Wednesday 31 December 2008

शमथ-भावना-विधि में कर्मस्थान (कम्मट्ठान)


अमिताभ उपाध्याय
शोध छात्र (यू0जी0सी0/जे0आर0एफ0), पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |


साधक शील में प्रतिष्ठित होकर चित्त की एकाग्रता के लिए जब साधन करता तो उसे स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में शमथ-भावना के रूप में जाना जाता है। शमथ का अर्थ है - ‘पंच नीवरणानं समथ समनट्ठेन समथ’ अर्थात् पाँच नीवरण जिनसे विध्नो का उपशम (विनाश) हो। अतः शमथ-भावना का उद्देश्य चित्त की एकाग्रता में विध्न उपस्थित करने वाले पाँच नीवरण को शान्त करना है। पाँच नीवरण इस प्रकार से हैं - कामछन्द-विषय के प्रति अनुराग कामछन्द है। व्यापाद-व्यापाद हिंसा को कहते हैं। स्त्यान मिद्ध (थीन मिद्ध) चित्त की अकर्मण्यता और मन्दता को सत्यान-मिद्ध कहते हैं। औद्धत्य-कौकुत्य (उद्धच्च-कुकुच्छ) खेद एवं पश्चाताप को औद्धत्य-कौकुत्य कहते हैं। विचिकित्सा (विचिकिच्छा)- संशय को विचिकित्सा कहते हैं।
संसार से विरक्त, निर्वाण प्राप्ति के लिए शीलवान् साधक समाधि के प्राप्ति के लिए विभिन्न कार्मस्थानों में से किसी एक को आलम्बन बनाकर चित्त की एकाग्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। समाधि (शमथ-भावना) के विकास के लिए कर्मस्थानों का अत्यधिक महत्व है। ‘कम्मस्स ठानं कम्मट्ठानं’ के अनुसार भावना आदि कर्म के अनुसार आश्रयभूत आलम्बन को कर्मस्थान कहते हैं। बौद्ध परम्परा के अनुसार कर्मस्थान चालीस प्रकार के होते हैं, इनका सात भागों में वर्गीकरण किया गया है -1
1ण् दस कृत्सन (कसिण)
2ण् दस अशुभ
3ण् दस अनुस्मृतियाँ
4ण् चार ब्रह्मविहार
5ण् चार आरूप्य
6ण् आहार में प्रतिकूल संज्ञा
7ण् एक व्यवस्थान या चतुर्धातु व्यवस्थान।
दस कसिण -
कसिण ‘शब्द’ संस्कृत शब्द ‘कृत्सन’ का रूपान्तरण है, जिसका अर्थ सम्पूर्ण या सकल के अर्थ में होता है। बौद्ध साहित्य में इस शब्द का अर्थ समाधि के उन विषयों के लिए हुआ है जो सम्पूर्ण चित्त को ग्रहण करता है और इसे अन्य विचारों के प्रादुर्भाव का अवसर नहीं देता है। ये इस प्रकार से हैं -
पृथ्वीकसिण, आपोकसिण, तेजोकसिण, वायुकसिण, नीलकसिण, पीतकसिण, लोहितकसिण, अवदात कसिण, आलोक कसिण तथा परिच्छिन्नाकाश कसिण।
पृथ्वीकसिण -
पृथ्वीकसिण की भावना करने वाले योगी को एक बालिश्त चार अंगुल के फैलाव वाले मिट्टी के गोले को अपने ध्यान का आलम्बन बनाना चाहिए। मिट्टी को अरुण रंग (सूर्योदय के समय, सूर्य के समान लाल रंग) का होना चाहिए।2 योगी द्वारा निर्मित इस आलम्बन की सम्पूर्ण भावना करना आवश्यक है। उनके किसी भी अंश का परित्याग अनपेक्षित है। पृथ्वी ही सम्पूर्ण रूप में भावनीय आलम्बन है। योगी को पृथ्वी-कसिण की प्रतिमा को अपने अन्तःकरण में उसी प्रकार स्पष्ट और विशिष्ट रूप में देखना चाहिए जैसा कि वह पूर्णतः खुली आँखों से देखता था। ज्यों ही यह स्थिति पूर्ण होती है वह पाँच नीवरणों तथा क्लेशों से मुक्त हो जाता है।
आपोकसिण -
आपोकसिण को भावना करने वाले योगी को सुखासन में बैठकर, कसिण के चतुर्विध दोषों को नष्ट कर, नील, पीत तथा श्वेत वर्णी जल को ग्रहण न कर, जो अभी भूमि पर न पहुँचा हो, आकाश में शुद्ध वस्त्र द्वारा ग्रहण किया गया हो, उसे पात्र में पूर्णतः भरकर अप् की भावना करनी चाहिए।3 भावना के क्षण में विविध पर्यायों में से किसी एक प्रथित नाम का उच्चारण कर अप् की भावना करना आवश्यक है।
तेजोकसिण -
तेजोकसिण की भावना करने वाले योगी के लिए तेज आलम्बन होता है। तेजोकसिण की भावना करने के लिए स्वच्छ लकडि़यों को संकलित कर मण्डप में जाकर सूखी लकड़ी को जलाकर चमड़े, कपड़े या चटाई में एक बालिश्त चार अंगुल का छेद कर उसमें से अग्नि को देखते हुए ध्यान करना चाहिए।4


वायोकसिण-
इस प्रसंग में वायु, ध्यान का आलम्बन होता है। वायुकसिण में दृष्टि या स्पर्श द्वारा उनको निमित्त बनाया जाता है। वृक्षादि के अग्रभाग को वायु द्वारा संचालित देखकर दृष्टि से तथा वायु के स्पर्श का अनुभव कर, स्पर्श से वायु का ध्यान-भावना करना चाहिए।5
नीलकसिण-
नील कसिण में ध्यान का आलम्बन नील रंग होता है। यह रंग नीलपुष्प, वस्त्र तथा नीलवर्णीं धातु में भी हो सकता है। ध्यान की इस प्रक्रिया में योगी को चाहिए इस नील आलम्बन को अन्य विविध रंगों में समावृत कर तथा पुष्प के अन्य लक्षणों को निराकृत कर नीले रंग पर चित्त को एकाग्र करना चाहिए।6
पीतकसिण -
नीलकसिण के ही अनुरूप पीतकसिण का भी क्रम है। पीत कसिण की भावना करने का इच्छुक योगी पीत पुष्प, वस्त्र तथा पीतवर्णी की धातु में निमित्त ग्रहण करता है।7
लोहितकसिण -
लोहितकसिण की भावना करने वाले योगी को रक्तपुष्प, रक्तवस्त्र तथा रक्तधातु में लोहितकसिण निमित्त ग्रहण किया जा सकता है।8
अवदातकसिण -
अवदातकसिण की भावना करने वाले योगी को श्वेतपुष्प, श्वेतवस्त्र या श्वेतधातु में निमित्त ग्रहण करना चाहिए।
आलोककसिण -
आलोककसिण की भावना करने वाले योगी भित्तिछिद्र में आलोक का निमित्त ग्रहण करता है। पूर्वजन्म के अभ्यस्त योगी के समक्ष भित्तिछिद्र से प्राप्त सूर्य प्रकाश के या चन्द्र प्रकाश के प्रकाश गोलक के अभिदर्शन मात्र से निमित्त का उदय हो जाता है।
आकासकसिण -
परिच्छिन्न आकास कसिण की भावना करने वाले योगी भित्ति छिद्र या गवाक्ष में आकाश कसिण की भावना करता है। पूर्वजन्म में कृताभ्यास योगी के समक्ष भित्तिछिद्र आदि में से किसी एक के अवेक्षण से निमित्त का उदय हो जाता है।
इस प्रकार से दस कसिणों में पृथ्वी आदि चार कसिण, नीलादि चार वर्ण कसिण तथा परिच्छिन्नाकाश आकाश कसिण तथा चन्द्र सूर्य आलोक कसिण है।


दस अशुभ -
अशुभ कुत्सित अर्थ में प्रयुक्त होता है। ‘अशुभ’ शब्द ‘अशोभन’ का प्रत्यायक है। मुख्यतया शव को अशुभ की संज्ञा दी गयी है। मरणोपरान्त शव के आकृति में अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती है, उन विकारों से उत्पन्न शव की विभिन्न अवस्थओं को दस अशुभ कर्मस्थानों को माना गया है। जो कि निम्नलिखित है- उद्धुमातक, विनीलक, विपुब्बक, विच्छिद्दक, विक्खायितक, विक्षिप्तक, हतक्खित्तक, लोहितक, पुलवक, अट्ठिक।9
1ण् उद्धुमातक -
मरणोपरान्त वायु के शोध के कारण हाथी की तरह फूले हुए शव को उद्धुमातक कहते हैं।
2ण् विनीलक -
श्वेत वर्ण मिश्रित नीलवर्ण को विनीलक कहते हैं। मनुष्य के शरीर में मांस के स्थूल पर रक्त का वर्ण, पीब के स्थल पर श्वेत वर्ण अन्य स्थल पर नील वर्ण का प्रत्यक्षीकरण होता है। अर्थात् विभिन्न वर्णों के संयोग से युक्त शरीर विनीलक कहलता है।
3ण् विपुब्बक -
बहते हुए पीब से युक्त शरीर का नाम विपुब्बक है।
4ण् विच्छिद्दक -
नाना प्रकार के विशिष्ट छिद्रों से युक्त मृत शरीर को विच्छिद्दक कहते हैं।
5ण् विक्खायितक -
विविध जीवों श्वान, श्रृंगाल, सिंह आदि के द्वारा भक्षित मृत शरीर को विक्खायितक कहते हैं।
6ण् विक्षिप्तक -
जिस मृत शरीर का प्रत्येक अंग एकत्र न हो विक्षिप्तक कहलाता है।
7ण् हतविक्खित्तक -
किसी शस्त्र द्वारा काटकर इधर-उधर छितरा दिये गये अंगों वाला मृत शरीर हतविक्खित्तक कहलाता है।
8ण् लोहितक -
बहते हुए रक्त से सने मृत शरीर को लोहितक कहते हैं।
9ण् पुलवक -
कीड़ांे से परिपूर्ण मृत शरीर को पुलवक कहते हैं।


10ण् अट्ठिक-
अस्थियों से परिपूर्ण मृत शरीर को अट्ठिक कहते हैं। अर्थात् जिस मृत शरीर में केवल अस्थियाँ ही शेष हों।
एकाग्रता के लिए दस अशुभ कर्मस्थानों की भावना योगी के लिए उसी स्थान पर विहित है जहाँ ये सहजतया से सुलभ हों। अशुभ कर्मस्थान प्रायः श्मशान पर ही मिलते हैं। इनको ग्रहण करते समय कुछ सावधानी रखना चाहिए, उन्हें निमित्त बनाने के लिए, संघ के स्थविर या अन्य स्थविर भिक्षुओं को बता देना चाहिए। क्योंकि श्मशान में वन्य जीव, भूत-प्रेत तथा चोरों आदि के उपद्रव की आशंका रहती है। बताकर जाने से उस योगी की सुरक्षा-सम्बन्धी व्यवस्था करना सम्भव हो जाता है।10
दस अनुस्मृतियाँ -
जो धर्म, विषयों का स्मरण करता है या जिसके द्वारा स्मरण किया जाता है, उसे स्मृति कहते हैं। ‘अनुस्मृति’ शब्द ‘अनु’ उपसर्ग पूर्वक स्मृति से निष्पन्न है जो पुनः पुनः स्मरण का बोधक है। स्मृति अपने क्षेत्र में पवर्तमान् शीलादि सद्गुणों का अनुसरण करती है। अविस्मरण इसका प्रमुख कार्य है। स्मृति का अनुक्षण अनुचिन्तन या अनुस्मरण ही अनुस्मृति है। कर्मस्थान के प्रसंग में विवेचित अनुस्मृतियाँ निम्नलिखित हैं-
1ण् बुद्धानुस्मृति -
बुद्धानुस्मृति में योगी को तथागत के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिए। प्रसन्नचित्त होकर एकान्त व दोषरहित स्थान पर बैठकर, भगवान, अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध हैं। विद्याचरण सम्पन्न हैं, सुगत हैं, लोकविद् हैं 11 इत्यादि प्रकार से भगवान् बुुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिए।
2ण् धर्मानुस्मृति -
धर्म की अनुस्मृति ही धर्मानुस्मृति है। धर्मानुस्मृति के अभिलाषी योगी को यह भावना करनी चाहिए कि तथागत से धर्म स्व विख्यात है। धर्मानुस्मृति के अनुस्मरण से राग मोहादि विकार दूर हो जाते हैं। योगी को बार-बार इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए कि भगवान् बुद्ध का धर्म अच्छी तरह से कहा गया है, तत्काल फल देने वाला है, कालान्तर में फल की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। वह विज्ञ पुरुषों द्वारा अपने आप जानने योग्य है।12
3ण् संघानुस्मृति -
संघानुस्मृति की साधना करने वाले योगी को यह विचार करना चाहिए कि भगवान् बुद्ध का श्रावक संघ सीधे, न्यायसंगत एवं उचित मार्ग पर चल रहा है। स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत् के चार मार्गस्थ तथा चार फलस्थ पुरुषों को भगवान् के श्रावक संघ के रूप मंे जाना जाता है। यह श्रावक संघ आह्वान के योग्य, दान देने के योग्य एवं हाथ जोड़ने के योग्य होता है। श्रावक संघ की पूजा करने से पुण्य लाभ होता है।13
4ण् शीलानुस्मृति -
शील की शुचिता, अखण्डता, निर्दोषता, निर्मलता आदि के गुणों का सतत् बार-बार स्मरण करना शीलानुस्मृति है।14
5ण् त्यागनुस्मृति -
त्याग का अनुस्मरण ही त्यागनुस्मृति है। त्यागानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को सदा दान देने वाला होना, चाहिए, साथ ही उसे अपने दान-कार्य रूप गुण से सन्तोष का अनुभव करना चाहिए।15
6ण् देवतानुस्मृति -
देवतानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को देवत्व के गुण समन्वित देवताओं के श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग एवं प्रज्ञा आदि गुणों का पुनः पुनः चिन्तन करते हुए अपने में भी उन गुणों का अस्तित्व का अनुस्मरण करना चाहिए।16
7ण् मरणानुस्मृति -
जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद ही मरण है। मरणानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को मरण एवं जीवितेन्द्रिय के विनाश की वास्तविकता को बार-बार स्मरण कर दृढ़ करना चाहिए।17
8ण् उपशमानुस्मृति -
निर्वाण के परम प्रणीत एवं शान्त सुख स्वभाव का अनुस्मरण ही उपशमानुस्मृति है। योगी समस्त दुःखों के उपशय स्वरूप निर्वाण के गुणों की चिन्तन करता है।18
9ण् कायानुस्मृति -
बौद्ध-साधना में कायानुस्मृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह शरीर के प्रत्यवेक्षण एवं ध्यान का प्रत्यायक है। कायानुस्मृति की भावना में योगी चार महाभूतों से बने गन्दे शरीर के केश आदि पर विचार करता हुआ उनमें विरक्ति के भाव लाता है। इस प्रकार की भावना से योगी कायिक आसक्ति से विमुक्त हो परम शान्ति को प्राप्त करता है।
10ण् आनापान अनुस्मृति -
आनापान अनुस्मृति में योगी आने श्वास पर भावना करता है। आनापान में ‘आन’ बाहर की ओर निकलने वाली वायु है और अन्दर गमन करने वाली वायु ‘अपान’ है। आनापान स्मृति की भावना करने वाले योगी के लिए प्रथमतः आना (प्राण) की और तत्पश्चात् अपान की भावना विहित है।


चार ब्रह्मविहार -
सत्पुरूषों के उत्तम विहार को ब्रह्मविहार कहते हैं। यह न केवल चित्त की एकाग्रता का निमित्त है, अपितु चित्तविशुद्धि के लिए सर्वोत्तम साधन भी है प्राणियों के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए इसकी शिक्षा ब्रह्म विहारों से मिलती है। भेद के दृष्टि से यह चार प्रकार का है। मैत्री, करूणा, मुदिता एवं उपेक्षा। जब योगी इन चार ब्रह्मविहारों की भावना करता है, तो वह सभी प्राणियों के हित-सुख की कामना करता है। दूसरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा करता है। जो सम्पन्न हैं, उन्हें देखकर प्रमुदित होता है तथा उसका सभी प्राणियों के प्रति समभाव रहता है। इन चार ब्रह्मविहारों की भावना से चित्त के राग, द्वेष, ईष्र्यां आदि विकारों का सर्वथा विनाश हो जाता है। अन्य कर्मस्थान आत्महित के साधन हैं जबकि ये चार ब्रह्मविहार पर हित के भी साधन हैं।
चार ब्रह्मविहारों को अप्रमाण भी कहा गया है। इसका कारण यह है कि इनका आलम्बन प्रमाणरहित जीव होते है।19
1ण् मैत्रीभावना -
जीवों के प्रति स्नेह और सुहृदयभाव के साथ व्यवहार करना मैत्री है। यह अद्वेष नामक कुशल चित्तवृत्ति है, जिसके कारण सभी प्राणियों के प्रति प्रेमभाव का उदय होता हेै। सभी प्राणी व्यापादरहित (आलस्यरहित), उपद्रवरहित, सुखपूर्वक जीवन यापन करें, ऐसी भावना ही मैत्री भावना है। ‘‘सब्बे सत्ता भवतु सुखितत्ता’’ की उदात्त भावना ही मैत्री भावना है।
2ण् करूणा भावना -
दूसरों के दुःखी होने पर जब सत्पुरुषों का हृदय कम्पित हो उठता, द्रवित हो उठता है, अथवा दूसरे के दुःख का जो विनाश करती है, अथवा जो दुःखित प्राणियों में फैलती है वह करूणा है।20 दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करना इसका लक्षण है, दूसरों के दुःख को सहन न करना इसका कृत्य है। अन्य प्राणियों को दुःख से बचाना इसे जानने का आकार है।21 दसों दिशाओं में करूणा युक्त चित्त से विहार करना और सभी प्राणियों के लिए मंगल-भावना से युक्त होना ही करूणा है।
3ण् मुदिता -
मुदिता का अर्थ प्रसन्नता होता है। जो धर्म प्रसन्नता का कारण है उसे मुदिता कहते हैं अथवा जो धर्म स्वयं मुदित होता है, वह मुदिता है। सुखी प्राणियांे को देखकर प्रमुदित होना इसका लक्षण है। ईष्र्या न करना इसका कार्य है। दूसरे प्राणियों को गुण, ऐश्वर्य, धन आदि से सम्पन्न देखकर उनके प्रति ईष्र्या भाव उत्पन्न न होने देना ही मुदिता का कार्य है।22
‘‘या सत्तेसु मुदिता मुदितायना मुदतायितत्तं
मुदिताचेतोविमुत्ति अयं वुच्चति ‘‘मुदिता’’।।23
4ण् उपेक्षा -
‘उपेक्खती ति उपेक्खा’ उपेक्षा की भावना ही ‘उपेक्षा’ है। अर्थात् जिसका किसी विषय के प्रति न राग होता है और न द्वेष, उसे उपेक्षा कहते हैं। यह मैत्री भावना की तरह न तो दूसरे सत्तवों के हित की इच्छा करती है, न करूणाभावना की तरह प्राणियों के दुःखों का प्रहाण करने की कामना करती है और न मुदित भावना की तरह अन्य प्राणियों की सुख-सम्पत्ति देखकर सुख अनुभव ही करती है। वरन् सभी प्राणी अपने-अपने कर्मो के दायाद हैं, कर्म से ही उत्पन्न हैं तथा कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त करते हैं, ऐसा सोचकर उपेक्षाभाव रखती है। इसे ही उपेक्षा कहते हैं।24 योगी को उपेक्षा की भावना करते समय उपेक्षा की ही तरह व्यवहार करना चाहिए। ‘या सत्तेसु उपेक्खा उपेक्खायना उपेक्खायितत्तं उपेक्खाचेतोविमुत्ति अयं वुच्चति ‘‘उपेक्खा’’।’25
इन चार ब्रह्मविहारों को चार अप्रमाण भी कहा जाता है। मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा में विहार करना श्रेष्ठ विहार है।
चार आरूप्य -
जब योगी चतुर्थ रूपध्यान के अनन्तर रूप की समतिक्रम के अरूप ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है तो वह चार आरूप्य कर्मस्थानों को अपनी साधना का आलम्बन बनाता है। चार आरूप्य इस प्रकार से हैं - आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानत्यायतन, आकिंचन्यायतन एवं नैवसंज्ञानासंज्ञायतन। अरूप समाधि की सिद्धि से सभी प्रकार के रूपों का अतिक्रमण हो जाता है।
1ण् आकाशान्त्यायतन -
अरूपध्यान का सर्वप्रथम विषय अनन्त आकाश आयतन है। इसमें योगी जड़सृष्टि, इन्द्रिय विषय का सम्बन्ध तथा रूप-शब्दादि आलम्बनों के विचार का निवारण कर ‘आकाश अनन्त है’ इस प्रकार की भावना करता है। योगी कसिण को आलम्बन बनाकर क्रमशः बड़ा करते हुए उसे विश्वाकार आकृति का बना लेता है। यह चतुर्थ रूपध्यान की स्थिति है। तत्पश्चात् योगी उस विश्वकार रूपाकृति को दूर कर उसके स्थान पर विश्व में केवल एक आकाश है- इस प्रकार अरूप आलम्बन को ग्रहण कर आकाश की अनन्तता के विषय में अपने ध्यान को पूर्ण करता है। योगी की इस अवस्था को आकाशानन्तयायतन कहा जाता है।26
2ण् विज्ञानानन्त्यायतन -
आकाशानन्त्यायन समाधि के दृढ़ होने पर योगी उससे विरत होकर आकाश के स्पर्श से युक्त विज्ञान के आनत्य की भावना से आकाशान्त्यायतन का अतिक्रमण कर विज्ञानानन्त्यायन को प्राप्त कर विहार करता है।
3ण् आकिंचायतन -
आकिंचन के भाव को ही आकिंचन्य कहते हैं। इस दिशा में योगी अपने चित्त को अपने अनन्त आकाश रूप विज्ञान से समाकृष्ट कर विज्ञान की अनुपस्थिति की कल्पना करता है और आकिंचायतन को प्राप्त करता है।
4ण् नैवसंज्ञानासंज्ञायतन -
इस स्थिति में संज्ञा अत्यन्त सूक्ष्म रूप में रहती है। चूँकि संज्ञा स्थूलरूप में नहीं रहती है अतः उसे संज्ञा नहीं कहा जा सकता है एवं संज्ञा अत्यन्त सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती है इसलिए उसे असंज्ञा भी नहीं कहा जा सकता है। इन चार आरूप्यों को आलम्बन बनाते समय योगी के ध्यान के दो अंग ही रहते हैं - उपेक्षा एवं एकाग्रता।27
आहार में प्रतिकूल संज्ञा -
चार आरूप्यों के अनन्तर आहार में प्रतिकूल संज्ञा नामक कर्मस्थान का उल्लेख मिलता है। यद्यपि कवलीहार, स्पर्शाहार, मनोसंचेतनाहार तथा विज्ञानाहार के रूप में आहार चार प्रकार का होता है किन्तु यहाँ आहार से केवल कवलीहार ही अभिप्रेत है। कवलीहार में प्रतिकूल संज्ञा से यह कर्मस्थान सिद्ध होता है। इस कर्मस्थान के सिद्ध होने पर योगी की इस सम्बन्धी तृष्णा नष्ट होती है। फलतः वह रसास्वादन की अपेक्षा अपने शरीर की स्थिति के लिए ही आहार ग्रहण करता है। इससे उसके कामराग का प्रहाण होता है एवं कायानुस्मृति उत्पन्न होती है।28
चतुर्धातु व्यवस्थान -
यह अन्तिम कर्मस्थान के रूप में उल्लिखित है। इसमें योगी अपने शरीर में विद्यमान पृथ्वी, आप, तेज एवं वायु धातुओं के स्वभाव का विनिश्चय करता है। इससे योगी धातुओं में अनात्म दुःख एवं अनित्य संज्ञा में चित्त को एकाग्र करता है। अर्थात् उसे विपश्यना की उपलब्धि प्राप्त होती है।
इस प्रकार से चालीस प्रकार के कर्मस्थानों में योगी किसी भी आलम्बन को अपने शमथ-भावना का विषय बना सकता है किन्तु उसे सर्वप्रथम एक कल्याण मित्र की पर्येषणा (खोज) करना चाहिए।
समाधि भावना के लिए स्थान की अनुरूपता भी विचरणीय है। प्रथमतः साधक को देशकाल, योगमात्रा, अभ्युपाय तथा सामथ्र्य प्रधारण का प्रत्यवेक्षण कर योगानुबद्ध होना चाहिए। इसके प्श्चात् योगी निर्जन तथा निःशब्द शय्या का आसन का उपसेवन कर मानसिक एकाग्रता को उपचित करता है। कल्याण मित्र को चाहिए कि वह साधक के मानसिक वृत्तियों की जानकारी परिपृच्छा के माध्यम से कर ले। आध्यात्मिक उपदेष्टा (कल्याण-मित्र) का यह सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह साधक के चरित्र की परीक्षा करने के बाद, उसके अनुसार ही कर्मस्थान का निर्देशन करे जिससे की वह आसानी से विपश्यना को प्राप्त कर सके।


आधार - सामग्री

1. तत्थ स¦ातनिद्देसतो ति चत्तालीसाय कम्मट्ठनेसू ति हि वुत्तं, तत्रिमानि चत्तालीस कम्मट्ठनानि दस कसिणा, दस असुभा, दस अनुस्सतियो, चत्तारो ब्रह्मविहार, चत्तारो आरूप्पा, एकस´्´ा, एकं ववत्थानं ति। (विसुद्धिमग्ग प्रथम खण्ड पृष्ठ-236)
2. तस्मा नीलादिवण्णं मत्तिकं अग्गहेत्वा ग¯ावहे मत्तिकासदिसाय अरूणवण्णाय कसिणं कातब्बं .... अरूणवण्णाय मत्तिकाय विदत्थिचतुरंगुलवित्थारं वट्टं कातब्बं। (वही, पृष्ठ 263, 264)
3. अकताधिकारेन चत्तारो कसिण दोसे परिहरन्तेन नीलपीतलोहितोदातवण्णांन अ´्´तरवण्णं आपं अगहेत्वा यं पन भूमिं असम्पत्तमेव आकासे सुद्धवत्थेन गहितं उदकं, अ´्´ं वा तथारूपं विप्पसन्नं आनाविलं, तेन पत्तं वा कुुण्डिकं वा समतित्तिकं पूरेत्वा विहारपच्चन्ते वुत्तप्पकारे पटिच्छन्ने ओकासे ठपेत्वा सुखनिसिन्नेन व वण्णो पच्चवेक्खितब्बो (वही, पृष्ठ- 359, 360)
4. कटसारके वा चम्मे वा पटे बा विदत्थिचतुरंगुलप्पमाणं छिद्दं कातब्बं। (वही, पृष्ठ - 361)
5. अ´्च स्वो दिट्ठवसेन वा फुट्ठवसेन वा। .... तस्मा समसीसट्ठितं धनपत्तं उच्छुं वा वेलंु वा रूक्खं वा .... वातेन पहरियमानं दिस्वा।  (वही, पृष्ठ - 362)
6. नीलकसिणं उग्गण्हन्तो नीलकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा नीलवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 363)
7. पीतकसिणं उग्गण्हन्तो पीतकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा पीतवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 364)
8. लोहितकसिणं उग्गण्हन्तो लोहितकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा लोहितवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 364)
9. उद्धुमातकं विनीलकं विपुब्बकं विच्छिद्दकं विक्खायितकं विक्खित्तकं हतविक्खित्तकं लोहितकं पुलुवकं अट्ठिक´्चेति इमे दस असुभा नाम। (अभिधम्मत्थसंगहो खण्ड 2 पृष्ठ 872)
10. गच्छन्तेन च संघत्थेरस्स वा अ´्´तरस्स वा अभि´्´ातस्स भिक्खुनो कथेत्वा गब्बं। सच्चे हिस्स सुसाने अमनुस्सीहब्याग्घादीनं रूपसद्दादिअनिट्ठारम्मणाभिभूतस्य अ¯पच्च¯ानि वा पवेधेन्ति भुत्तं वा न परिसण्ठाति, अ´्´ो वा आबाधो होति। अथस्स सो विहारे पत्तचीवरं सुरक्खितं करिस्सति। (विसुद्धिमग्ग खण्ड 1 पृष्ठ 377)
11. इति पि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धो भगवा ति। (दीघनिकाय खण्ड 1 पृष्ठ 54)
12. स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको पच्चत्तं वेदितब्बो वि´्´ूही ति। (मज्झिम निकाय 1/50)
13. सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसंघो यदिदं चत्तारिपुरिसयुगानि, अट्ठपुरिसपुग्गला.... अनुत्तरं पु॰´ खेत्तं लोकस्साति। (वही)
14. अरियसावको अत्तनो सीलानि अनुस्सरति अखण्डानि अच्छिद्वानि असबलानि ...... समाधिसंवत्तनिकानि। (अंगुतर निकाय 3/9)
15. ..... अत्तनो चागं अनुस्सरति-लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे .... दान सविभागरतो ति। (वही)
16. अरिय सावको देवतानुस्सतिं भावेति-सन्ति देवा चातुमहाराजिका.... मय्हं पि तथारूपा प॰´ा संविज्जति ति। (वही पृष्ठ 10)
17. मरणं भविस्सति, जीवितिन्द्रियं उपच्छिज्जिस्सती ति वा मरणं मरणं ति वा योनिसो मनसिकारो पवत्तेतब्बो। (विसुद्धिमग्ग 1/505)
18. यावता, भिक्खवे, धम्मा संखता वा असंखता वा विरागो तेसं धम्मानं अग्गमक्खायति.....। (अंगुतर निकाय 2/37)
19. मेत्ता, करूणा, मुदिता, उपेक्खा चेति इमा चतस्सो अप्पम´्´ायो नाम; ब्रह्मविहारा’ ति पि वुच्चन्ति। (अभिधम्मत्थसंगहो 2/881)
20. परदुक्खे सति कारुणिकानं हृदयवेदनं करोतीति करूणा, किरति वा परदुक्खं विक्खिपति, किणाति वा परदुक्खं हिंसती ति करूणा, किरीयति दुक्खितेसु पसारीयतीति वा करूणा। (परमत्थदीपनी पृष्ठ 89, विभावनी पृष्ठ 85)
21. दुक्खापनयनाकाप्पवत्तिलक्खणा करुणा, परदुक्खासहनरसा, अविहिंसापच्चुपट्ठाना, दुक्खाभिभूतानं अनाथभावदस्सनपदट्ठाना। विहिंसूपसमो तस्मा सम्पति, सोकसम्भवो विपत्ति। (विसुद्धिमग्ग 2/677)
22. पमोदनलक्खणा मुदिता, अनिस्सायनरसा, अरतिविधातपच्चुपट्ठाना, सत्तानं सम्पत्तिदस्सनपदट्ठाना। अरतिवूपसमो तस्मा सम्पत्ति, पहास सम्भवो विपत्ति। (वही 2/678)
23. विभंग पृष्ठ - 330।
24. .....कम्मस्सका सत्ता, ते कस्स रुचिया सुखिता वा भविस्सन्ति, दुक्खतो वा मुच्चिस्सन्ति, पत्तसम्पत्तितो वा न परिहायिस्सन्ती ति। पटिघानुनयवूपसमो तस्सा सम्पत्ति, गेहसिताय अ॰´ाणुपेक्खाय सम्भवो विपत्ति। (विसुद्धिमग्ग 2/678)
25. विभंग पृष्ठ- 331।
26. सो तत्थ एवं आदीनवं दिस्वा निकन्तिं परियादाय आकासान´्चायतनं सन्ततो अनन्ततो मनसिकरित्वा चक्कवालपरियन्तं वा यत्तकं इच्छति तत्तकं वा कसिणं पत्थरित्वा तेन फुट्ठोकासं ‘‘आकासो आकासो’’ ति वा, ‘‘अनन्तो आकासो’’ ति वा मनसिकरोन्तो उग्घाटेति कसिणं। (विसुद्धिमग्ग 2/700)
27. तमेव पठमारुप्पवि॰´ाणं अनन्तवसेन परिकम्मं करोन्तस्स दुतियारुप्पमप्पेति। पठमारुप्पवि॰´ाणं पन नत्थि कि॰चीति परिकम्मं करोन्तस्स ततियारुप्पमप्पेति। ततियारुप्पं सन्तमेतं पणीतमेतं ति परिकम्मं करोन्तस्स चतुत्थारुप्पमप्पेति। अवसेसु च दससु कम्मट्ठानेसु बुद्धगुणादिकमारमणमारब्भ परिकम्मं कत्वा तस्मिं निमित्ते साधुकमुग्गहिते तत्थेव परिकम्म´्च समाधियति, उपचारो च सम्पज्जति। (अभिधम्मत्थसंगहो खण्ड 2 पृष्ठ 907-911)
28. आहारे पटिक्कूलस´्´ं अनुयुत्तस्स भिक्खुनो रसतण्हाय चित्तं पतिलीयति..... कायगतासतिभावना पि पारिपूरिं गच्छति। (विसुद्धिमग्ग खण्ड 2 पृष्ठ 749)


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