Thursday 1 April 2010

महिला सशक्तिकरण और सामाजिक विद्यायन


डाॅ0 अजीत कुमार
प्रवक्ता, राजनीति विज्ञान , आर0आर0पी0जी0 काॅलेज, अमेठी, सुल्तानपुर


किसी भी समाज की कल्पना बिना नारी के नहीं की जा सकती, समाज का स्वरूप वहाँ की नारी की स्थिति पर निर्भर करता है, न केवल हमारा देश अपितु सम्पूर्ण विश्व इस सत्य को नहीं नकार सकता और यदि कोई समाज या देश इस सत्य के साथ कोई भी छेड़छाड़ करता है तो उसका दुष्परिणाम उसे तुरन्त मिलने लगता है। नेपोलियन बोनापार्ट ने नारी की महत्ता को बताते हुए कहा था कि ‘‘मुझे एक योग्य माता दो मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूँगा।’’ भारत में भी नारी के संदर्भ में युक्ति है कि- ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ अतीत से ही नारी का समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उसे सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता रहा है, यह स्थिति काफी समय तक चलती रही किन्तु समयानुसार स्वार्थवश नारी को मात्र भोग-विलास की वस्तु मान लिया गया। यही कारण था कि समाज में नारी की स्थिति दयनीय हो गयी।
डाॅ0 राधाकृष्णन् ने जीवन में नारी के महत्व को स्पष्ट करते हुए बताया है कि, ‘‘जब आकाश बादलों से काला पड़ जाता है, जब हम अंधकार में अकेले होते हैं प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती और चारों ओर सिर्फ कठिनाईयाँ ही कठिनाईयाँ होती हैं तब हम अपने आपको किसी प्रेममयी नारी (माँ) के हाथों में छोड़ देते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं।
शास्त्रों में भी नारी के संबंध में मिलता है कि-
‘‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमों नमः।।
महिलाओं से संबंधित मुद्दे वैश्विक और सार्वभौमिक है। समता विकास और शांति पर आधारित समाज के लिए यह अति आवश्यक है कि महिलाओं का सर्वांगीण विकास और उनके अधिकारों को सम्मान मिले।
विश्व स्तर पर महिला सशक्तिकरण: यद्यपि प्राचीन काल से आज तक विद्वानों का मत अपने जगह कायम रहा है कि स्त्रियों के उत्थान के बिना सामाजिक उत्थान सम्भव नहीं है। इसीलिए प्लेटो रिपब्लिक में स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। अरस्तू, मिल, माक्र्स, ग्रीन और गाँधी तक ने जब मानव जाति के उत्थान पर विचार किया है, स्त्रियों की दशा एवं दिशा पर विचार किया है। इतिहास गवाह है कि वे समाज एवं सभ्यतायें विनाश के गर्त में समा गई जिनमें स्त्री को वस्तु के रूप में निरूपित किया गया। आज भी युद्ध,भूख, महामारी, अशिक्षा एवं अस्वास्थ्यकर स्थित से जूझते विश्व के समक्ष स्त्रियों की दशा सुधारने का प्रश्न ज्वलंत है। स्त्रियों के अधिकारों एवं सम्मानजनक स्थिति के निर्माण के लिए समस्त जनसेवी विश्व संस्थायें सक्रिय हैं। विश्व संगठन का प्रयास इसी प्रयास की एक कड़ी है।
1946 में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा स्थापित महिलाओं के परिस्थित पर कमीशन परिषद की एक कार्यकारी परिषद है। महिलाओं की प्रस्थित पर कमीशन ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में महिलाओं के अधिकारों की प्रोन्नति तथा पुरूषों के समान महिलाओं द्वारा समान अधिकारों की प्राप्ति के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया है।
1949 में महिलाओं की राष्ट्रीयता से सम्बन्धित अभिसमय तैयार की जाने की अनुशंसा महिलाओं की परिस्थित कमीशन ने की ताकि महिलाओं को राष्ट्रीयता के मामले में पुरूषों के समान समानता प्राप्त हो सके तथा उन्हें विवाह या विवाह विच्छेद से होने वाली विराष्ट्रीयता से बचाया जा सके। इस संदर्भ में 1957 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विवाहित महिलाओं की राष्ट्रीयता पर अभिसमय को अंगीकार किया। इसमें निम्न प्रावधान रखे गये-
1. राज्य पक्षकार के राष्ट्रीयता वाली महिला व विदेशी के मध्य विवाह अथवा विवाह विच्छेद तथा पति के राष्ट्रीयता के परिवर्तन से पत्नी की राष्ट्रीयता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
2. किसी अन्य राज्य की राष्ट्रीयता प्राप्त करने या राष्ट्रीयता के परित्याग करने वाले पुरूष की पत्नी की राष्ट्रीयता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा अर्थात् पत्नी अपनी राष्ट्रीयता कायम रख सकती है।
3. एक राष्ट्र की राष्ट्रीयता वाले पुरूष की विदेशी पत्नी विशेषाधिकृत प्राकृतिकरण प्रक्रिया से पति की राष्ट्रीयता प्राप्त कर सकती है परन्तु ऐसी राष्ट्रीयता प्रदान करना कुछ परिसीमाओं के अधीन होगा जो राष्ट्रीयता सुरक्षा या लोक नीति के अधीन लगाई जा सकती है।
4. वर्तमान समय में ऐसे किसी कानून या न्यायिक अभ्यास पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा कि ऐसी राष्ट्रीयता वाले व्यक्ति की पत्नी प्रार्थना करके अधिकार के रूप में पति की राष्ट्रीयता प्राप्त कर सकती है।
29 मार्च से 7 अप्रैल 89 तक हुए सत्र में कमीशन ने इस बात पर बल दिया है कि महिलाओं के उत्थान के लिए अंकित आंदोलन को पुनर्जीवित किये जाने के लिए कुछ विशेष कार्यों को किया जाना आवश्यक है। कमीशन ने विभिन्न विषयों पर अपने विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत किये हैं जैसे- एड्स, बुढ़ापा, शरणार्थी एवं विस्थापित महिलाओं, जाति एवं गरीबी भेदभाव पर 23 पाठ अंगीकार किये तथा आर्थिक-सामाजिक परिषद को अनुमोदन हेतु भेजा गया है।
1993 के विएना में हुए सत्र में महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की समाप्ति के विषय में सर्वसम्मति से प्रारूप घोषणा का अनुमोदन किया गया। राष्ट्र संघ महासभा के 49 वें सत्र में इसे अंगीकार किये जाने हेतु भेजा गया। इसमें यह संस्तुति प्रस्तुत की गई कि महिला हिंसा संयुक्त राष्ट्र संघ के तीन मुख्य लक्ष्य समानता, विकास और शांति की प्राप्ति के लिए एक बाधा है। इस प्रकार पहली बार व्यक्त रूप से महिलाओं के विरुद्ध भौतिक, लैंगिक तथा मानविक हिंसा के मसले को हल करने का प्रयास किया गया।
1994 में न्यूयार्क में हुए सत्र में कमीशन ने समान कार्य करने के लिए समान वेतन शहरों में रहने वाली महिलाओं तथा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा समाप्त करने के मामलों पर विचार किया।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद- एक में उद्घोषित किया गया कि ‘सभी मानव व्यक्ति स्वतंत्र जन्में हैं तथा उनकी गरिमा एवं अधिकार समान हैं।’’ स्पष्ट है कि व्यक्तियों के अवैध व्यापार एवं महिलाओं के वेश्यावृत्ति पूर्ण असंगत है। राष्ट्र संघ के अन्तर्गत इस विषय पर विधि निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ का इस विषय पर न केवल विधि को संगठित करना था बल्कि इस बुराई को प्रभावशाली ढंग से दूर करने का उपाय करना था। इस उद्देश्य से वेश्यावृत्ति शमन का अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय 25 जुलाई 1951 से लागू किया गया। इसमें ऐसे व्यक्तियों को दंडित करना स्वीकार किया गया-
1. जो वेश्यावृत्ति के प्रयोजन हेतु किसी अन्य व्यक्ति चाहे उसके सम्मति से ही क्यों न हो प्राप्त करता हो, फुसलाता हो या लाता है।
2. जो अन्य व्यक्ति की वेश्यावृत्ति का शोषण करता है चाहे वह उसकी सहमति से ही क्यों न किया गया हो।
महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव शब्दों से तात्पर्य है लिंग पर आधारित कोई भेद अपवर्जन या प्रतिबन्ध जिसके कारण उनकी वैवाहिक प्रास्थिति पर ध्यान दिए बिना राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल या अन्य कोई क्षेत्रों में पुरुषों के समान मानव अधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताओं की महिलाओं द्वारा मान्यता, उपभोग या प्रयोग को क्षति पहुँचाया जाए।
राष्ट्र संघ चार्टर के अनुच्छेद 1 तथा 55 में वर्णित है ‘‘लिंग आदि के भेदभाव के बिना मानव अधिकारों एवं मौलिक स्वतंत्रताओं की सार्वभौमिक प्रोन्नति है। महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव मानव गरिमा एवं समाज कल्याण के विरुद्ध है। यह महिलाओं या सम्भाव्य शक्ति की पूर्ण प्राप्ति में बाधक है। सार्वभौमिक घोषणा 1948 के अनुच्छेद 1 में यह वर्णित है कि सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से समान एवं स्वतंत्र है। अनुच्छेद 3 में प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। अनुच्छेद 16 में विवाह करने एवं कुटुम्ब स्थापित करने का अधिकार है। तेहरान घोषणा 1968 में महिलाओं के भेदभाव से सम्बन्धित है जिसमें यह कहा गया है कि दुनिया के सभी क्षेत्रों में अब भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है उसका समापन किया जाना चाहिए। 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की घोषणा की गयी जिसका उद्देश्य पुरुषों एवं महिलाओं के समानता के सिद्धान्त, सार्वभौम मान्यता विधितः और दृढ़ता प्रदान करता है। 7 नवम्बर 1967 को महासभा ने महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा पारित की है। घोषणा में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की समानता को कम करना या इन्कार करना मानव गरिमा के विरुद्ध अपराध है। अनुच्छेद 2 के माध्यम से महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव करने वाली विधियाँ, प्रथायें, विनियमों एवं अभ्यासों को समाप्त करने के उपयुक्त उपाय किये जायेंगे। महिलाओं एवं पुरुषों को समान अधिकारों के लिए उपयुक्त विधिक संरक्षण स्थापित किया जायेगा। महिलाओं को कानूनी क्षेत्रों मे पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होंगे उन्हें सम्पत्ति प्राप्त करने; उनका प्रशासन करने, उपभोग करने, व्यय करने तथा उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार होगा। इसके अतिरिक्त विवाह की न्यूनतम आयु से विद्यायनी समेत विवाह का अनिवार्य पंजीकरण करना होगा।
उपर्युक्त अधिनियमों के अतिरिक्त भी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला अधिकार के क्षेत्र में पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने के लिए कुछ कार्य किए गए हैं जो निम्नलिखित हैंः-
1. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संस्था द्वारा 1951 में पुरुषों एवं महिला अधिकारियों को समान कार्य पर समान वेतन का अधिनियम है।
2. 1952 में मतदान के अधिकार सहित समान राजनैतिक अधिकार।
3. नियोजन एवं उपजीविका से संबंधित भेदभाव पर अधिनियम, 1960
4. महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा 1967
5. महासभा द्वारा महिलाओं के संयुक्त राष्ट्र दशक के लिए स्वैच्छिक फंड तथा महिलाओं की उन्नति के लिए संयुक्त राष्ट्र शोध संस्थान की स्थापना।
6. 1980 में कोपनहेगन में महिलाओं पर द्वितीय एवं 1985 में नैरोबी में महिलाओं पर तृतीय सम्मेलन। इन सम्मेलनों में महिलाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास फण्ड कायम किया गया जो संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम के अन्तर्गत एक स्वायत्त संस्था है।
7. 1986 में महिलाओं के विकास पर प्रथम विश्व सर्वेक्षण।
8. 1991 में महिलाओं की विश्व स्थितियों पर विश्व महिलायें, प्रवृत्तियों एवं सांख्यिकी का प्रकाशन।
9. 1992 में पर्यावरण एवं विकास पर महिलाओं की भूमिका पर सम्मेलन।
महिलाओं के मानव अधिकार को सुव्यस्थित करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित चार विश्व सम्मेलन हो चुके हैं:-
1. प्रथम विश्व सम्मेलन में मेक्सिकों में 1975 में हुआ जिसमें 1975 से 85 के दौरान महिलाओं के समानता, विकास तथा शांति पर अधिक बल दिया गया।
2. द्वितीय विश्व सम्मेलन कोपनहेगन में 1980 में हुआ जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं नियोजन जोड़े गये हैं।
3. तृतीय महिला विश्व सम्मेलन नैरोबी में 1985 में हुआ जिसमें उपरोक्त तीनों विषय 2000 तक रचना कौशल के अन्तर्गत रखे गये।
4. चैथा महिला विश्व सम्मेलन चीन में बीजिंग में 1995 में हुआ जिसमें समानता, विकास और शांति के विषय को आगे बढ़ाया गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला अधिकारों के क्षेत्र में किए गए उपरोक्त प्रयासों के संदर्भ में आवश्यकता है कि प्रत्येक देश के राष्ट्रीय एवं राज्य मानव अधिकार आयोगों द्वारा प्रस्तुत संकल्पनाओं को मूर्त रूप देने एवं महिलाओं को उनका उचित मौलिक अधिकार दिलाने का प्रयास करे।
भारत में महिला सशक्तिकरण: भारत हमेशा से महिलाओं के निमित्त अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हिमायती रहा है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद ही भारत ने लिंग पर आधारित पूर्वाग्रह को मिटाने के लिए संगठित प्रयास किये हैं ताकि महिलायें सही अर्थों में पुरुषों के समान अपनी हैसियत का उपयोग कर सकें। भारतीय संविधान ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्यास सभी के लिए सुनिश्चित करने की बात की है। अनुच्छेद 14 सभी को विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद 15 (1) लिंग पर आधारित भेद का प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 15 (3) महिलाओं के लिए विशेष उपबन्ध करता है। अनुच्छेद 16(2) नियोजन में लिंग भेद का प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता की व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 39 (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध करना है। वहीं संविधान का 73 वां, 74 वां संशोधन पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है।
उपर्युक्त संवैधानिक व्यवस्था के अतिरिक्त महिलाओं के उत्थान एवं सुरक्षा से सम्बन्धित अन्य प्राविधान किये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं:-
।ण् भारतीय दण्ड संहिता 1860 में महिला संबंधी छेड़छाड़, लज्जा भंग, बलात्कार, यौन अपराध, दहेज आदि के लिए दण्ड की व्यवस्था है।
ठण् भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1972 के अन्तर्गत महिलाओं से संबंधित प्रावधान के धाराओं 112, 113 (क), 113(ख), 114(क) में विशेष उपबन्ध।
ब्ण् दीवानी प्रक्रिया संहिता 1908- महिला गिरफ्तारी से संबंधी विशेष उपबंध है जो कि महिला की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए है।
क्ण् भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925- महिला को उत्तराधिकार संबंधी अधिकार प्रदान करने के लिए यह अधिनियम विशेष उपबन्ध करता है जिससे महिला की स्थित सशक्त हुई है।
म्ण् हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 एवं विवाह विच्छेद अधिनियम 1969-में विवाहित महिलाओं के भरण-पोषण के उपबंधों का वर्णन है जिससे विवाह पश्चात् महिलाओं केा अधिकारों से वंचित न किया जा सके।
थ्ण् अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956- इसका उद्देश्य महिलाओं के अनैतिक व्यापार को समाप्त करना है जिससे वे गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें।
ळण् गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971- कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के उद्देश्य से यह अधिनियम बनाया गया है। जिससे गर्भ का लिंग पता लगाना अपराध है।
भ्ण् दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973- महिलाओं के भरण-पोषण एवं गिरफ्तारी से छूट के संबंध में विशेष उपबंध।
प्ण् स्त्री अशिष्ट रूपण (निषेध) अधिनियम 1986- इसका उद्देश्य विज्ञापन के माध्यम, प्रकाशन, लेख, रंग चित्रण में महिलाओं को अशिष्ट रूप से प्रदर्शन करने पर रोक लगाना है।
श्रण् घरेलू हिंसा अधिनियम 2005-हिंसा से महिला को संरक्षण प्रदान करना है।
इन सबके अतिरिक्त कई और अधिनियम और नियम महिलाओं की स्थिति सुधारने हेतु बनाये गये हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(3) के ही प्रावधानों का सहारा लेकर संसद ने 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम पारित किया है। इस आयोग द्वारा महिलाओं के अधिकारों एवं समानता द्वारा लैंगिक न्याय पाने के लिए कोशिश करता है।
दहेज प्रतिषेध अधिनियम भी सामाजिक कुरीतियों पर नियंत्रण एवं दूर करने के लिए बनाया गया।
बाल विवाह अवरोध अधिनियम (1929) द्वारा बाल विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया एवं इस अधिनियम में 1978 में संशोधन के बाद अब विवाह की न्यूनतम उम्र बढ़ाकर वर के लिए 21 वर्ष और वधू के लिए 18 वर्ष कर दी गई है।
सती निवारण अधिनियम के द्वारा सती के अत्यधिक प्रभावी ढंग से निवारण और उससे सम्बन्धित मामलों के लिए उपबन्ध करने हेतु अधिनियमित किया गया है। सती प्रथा को भारत में अंग्रेजों ने विधि द्वारा 1829 में प्रतिबन्धित कर दिया था।
किन्तु इन अधिनियम और नियमों से केवल दण्ड देकर अपराध कम किये जा सकते हैं। समाप्त नहीं। क्योंकि इन अधिनियमों से समाज की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी लड़की को जन्म नहीं देना चाहता शायद आज भी नारी को समाज में वो सम्मान नहीं मिला है कि हम कह सकें कि आज की नारी सशक्त है।
वास्तविक स्थितिः महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाज और समुदायों में पाये जाते हैं। स्वतंत्रता के उपरान्त से महिलाओं के सशक्तीकरण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों के कारण हम उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने, सम्मान दिलाने और उनके अधिकारों के संरक्षण की दिशा में तेजी से बढ़े हैं।
महिलाओं के संदर्भ में आजादी के बाद की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी संविधान के 73 वें एवं 74 वें संशोधन (1993), का पारित होना, जिसके द्वारा महिलाओं को पंचायत और शहरी निकायों में एक तिहाई स्थान आरक्षित किया गया। यही नहीं इन संस्थाओं में प्रधान और अध्यक्ष पद के लिये एक-तिहाई पद भी महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये ताकि केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं नेतृत्व करने का अवसर भी मिले। हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 पारित किये जाने से देश की स्वतंत्रता के 58 वर्ष बाद यह संभव हुआ है कि महिलायें पैतृक सम्पत्ति में अपने हक का कानूनी दावा कर सकती हें।
दिल्ली स्थित एक सामाजिक अनुसंधान केन्द्र द्वारा कराये गये नये अध्ययन के अनुसार भारत में करीब 5 करोड़ महिलाओं को अपने घरों में हिंसा का सामना करना पड़ता है और उनमें मात्र 0.1 प्रतिशत ही अत्याचार के खिलफ रिपोर्ट करने के लिए आगे आती हैं। इस दिशा में घरेलू हिंसा संरक्षक विधेयक 2006 महिलाओं को राहत पहुँचाने में सक्षम है।
आज महिलायें रोजगार के सभी क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं और कार्य करने की जगहों पर उनके साथ भेदभाव, शारीरिक शोषण और कई तरह के अधिकारों के हनन के मामले भी प्रकाश में आते हैं यह एक गम्भीर समस्या है इस समस्या को गंभीरता से मझते हुए उच्चतम न्यायालय ने सन् 1997 में एक मामले की सुनवाई करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला दिया जिसमें कामकाजी महिलाओं के मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले में शारीरिक शोषण को भी परिलक्षित किया है।
वर्तमान समय में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के साथ कार्य कर रही हैं एवं सफल हो रही हैं। आज महिलाएँ डाॅक्टर हैं, वकील हैं, जज हैं, इन्जीनियर हैं, प्रोफेसर हैं, आर्किटेक्ट हैं, सफल राजनीतिज्ञ हैं, वैज्ञानिक हैं। भारतीय नारी की ये सब उपलब्धियोँ सच हैं पर उतना ही सच हैं उनकी स्थिति का अन्धकारमय पक्ष। हमें इस सत्य को नहीं भूलना चाहिये कि ये सब उपलब्धियाँ शहरी महिलाओं एवं मध्यम या उच्च वर्ग की महिलाओं तक ही सीमित है। यदि आन्तरिक तौर पर देखा जाये तो आज भी ये प्रगतिशील कहीं जाने वाली महिलायें पूर्ण रूप से पति, पिता, भाई, पुत्र अर्थात् पुरुष वर्ग पर निर्भर हैं। अधिकांश स्त्रियाँ अपने कोई भी निर्णय पुरुष वर्ग की इच्छा के बिना नहीं ले सकती। निम्न वर्ग की महिलायें तो पूर्ण रूप से घर की आर्थिक समस्या एवं जिम्मेदारियाँ उठाने के बावजूद भी किसी तरह भी स्वतंत्र नहीं हैं। अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकती हैं। उसे बात-बात पर प्रताडि़त किया जाता है और लांछन सहना पड़ता है।
सैद्धान्तिक रूप से चाहे जो भी कहा जाये लेकिन व्यवहारिक रूप से नारी आज भी शोषित हो रही है। वर्तमान समय में आज भी नारी के समक्ष प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैंः-
1. भारतीय महिलाओं के समक्ष जीवन-पर्यन्त आर्थिक समस्यायें रहती हैं जन्म से वह परावलम्बी रहती है। इसलिये आर्थिक आवश्यकताओं के लिए स्वयं कुछ नहीं कर सकती।
2. वस्तुतः भारतीय समुदाय की महिलायें स्वयं को समाज की प्राकृतिक शिकार मानती हैं। वे हिंसा को अपनी नियति मानकर आत्मसमर्पण कर देती हैं।
3. बहुत सी महिलायें संवैधानिक और धार्मिक बन्धनों के बीच अन्तर न समझकर उनसे बंधी रहती हैं।
4. महिलाओं को बचपन से ही लज्जा उनका गहना है ऐसे संबोधनों के कारण उनमें व्याप्त डर और भय की भावना व्याप्त हो जाती है।
5. देश में महिलाओं की साक्षरता का स्तर बहुत ही कम है। कन्या महाविद्यालय खोल देने से ही शिक्षा समस्या हल नहीं हो जाती है। आज की शिक्षा भारतीय नारी के आदर्श की रक्षा नहीं कर पा रही है। आर्थिक समस्या के कारण अशिक्षा की समस्या का जन्म होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में नारी का उद्देश्य एक नागरिक बनना नहीं बल्कि बच्चे पैदा करना एवं उन्हें पालना ही है। इसलिए वे शिक्षा को उचित नहीं मानती हैं।
6. भारतीय नारी के प्रति हिंसा के लिए बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार हैं जिसके कारण 10-15 वर्ष की बच्ची अपरिपक्व अवस्था में माँ बनकर बचपन खो देती है, जिसका परिणाम जीवन भर बीमारी, कमजोरी एवं असमय मृत्यु होती है।
आज भी लड़की एक अनचाही संतान होती है अनेकों कानून, सुविधाओं और प्रोत्साहन के बाद भी आज लिंगानुपात निरन्तर बदलता ही जा रहा है। नारियों की संख्या प्रतिदिन कम होती जा रही है।
21 वीं सदी में महिलाओं के प्रति अत्याचार समाज का घिनौना चेहरा है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था, ‘‘स्त्रियों की दशा में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं।’’ किसी भी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना नितान्त असंभव है। चिरकाल से चली आ रही नारी जाति की कोमलता, शक्ति और सहनशीलता के आदर्श को प्राप्त करने के लिए इन समस्याओं को समाप्त करना अति आवश्यक है। बनाये गये कानून को सफल बनाने के लिए असली लड़ाई हर महिला को स्वयं लड़नी होगी।
विश्व की कुल जनसंख्या में आधी जनसंख्या महिलाओं की है इस आधी आबादी को उपेक्षा से बचाने और गरिमापूर्ण जीवन देने हेतु निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए:-
1. महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सर्वप्रथम समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा क्योंकि बिना जनमत के किसी भी कानून का महत्व नहीं होता। समाज में इस हेतु सकारात्मक भूमिका आवश्यक है। जब तक जनमत महिला वर्ग के पक्ष में नहीं होगा तब तक महिला सशक्तीकरण की कल्पना अधूरी है।
2. कहा जाता है कि बिना स्वयं के मरे स्वर्ग नहीं मिलता। अतः महिलाओं को अपनी स्थिति सुधारने हेतु स्वयं भी प्रयास करने होंगे। जैसे स्वयं को शिक्षित करें, अपने अधिकारों को जाने और उन्हें पाने के लिए अन्तिम क्षण तक संघर्ष करें ताकि कोई उन्हें अधिकारों से वंचित न कर सकें।
3. महिलाओं को स्वरोजगार योजनाओं के द्वारा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने का प्रयत्न करें।
4. महिलाओं से संबंधित विद्यायनों एवं योजनाओं का समुचित प्रचार-प्रसार न होने से महिलायें इन लाभों से वंचित रहती हैं। अतः ऐसी योजनाओं का समुचित प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
5. श्श्रनेजपबम कमसंलमक पे रनेजपबम कमदपमकश् सही कथन है। न्यायिक व्यवस्था में सुधार किये जाने चाहिए ताकि पीडि़त महिलायें न्याय का इंतजार न करती रहें और अपराधी आजाद घूमते हुए अन्य अपराध करता रहे।
6. महिलाओं से संबंधित कानूनों का प्रशासन द्वारा उचित क्रियान्वयन किया जाना चाहिए ताकि कानून केवल किताबों की घरोहर न रह जायें।
7. महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर प्रभावी रोक लगाई जाये। इस क्षेत्र से जुड़े कानूनों का वास्तविक क्रियान्वयन हो, पुलिस व प्रशासन इस हेतु मानसिक रूप से तैयार हों।
8. दूरदर्शन, इंटरनेट, सिनेमा आदि पर सार्थक नियंत्रण रखे जाने हेतु प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिए और उन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए ताकि महिलाओं के अभद्र रूप से प्ररदर्शन पर रोक लग सके और उनके दिन-प्रतिदिन होने वाले अपमान से उनको बचाया जा सके।
आज हर शिक्षित नारी का यह कर्तव्य है कि वह मात्र परिवार को ही अपनी गतिविधियों का दायरा न बनाये बल्कि समाज के प्रति भी अपने कर्तव्य के बारे में सोंचे और इससे भी पहले अपने आपके प्रति भी अपने कर्तव्य के बारे में सोंचे जब तक हम स्वयं को न जानेंगे दूसरे हमें नहीं जान सकते। महादेवी ने कहा था, ‘‘भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण प्रवेग से जाग सकेगी उस दिन से उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं।’’ वह जागरण आरम्भ हो चुका है इस जागरण की गति तीव्रतर करने का दायित्व भारतीय नारी का है। राजनीति, कानून, प्रशासन, पुलिस, व्यापार तथा कला सभी क्षेत्रों में अधिक से अधिक नारियों की भागीदारी ही हमारे समाज को अधिक स्वस्थ और संतुलित बनायेगी। आज हर स्त्री को अपने आपके प्रति अधिक से अधिक ईमानदार बनना है। अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण निर्णय करने का अधिकार स्त्री को है। तसलीमा नसरीन की कविता स्त्रियों को एक शाश्वत संदेश देती है:-
औरत तुम उठो और जियो
अपने फेफड़ों में भर लो ताजी हवा,
ये बादल, पानी-हवा सब हैं तुम्हारे लिये
मिट्टी, घास, फूल, पंछी और यह समुद्र है तुम्हारा।
ईश्वर की सृष्टि में अपनी अनिवार्यता समझने वाली, अपनी क्षमता को पहचानने वाली, अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति सजग, ऊर्जावान स्त्रियाँ ही हमारे भविष्य की आशा हैं। अपनी सार्थक भूमिका के साथ-साथ सार्थक जीवन बिताने वाली स्त्रियाँ ही हमारे समाज और राष्ट्र की थाती हैं। संस्कृति और परम्परा के नाम पर इनके पैरों में बन्धन डालना युगानुरूप नहीं है। परिवर्तन की बयार को अपने जीवन में आत्मसात करना ही विकास है। हमारे समाज के पुरोधा और नेता जितनी जल्दी इस तथ्य को समझ लें उतना ही समाज का कल्याण होगा।
संदर्भ ग्रन्थ
1. भारतीय नारी, वर्तमान समस्यायें और भावी समाधान, लेखक- डाॅ0 आर0पी0 तिवारी
2. माइलस्टोन, हिन्दी मासिक पत्रिका, 2006
3. स्त्री मुक्ति का सपना, लेखक- श्री अरविन्द जैन,, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।
4. । श्रवनतदंस व ि।ेपं वित क्मउवबतंबल ंदक क्मअमसवचउमदजए टवस प्प्प्ए छवण्4ए व्बजण्.क्मबण् 2003ए डवतमदं ;डण्च्ण्द्ध
5. पइपक टवसण् टप्प्ए छवण्4ए व्बजण्.क्मबण् 2007ए
6. पइपक टवसण् टप्प्प्ए छवण्3ए 200