Thursday 1 April 2010

विवाह: एक पुरातन संस्कार


श्रीमती मनोज मिश्रा
राष्ट्रपति पुरस्कार सम्मानित-भारत सरकार, वास्तु भाष्कर सम्मान-नेपाल सरकार, शिक्षिका, डी0 पी0 गल्र्स काॅलेज, शोध कार्य, रा0 ट0 मु0 विश्व0, इलाहाबाद।


’’वसुधैव कुटंुबकम्‘‘ की परिकल्पना हमारे भारतीय ऋषियों के चिंतन की पराकाष्ठा को प्रतिबिंबित करता है। यह हमारी संस्कृति और संस्कार की प्राणधारा है। ‘‘संस्कार कोई पदार्थ नहीं है जिसे हाथ से छूकर परखा जा सके, संस्कार कोई सुगंध नहीं है जिसे सूंघा जा सके, संस्कार कोई जल नहीं है जिसे पिया जा सके, संस्कार कोई पुस्तक नहीं है जिसे पढ़ा जा सके, संस्कार कोई दर्पण (शीशा) नहीं है जिसमें स्वयं को देखा जा सके।‘‘ संस्कार तो वह चेष्टा है जो कत्र्ता पर अपना सूक्ष्म प्रभाव छोड़े। दर्शन, श्रवण, स्पर्श, घ्राण क्रिया के द्वारा चक्षु, श्रोत्र, त्वक, नासिका, जिह्वा आदि  इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को ग्रहण करने से चित्त पर जो शुभ प्रभाव पड़ता है वही आने वाले समय में संस्कार का रूप ले लेता है। तथा व्यक्ति मणि के सदृश दैदीप्यमान होकर धवल हो जाता है। क्योंकि इससे उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक व पारिवारिक उत्कर्ष होता है।
’संस्कार‘ के शाब्दिक अर्थ पर दृष्टिपात करें तो इसका अर्थ है ’’शुद्धिकरण‘‘। संस्कार के दो रूप हैं - आन्तरिक व वाह्य। वाह्य रूप के नाम रीति-रिवाज हैं यह आन्तरिक रूप की रक्षा करता है। संस्कार भारत व हिन्दू धर्म में ही क्यों पुष्पित-पल्लवित हुआ इसके मूल में एक ही कारण परिलक्षित होता है कि प्रत्येक देश के अपने निश्चित नियम, व्यवस्थायें, अनुशासन, रीति-रिवाज व परम्परायें थीं। हिन्दू धर्म मंे संस्कारों की संख्या को लेकर मतभेद है गौतम धर्म सूत्र में संस्कारों की संख्या चालीस बताई गई है।1 बैखानस ने इनकी संख्या १८ बताई है। लेकिन महर्षि वेदव्यास ने इनकी संख्या सोलह बताई है जिसे आज भी मान्यता प्राप्त है। संस्कार द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था।2 सोलह संस्कारों में ’’विवाह संस्कार’’ को केन्द्रीय व विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई है।
मनु के अनुसार विवाह से जीवन यात्रा शुभ रहती है।3 क्योंकि इन्द्रिय तुष्टि, काम की पूर्ति तथा धर्म भावना की पुष्टि होती है। विवाह एक बंधन है जिसमें स्त्री व पुरुष जीवन पर्यन्त गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए समाज द्वारा स्वीकृत कर लिये जाते हैं। नारी को पुरुष के जीवन की पूर्णता का आधार माना गया है। पुरुष अपने आप में अपूर्ण होता है। नारी के बंधन से बंध कर वह पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। जीवन के चार पुरुषार्थ होते हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। प्रथम तीन पुरुषार्थों की प्राप्ति में नारी की भूमिका प्रमुख होती है। केवल मोक्ष तत्व की प्राप्ति में पुरुष नारी से अग्रणी होते हैं। इसीलिए विवाह के समय अग्नि परिक्रमा करते समय प्रथम तीन परिक्रमाओं में कन्या आगे रहती है तथा वर उसके पीछे रहता है इसका अभिप्राय है कि धर्म, अर्थ, काम में नारी की भूमिका पुरुष की तुलना मे अधिक महत्वपूर्ण है। अग्नि की चतुर्थ परिक्रमा का सम्बन्ध मोक्ष से होता है। इसकी प्राप्ति में पुरुष पुरोधा होता है। विवाह मोक्ष का साधन है ऐसा महाभारत में कहा गया है।4 विवाह की धार्मिकता इस बात से और पुष्ट हो जाती है कि श्रीराम ने सीता के परित्याग के बाद यज्ञ करना चाहा तो उनकी अनुपस्थिति में स्वर्ण की सीता बनवाकर अपने बगल में रखकर यज्ञ किया।5 मनु ने विवाह के तीन उद्देश्य बताये हैं - धर्म का पालन, पुत्र की प्राप्ति, रति का सुख।6 वस्तुतः मनुष्य को धर्म-सुख, पुत्र-सुख और रति-सुख विवाह से ही उपलब्ध होता है, इसके साथ-साथ इसे देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण, अतिथिऋण और भूत ऋण से भी मुक्ति मिलती है।
विवाह के प्रकार - हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने हिन्दू विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया है जो किसी न किसी रूप में समाज में प्रचलित थे।7 मनुस्मृति में ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच नामक आठ विवाह प्रकार माने गये हैं।8 इनमें से प्रथम चार विवाह हिन्दू समाज में अति सम्मानित थे अन्तिम चार अति निन्दित थे। किन्तु इतने प्रकार के विवाह की क्या आवश्यकता थी ? इस प्रश्न पर विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि हिन्दू समाज में व्याप्त जातीय, साम्प्रदायिक तथा सांस्कृतिक वैविध्यता के बीच वैवाहिक वैविध्यता अत्यन्त स्वाभाविक है।9 किन्तु इन विवाह प्रकारों में नैतिक और धार्मिक मूल्यों के विवाह-प्रकार समाज में अधिक प्रचलित हुए तथा अनैतिक और अधार्मिक वृत्तियों से प्रभावित विवाह-प्रकार बहुत कम स्वीकार किये गये। लुडविक स्टर्नबैक ने कानूनी दृष्टि में ग्यारह प्रकार के हिन्दू-विवाहों का उल्लेख किया है।10 लेकिन इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है।
ब्राह्म विवाह - हिन्दू समाज में यह विवाह प्रकार सर्वोत्तम कोटि का स्वीकार किया गया है इस विवाह में कन्या का पिता सच्चरित्र और वेदज्ञ वर को अपने यहाँ आमंत्रित करके, कन्या को वस्त्र एवं आभूषण से सुसज्जित करके दान करता था। आपस्तम्ब का कथन है कि ब्राह्म विवाह में वर के आचरण, विद्या, स्वास्थ्य, धर्म में आस्था व उसके परिवार के बारे में जानकारी प्राप्त करके अपनी सामथ्र्य के अनुसार कन्या को वस्त्र व आभूषण से अलंकृत कर प्रजा की उत्पत्ति व एक साथ धर्म-कर्म करने के लिए कन्या का दान देता था।11 वर्तमान समय में भी यह विवाह प्रकार सर्वाधिक मान्य है।
दैव विवाह - अपनी कन्या को विवाहित करने के लिए पिता एक यज्ञ का आयोजन करता था। जो व्यक्ति उस यज्ञ को विधिपूर्वक सम्पन्न कर लेता था, उसी से उस कन्या का विवाह किया जाता था, जो शायद दक्षिणा के रूप में विवाह के निमित्त प्रदान की जाती थी। आपस्तम्ब का कथन है कि इस विवाह में पिता कन्या को किसी ऐसे ऋत्विज को प्रदान करता था जो श्रौत यज्ञ करा रहा होता था।12 पुरातन काल में यज्ञों की परम्परा थी। यह महीनों कभी-कभी वर्षों तक चलते रहते थे। तब अधिकतर पुरोहित यजमान के घर ही यज्ञ करता था। जब यजमान की कन्या से उसे इस बीच प्रेम हो जाता अथवा यजमान पुरोहित को ही अपनी कन्या देना उपयुक्त समझकर उसके साथ कन्या का विवाह कर देता था तो इसे दैव विवाह की संज्ञा दी जाती थी। इस प्रकार से विवाह का ज्ञान रामायण में सोमदा के वृत्तान्त से होता है जो चूलि ऋषि की सेवा करती थी और उन्हीं से उनकी इच्छानुसार ब्रह्मदत्त नामक उसे पुत्र उत्पन्न हुआ था।13
आर्ष विवाह - इस विवाह मे कन्या के पिता वर को कन्या प्रदान करने के बदले में एक जोड़ी गाय और बैल प्राप्त करता था। ताकि वह याज्ञिक क्रियायें भली-भाँति सम्पन्न करा सके।14 अल्टेकर महोदय वर द्वारा ससुर को दिये गये गाय-बैल को कन्या मूल्य मानते हुए इसे आसुर विवाह का परिष्कृत रूप मानते हैं।15 किन्तु हिन्दू शास्त्रकार जैमिनी, शबर और आपस्तम्ब ने इस उपहार को वधू के मूल्य के रूप में नहीं स्वीकार किया है।16 महाभारत से विदित होता है कि शल्य ने अपनी बहन माद्री के विवाह के लिए कुल प्रथा के अनुसार अत्यन्त संकोच के साथ भीष्म से विक्रय मूल्य ग्रहण किया था। किन्तु यह कन्या विक्रय नहीं था। बल्कि पूर्वगामी परम्परा का निर्वाह मात्र था।17 आजकल भी विवाह में कन्यापक्ष द्वारा गोदान करने की परिपाटी इसी परम्परा का परिवर्तित रूप कहा जा सकता है।
प्राजापत्य विवाह - इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुए यह आदेश देता था कि दोनों साथ-साथ मिलकर सामाजिक तथा धार्मिक कत्र्तव्यों का निर्वाह करें। पिता वर से इसके लिए एक प्रकार की वचनबद्धता प्राप्त कर लेता था। जीवनपर्यन्त पत्नी के साथ धर्म की अभिवृद्धि की कामना, बिना पत्नी की अनुमति के दूसरा विवाह न करना तथा पारिवारिक जीवन की स्वस्थता प्राजापत्य विवाह का मूल आधार थी।18 वर्तमान समय में भी विवाह के इस प्रकार को ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है।
आसुर विवाह - इसमें कन्या का पिता या उसके सम्बन्धी वर पक्ष से धन लेकर कन्या का विवाह करते थे। महाभारत में भी कहा गया है कि कन्या को खरीद कर अथवा उसके सम्बन्धियों को धन का लालच देकर जो विवाह होता है उसे असुरों का धर्म कहा जाता है।19 विश्व सभ्यता के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि चिर पुरातन काल में असीरिया में एक प्रकार का विवाह प्रचलित था जिसमें लड़की को खरीद कर उससे विवाह किया जाता था।20 इस विवाह को समाज में बहुत मान्यता नहीं प्राप्त थी।
गान्धर्व विवाह - मनु ने कन्या और वर के इच्छानुसार कामुकतावश संयुक्त होने को गांधर्व विवाह की संज्ञा दी है।21 जब युवक-युवती प्रेमवश काम के वशीभूत होकर अपने माता-पिता की उपेक्षा करके विवाह कर लें तब वह प्रथा गांधर्व विवाह कही गयी।22 हरिदत्त वेदालंकार के अनुसार वैदिक काल से यह विवाह प्रथा प्रचलित थी। उन्होंने ऋग्वेद तथा अथर्ववेद से एक लम्बी उदाहरण तालिका अपने मत के समर्थन में प्रस्तुत की है।23 महाभारत में दुष्यन्त व शकुन्तला का विवाह गान्धर्व विवाह था।24 भवभूति ने मालती माधव नाटक में कहा है कि विवाह में सर्वोत्तम मंगल वर-वधू का पारम्परिक प्रेम होता है जिसमें वर-वधू के मन और चक्षु मिले होते हैं।25 आजकल गान्धर्व विवाह को प्रेम विवाह के नाम से सम्बोधित किया जाता है और यह विवाह सभी जाति व समाज में आज अत्यधिक लोकप्रिय हो रहा है।
राक्षस विवाह - इस विवाह में बलपूर्वक कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह किया जाता था। मनु के अनुसार कन्य पक्ष वालों की हत्या कर, घायल कर, उनके घरों को गिराकर, रोती चिल्लाती कन्या को बलात् उठाकर लाना, तथा उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है।26 इस प्रकार के विवाहों के प्रमाण से हमारा पूरा साहित्य भरा हुआ है। पृथ्वीराज ने संयुक्ता से, कृष्ण ने रुक्मिणी से, अर्जुन ने सुभद्रा से, इसी प्रकार का विवाह किया था। प्राचीन काल में युद्धकर्मी जातियों एवं क्षत्रियों के लिए यह विवाह प्रशस्त बताया गया है। महाभारत में इसे क्षात्र धर्म कहा गया है। आज इस विवाह को बिल्कुल मान्यता नहीं प्राप्त है।
पैशाच विवाह - इस विवाह की सभी शास्त्रकार कटु आलोचना करते हैं और निकृष्टतम विवाह की संज्ञा देते हैं। सोती हुई, मदहोश, उन्मत्त, मदिरा-पान की हुई अथवा मार्ग में जाती हुई कन्या को जब कोई व्यक्ति कामयुक्त होकर अपनाता है तब वह विवाह-प्रकार पैशाच कहा जाता है।27 धर्मशास्त्रकारों ने इस विवाह को अत्यन्त जघन्य, अप्रशस्त, अधम्र्य, निन्दित व अधम माना है। यह विवाह प्रकार बहुत प्रचलन में नहीं था।
वर्तमान काल में विवाह निश्चित करने के विभिन्न साधनों का प्रयोग किया जाता है जैसे जन्मपत्री (वर-कन्या की कुण्डली से गुण मेलापक करना) या दहेज आदि। कुण्डली मिलान का प्रयोग सूत्र काल के ग्रन्थों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इस सन्दर्भ में डा0 अल्टेकर का कथन कि शायद उस समय तक ज्योतिष का कोई विकसित रूप समाज के सम्मुख नहीं था।28 केवल नक्षत्रों की स्थिति व शुभ-अशुभ की पहचान थी। क्योंकि श्रीराम के विवाह के समय यह कहा गया कि आज मघा नक्षत्र है तीन दिन बाद शुभ फाल्गुनी नक्षत्र आयेगा।29 इसी प्रकार यहाँ शकुन-अपशकुन का ज्ञान भी मिलता है किन्तु जन्मपत्री की कहीं भी चर्चा नहीं मिलती है। संभवतः चैथी शताब्दी के बाद इसका प्रयोग प्रारंभ हुआ हो। क्योंकि इस समय तक ज्योतिष का समुचित विकास हो चुका था। और ग्रह नक्षत्रों के ज्ञान के साथ कुण्डली मेलापक का महत्व बढ़ता जा रहा है और सुखी गृहस्थ आश्रम व वैवाहिक जीवन की समृद्धि व खुशी के लिए यह अत्यन्त आवश्यक पक्ष है। ज्योतिर्निबन्धावली ग्रन्थ में कहा गया है कि सपिण्ड, गोत्रशुद्धि, स्वभाव, शारीरिक लक्षण, नक्षत्र मेलापक, गुणों का विचार तथा मंगली आदि दोषों का वाग्दान के पूर्व विचार कर लेना चाहिए। वाग्दान हो जाने पर पुनः इन सबका विचार नहीं करना चाहिए। आचार्य त्रिविक्रम ने बताया है कि मरण, वैधव्य, दारिद्रय व सन्तान शून्यता इन दोषों को कन्या की कुण्डली में अच्छी तरह से समझकर विवाह का आदेश देना चाहिए। डा0 शास्त्री के अनुसार विवाह में पाँच दोषों का विचार प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए - निर्धनता, मृत्यु, रोग, विधवा तथा निःसन्तति योग।30 वर एवं कन्या के सुख-सन्तति हेतु जन्म नक्षत्रों से मेलापक करना चाहिए। यदि जन्म नक्षत्र का ज्ञान न हो तब प्रचलित नामों के अनुसार नक्षत्र कल्पित करके विचार करना चाहिए।
विवाह मेलापक में कुल आठ कूट प्रायः भारत देश के समस्त भागों में प्रचलित हैं - 1. वर्ण, 2. वैश्य, 3. तारा, 4. योनि, 5. ग्रह मैत्री, 6. गण, 7. भकूट, 8. नाड़ी। प्रत्येक कूट में उत्तरोत्तर एक-एक गुण की वृद्धि होती जाती है इन्हीं आठों कूटों का योग 36 होता है जिसे छत्तीस गुण कहते हैं।31 इनमें से अट्ठारह से कम गुण मिलने पर मेलापक निम्नकोटि का होगा विवाह नहीं करना चाहिए। अट्ठारह से पच्चीस गुण मिलने पर उत्तम तथा पच्चीस से अधिक गुण मिलने पर मेलापक अति उत्तम होगा ऐसी स्थिति में विवाह सुख-समृद्धि कारक व शुभदायी होगा। इसके अतिरिक्त विवाह निश्चित करने के अन्य माध्यम प्राचीन काल में प्रचलित थे जिनका स्वरूप आज भी परिलक्षित होता है जैसे - स्वेच्छा से विवाह, स्वयंवर, प्रेम द्वारा, माँ-बाप द्वारा तय करना, दहेज आदि।  
विवाह निश्चित होने के बाद भारतीय समाज में इस संस्कार को परिपूरित करने की विधि निर्धारित की गई है। जिसके माध्यम से स्त्री एवं पुरुष का सुदृढ़ीकरण होता है। इस प्रकार का संस्कार केवल हिन्दू समाज की ही विशेषता नहीं है अपितु यह किसी न किसी रूप में मुसलमान, ईसाई आदि अन्य समाजों में भी पाई जाती है जिसके द्वारा वैवाहिक बंधन दृढ़ होते हैं। ये विधियाँ विभिन्न कालों में अलग-अलग थीं तथा स्थान के अनुसार भी इनमें अन्तर है।32 यही कारण है कि विवाह के सम्बन्ध मे विभिन्न विधियाँ दी गई हैं। वैदिक साहित्य के अतिरिक्त गृहसूत्रों ने इस संस्कार का विशद और लोक समन्वित स्वरूप विवृत्त किया है। उपयुक्त वर व वधू एक दूसरे को मिलें इसके लिए खोज की जाती है इसके पूर्ण होने पर विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता था। जिसे हिन्दू धर्मशास्त्र में वाग्दान कहा जाता था। बरातियों व सगे सम्बन्धियों के साथ वधू के घर जाने पर वर का जो सम्मान किया जाता था उसे मधुपर्क कहा जाता था। इसके बाद वर-वधू को एक दूसरे का दर्शन कराया जाता था। इसके बाद पिता अपने आमंत्रित वर को अपनी कन्या दान में देता था और वर से यह आश्वासन प्राप्त करता था कि वह उसका भरण-पोषण के साथ ही उसका कभी परित्याग नहीं करेगा। विवाह के सभी कृत्य अग्नि के सम्मुख सम्पन्न किये जाते थे। इसके अन्तर्गत होम किया जाता था तथा आहुति द्वारा अग्नि का आशीः प्राप्त किया जाता था। इसके बाद वर-वधू एक दूसरे का हाथ पकड़ते थे और पाणिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाती थी। इस प्रकार दोनों की अभिन्नता स्थापित करने के बाद वर-वधू द्वारा अग्नि की चार बार प्रदक्षिणा की जाती थी। इसके बाद लाजाहोम और केशमोचन की क्रिया होती है। इसके बाद वर वधू को पूर्व की ओर सात पग ले जाते हुए गृहस्थ धर्म के सात नियमों का स्मरण करता था जिसे सप्तपदी कहा जाता है। इसके पूर्ण होने पर आचार्य वर व वधू के सिर पर जल छिड़कता है जिसे मूर्धाभिषेक कहते हैं। इसके बाद सूर्य के दर्शन, ध्रुव तारे का दर्शन व हृदय का स्पर्श करके वर-वधू सौ वर्ष की आयु की कामना करते हैं। जिसमें कर्मकाण्ड कराने वाले आचार्य का आशीर्वाद निहित रहता था। इसके बाद वर वधू की विदाई कराकर अपने घर ले जाता है। इस प्रकार की सम्पूर्ण विधि हिन्दू समाज में अपनायी जाती थीं और आज भी काफी हद तक इसका यही स्वरूप परिलक्षित होता है। ‘संस्कारमयूरव’ नामक ग्रन्थ में इस सम्पूर्ण विधि का विस्तृत विवेचन है।
हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने विवाह विच्छेद या पति-पत्नी का या पत्नी पति का परित्याग करे इसे अति निंदनीय व घृणित कृत्य माना जाता था। मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि पति चाहे दुःशील, परस्त्रीगामी, अवगुणी ही क्यों न हो पत्नी को उसकी देवता के समान पूजा करनी चाहिए।33 पत्नी को दासी कहा गया है और यह भी निर्देश दिया गया है कि चाहे पति दरिद्र, व्याधिग्रस्त या धूर्त हो तब भी वह उसका अपमान न करे। नहीं तो उसका जन्म बार-बार कुतिया या सुअरी के रूप में होता है।34 अतः यह कहना अतिउक्ति न होगा कि हिन्दू धर्मशास्त्र में पुरुष प्रधान नियम बनाये हैं और विवाह विच्छेद को बिल्कुल मान्यता नहीं है। लेकिन वर्तमान में विवाह विच्छेद या तलाक के कानून बना दिये गये हैं और स्त्रियों के अधिकारों को अत्यधिक ध्यान में रखा गया है व पूर्ण सुरक्षा के नियम बनाये हैं। अतः हिन्दू विवाह संस्कार अत्यधिक सशक्त है व सम्पूर्ण विश्व में इसे अत्यधिक सम्मान प्राप्त है।
सन्दर्भ-सूची
1. गौतम धर्मसूत्र - 1.822 - इत्येते चत्वारिंशत्संकाराः
2. काणे - हिस्ट्री आॅव धर्मशास्त्र जिल्द 2, भाग-1 - पृष्ठ 192
3. मनुस्मृति-1/10/25- एवोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुरुषयो शुभा।
4. महाभारत 152 नारद से एक कन्या मिली जो अपनी समकक्षी न मिलने से अविवाहित थी। उससे नारद ने कहा जब तक विवाह नहीं करेगी तुझे मोक्ष नहीं मिलेगा।
5. वाल्मीकि रामायण 7/91/25 ‘‘सीता कात्र्चीन कृता।‘‘
6. मनुस्मृति - 9.28 ’’अपत्यंधर्मकार्याणि शुश्रुषा रतिरूत्तमा।
दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्चह।।
7. आश्व0 गृ0 सू0 - 1.6, बौ0 ध0 सू0 - 1.11ए कौटिल्य - 3.2, मनु0 - 3.21.40, महाभारत - 1.73.8.9
8. मनुस्मृति - 3.21 - ’’ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्थासुरः।
गान्धर्वो राक्षसश्वैव पैशाचश्चाष्मोऽधमः।।
9. वेदालंकार हरिदत्त - हिन्दू विवाह का संक्षिप्त इतिहास - पृष्ठ 164
10. लुडविक-जुरिडिकल स्टडीज इन ऐंशिएण्ट ला, भाग-1-पृष्ठ 347
11. आपस्तम्ब गृह सूत्र - 2.17 मनुस्मृति - 3.27
12. आ0 ध0 सू0 - 2.19 - दैवेयज्ञतंत्र ऋत्विजे प्रतिपादयेत्।
13. वाल्मीकि रामायण - 1/13/18 - ब्रह्मदत्तं न ख्यातं मानसं चूलिनः सुतम्।।
14. मनुस्मृति 3.29
15. अल्टेकर -पोजीशन आॅफ वूमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन- पृष्ठ 45
16. वीरमित्रोदय - पृष्ठ 850, जैमिनी 6.1.15, आ0 ध0 सू0 - 2.18
17. महाभारत - 1.122.9
18. संस्कार कौस्तुभ - पृष्ठ 732
19. महाभारत - 13/47/3
20. डा0 पाण्डेय विमलचन्द्र - विश्व की सभ्यताएं।
21. मनुस्मृति - 3.32
22. बौधायन धर्म सूत्र - 1.11.6 - सकामेन सकामायां संयोगो गान्धर्वः।
23. वेदालंकार हरिदंत-हिन्दू विवाह का संक्षिप्त इतिहास-पृष्ठ 198-99
24. महाभारत - 1.69, अभिज्ञान शाकुन्तलम्।
25. भवभूति - मालती माधव - अंक 2
26. मनुस्मृति - 3.33
27. मनुस्मृति - 3.34 - सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशचश्चाष्टमोऽधमः।।
28. डा0 अल्टेकर-च्वेपजपवद व िूवउंद पद भ्पदकप ब्पअपसप्रंजपवदए च्ंहम . 86
29. रामायण - 1/71/24
30. डा0 जी0 एस0 शास्त्री - ज्योतिष विवाह सर्वस्व -पृष्ठ 03
31. डा0 जी0 एस0 शास्त्री - ज्योतिष विवाह सर्वस्व -पृष्ठ 05
32. आश्वालयन गृहसूत्र - 7.2
33. मनुस्मृति - 5.145
34. परा0 स्मृति -4.16-‘‘दरिद्रं व्याधितं धूर्त भर्तारं यावमन्यते।
सा शूनी जायते भूत्वा शूकरी च पुनः पुनः‘‘।।