Thursday 1 April 2010

आधुनिक सन्दर्भ में काशी


डाॅ0 शोभनाथ पाठक
प्रवक्ता, राजनीति शास्त्र विभाग, डी0ए0वी0पी0जी0 काॅलेज, वाराणसी।

विश्व का आधुनिक सन्दर्भ वैश्विक है। विश्व में गाँव और नगर के नागरिक निवास करते हैं। नगर के रूप में-उपनगर, नगर, महानगर और वैश्विक महानगर की श्रेणियाँ मानी जाती हैं। गाँव के स्तर पर-बड़े गाँव, छोटे गाँव और पुरवा के रूप में श्रेणियाँ विभक्त हैं। भारत के सन्दर्भ में वर्गीकरण थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि आरण्यक संस्कृति के तहत भारत के ऋषि-मुनि और तपस्वी तथा मोक्षकामी संन्यासीगण व धर्म परायण राजा-महाराजा जंगल में निवास करते थे। ऋषि-मुनियों के आश्रम थे तथा संन्यास लिए हुए राजा-महाराजा उन आश्रमों में रहते थे। ऋषि-मुनियों के आश्रम में गुरूकुल चलते थे। ज्ञात है कि उस समय पृथ्वी पर मानवकृत प्रदूषण नहीं था तथा जंगल में फल-फूल और जंगल आधारित खाद्यान्नों की प्रचुरता थी। ऐसे परिवेश में भारत की आरण्यक संस्कृति का विकास हुआ । एक पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों ने ब्रह्मा जी से पूछा कि अध्ययन के पश्चात् वे अपना आवास गाँव में रखें या नगर में। ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्रों को ग्राम निवास की सलाह दी। इस विवरण से स्पष्ट है कि आरण्यक युग में नगर भी अस्तित्व में आ चुके थे। इसी सन्दर्भ में भगवान शिव के एक पर्यायवाची नाम का उल्लेख करना समीचीन होगा। पुराणों में वर्णन है कि भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा गया है। त्रिपुरारी का अर्थ होता है तीन नगरांे को नष्ट करने वाला। इस विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि पौैराणिक काल में भारत भूमि पर नगरों का अस्तित्व था। साथ ही साथ यह भी स्पष्ट है कि पौराणिक काल में आरण्यकवास, ग्रामवास और नगरवास की व्यवस्थाएँ सामान्य रूप से प्रचलित थीं।
आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत उत्पादन के केन्द्रों, विशिष्टीकरण के फैलाव तथा यातायात के सुगम साधनों के माध्यमों से उपनगर तथा महानगरों का आविर्भाव हुआ। इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रारम्भ में मनुष्यांे की जीविका जंगल से प्राप्त कन्दमूल और फल तथा शिकार (हंटिंग) ही आजिविका के मुख्य साधन थे। जंगलों मंे लगी प्राकृतिक आग के कारण भूमि का कुछ हिस्सा वृक्षों एवं झाड़ी आदि से दूर हुआ। उन स्थानों पर पशुपालन तथा खेती के कार्य प्रारम्भ हुए। जंगल जीवन के पश्चात् चारागाह जीवन और उसके पश्चात् ग्राम जीवन को ऐतिहासिकता की दृष्टि से देखा जाता है। ग्राम जीवन में कृषि कार्य के लिए उपकरणों की आवश्यकता प्रतीत हुई। यहीं से प्रारम्भिक तकनीकी का विकास हुआ। तकनीकी मंे विशिष्टीकरण प्रारम्भ हुआ। विशिष्टीकरण से बाजार बने। बाजार के कारण ग्राम उपनगर में परिवर्तित हुए। ऐसी हालात में नगरों और महानगरों के विकास की कहानी है।
वाराणसी नगर की प्राचीनता को इतिहासकार 5600 वर्ष पुराना मानते हैं। दूसरे शब्दों में काशी की निरन्तरता ऐतिहासिक दृष्टि से 5600 वर्ष पुरानी है। इतिहास के अतिरिक्त पुराणों में काशी का विवरण प्राप्त होता है। यह माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय चैदह रत्नों मे एक धन्वन्तरि का आविर्भाव हुआ और वे ही काशी के संस्थापक के रूप में विख्यात हुए। भौगोलिक दृष्टि से समुद्र मंथन समुद्र के क्षेत्र का विषय है। यद्यपि प्राचीन काल के समुद्री क्षेत्र वर्तमानकाल में परिवर्तित हो चुके हैं। समुद्र मंथन के इस खोज में एक स्थान भागलपुर के पास का है। दूसरा स्थान मध्य प्रदेश के अमरकण्टक का है तथा तीसरा स्थान वर्तमान उत्तर प्रदेश का वह भूभाग है जो अतीत में जल से उत्पन्न होकर बना है। इस प्रकार भागलपुर, अमरकंटक तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में जो समुद्र रहा होगा और इन क्षेत्रों के किसी एक क्षेत्र में समुद्र मंथन की क्रिया की गयी होगी, उस क्रिया से देव पुरूष धन्वन्तरि का जो आविर्भाव हुआ, उन्होंने विष्णु और शिव की कृपा से काशी नगरी की स्थापना की। व्यावहारिक दृष्टि से आज भी काशी में आयुर्वेदिक ज्ञान का अखण्ड स्रोत विद्यमान है। उल्लेख है कि आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वन्तरि जी ही थे। इसी कारण आयुर्वेद दिवस पर धन्वन्तरि की पूजा होती है। इसका सम्बन्ध काशी से जुड़ा हुआ है। इतिहास के विद्वानों ने काशी के संस्थापक के रूप में राजा दिवोदास को माना है। इस स्थिति पर कुछ विद्वानों का मत है कि राजा दिवोदास ही धन्वन्तरि थे। वस्तुतः विश्व की प्राचीनतम् नगरियों में काशी एक प्राचीन नगरी है। बेबीलोन आदि नगरियाँ इतिहास के गर्त में समा चुकी है। लेकिन काशी की जीवन्तता बनी हुई है। प्राचीनकाल में भी काशी नगरी पर बाहरी आक्रमण हुए हैं। ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर मध्यकाल तक इस नगरी पर आक्रमण होते रहे। लेकिन यह नगरी जो कभी भी चहारदीवारियों से घिरी हुई नहीं थी बल्कि चारों दिशाओं में मुक्त थी, अपने अस्तित्व को बनाए रखा। विश्व की प्राचीनतम् सभी नगरियाँ ऊँची-ऊँची दीवालों से घिरी रहती थी। आक्रमण को बचाया जाता था। लेकिन ऐसी व्यवस्था काशी में नहीं थी। फिर भी काशी का अस्तित्व संघातों को सहते हुए निरन्तर चलता रहा। इसी कारण यह माना जाता है कि भौतिकता के साथ-साथ लोकेत्तर चेतना जिन संस्कृतियों में रही है वे संस्कृतियाँ अपनी रक्षा करने में समर्थ हुई है। ऐसी तीन संस्कृतियाँ इतिहास के चक्र में आज भी सुरक्षित और वर्धमान हैं। इनमें भारत और चीन की संस्कृति का उदाहरण ज्यादा समीचीन है।
वाराणसी की पौराणिकता और ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में कई आख्यानों का संकलन विषय को स्पष्ट करने के लिए समीचीन होगा। काशी के प्रमुख देवता भगवान शिव है। परमेश्वर के सगुण रूप की उपासना शिव के रूप में की जाती है। कहा जाता है कि अग्नि से रूद्र की उत्पत्ति हुई और उसी अग्नि से शिव की उत्पत्ति हुई। रूद्र संहारक देव माने गये हैं। जबकि शिव कल्याण के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस प्रसंग में पौराणिकता की दृष्टि से उल्लेख है कि सती के यज्ञ विध्वंस के बाद शिव ने रौद्र रूप का त्याग किया और शांति की खोज में निकल पड़े। इसी प्रसंग में एक आख्यान और है कि भगवान शिव ने एक बार ब्रह्मा जी को दण्डित किया था। दण्ड स्वरूप ब्रह्मा जी के एक मुख को शंकर जी ने अपने त्रिशुल से काट डाला था और वह मुख श्ंाकर जी के हाथ में चिपक गया। पृथ्वी परिक्रमा करते-करते शंकर जी जब काशी आये तो काशी की भूमि पर वह हाथ से स्वतः हट गया। कहते हैं कि इसके पूर्व काशी विष्णु की नगरी थी। शिव ने काशी को पसन्द करके इस नगरी को विष्णु से माँग लिया। तभी से काशी शिव की नगरी के रूप में विख्यात हुई। स्पष्ट है कि इस नगरी के आध्यात्मिक राजा भगवान शिव है। भौतिक दृष्टि से पुराण और इतिहास दोनों के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि काशी विश्व की प्राचीनतम् नगरियों में से एक है। यहाँ यह उल्लेख समीचीन होगा कि सांसारिक क्रिया-कलापों की दृष्टि से नगरियों की स्थापना प्राचीन काल में जलमार्गों के किनारों पर की जाती थी। इस क्रम में यह भी उल्लेखनीय है कि गंगा के अवतरण के पूर्व ही काशी नगरी अवस्थित थी। उसी जलधारा में भागीरथी गंगा का सम्मिश्रण हुआ। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि गंगा के पूर्व काशी में जलधारा विद्यमान थी जिसे एण्टीसीडेन्ट रीवर कहते हैं। गंगा की जलधारा में समाहित होने के बाद उन जलधाराओं का अस्तित्व समाप्त हो गया। ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में जिन सोलह महाजनपदों का वर्णन मिलता है उन जनपदों में काशी और कोशल का वर्णन सर्वत्र प्राप्त होता है। काशी अपने व्यापार, कृषि तथा उद्योग धन्धों के कारण जनपदों में महत्वपूर्ण स्थान की अधिकारिणी रही हैै। समय-समय पर सम्पूर्ण भारत वर्षीय तथा प्राचीन काल के अन्य ज्ञात देशों के प्रबुद्ध लोगों के आकर्षण का केन्द्र रही है। पुराणों में वर्णन प्राप्त होता है कि भारत के सभी असुर राजाओं ने काशी में अपने ईष्ट देवता भगवान शिव की स्थापना की। उसी प्रकार सभी वैदिक और सनातनी देवताओं ने वाराणसी में भगवान शिव की स्थापना करके अपने को कृतार्थ समझा। इस क्रम में राम और कृष्ण का नाम उल्लेखनीय है। ऐतिहासिक काल में भगवान् बुद्ध ने अपने मत की प्रतिस्थापना की और काशी स्थित सारनाथ से बौद्ध धर्म के ‘धर्म-चक्र’ का प्रवर्तन किया। जैनधर्म के तीर्थंकरों ने भी काशी में जन्म लिया और अपने मत की स्थापना की। आद्यशंकराचार्य ने काशी से ही अपने अद्वैत मत की पुष्टि प्राप्त की। ऐतिहासिक क्रम में 1916 ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर महात्मा गाँधी ने सभा में उपस्थित भारत के अधिकांश राजाओं और वायसराय को ललकारते हुए भारत की गरीबी का जो वर्णन किया उससे वे जनता के बीच वन्दनीय हो गये। वास्तव में महात्मा गाँधी के भावी पराक्रम का प्राकट्य काशी में उनके दिये गये 1916 ई0 के भाषण के कारण हुआ। इसी प्रकार भूदान आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य विनोवा भावे का जीवन परिवर्तन वाराणसी से हुआ। पं0 मदन मोहन मालवीय ने भी प्रयाग स्थित त्रिवेणी में स्नान करते वक्त यह संकल्प लिया था कि शिव की नगरी में वे भारत के आधुनिकीकरण हेतु विश्वविद्यालय की स्थापना करेंगे। 1869 ई0 में वाराणसी में ही स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती के बीच ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ था। शास्त्रार्थ का स्थल दुर्गाकुण्ड का क्षेत्र था। यह शास्त्रार्थ मूर्ति पूजा के समर्थन और विरोध में सम्पन्न हुआ था। काशी नरेश महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने सभा की अध्यक्षता की थी। आर्य समाजी विद्वानों के अनुसार शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विजय प्राप्त किया था। लेकिन काशिराज के प्रमाणिक अभिलेखों के अनुसार सनातन धर्म के स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी। स्पष्ट है कि प्रारम्भिक काल से लेकर वर्तमान काल तक काशी की ख्याति विद्या और वैदुष्य के क्षेत्र में अप्रतिम रही है।
मुगल साम्राज्य के पतन का प्रभाव सम्पूर्ण भारतवर्ष पर पड़ा। काशी उस प्रभाव से अछूता नहीं रहा। मुगल साम्राज्य के अवनति के दिनों में मराठों की शक्ति बढ़ी। उल्लेख है कि उन दिनांे सिक्खों ने भी राजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में अपनी शक्ति को पर्याप्त रूप से विकसित किया। काशीराज का भी अभ्युदय हुआ। जहाँ एक तरफ मुगल सल्तनत छिन्न-भिन्न हो रही थी तथा दूसरी तरफ भारत की क्षेत्रीय शक्तियाँ उभर रही थी। ऐसे समय में नियति के चलते भारत पर अंग्रजों का प्रभाव बहुत तेजी के साथ बढ़ना प्रारम्भ हुआ। सभी देशी व क्षेत्रीय शक्तियेां ने तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी की अंग्रेजी शक्ति ने बनारस के महत्व को पहचाना और इसके विकास में सहयोग प्रदान किया। 1722 ई0 में काशी का क्षेत्र दिल्ली के नियंत्रण से निकलकर अवध के नवाब के नियंत्रण में चला गया। 1725 ई0 में मनसाराम ने अवध के नवाब से बनारस की जमींदारी को प्राप्त किया। यही से बनारस राज्य की स्थापना होती है। मनसाराम की मृत्यु के पश्चात 1738 ई0 में बलवन्त सिंह ने जमींदारी का कार्यभार संभाला और काशी राज्य की स्थापना के लिए अग्रसर हुए। उन्होंने रामनगर का दुर्ग बनवाया और अनेक बड़ी-बड़ी इमारतों तथा सैकड़ों मन्दिरों का निर्माण किया। काशिराज के द्वारा नदेसर पैलेस, मिन्ट हाऊस, राजा बाजार, शिवाला, शीशमहल, कमच्छा इत्यादि भवनों का निर्माण हुआ और इन सबसे काशी का पर्याप्त विकास हुआ। काशिराज के ही महाराजा प्रभुनारायण सिंह ने पं0 मदन मोहन मालवीय जी के आग्रह पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए भूमि प्रदान किया था। काशिराज संस्कृत पाठशाला हेतु भी उन्हांेने जमीन दिया था जिस पर आज सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है। इतना ही नहीं बल्कि महाराजा प्रभुनारायण सिंह ने अपने रियासत के मिर्जापुर स्थित काफी जमीन संस्कृत पाठशाला के लिए दान में दिया था। इन सब कार्यों का फल यह हुआ कि भारत की पराधीनता के समय में भी भारत के संस्कृत ज्ञान को पंडित वर्ग ने अक्षुण्ण बनाए रखा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में काशी की ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय है। उन्हीं दिनों में बनारस के महान दानी शिवप्रसाद गुप्त जी ने अपनी सम्पूर्ण पूँजी का दान करके काशी विद्यापीठ, भारत माता मन्दिर और आज अखबार की स्थापना की। यह माना जाता है कि महात्मा गाँधी को थातेदारी (ज्तनेजपेीपच) का ज्ञान व्यवहारिक रूप से राष्ट्र रत्न शिवप्रसाद गुप्त के व्यक्तित्व में दिखलाई दिया। इस प्रकार राजन्य वर्ग के द्वारा खासतौर से काशिराज, महाजन वर्ग तथा राष्ट्ररत्न शिवप्रसाद गुप्त के प्रयत्नों से काशी का वर्तमान स्वरूप विद्या के क्षेत्र में विकसित हुआ। इसी क्रम मंे बनारस के महान् मनीषी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डाॅ0 सम्पूर्णानन्द जी ने अपने मुख्य मंत्रित्व काल में विश्व प्रसिद्ध संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की। परवर्तीकाल में अनेक संस्थाओं का जन्म काशी में हुआ । जिसमें अरेबिया संस्था (रेवड़ी तालाब ) की स्थापना इस्लाम धर्म और अरबी भाषा के विकास के लिए हुई। जैन धर्म के भी विद्या के केन्द्र बनारस में स्थापित हुए। वैसे तो जैनधर्म के तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का जन्म ही बनारस में हुआ है। स्यादद्वय विद्या के शिवाला स्थित प्रसिद्ध जैन विद्यालय है। करौंदी में भी जैन विद्या अध्ययन का केन्द्र है। बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए 1960 के दशक में तिब्बती बौद्ध मन्दिर के अध्यक्ष आचार्य गोसेलामा ने कठिन परिश्रम किया। परम पुत्र दलाईलामा और गोसेलामा के प्रयत्नों के फलस्वरूप सारनाथ में तिब्बती विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। संस्कृत के भी अनेक महाविद्यालय काशी में कार्यशील हैं।
भारत की मराठा शक्ति ने वाराणसी के विकास के लिए पर्याप्त कार्य किया। मराठों की बड़ी हार्दिक इच्छा थी कि काशी का क्षेत्र उनके अधीन आ सके और वे औंराई तक बढ़ते हुए सफल हो चुके थे। उन दिनों अवध के नवाब के अन्तर्गत काशी राज्य था और अवध के नवाब का संघर्ष रोहिलों से था। रोहिले मजबूत पड़ रहे थे। अवध के नवाब ने मराठो से  सहायता की याचना की। मराठों ने वाराणसी शहर की शर्त पर अवध के नवाब की सहायता की। लेकिन कूटनीतिक चाल में मराठा पराजित हो गये और बनारस शहर अवध के नवाब के हाथों में रह गया तथा मराठें औंराई से ही वापस लौट गये। इस प्रकार औरंगजेब के द्वारा गिराया गया विश्वनाथ जी का मन्दिर पेशवाओं द्वारा निर्मित नहीं हो सका। इसी बीच अंग्रेजों की शक्ति बहुत तेजी से बढ़ने लगी और वे बंगाल से बढ़कर उत्तर भारत के क्षेत्रों पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिये। कलकत्ता, मद्रास और बाम्बे इन तीनों में अंग्रेजों की प्रेसीडेन्सी थी और उनका इन क्षेत्रों में प्रभुत्व भी था। सामुद्रिक शक्ति और तकनीकी शक्ति से वे सम्पन्न थे। प्लासी और बक्सर युद्ध के बाद उत्तर भारत का द्वार अंग्रेजों के लिए खुल गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने गंगा नदी को व्यापारिक रूप से प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। गंगा नदी के किनारे-किनारे उन्होंने गोदामों की स्थापना की। 1781 ई0 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने वाराणसी में गंगा किनारे कस्टम विभाग की स्थापना की। उस समय कर पाँच प्रतिशत की दर से वसूल किया जा रहा था। उल्लेख है कि कलकत्ता के संन्यासियों का एक बड़ा वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति को बनाए रखने के लिए बंगाल से उत्तर भारत और बंगाल से दक्षिण भारत तक व्यापार करता था। पाँच प्रतिशत कर की दर से संन्यासी वर्ग ने व्यापार छोड़ दिया और बनारस में इस कर का प्रबल विरोध हुआ। फलस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पाँच प्रतिशत की जगह कर की दर को ढाई प्रतिशत कर दिया। आन्दोलन शान्त हो गया। उल्लेखनीय है कि काशी के आसपास उन दिनों में कुछ स्थान व्यापारिक दृष्टि से वाराणसी से ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उदाहरणार्थ- मिर्जापुर, गाजीपुर,जौनपुर के स्थान कई दृष्टियों से वाराणसी से सुदृढ़ स्थिति में थे। मिर्जापुर में वन सम्पदा, पत्थर के कार्य और गल्ला की मण्डियाँ बहुत समुन्नत स्थिति में थी। इसी प्रकार गाजीपुर में गल्ला, खाड़सारी तथा फूल (इत्र) का कार्य विकसित था। जौनपुर शर्की राज्य की राजधानी थी। राजधानी होने के कारण जौनपुर राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक दृष्टियों से बनारस से अच्छी स्थिति में था। लेकिन अंग्रेजों ने इन नगरों को छोड़कर वाराणसी को केन्द्र बनाने का निश्चय किया। इस निश्चय के पीछे वाराणसी के प्राचीन महत्व को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने ध्यान में रखा। अंग्रेजोें को पहले से ही ज्ञात था कि प्राचीनता तथा विद्या की दृष्टि से वाराणसी का स्थान सर्वदा से सर्वश्रेष्ठ रहा है। साथ-साथ वाराणसी का क्षेत्र पुण्य और विद्या का महान क्षेत्र माना गया है। पुण्य और विद्या की दृष्टि से किसी भी शासन को जो लाभ वाराणसी से प्राप्त हो सकता था उस लाभ को अंग्रेजों ने प्राप्त किया। इसी कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शक्ति ने होल्कर की महारानी अहिल्याबाई के विश्वनाथ मन्दिर निर्माण कार्य में व्यवधान नहीं डाला। क्योंकि अंग्रेजों का मत था कि काशी विश्वनाथ हिन्दूओं के आराध्य हैं और उनके भग्न मन्दिर के निर्माण से हिन्दूओं की भावनाएँ शान्ति प्राप्त करेंगी। इसके साथ-साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने काशीराज संस्कृत पाठशाला को संस्कृत कालेज मंे परिवर्तित किया तथा उसकी पढ़ाई को काफी प्रोत्साहित भी किया। तथागत गौतम बुद्ध के प्रथम ‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन’ स्थल सारनाथ की तरफ अंग्रेजों ने ध्यान दिया। कालान्तर में बुद्ध की प्रतिमा कलकत्ता से लाकर सारनाथ में स्थापित की गयी। सारनाथ में संग्रहालय की स्थापना हुई । अशोक कालीन खण्डहरों के खुदाई का कार्य पूरा किया गया। इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने काशी के विकास के लिए लगभग वैसा ही कार्य प्रारम्भ किया जैसा कार्य भारत में देशी राजे-महाराजे वाराणसी में अपनी क्षमता के अनुसार करते रहते थे। इसमें एक तथ्य और महत्वपूर्ण है कि 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बनारस में खासतौर से कानून व्यवस्था की समस्या व्याप्त थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कानून व्यवस्था की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। साथ ही साथ जन सुविधाओं हेतु जल संस्थान की स्थापना की। स्थापना स्थल भदैनी का क्षेत्र रखा गया। जल आपूर्ति के क्षेत्र में रामलला का मन्दिर आ रहा था । मन्दिर को तोड़ने की व्यवस्था की जा रही थी। काशी वासियों ने राम हल्ला का आन्दोलन खड़ा किया। आन्दोलन सफल हुआ और ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मन्दिर तोड़ने के निर्णय से विरत होना पड़ा । इस प्रकार छोटे-मोटे आन्दोलन उन दिनों में होते रहते थे। धीरे-धीरे कैन्ट स्टेशन, बिजली घर, कम्पनी बाग और सड़को के निर्माण के कार्य पूरे किए गये।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन का भी गहन अध्ययन किया जाय तो ज्ञात होगा कि वाराणसी इसका मुख्य प्रेरणा केन्द्र था। क्योंकि 1781 ई0 में महाराजा चेतसिंह के नेतृत्व में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स का कड़ा विरोध हुआ। उसे खाली हाथ वापस भागना पड़ा। वह राजा चेतसिंह को गिरफ्तार करने आया था लेकिन उल्टे उसे ही जान बचाकर भागना पड़ा। उन दिनों बनारस में आम कहावत थी कि -घोड़े पर हौदा हाथी पर जीन! रातो-रात भाग गया वारेन हेस्टिंग्स!! । वास्तव में तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा प्रतीक वारेन हेस्टिंग्स था। जिसे बनारस से जान बचाकर भागना पड़ा। आगे चलकर 1857 ई0 में बिहार के वीर कुँवर सिंह ने जब अंगेजों  के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई प्रारम्भ की तब कुँवर सिंह के साथ आजमगढ़, गाजीपुर और जौनपुर जिलों के साथ-साथ वाराणसी के भी स्वतंत्रता सेनानी खड़े हुए। वाराणसी के स्व0 बाबू गणेश प्रसाद सिंह का नाम 1857 ई0 के स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णाक्षरों मे दर्ज है। ब्रिटिश सरकार ने दण्ड स्वरूप उनसे मुगलसराय की जमींदारी छीन ली। 1857 ई0 के बाद भारत की आजादी की लड़ाई की शुरूआत उस घटना से लिया जाता है जिस घटना का सम्बन्ध महात्मा गाँधी के 1916 ई0 के भाषण से जोड़ा जाता है। महात्मा गाँधी वाराणसी की धरती से ब्रिटिश हुकुमत के वायसराय को तथा देश के राजे-महाराजाओं को विश्वविद्यालय स्थापना समारोह में ललकारा था। सत्याग्रह आन्दोलन, चरखा आन्दोलन, विद्यालयों की शिक्षा का परित्याग जैसे असहयोग आन्दोलन के मुख्य-मुख्य आन्दोलनों की शुरूअता काशी से हुई। असहयोग आन्दोलन के चलते काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई। गाँघी आश्रम की शुरूआत वाराणसी से ही हुआ। इसके प्रवर्तक आचार्य जे0 बी0 कृपलानी थे। आधुनिक शिक्षा के रूप में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय की स्थापना काशी में हुई। 1958 ई0 में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 1963ई0में तिब्बती विश्वविद्यालय की स्थापना सारनाथ में हुई। दारूल ऊलूम की स्थापना रेवड़ी तालाब पर हुई। 1984ई0 में गंगा के निर्मलीकरण की योजना का प्रारम्भिक दौर काशी से ही प्रारम्भहुआ। वर्तमान काल में भी स्वामी स्वरूपानन्द के नेतृत्व मंे गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का गौरव प्रदान करने का कार्यक्रम काशी से ही प्रारम्भ हुआ है।
वस्तुतः वाराणसी अपने प्रारम्भिक दिनों से ही सार्वभौम नगर रहा है। इस नगर में आन्ध्र, तमिल, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, जम्मू-काश्मीर और हिमालयी क्षेत्र तथा मगध, मिथिला एवं बंग देश के विद्वान अध्ययन के लिए व तपस्वी तपस्या के लिए आते रहे हैं। आज भी दूर-दराज से विद्यार्थी आते रहते हैं। उन दिनों में इसका नाम आनन्द वन था। इसे मुक्ति धाम माना जाता है। विद्या और पुण्य के अतिरिक्त यह क्षेत्र व्यापार के रूप में परिवर्तित हुआ। फिर भी इसकी ख्याति विद्या और आध्यात्म की दृष्टि से सर्वाधिक रूप में विख्यात है।
सन्दर्भ -
1. ईश्वरी शरण विश्वकर्मा-काशी का ऐतिहासिक भूगोल, रमानन्द विद्या भवन, नई दिल्ली 1987
2. आ0 बलदेव उपाध्याय-काशी की पंाडित्य परम्परा, विश्वविद्यालय प्रका0, चैक,वाराणसी 1983
3. ठाकुर प्रसाद सिंह-स्वतंत्रता आन्दोलन और बनारस, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी -1990
4. पं0 कुबेर नाथ सुकुल-वाराणसी -वैभव, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद 2000
5. आर0एल0सिंह-बनारस ए स्टडी इन अर्बन जियोग्राफी, ठभ्न् प्रेस 1955
6. मोती चन्द्र- काशी का इतिहास, वि0वि0 प्रकाशन, चैक, वाराणसी 2003
7. प्रो0 ठाकुर प्रसाद वर्मा -वाराणसी थ्रू द एजेज, भारतीय
डाॅ0 देवी प्रसाद सिंह इतिहास संकलन समिति,
डाॅ0 जयशंकर मिश्र यू0पी0 विजयगढ़ हाऊस अस्सी 1986