Thursday 1 April 2010

श्री अरविन्द के अनुसार अति मानस का स्वरूप


मनीषा श्रीवास्तव
शोध छात्रा, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


अति मानस सच्चिदानन्द का सृजनात्मक  पक्ष हैं  चूँकि सच्चिदानन्द अनन्त शक्ति, अनन्त सत्ता और अनन्त आनन्द है। यह संभव नही है कि उसकी सभी सृजनात्मक शक्तियाँ एक साथ अभिव्यक्त हो जाएँ। सच्चिदानन्द में अनन्त सम्भावनाएँ है। अतिमानस सच्चिदानन्द के कुछ अन्तः शक्तियों को चुन लेता है और उनकी सुस्पष्ट अभिव्यक्ति करता है। यदि सच्चिदानन्द की सभी अव्यक्त शक्तियाँ एक साथ अभिव्यक्त हो जाएँ तो सर्वत्र अव्यवस्था फैल जाएगी और विश्व भी नही रह जाएगा। अतिमानस के बिना सच्चिदानन्द के सम्भावनाओं की सृष्टि नहीं हो सकती। इस प्रकार श्री अरविन्द ने परमसत् को निर्विशेष एवं सविशेष दोनों माना है। वह देश काल से रहित तत्त्व है।
प्रश्न उठता है कि देशकाल रहित तत्त्व देश काल से आबद्ध कैसे होता है? जो अनन्त और स्थाई है वह कैसे अपने से विरोधी एवं शांत कालिक जगत को सृष्ट कर सकता है? श्री अरविन्द मानते हैं कि यदि हम निरपेक्ष सत् और शांत जगत के बीच एक मध्यवर्ती सिद्धान्त स्वीकार कर लेते हैं तो परमसत् के विकास की समस्या का समाधान हो जाएगा। वह मध्यवर्ती तत्त्व अतिमन है परमसत् जगत को अतिमन के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।
श्री अरविन्द विकासवादी हैं लेकिन निम्नतर सहसा एक छलांग मे उच्चतर में नहीं पहुँच सकता, साथ ही उच्च स्तर भी एक झटके के साथ निम्न स्तर पर नहीं उतर सकता। दोनों के बीच श्रृंखला के रूप में श्री अरविन्द अतिमानस की तार्किक आवश्यकता स्वीकारते हैं अनन्त चेतना अपनी अनन्त क्रिया मे केवल अनन्त परिणामों को उत्पन्न कर सकती है। जो कुछ स्थिर निश्चित किया गया है उसके अनुसार जगत का निर्माण करने के लिए एक ज्ञानात्मिका शक्ति की आवश्यकता है, जिसका कार्य अनन्त परमार्थ तत्त्व से शांत रूपांे की रचना करना है।’’1 वह शक्ति अति मानस है।
वास्तव में यह ईश्वर ही है, जो स्वामी और सृष्टा है, उससे भिन्न नहीं हैं। तथापि यह शंकर वेदान्त के ईश्वर या प्लेटो के जगत्पिता से भिन्न है। आचार्य शंकर के वेदान्त का ईश्वर अपने शुद्ध अविकृत रूप से निरपेक्ष नहीं है। अपनी माया प्रतिबिम्ब में देखा गया निरपेक्ष है, जिसका प्रतिबिम्ब उसके वास्तविक(सत्य) स्वरूप को आंशिक रूप से छिपाता है और यहाॅं तक कि विकृत भी कर देता है। अतिमन इसी भाॅति  प्लेटों के जगत् पिता से भिन्न है। श्री अरविन्द की अतिमन की अवधारणा शंकर और प्लेटो की कठिनाइयों से मुक्त है। शंकर एवं प्लेटों की ़़त्रुटि इस विचार मंे हैं कि सर्जनात्मक, परमतत्व से कोई  भिन्न वस्तु है। इसका  परिणाम यह हुआ कि या तो जगत को असत्य मान लिया गया (जैसे शंकर वेदान्त में है) या तंत्र की एकता नष्ट हो गई (जैसा प्लेटों में है) और परमसृष्टा और जगत् अलग हो गए। यद्यपि हेगेल ने परमतत्व सृष्टा और जगत के सातव्य को बनाये रखने में सफलता पायी है लेकिन हेगेल ने यह कार्य अपनी तर्क बुद्धि से तथा विचार को सर्वेसर्वा बनाकर किया, जो इस कठिन दोष से पीडि़त है इसने संकल्प या अनुभव की अतिबौद्धिक शक्तियों को कोई मान्यता नहीं दी। अतः श्री अरविन्द ने कमियों को दूर करते हुए अति मानस की विस्तृत विवेचना की है।
अतिमानस के ऊपर सच्चिदानन्द का त्रयात्मक स्वरूप है और अतिमानस के नीचे मानसिक भौतिक और जैविक स्तर है। इन्हीं स्तरों पर सच्चिदानन्द की एकता, अनेकता में परिवर्तित हो जाती हैं यही सृष्टि का रहस्य है लेकिन सच्चिदानन्द या परमसत्त्व की एकता विभिन्न स्तरों की अनेकता में अति मानस के माध्यम से ही परिवर्तित होती है। सच्चिदानन्द स्वयं विश्वातीत रूप है, लेकिन अति मानस के माध्यम से ही यह विश्व के सम्पर्क मे आकर विश्वव्यापी बन जाता है।
अति मानस को श्री अरविन्द ‘चिŸा शक्ति’ ‘ज्ञान संकल्प’, ‘सत्-चित्त’ और ‘ऋत चिŸा’ भी कहते हैं। इसे चित्तशक्ति या ज्ञान संकल्प इसलिए कहते हैं क्योंकि यह स्वयं दिव्य चेतना है तथा इसमें  विश्व की रचना एवं विकास करने की शक्ति है। अतिमानस ईश्वरीय नियम या ऋत चिŸा भी है जो समस्त क्रियाओं को संचालित करता है। अतिमानस को वैदिक ऋषियों ने ‘माया’ कहा था। माया को ऋग्वेद मेें प्रज्ञान, एक अद्भुत अंतदृष्टि और प्रज्ञा कहा गया है यह प्रज्ञान ही अतिमानस हैं अतिमानस के स्तर पर ही एक का अनेक में विस्तार होता है, लेकिन इस विस्तार मे भी सच्चिदानन्द का अद्वैतरूप बना रहता है।
अति मानस की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह सच्चिदानन्द का विस्तार तो करता है, लेकिन विभाग नहीं ’’यह मध्यवर्ती तत्त्व सम्पूर्ण सृष्टि और व्यवस्था का आदि और अंत, समस्त भेदकरण का प्रारम्भिक स्थल, समस्त एकीकरण का उपकरण, समस्त संसिद्ध और संसिद्ध होने वाले सामंजस्यो का उत्पादक, कार्यकारी और उन्हें पूर्ण अवस्था में पहुँचाने वाला है। वह एक तम ज्ञान रखता है। लेकिन एक तम में से उसके भीतर छिपे बहुत्वों को व्यक्त करने का सामथ्र्य रखता हैं वह बहु को व्यक्त करता है लेकिन उसके भेदों में अपने आपको खो नहीं बैठता है।2 पुनः ये कहते हैं कि ‘‘अतिमन संकल्पान्तर्गत ज्ञान और संकल्पान्तर्गत इच्छा से विच्छिन्न नही है। अपितु उसके साथ एक द्रव्य की ज्योतिर्मय शक्ति है। जिस प्रकार प्रज्ज्वलित प्रकाश की शक्ति अग्नि के द्रव्य से भिन्न नहीं है उसी प्रकार संकल्प की शक्ति सत्ता के उस द्रव्य से भिन्न नहीं है जो अपने-आपको संकल्प और उसके विकास के रूप में व्यक्त करती है।3
अतिमानस की तीन अवस्थाएॅ-
अतिमानस की तीन अवस्थाएँ हैं, जो निम्नलिखित हैं-
(1) अंतदृष्टि चेतनाः-
इस अवस्था में अतिमानस अपनी सर्वोच्च अवस्था में सच्चिदानन्द के साथ संयुक्त रहता हैं यह ऐक्यवादी चेतना है और दिक् एवं काल में सच्चिदानन्द का विस्तृत रूप है यह  अवस्था सच्चिदानन्द का ऐसा पक्ष है जो सबको  अपने अंतर्गत करता है। यह सबकों अपने अधिकार में रखने वाला सर्वग्राही सर्व संघटक हैं लेकिन इस अवस्था में सब एक ही है बहु नही है। पहली स्थिति वह है जब एकरूपता व श्रृंखला होने के लिए अशान्त होने के लिए  तत्पर हो जाए। यहाॅ क्रियात्मकता प्रारम्भ नहीं हुई, लेकिन  उसके प्रारम्भ होने की पूर्ण तत्परता आ गई है । यह क्रियात्मक एकत्व की अनेकत्व में व्यक्त करने की तत्परता है इसकी क्रियात्मकता का रूप लेने से सृष्टि प्रक्रिया  आरम्भ होती है।
(2) अभिमुख दृष्टि चेतनाः-
दूसरी स्थिति में सृष्टि प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में एक से अनेक का उद्भव होता है, लेकिन बहुत्व के पीछे अस्तित्व का आद्य एक हैं। बहुत्व केवल क्रीड़ा के लिए एक व्यावहारिक भेद है जो यथार्थ एक्य को कदापि नष्ट नहीं करता। श्री अरविन्द के अनुसार यही चित्तशक्ति की लीला है, जबकि ‘एक’ अपने को ‘अनेक’ मे व्यक्त करता है, वह भी इस चेतना के साथ कि इस अनेकता के पीछे एकता है।
(3) प्रेक्षणात्मक चेतनाः-
इस अवस्था मेे व्यक्तिगत ब्रह्म को जो एकतम ब्रह्म से आश्रय मिलता है वह समाप्त हो जाता है। इस अवस्था में बहु एक से पृृथक हो जाता है। ‘‘अतिमन की तीसरी अवस्था जीवात्मा और ब्रह्म के बीच एक प्रकार की आनन्दमयी द्वैताद्वैत अवस्था होगी, जिसमें द्वैत प्रधान अद्वैत रहेगा। इसके साथ साथ द्वैत को बनाये रखने ओर परिचालन से जो परिणाम निकलेंगे वे भी रहेगें।4
इस प्रकार हम देखते हैं कि अतिमानस की सृष्टि सम्बन्धी ‘प्रथम’ स्थिति में पहले सब कुछ एकरूप प्रतीत होता है, एकत्व की अनुभूति होती है।‘दूसरी स्थति में अनेकता प्रकट हो जाती है, फिर भी इस अनेकता में एकता की चेतना रहती है। ‘तीसरी’ अवस्था में अति मानस जगत में अवतरित हो जाता है अतः प्रथम अवस्था ‘कारण अवस्था’ है। दूसरी स्थिति प्रथम स्थिति का परिणाम है। इसे कार्य अवस्था कहा जा सकता हैं तीसरी अवस्था मंे सृष्टि प्रक्रिया पूर्णतया कार्यरत हो जाती है। अतिमानसिक चेतना के हर रूपो ंमें तथा हर केन्द्रों में व्यक्त हो जाती है। यह पूर्ण व्यक्त अवस्था’ है किन्तु इन तीन अवस्थाआंे मंे एक समानता सदा रहती है- किसी अवस्था मे ‘एकत्व’ की उपेक्षा नहीं हो सकती, ऐसा होना अनिवार्य भी है क्योंकि तीनों स्थितियाॅ अतिमानस स्थितियाॅ हैं तथा अतिमानस  का मूल रूप यही हैं कि वह स्वरूपतः एकत्व की चेतना है। अतः स्पष्ट है कि अतिमन की ये तीनों अवस्थाएं एक ही सत्य के व्यवहार करने के केवल भिन्न प्रकार है। यद्यपि अतिमन श्री अरविन्द की अपनी खोज है, लेकिन इस तथ्य के मूल स्रोत वेद एवं उपनिषदो में हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. दिव्य जीवन, प्रथम भाग, पृष्ठ 186.187
2. दिव्य जीवन, प्रथम भाग, पृष्ठ 202
3. दिव्य जीवन, प्रथम भाग, पृृष्ठ 208
4. दिव्य जीवन, प्रथम भाग, पृृष्ठ 231-232