स्पृशतः’ जीवन्मुक्त को प्रिय और अप्रिय, लौकिक सुख और दुःख स्पर्श नहीं करते। इसी प्रकार भौतिक सम्पत्ति से मैत्रेयी का असन्तोष और उसका यह अत्यन्त सरल प्रश्न है कि- ‘‘मैं ऐसी सम्पत्ति को लेकर क्या करूँगी जिससे मुझे अमरत्व की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार उपनिषद के ऋषि मोक्ष से कम किसी वस्तु से सन्तुष्ट नहीं होना चाहते। उनका लक्ष्य उस स्थिति को प्राप्त करना है, जहाँ जीव परमतत्व का ज्ञान प्राप्त कर स्वयं उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत देखता है। उसके लिए ‘है’ और ‘चाहिए’ का द्वैत, जो नैतिक जीवन की जड़ में है, समाप्त हो जाता है। नैतिक कार्य उसके लिए सहज बन जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सहज क्रियाएँ हमारे लिए स्वाभाविक और सहज है यही ‘जीवन्मुक्तता’ की स्थिति है।
दार्शनिक परम्परा में वेद् तथा उपनिषदों में प्राचीन ऋषि-मुनियों के वे मूल्यवान आध्यात्मिक अनुभव निहित हैं जो उन्होंने समाधि को अत्यन्त उच्च अवस्था में ब्रह्म या ईश्वर के विषय में प्राप्त किये थे किन्तु इनमें निहित गुह्यतत्त्वविद्या को समझ पाना जनसाधारण के लिए अत्यन्त कठिन कार्य था। वस्तुतः यह केवल कुछ अधिकारियों के लिए ही सुरक्षित था। इसी कमी को दृष्टगत करते हुए वेदव्यास ने उपनिषदों की शिक्षा का सार सर्व-साधारण के लिए भगवद्गीता के रूप में उपलब्ध कराया। भगवद्गीता में मोक्ष का स्वरूप, मुक्त पुरुष का समाजिक जीवन तथा उसके लोक कल्याण के कार्यों का वर्णन विभिन्न स्थानों पर हुआ है। इसमें मुक्त पुरुष के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग हुआ है। उसे-
जीवन्मुक्त- (इसी जीवन में शरीर रहते हुए भी मुक्त),
गुणातीत- (जो सभी गुणों से ऊपर उठ चुका है।, अर्थात जिसने इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है कि वह साक्षी आत्मा या तटस्थ पुरुष हैं और सभी कर्म प्रकृति और उसके विकार-मन, इन्द्रियाँ इत्यादि द्वारा किये जा रहे हैं),
स्थितप्रज्ञ- (जिसका मन या चित्त स्थिर हो गया हे और जो सुखों में चंचल या दुःखों में विचलित नहीं होता),
भक्त- (जिसने अपने आप को ईश्वर को समर्पित कर दिया है और स्वयं को ईश्वर का केवल निमित्त समझता है),
ज्ञानी- (जिसने ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लिया है, जो सभी कर्मों में प्रकृति का कर्तृव्य और आत्मा या पुरुष का अकर्तृत्व देखता है) तथा
कर्मयोगी- (जिसने निष्काम-भाव से कर्म करने के आदर्श को प्राप्त कर लिया है), इत्यादि नामों से पुकारते हैं।
भगवद्गीता के अनुसार मुक्त पुरुष की सभी इच्छाएँ, आसक्तियाँ, अहंकार तथा सांसारिक सुखों की तृष्णा का नाश हो जाता है। वह सभी प्रकार के मोह-बन्धनों से मुक्त होकर आत्मा में ही प्रीति वाला, आत्मा  में ही तृप्त और आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने वाला बन जाता है। वह आत्मा से ही प्रेम करता है, विषयों से नहीं, वह आत्मा से तृप्त है, उसकी तृप्ति अन्न, रस आदि के अधीन नहीं रह गयी है, वह आत्मा में ही सन्तुष्ट है, सन्तुष्ट होने के लिए उसे बाह्य विषयों की आवश्यकता नहीं है। ऐसे आत्मज्ञानी के लिए कोई कत्र्तव्य शेष नहीं है। कर्मों को वह अब भी करता है परन्तु अब तक वह अतृप्त इच्छाओं, आसक्तियों तथा तृष्णा के कारण कर्म करता था परन्तु अब वह लोक-संग्रह के लिए या ईश्वर के लिए कर्म करता है। अब वह समझता है कि मैं (पुरूष या आत्मा) कर्म नहीं कर रहा हूँ, कर्म करने वाली केवल प्रकृति ही है। वास्तव में वह कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखने लगता है। (भगवद्गीता-4.18) वह देखता है कि सभी कर्म प्रकृति ही कर रही है और मैं आत्मा इन सब की केवल साक्षी हूँ। (कर्म में अकर्म) और कुछ न करते हुए भी- पूर्णतया अकर्मी रहते हुए भी (क्योंकि सभी कार्य प्रकृति द्वारा किये जा रहे हैं)- सभी कार्य उसी के द्वारा किये गये हैं, ऐसा व्यवहार में कहा जाता है (अकर्म में कर्म)। इस प्रकार मुक्त पुरूष देखता है कि उसके सभी कर्मों को करने वाली कर्मेन्द्रियाँ प्रकृति की ही विकार हैं और उनके अच्छे-बुरे फलों को भोगने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ और मन भी प्रकृति का ही विकार हैं। कर्मयोग की दृष्टि से इसे यों समझ सकते हैं कि मुक्त पुरूष कर्म तो करता है परन्तु कर्म करते हुए भी वह उनसे अलिप्त रहता है। अब तक वह अहंकारवश कर्म करता था परन्तु अब उसके अहंकार का नाश हो गया है, कर्मों के पीछे ‘अपना’ कुछ नहीं है। उसके स्वयं के लिए प्राप्त करने को कुछ शेष नहीं रह जाता है। फिर भी वह कर्मों को शरीर का धर्म समझकर करता रहता है। वह स्वधर्म का पालन करता है क्योंकि सांसारिक लोग महापुरूषों का ही अनुकरण करते हैं। अब यदि मुक्त पुरूष स्वधर्मों का पालन छोड़ दें तो वे लोग भी जो अभी व्यवहार और अज्ञान में हैं तथा जिनकी अभी कर्मों में आसक्ति है, अपने कर्मों को छोड़ देंगे। परिणामस्वरूप  संसार में बहुत ही अव्यवस्था फैल जायेगी। इसलिए विश्व में व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से मुक्त पुरूष स्वधर्म का पालन करता रहता है। जैसा कि प्रो0 हिरियण्णा का मत है कि गीता की शिक्षा ‘कर्मों का त्याग’ नहीं बल्कि ‘कर्मों में त्याग है’।
भारतीय दर्शन के सम्प्रदायों को मुख्यतः दो वर्गों- आस्तिक और नास्तिक में रखा जाता है। आस्तिक दर्शनों में न्याय और वैशेषिक बहुतत्ववादी है। सांख्य और योग द्वैतवादी। जहाँ न्याय-वैशेषिक विश्व और उसकी समस्याओं के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण रखते हैं, वहीं सांख्य-योग केवल प्रकृति और पुरूष से विश्व की व्याख्या करता है।
वेदान्त के सभी सम्प्रदायों के अनुसार केवल ब्रह्म ही परमतत्व है। परन्तु जीव और जगत् का ब्रह्म से क्या संबध है- इस विषय पर विभिन्न सम्प्रदायों के अलग-अलग उत्तर हैं। जहाँ मघ्व-द्वैतवादी है तथा जीव और जगत् का ब्रह्म से भेद बतलाते हैं। वहीं निम्बार्क और चैतन्य जीव और जगत् के ब्रह्म से भेद और अभेद दोनों को स्वीकार करते हैं। रामानुज विशिष्टाद्वैत को मानते हैं तथा बल्लभ शुद्धाद्वैत को स्वीकारते हैं।
शंकर का मत है कि जगत् अपने सभी विविधताओं के साथ ब्रह्म पर आरोपण है है अतः परमार्थिक दृष्टि से वह है ही नहीं। अविद्या के कारण ब्रह्म ही जगत् के रूप में प्रतीत होता है। इसी प्रकार जीव का भी ब्रह्म से अद्वैत सम्बन्ध है परन्तु अज्ञानवश वह स्वयं को ब्रह्म से भिन्न समझता है। अविद्या के निरसन के बाद जीव ही ब्रह्म हो जाता है।
नास्तिक दर्शनों में नास्तिक शिरोमणि चार्वाक दर्शन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में अपने भौतिकवाद के आधार पर केवल अर्थ और काम को महत्व देते हैं तथा मोक्ष की उपेक्षा करते हैं। जैन बहुतत्ववादी है, उनके अनुसार जीव स्वरूपतः नित्य शुद्ध है किन्तु कर्मों के आवरण के कारण बन्धन में रहता है परन्तु ज्यों ही कर्मों का आवरण नष्ट हो जात है, जीव का अजीव से संबन्ध विच्छेद हो जाता है तथा जीव अपनी स्वाभाविक शक्ति अनन्त दर्शन, ज्ञान, वीर्य आदि को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में संवर और निर्जरा के कारण सभी प्रकार के कर्म-पुद्गल समाप्त हो जाते हैं और जीव स्वभाववश ऊपर की ओर गति करते हुए सिद्धिशिला को प्राप्त कर लेता है तथा मुक्त होकर वह वहीं निवास करता है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण राग, द्वेष एवं मोह का क्षय है और यह क्षय शरीर रहते हुए भी हो सकता है। स्वयं भगवान बुद्ध ने कहा था जो पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य को जानता है वही निर्वाण को जानता हे, अर्थात जीव मात्र पंचस्कन्धों का संघात है और इस ज्ञान को आत्मसात् कर लेना मुक्त हो जाना है। इस अवस्था में व्यक्ति का शरीर शेष रहता है परन्तु उसे नित्य शरीर के रूप में नहीं समझा जाता है, इसे उपाधिशेष निर्वाण कहते हैं।
बौद्ध दर्शन के महायान शाखा में इस जीवन्मुक्त अवस्था को बोधिसत्व की अवधारण की ओर रूपान्तरित किया। स्वयं भगवान बुद्ध का उदाहरण लेते हुए महायानियों ने ‘परिक्र्त’ का सिद्धान्त स्वीकार किया। यह सिद्धान्त लोक के लाभ के लिए पुण्य को संचित करने का सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त के अनुसार बोधिसत्व अपने पुण्य कर्मों के द्वारा दूसरों को दुःख मुक्त करता है और उनके पापमय कर्मों को स्वयं भोगता है। इससे इस तथ्य को बल मिला कि प्राणिमात्र की दुःख-निवृत्ति के लिए प्रयासरत होना ही वास्तविक धर्म है। बोधिसत्व की अवधारणा ईश्वरीय चमत्कार नहीं है वरन् इसे साधक स्वानुभव से प्राप्त कर सकता है। महायान धर्म में बोधिसत्व के विकास की 10 भूमियों का उल्लेख मिलता है जो निम्नवत है: 1. प्रमुदिता 2. विमला 3. प्रभाकारी 4. अर्चिष्मती 5. सुदुर्जया 6. अभिमुखी 7. दुरंगमा  8. अचला 9. साधुमती 10. धर्ममेधा।
समकालीन भारतीय चिन्तन में भी जीवन्मुक्त की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया है। स्वामी विवेकानन्द स्वीकार करते हैं कि शरीर रहते हुए भी आत्मा को अमरत्व की अनुभूति हो सकती है। उनका मत है जीव को इसका स्पष्ट ज्ञान होता है कि वह कायिक नहीं है। इस अवस्था में उसके कर्म शारीरिक और ऐन्द्रिक आकांक्षाओं की पूर्ति  के लिए नहीं किए जाते। वह कर्म करते हुए भी उनसे प्रभावित नहीं होता। परन्तु जब तक शरीर उत्पन्न करने वाली समस्त प्रवृत्तियाँ समाप्त नहीं हो जाती। तब तक उसका शरीर जीवित रहता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का मानना है कि ‘स्व’ के दृष्टिकोंण के अनुरूप हम सुख-दुःख, शुभ-अशुभ में भेद करते हैं परन्तु अमरत्व को अवस्था में आत्मा सुख-दुःख, शुभ-अशुभ के ऊपर उठ जाएगी। इस अनुभूति में विश्व को देखने के दृष्टिकोंण में अन्तर आ जाएगा तथा समाज में व्यक्ति की वैयक्तिकता बनी रहती है।
श्री अरविन्द ने जीवन्मुक्त की तरह ही ज्ञान-पुरुष का वर्णन किया है। ज्ञान-पुरुष अध्यात्मिकता के स्तर को पा चुका होता है, किन्तु शारीरिक होने के कारण वह भौतिक, जैविक जगत् का वासी है। परन्तु जीवन्मुक्त और ज्ञानपुरूष में भेद है और इस भेद के आधार पर कहा जा सकता है कि ज्ञान पुरूष में जीवन्मुक्त के अतिरिक्त कुछ और भी है।
डाॅ0 राधाकृष्णनन् के मानव जीवन का चरम लक्ष्य पूर्ण एकत्व की अनुभूति है इसे आत्मज्ञान भी कहा जा सकता है। इस पूर्ण एकत्व की अनुभूति शरीर रहते हुए भी प्राप्त की जा सकती है। इससे स्पष्ट है कि उनके विचारों में जीवन्मुक्त की अवधारणा के अंश विद्यमान हैं।
यह कहा जा सकता है कि ‘जीवन्मुक्त’ के ज्ञान का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग हो सकता है जो कि उनकी तत्त्वमीमांसा द्वारा निश्चित होता है। वस्तुगत रूप से उसका ज्ञान परमतत्त्व का ज्ञान है। परन्तु व्यक्तिगत रूप से वह जीव के स्वयं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है जैसा कि वृहदारण्यक उपनिषद् में घोषित है कि- जो अपने आत्मा को जान ले कि मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव पुरूष हूँ तो वह सर्वात्मा ही है और तब वह किस कामना से भ्रष्ट होगा अर्थात् शारीरिक तापों को आत्मदर्शी आत्मा से बाहय समझकर पुनः दुःखों को प्राप्त नहीं होता।
इतना ही नहीं जीवन्मुक्ति की अवधारणा व्यक्ति के स्वयं के विकास के साथ ही सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है जैसा कि विद्यारण्य स्वामी ने जीवन्मुक्तिविवेक में कहा है कि- यदि इसी जीवन में उपलब्धियों की रक्षा की निश्चायत्मकता एवं विश्वसनीयता बनी रही तो पूर्ण कृत्यकृत्यता  एवं प्राप्तप्राप्तव्यता मानी जाती है किन्तु जीवन मुक्त का आदर्श यहीं तक नहीं रहता, इसके उपरान्त लोक कल्याण के लिए ‘जीवन्मुक्त’ होता है। वस्तुतः जीवन्मुक्त के संकल्प की दृष्टिकोण से देखें तो वह निष्काम कर्म है, मानवता की दृष्टि से देखें तो वह स्वयं के आदर्श स्वरूप  ब्रह्म या ईश्वर को वास्तविक स्वरूप  द्वारा अर्पित पूजा है तथा ज्ञान की दृष्टि से देखें तो वह ब्रह्म से अभेद का ज्ञान है और सामाजिक दृष्टिकोण से समस्त मानव जाति के उत्थान के लिए प्रयासरत एक कर्मयोगी है।









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