Thursday 1 April 2010

रघुवीर शरण मिश्र कृत भूमिजा की सीता का चारित्रिक विकास



डाॅ० सुरत प्यारी गौड
प्रवक्ता, शिक्षा संकाय, डी०ई०आई० दयालबाग, आगरा


रघुवीर श्रण ‘मिश्र’ कृत भूमिजा आठ सर्गों में विभक्त आधुनिक काल का प्रेरणादायक सुन्दर खंडकाव्य हैं। कवि ने सीता के माध्यम से समाज एवं राष्ट्र को सम्मृद्धिशाली बनाने का नूतन सन्देश दिया है सीता के जीवन का कथानक प्रस्तुत खंडकाव्य में बीज रूप में अपनाया गया है। आधुनकि काल में पाश्चात्य स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन ने भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक जागृति पर विशेष प्रभाव डाला है फलस्वरूप भारतीय जनमानस में जो आन्दोलन आया उसने साहित्य को नवजीवन प्रदान किया है। कवि आधुनकि जीवन की कृत्रिमताओं और विसंगतियों का समाधान खोजने के लिए पुनः अरण्य जीवन के अकृत्रिम परिवेश की ओर उन्मुख हो गया है। ‘सीता’ को कृषि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में तो ऋग्वेद तथा बाल्मीकि रामायण से ही माना जाता रहा है, परन्तु प्रकृति जीवन के परिप्रेक्ष्य में उसकी पुनव्र्याख्या ही भूमिजा का कथानक है।
गाँधी दर्शन से प्रभावित ‘भूमिजा’ की सीता सेवा और निष्काम कर्म की साकार मूर्ति है। आधुनिक काल में जबकि सब अपनी सुख प्राप्ति में संलग्न हैं, दूसरों की व्यथा सुनने का किसी के पास अवकाश ही नहीं है। सीता अपनी सतत् कर्मठता से जंगल को मंगलमय बनाकर राष्ट्र को श्रम की ओर प्रेरित करती है और राष्ट्र को सुख प्राप्ति का मार्गदर्शन भी करती हैं।2
भूमिजा की सीता सत्यव्रत की साकार मूर्ति है। वह रत्नगर्भा धरती की एक अनमोल रत्न है। सत्यता में वह राम से श्रेष्ठ है। धनुष भंग करके राम सीता का वरण करते हैं, रावण का संहार भी करते है परन्तु वही राम निर्दोष, गर्भवती सीता को केवल लोकोपवाद के भय से जंगल में निर्वासित कर देते हैं।3 सीता राम से प्रेम और श्रद्धा करती हैं पति द्वारा परित्याग किये जाने पर भी वह प्रीति की व्यथा को सह करके राम के वंशज की रक्षा करती है।4 अपने को मिट्टी में मिलाकर सुन्दर आशा के सुमन बनकर जगत में सुगन्ध फैलाना चाहती हैं। संघर्ष में रत रहकर राष्ट्र को आनन्द प्राप्ति की ओर भी उन्मुख करती है।5 ‘जियो और जीने दो’6 की अन्तध्र्वनि से वह नारी जीवन केा प्रेरणा प्रदान करती है कि कर्मठता ही जीवन का स्वर्ग है।7 संघर्षशील राष्ट्र ही प्रगति की ओर उन्मुख होता है।8 अपने सुदृढ़ विचारों और कर्तव्य से ही धरती के सुख प्राप्त किये जा सकते हैं।
कर्म-भूमि पर करवट लेकर- रवि की रेखा जागी।
नयी किरण-सी चली अर्चना, राह बनी हत भागी।9
सत्य, अहिंसा और प्रेम कायर के लिए काल और वीर के लिए जीवन है। सीता अपने संघर्षमय जीवन में विश्वास रखती है। कत्र्तव्य का सत्यता से पालन करके लोकोपवाद को दूर करना चाहती है।10 भाग्य पर भरोसा न रखने वाली सीता अपना पथ स्वयं ही ढूँढ़ लेती है और युग को नूतन प्रकाश और नवजीवन भी देती है। जिससे राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर हो। दूसरे को पीड़ा पहुँचाना एवं सबल का निर्बल और निर्दोष को सताना उचित नहीं है। दुर्बलता और कठिनाइयों से पलायन नहीं करना चाहिए बल्कि शक्ति संचित करके साहस पूर्वक अन्याय से लड़कर प्रगति की जा सकती है। न्याय की रक्षा के लिए उठा शस्त्र ‘अहिंसा’ का प्रतीक है-
खिले फूलों! न यह भूलो- मिटे थे बीज बनकर तुम।
उठो ब्रह्मा! रचो नूतन, विष्णु हो तुम और हरि तुम।।
धरा सहती बहुत, तुम भी- सहो सीता, बढ़ो आगे।
अँधेरे में उजाला हो, वनो में दीपिका जागे।।11
भूमिजा की सीता का उद्देश्य निष्काम कर्म और कत्र्तव्य के प्रति दृढ़ संकल्प की भावना को प्रेरित करना है। श्रम द्वारा ही आत्मबल प्राप्त किया जा सकता है।12 छोटे बड़े की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है।13 कृषि संस्कृति के विकास द्वारा वह मानवीय श्रम को श्रेष्ठता प्रदान करती है।14 पुनः गाँधी दर्शन से प्रभावित और कुटीर-उद्योग द्वारा कला को समृद्धिशाली और प्रत्येक वर्ग को अपनी कला के निखार का अवसर भी प्रदान किया जा सकता है।15 वस्तु, मूर्ति, चित्र, काव्य, संगीत, कला से साथ-साथ कृषि, उद्योग आदि भी उपयोगी कहलाए हैं। आज का युग निर्माण का युग है। इस निर्माण के युग में देश को समृद्धिशाली बनाने के लिए कुटीर अद्योग पर अधिक ध्यान देना चाहिए जिससे सभी को कार्य मिल जाय और इस प्रकार से मिलकर कार्य करने की प्रेरणा जागृत होती हैै।
नारी अब अबला नहीं सबला है। भूमिजा में पुरुष की निष्ठुरता से पीडि़त नारी नियति का आख्यान मात्र नहीं अपनी कर्मठता एवं श्रम सिक्तता के व्यक्तित्त्व द्वारा प्राकृतिक जीवन को संश्लिष्ट और समृद्धि का उदाहरण प्रस्तुत करती है। देश की शक्ति अब तलवारों से नहीं श्रमिकों के श्रम से बढ़ाई जा सकती है।16 कर्मयोग से राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा17
इस वैज्ञानिक युग में भी भारतीयों को पीछे नहीं रहना चाहिए।18 अपनी भक्ति रूपी शक्ति को नहीं भुला देना चाहिए। भक्ति से ही राष्ट्र परोपकार की ओर उन्मुख होता है। आत्मा अजर और अमर है। कत्र्तव्य करना मानव का धर्म है इसलिए सीता के समान आगे बढ़ना चाहिए।
”भूमिजा“ सीता के वनवास कालीन जीवन की रचनात्मक कहानी है। वह पृथ्वी पुत्री है अतः वह धरती को सृजन के फूलों से खिलाती है। सीता और प्रकृति का यह अद्वैत निश्चय ही आधुनकि भावना का प्रतिफल है। आधुनिक यान्त्रिक संस्कृति को कृषि के समानान्तर विकसित देखने के लिए प्रकृति का आँचल थामना एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। इसकी स्पष्ट प्रतीति ‘भूमिजा’ काव्य के माध्यम से की गई है। आज हमारे राष्ट्र के चारों ओर शत्रु छाये हुए है। राष्ट्र की आन्तरिक स्थिति भी डावाँडांेल है। धरती रूपी सीता की रक्षा पवित्र भावनाओं से ही की जा सकती है। सीता पवित्र है फलस्वरूप उसकी माता धरती भी पवित्र है। ”देश में रावण जैसे दुष्टप्रवृत्ति के लोग देश की लाज लूटने को तत्पर है।“ इसलिए हमें पवित्र भावना से अपने भौगोलिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए।
पृथ्वी पुत्री होने के कारण सीता में पृथ्वी के समस्त गुण सहिष्णुता क्षमापालन, भक्ति, शक्ति, सेवा आदि सभी ज्योतियाँ विद्यमान है। सीता की महानता यह है कि उसने सभी दुःख सहा परन्तु धीरज नहीं छोड़ा। नारी का सर्वोज्ज्वल चरित्र सीता में ही है सीता के वीरत्त्व के सामने रावण हारा, सहनशीलता और कत्र्तव्य के समक्ष राम पराजित होते हैं।
नारी का सौन्दर्य अब अंगों के लालित्य में नहीं अपितु जीवन के उन्मुख क्षेत्र की कर्मठता में निहित है। वह प्रजातन्त्र की सुख सम्पदा की रूपक है। सीता के समान राष्ट्र को निष्कलंकित एवं सर्व हितकारी बनाना ही सच्चा प्रजातन्त्र है। विश्व-बन्धुत्त्व से वर्ग विषमता दूर की जा सकती है जिससे धरती ही स्वर्ग बन जाये। विज्ञान का विकास विनाश के लिए नहीं, धरती के सौन्दर्य के लिए विकसित करना चाहिए। सीता कृषि का स्वरूप है। सीता का जन्म धरती से हुआ है और पुनः धरती में समा गई और धरती ही देश को समृद्धिशाली बनाती है। सीता ही धरती का जीवन है। यही भूमिजा की सीता का चरित्र है।
सन्दर्भः-
1. भूमिका-रघुवीरशरण ‘मिश्र’-भूमिका पृष्ठ-7
भूमिजा सीता के वनवास जीवन की रचनात्मक कहानी है। घटनाएँ बीज से उपयोग में लाया हूँ वास्तव में मैं सीता के माध्यम से समाज एवं राष्ट्र से कुछ कहना चाहता हूँ............सीता जनक दुलारी होने के साथ...........वर्तमान चेतना की प्रतीक भी है.........सीता की चेतना से आधुनिक गति-विधि को उभारना चाहता हूँ, न्याय और निर्माण की आवाज बुलन्द करना चाहता हूँ।
2. भूमिजा- रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-14-अरण्यरोदन
दुःखों का उजियाला लेकर पथ रचती जाती है।
सेवा है, नर को सुख देकर खुद ठोकर खाती है।।
3. भूमिजा- रघुवीर शरण ‘मिश्र’-अरण्यरोदन-पृष्ट-17
राम! बताओं जग के भ्रम पर क्यों सीता को त्यागा।
टूटा करते धनुष, टूटता नहीं ब्याह, का धागा।।
4. भूमिजा- रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-25-अरण्यरोदन
सीता का है त्याग, बंश हित-प्राण दुख-दुख सहते।
फूट रहा है हृदय, नयन से-अश्रु नहीं पर बहते।।
5. पूर्ववत् पृष्ठ-25,27,28 और 30
6. भूमिजा-रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-31
7. पूर्ववत् पृष्ठ-40 अन्र्तद्वन्द्व
भूमि की लाड़ली हूँ मैं, कलंकित मर नहीं सकती।
कलंकित मर धरा का मुख- स्याह में कर नहीं सकती।।
न यह समझो अकेली हूँ, धरा तो साथ है मेरे।
लगाया दाग जग ने, दाग-धोना हाथ है मेरे।।
8. भूमिजा-रघुवीरशरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-42 अन्र्तद्वन्द्व
9. पूर्ववत् पृष्ठ-45 हाथ बढ़े फूल खिले
गिला किसी से क्यों करते हो प्रीति न अपनी होती।
भ्रम के दामों से खरीद लो- आँखों के सब मोती।।
छोटा बड़ा न होगा कोई, सब समतल पर होंगे।
खुद बोयेंगे खुद काटेंगे, सभी भूमिधर होंगे।।
10. भूमिजा-रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-49 हाथ बढे़ फूल खिले।
खेत-खेत में खिली उजाली, रेती में रस आया।
वन में नई बहार आ गई, सीता का यश छाया।।
2$3. पूर्ववत् पृष्ठ-51, 60, 61
11. भूमिजा-रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-62 पुष्पांजलि
तलवारों से नहीं श्रमिक के-हाथों से जय पाओ।
12. बन कर बीज धँसो धरती में, कल्पवृक्ष बन जाओ।
कर्मयोग में लगो भूलने-सीता मन का रोना।।
13. पूर्ववत् पृष्ठ-64
लव-कुश करने लगे कल्पना-माँ हम देश बनायें।
उड़ने वाले यान बनाये चन्द्र लोक में जायें।।
14. पूर्ववत् पृष्ठ-72 महल का दीप
15. पूर्ववत् पृष्ठ-18 अरण्यरोदन
16. भूमिजा-रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-73 महल का दीप
अपराधी आवाज लगाता, लिख लो दुनिया वालो।
नारी नर से बहुत श्रेष्ठ है, धरती के गुण गा लो।
तब तब प्रलय हुई धरती पर-जब-जब नारी रोई।।
17. भूमिजा-रघुवीर शरण ‘मिश्र’ पृष्ठ-112 अरूणोदय
18. पूर्ववत् पृष्ठ-79 महल का दीप
भाभी का बलिदान, राष्ट्र हित-दीपक-सी जलती है।
भाभी रोती नहीं, धरा पर-तुहिन-रश्मि ढलती है।