Thursday 1 April 2010

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव


प्रो0 कौशल किशोर मिश्र एवं संजय कुमार पाल (शोध छात्र) 
राजनीति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


लोकतंत्र पर आधारित राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता भारतीयों के लिए चुनौती की तरह आयी। क्या विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में बंटे लोग एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो सकते है? क्या अनेक समुदायों के इस सम्मिलित राष्ट्र में लोकतंत्र को अल्पसंख्यक लोग अपने हितों के अनुकूल प्रभावित कर सकते हैं? धर्म, संस्कृति या इतिहास, किसी भी प्रकार की ‘अतिरिक्त क्षेत्रीय निष्ठा’ न होने के कारण हिन्दुओं का तादात्म्य इस नए राष्ट्रवाद के साथ होना अत्यन्त स्वाभाविक और सरल था। उन्हें किसी से कहना नहीं था, केवल नए आदर्शों के अनुसार आपस में जुड़ना भर था, किन्तु मुसलमानों में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा नहीं थी। उन्होंने पूछा: ‘क्या नस्ल, धर्म, संस्कृति, और इतिहास के सूत्र उन्हें एक समुदायिक एकता में बांधकर हिन्दुओं से अलग व्यक्तित्व नहीं प्रदान करते हैं? कुछ मुसलमान राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर आकर्षित हुए, किन्तु अधिकांश ने राजनीतिक अलगाव के मार्ग को अपनाया। अलगाव के आन्दोलन को भावनात्मक और सैद्धान्तिक आधार देने के लिए उन्होंने मुसलमानों के सांस्कृतिक वैशिष्ट्य पर जोर दिया। अल्पसंख्यक होने के नाते उन्होंने लोकतंत्रीय राष्ट्रवाद को अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए खतरनाक पाया। लोकतंत्र ने तलवार के स्थान पर ‘संख्या’ को सत्ता का निर्णायक बनाकर मुसलमानों की स्थिति एक स्थायी अधीनस्थ समुदाय की कर दी। लोकतंत्र के रहते हुए इस स्थिति में परिवर्तन सर्वथा असम्भव था। इस निश्चित क्षेत्र से बचने का एकमात्र मार्ग हिन्दुओं से अलगाव था। अलग सामुदायिक अस्तित्व से यदि उन्हें पूरी सत्ता नहीं तो कम से कम उसका एक महत्वपूर्ण अंग सम्भव बात थी। राष्ट्रवाद की तुलना में सम्प्रदायवाद, मुस्लिम अभिजात वर्ग के लिए अधिक लाभकारी था।
राष्ट्रवाद को लेकर उठी सब शंकाओं का समाधान साम्प्रदायिक विचारधारा में था। अतः मुसलमानों ने आरम्भ में एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में राजनीतिक मान्यता प्राप्त करने का प्रयास किया। उसमें सफल होने के बाद अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्होंने एक पृथक इस्लामी राज्य की मांग रखी। इसके विपरीत हिन्दू सम्प्रदाय का आर्विभाव मुस्लिम सम्प्रदायवाद की प्रतिक्रिया में हुआ है। मुसलमानों की दिन-प्रतिदिन बढ़ती मांगों और ब्रितानी सरकार तथा कांग्रेस द्वारा दी जाने वाली रियायतों ने हिन्दुओं के एक वर्ग में दुश्चिन्ता पैदा कर दी। उनको आशंका हुई कि रियायतों की इस नीति से बहुसंख्यक समुदाय के रूप में मिलने वाले उनके अधिकारों और सुविधाओं को गहरा आघात पहुंचेगा।
भारत के चेतनशाील समाज में सम्प्रदायवाद की व्याख्या भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न विचारों या मान्यताओं के संदर्भ में की गई है, जो वास्तविक तथ्यों एवं घटनाओं के क्रमबद्ध भौतिकवादी एवं मनोवैज्ञानिक विवेचना से सारगर्भित है। साम्प्रदायिकता शब्द मूलतः सम्प्रदाय शब्द की निकृष्ट अभिव्यक्ति है। जब कोई पंथ या मत स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी सीमा का निरादर करने को सक्षम एवं तैयार रहते हैं, तब इस क्रिया को साम्प्रदायिकता कहते हैं। साम्प्रदायिकता का प्रारम्भिक परिवेश उदार और अंतिम रूप उग्र होता है। अन्तिम रूप इतना भयावह हो सकता है कि इसकी कल्पना आगजनी, लूटपाट और हत्या के रूप में परिलक्षित होती है। साम्प्रदायिकता दो स्तरों पर होती है। एक स्तर उसका मन और दूसरा स्तर उसका व्यवहार । मन में जब-जब भयावह उद्वेग जन्म लेते हैं, तब-तब उसका व्यवहार कुत्सित चेष्टाओं की ओर प्रेरित होता है, इसलिए दो स्तरों पर साम्प्रदायिकता पहुंच जाती है। आधुनिक युग में भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में साम्प्रदायिकता की समस्या सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप में विकराल रूप धारण करती है।
भारतीय संविधान संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र, नस्ल के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का निषेध करता है।1 अर्थात् भारतीय राज्य की कल्पना एक धर्मनिरपेक्ष और गैर-साम्प्रदायिक राज्य से की गई है। लेकिन चुनाव प्रसार का स्वरूप जातिवादी था, क्योंकि अल्पसंख्यकों समेत सभी लोगों की पहचान जाति ही मानी जाती थी, परन्तु इसने समाज को उतना नहीं बांटा जितना कि स्पष्टतः धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव प्रचार ने बांट दिया।
प्रायः चुनाव वाले दिन ही मतदान के मध्य सक्रिय कार्यकर्ता अफवाहें उड़ाते हैं। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में एकतरफा मतदान धर्म के नाम पर किया जा रहा है, प्रतिक्रिया स्वरूप वैसा ही व्यवहार हिन्दू भी करते है। इसीलिए हिन्दुओं का धार्मिक कर्तव्य है कि हिन्दूओं को वोट दें। और एक पक्षीय मतदान हो जाता हैं। प्रायः चुनावों से पूर्व छुट-पुट बातों को लेकर साम्प्रदायिक दंगे की योजना राजनीतिक दलों द्वारा तैयार कर ली जाती है।2 धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति केवल इस बात को लेकर चिंतित नही है कि आगामी चुनाव में साम्प्रदायिकता की क्या भूमिका होगी बल्कि वे यह भी जानना चाहते हैं कि इस भूमिका को कैसे कम किया जाये और साम्प्रदायिक शक्तियों को प्रस्फुटित होने से किस प्रकार रोका जाये? साम्प्रदायिकता का संकुचित अर्थ ऐसी राजनीति से है जो सम्प्रदायवादी विचारधारा के इर्द-गिर्द खड़ी होती है। इस दृष्टि से मुस्लिम लीग, अकाली दल और भाजपा साम्प्रदायिक दल है। इनमें भाजपा केवल अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा के कारण ही सम्प्रदायवादी नही है अपितु इसलिए भी जैसा 1979 में मधु लिमये ने कहा था ‘‘इसका लौह ढांचा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रदत्त है, जबकि साम्प्रदायिकता भारत को तोड़ देगी’’, चुनावों में अनिवार्यतः बहुत सारे पाखण्ड, मिथ्या-प्रचार और झूठे वायदे का प्रदर्शन होता है। एक दूसरे पर कीचड़ उछाली जाती है। यह सब कितना ही निंदनीय क्यों न हो लेकिन उससे अमूमन राज्य सत्ता को कोई दूरगामी नुकसान नहीं होता। 1957 से 1962 के दौर में कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये, परन्तु जब चुनाव का प्रयोग साम्प्रदायिक भावनाओं को जाग्रत करने में होता है तो यह क्षति स्थायी होती है।
यद्यपि साम्प्रदायिकता बुनियादी रूप से विचारधारा है जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में होती है तथापि उसके विरुद्ध संघर्ष-क्षेत्र चुनाव नहीं बन सकता। चुनाव का उपयोग व्यक्ति साम्प्रदायिकता के प्रति अपनी राजनैतिक एवं वैचारिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कर सकते हैं। चुनाव राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का एक साधन है। इसलिए उसका उपयोग साम्प्रदायिक दलों को राजसत्ता से दूर करने और उन्हें राजनैतिक रूप से अलग थलग करने के लिए हो सकता है। धर्म निरपेक्ष दल एवं व्यक्ति चुनावों का इस्तेमाल जनता को शिक्षित करने में और साम्प्रदायिकता के वास्तविक चरित्र एवं परिणामों के बारे में सही समझ विकसित करने में कर सकते हैं। दूसरी ओर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, जनता दल, तेलगूदेशम, असमगण परिषद, डी0एम0के0, ए0आई0ठी0एम0के0 ने हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकता के प्रति अवसरवादी नीति का अनुसरण किया है। साम्प्रदायिक पार्टियों एवं संगठनों की दिलचस्पी साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने में होती है, जबकि साम्प्रदायिक उभार के समक्ष अवसरवादी धर्म निरपेक्ष पार्टियां ढुलमुल हो जाती है और वापस मुड़ती हैं।
दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति की धारा जो सम्प्रदायवाद से बचकर रहती थी। धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। भारतीय राजनीति का सामान्य अधोःपतन केवल भ्रष्टाचार में और राजनेता नौकरशाही तथा गुंडा तत्वों में गठजोड़ में ही व्यक्त नहीं हो रहा है बल्कि वह हिन्दू-मुस्लिम सिक्ख अथवा ईसाई साम्प्रदायिकता के प्रति उसके नरम दृष्टिकोण में भी अभिव्यक्त होता है। यहां तक कि कुछ धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति भी, दलितों, पिछड़ी जातियों, मुसलमानों तथा सिखों के बीच साम्प्रदायिक तालमेल की वकालत करने में कोई संकोच नहीं करते। सम्प्रदायवाद के प्रति बौद्धिक आलस्य भी धर्मनिरपेक्ष एवं साम्प्रदायिक पार्टियों के मध्य कोई भेद नहीं करता, वह दोनों को समान धरातल पर रखता है।3
यह अवसरवादिता पं0 जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के दृढ़ दृष्टिकोण के ठीक विपरीत है। नेहरू जी साम्प्रदायिकता को फांसीसवाद का ही एक रूप मानते थे, जिसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। उन्होंने साम्प्रदायिकता को एक ऐसी छुरी बताया ‘‘जो भारत के राजनीतिक शरीर में घोंप दी गई थी।’’ जवाहरलाल नेहरू ने पहले लोकसभा चुनाव 1952 में साम्प्रदायिकता के प्रश्न को अपने अभियान का केन्द्रीय मुद्दा बनाया था। आगे चलकर 1954 में घोषणा की’’ जहां तक मेरी बात है, मैं हिन्दुस्तान में प्रत्येक चुनाव हारने के लिए तैयार हूँ परन्तु साम्प्रदायिकता अथवा जातिवाद को छूट देने के लिए तैयार नहीं हूँ।4
चुनाव आधारित जनतंत्र उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काता है और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। ऐसे जनतंत्र की नजर में लोगों की हैसियत सिर्फ वोटरों की होती है। चुनाव के इस खेल का उद्देश्य है बहुसंख्या को किसी भी प्रकार अपने पक्ष में कर लेना यानि जनतंत्र बहुसंख्यावाद बन जाता है और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण के माहौल में यह बहुसंख्यावाद बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच झड़प का रूप ले लेता है। साम्प्रदायिकता की राजनीति इसी बहुसंख्यावाद की उपज है।
हिन्दू मध्यवर्ग लम्बे अरसे से अपने आपको अल्पसंख्यकों से घिरा महसूस करता है। बार-बार सवाल उछाला जाता रहा है कि हम क्यों उनको बढ़ावा देते है? राज्य ने हमारे लिए आखिर किया क्या है? उन्हें हथियार रखने की छूट है। वे दिन-प्रतिदिन सम्पन्न होते जा रहे हैं और राज्य इसमें उनकी मदद कर रहा है। सिर्फ हमें ही मदद नहीं मिलती इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय आहत महसूस कर रहा है।5
जब अन्य समुदाय यह देखते हैं कि मुस्लिम समाज दल विशेष के पीछे गोलबन्द हो रहा है तो उनमें भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। हमारे देश में बहुसंख्यकों के बीच साम्प्रदायिकता का जो भी उभार होता दिख रहा है, वह अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का ही दुष्परिणाम है।6
भारत में इंडोनेशिया के बाद विश्व की सर्वाधिक मुस्लिम आबादी निवास करती है। संख्या के लिहाज से इस विशाल आबादी को अल्पसंख्यक कहना उचित नहीं, लेकिन भारत में मुस्लिम समाज अल्पसंख्यक शब्द का पर्यायवाची बनकर रह गया है। हमारे देश में अल्पसंख्यावाद की जो भी राजनीति है, उसका आधार मुस्लिम समाज है। वर्तमान में अनेक ऐसी राजनीतिक एवं मजहबी शक्तियां हैं, जो मुस्लिम समाज को अशिक्षा के अंधेरे में कैद रखना चाहती है। यही वे शक्तियां है, जो अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए मुस्लिम समाज को कदम-कदम पर बरगलाती हैं। चुनाव के समय ये शक्तियां विशेष रूप से सक्रिय हो जाती है ताकि मुस्लिम समाज को एक थोक वोट बैंक के रूप में मजबूर किया जा सके।7
बात चाहे हिन्दू-मुस्लिम दंगे की हो अथवा हिन्दू-सिक्ख दंगे अथवा अन्य समुदायों के बीच भी हिंसक झड़पों से यही देखने में अधिक आता है कि किसी न किसी समुदाय का कोई न कोई राजनीतिक दल अथवा राजनीतिज्ञ भड़काने का काम करते हैं।9 जब यह कार्य दोनों ही पक्षों के कथित हितैषी दल अथवा नेताओं की ओर से किया जाता है तो विद्वेष इतना गंभीर रूप ले लेता है कि लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। समस्या यह है कि जो लोग भीड़ को उकसाते हैं, उनके चेहरे भले ही सामने आ जायें वे सजा पाने से बच जाते हैं। सजा देना और भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि सम्बन्धित पार्टी उनके पक्ष में खड़ी हो जाती है।
राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी ने स्थित को निरंतर बिगड़ने ही दिया हैं। सच्चाई यह है कि देश में इस समय एक करोड़ से अधिक विदेशी मौजूद हैं जो सुरक्षातंत्र के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। आज यदि हम एक नरम राष्ट्र बनकर रह गये हैं तो सिर्फ इसलिए कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व को देश से अधिक वोट बैंक की चिन्ता है। उनके लिए राष्ट्रीय उद्देश्य नगण्य है। यही जम्मू-कश्मीर में हो रहा है, असम में हो रहा है, पूरे पूर्वोत्तर में हो रहा है। और अब देश के दूसरे हिस्सों में भी आरम्भ हो गया है।10 मुम्बई के बम धमाकों ने 200 लोगों की जान ले ली और सैकड़ों घायल हुए। मुम्बई समेत देश के दूसरे भागों के लोगों ने इस त्रासदी पर मजबूती और धैर्य का परिचय दिया। हमारे पास चुनौतियों का सामना करने के लिए संसाधन और कौशल है लेकिन क्या इसके लिए जरूरी राजनीतिक संकल्पनाशक्ति भी है, जवाब नकारात्मक है।
इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद में घट रही घटनाओं11 से साफ हो जाता है कि आतंकवाद को फैलाने, साम्प्रदायिक हिंसा को भड़काने बल्कि शुरूआत करने, अव्यवस्था व बर्बरता को बढ़ावा देने और इस माहौल का इस्तेमाल कर जनसमुदाय के बड़े हिस्सों में अंधराष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने में12 सरकार और शासक दल की प्रत्यक्ष भूमिका है।13 दिल्ली, गुजरात आदि शहरों में अभी हाल ही में हुए दंगों ने अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों की भूमिका को स्पष्ट कर दिया है।
विडम्बना यह है कि यह सब ’’साम्प्रदायिक तत्वों से लड़ने और राष्ट्रीय एकता व अखण्डता’’ बनाये रखने के नाम पर हो रहा हे। जब भी किसी समुदाय या क्षेत्र के मामले में ’’फूट डालो राज करो’’ की नीति का इस्तेमाल किया जाता है, राष्ट्रीय एकता के नाम पर ही किया जाता है। मध्यवर्ग के भीतर भय पैदा करने, उसे धमकाने और हतोत्साहित करने, विरोध को गैर कानूनी करनेे, जनमत की मुख्यधारा  को आतंकित करने और प्रेस, न्यायपालिका तथा बुद्धिजीवी वर्ग का मुँह बन्द करने की यह राजनीति पूर्णतः नये किस्म की राजनीति है।14
इसी के साथ ही कुछ नेताओं ने ‘क्षेत्रवाद’ का सहारा लेकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। प्रारम्भ में क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति प्रधानतः भाषायी या साम्प्रदायिक आधार पर होती थी। लेकिन सन् 50 के बाद जब सामाजिक, राजनीतिक एकता में एक साथ भाषायी धार्मिक  जातीय रंग घुले-मिले नजर आये तथापि राजनीतिक व्यवहार की रोशनी से देखने पर आज भी उन्हें साम्प्रदायिक और भाषायी पहचान से निकलने वाली क्षेत्रीयता में बांटकर देखा जा सकता है।
क्षेत्रीय उभार के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक मनोवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र अपने स्वार्थों या हितों को सर्वोच्च मान लेते हैं और उसे यह चिन्ता नही होती कि उसका दूसरे क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्षेत्रवाद के कारण कुछ स्वार्थी नेता और संगठन विकसित होने लगते हैं और जनता की भावनाओं को उभारकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। ऐसे नेता कभी भाषा, कभी सम्प्रदाय, कभी किसी और संकीर्ण भावनाओं को उकसा कर क्षेत्रवाद को बढ़ावा देते हैं। भारत में ‘जमायते इस्लामी’ संगठन इसका प्रतीक है।15
भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है।17 लेकिन भारत में कई राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है। जैसे मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल, हिन्दू महासभा, शिवसेना आदि के निर्माण में धर्म की प्रभावकारी भूमिका रही है। ये दल धर्म को राजनीति में प्रधानता देते हैं। धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर ये अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं, प्रचार करते हैं, वोट मांगते हैं। चुनावों में धर्म और पंथ या सम्प्रदाय को आधार मानकर प्रचार किया जाता है। धर्म के अधिकारियों, इमामों, पादरियों, साधु-सन्तों, मठाधीशों आदि का आश्रय वोट मांगने के लिए किया जाता है। उनसे मतदाताओं के नाम धार्मिक अपील के आधार पर सुविचारित तरीके से निर्मित जन-समर्थन ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब धर्म का प्रचार तथाकथित धर्म निरपेक्ष शक्तियां कर रही है, जिनका उद्देश्य लोगों को अशक्त और साम्प्रदायिक बनाना है। यह वैसा ही जैसा कि टेलीविजन पर मनोरंजन के कार्यक्रम, फिल्मी धारावाहिक, विज्ञापन और दिन भर प्रसारित होने वाले खेलकूद समारोह आदि। यह सब धार्मिक उत्सव या टेली धारावाहिक नई आम संस्कृति के निर्माण के नायाब तरीके हैं। यह संस्कृति बनावटी है। यह लोगों की संवेदनाओं और उनके सोचने-विचारने की क्षमता को कम करके यानि उनके अराजनीतिकरण की वृहत्तर योजना का हिस्सा है।
देश के विभिन भागों के बीच पाये जाने वाला आर्थिक असंतुलन, आर्थिक शोषण पारस्परिक मतभेदों को बढ़ावा देने में प्रभावशाली कारक रहा है। देश के कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी है, ज्बकि बिहार, उ0प्र0 जैसे कुछ राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक पिछड़े हुए हैं। राजनीतिक कारणों से विभिन्न राज्यों के सांसदों में इस बात के लिए होड़ रहती है कि ज्यादा से ज्यादा औद्योगिक विकास और अन्य आर्थिक योजनाएं उनके राज्य में और उनके चुनाव क्षेत्र में लाई जाए, भले ही राष्ट्रीय हित की दृष्टि से ऐसा करना अनुपयुक्त ही क्यों न हो। एक राज्य विशेष के आर्थिक संसाधनों पर दूसरे राज्य के लोगों के आधिपत्य का घोर विरोध कर रहा है।18 उदाहरण के लिए बिहार में ‘बिहार बचाव मोर्चा’ इस बात की मांग कर रहा है कि बिहार में जो भी सार्वजनिक या निजी उपक्रम, खनिज उत्पादन (मिनरल प्रोडक्ट्स) का व्यापार कर रहे हैं, उनके मुख्य कार्यालय बिहार राज्य के अन्तर्गत स्थित होना चाहिए। राज्य के बाहर इनके मुख्यालय होने से बिहार वालों के लिए रोजगार का अवसर खत्म हो जाता है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में ‘पहाड़ी समाज’ नामक संगठन विदेशियों के विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है। उनका कहना है कि स्थानीय निवासियों को विदेशियों के हाथ कोई सम्पत्ति नहीं बेचना चाहिए।
1981 व वर्तमान में भी महाराष्ट्र में दक्षिण भारत के रहने वालों के विरुद्ध शिवसेना के नेतृत्व में हिंसात्मक घटनाएं हुई। उसने केरल वासियों, कर्नाटक वासियों, उ0प्र0, बिहार तथा तमिल लोगों को महाराष्ट्र से निकालने की मांग की। इसी प्रकार कर्नाटक में भी यह मांग की जा रही है कि केरलवासी और तमिल लोग कर्नाटक राज्य को छोड़कर चले जायें।
ये परिवर्तन राज्य व्यवस्था के जनाधार को भी प्रभावित कर रहे हैं। इस स्थिति में द्वन्दों का स्वरूप आर्थिक कम साम्प्रदायिक ज्यादा होता है। स्थानीय स्तर पर संसाधनों के नियंत्रण को लेकर संघर्ष तीव्र और उग्र होता जा रहा है। जंगल और गांव के सार्वजनिक संसाधनों और दूसरे सामुदायिक संसाधनों पर नियन्त्रण किसका होगा और वस्तुओं के उत्पादन व सेवाओं के बारे में सामुदायिक निर्णय कौन करेगा? इसको लेकर संघर्ष बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार विकास की इस प्रक्रिया के जारी रहने के परिणामस्वरूप न सिर्फ प्रति-व्यक्ति आय और बुनियादी सेवाओं के मामले में कमी दिखाई दी है, बल्कि बुनियादी बात यह है कि न्यूनतम प्राकृतिक संसाधन भी गरीबों की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। इस प्रकार यह धनिकों द्वारा गरीबों की खुली लूट और डकैती है। यकीनन यह सब समुदाय के भीतर प्रायः खुद गरीबों के बीच, निचली जातियों और समुदायों के बीच हिंसात्मक झड़पों और हिंसा का माहौल तैयार करता है।19 उच्च वर्ग द्वारा किये गये शोषण से ध्यान हटाने के लिए उन्हें साम्प्रदायिक दंगों में फंसाये रहते हैं।
समस्या की जड़ में सरकार द्वारा 50 वर्षों से लागू किया जा रहा आर्थिक विकास का माडल हैं, जिसमें ऊपरी वर्ग के लिए उत्तरोत्तर समृद्धि है तो आम आदमी के लिए कुछ विशेष नहीं। आम आदमी की स्थिति में मामूली सुधार अवश्य हुआ है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या लगभग 50 प्रतिशत से 27 प्रतिशत हो गयी है। परन्तु इस अवधि में ऊपरी वर्ग के आय में कई गुना वृद्धि हुई है। इस बढ़ती असमानता के बीच आम आदमी को उसकी बदहाली स्वीकार नहीं है, इसलिए यह माओवादी नक्सलवादी गुटों का समर्थन करता है।20
भारतीय साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि लगभग सभी मुसलमान, ईसाई, सिक्ख तथा अन्य धर्मावलम्बी उन हिन्दुओं के वंशज हैं, जिन्होंने समय-समय पर हिन्दू धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म अपनाये, क्योंकि वे हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच धाराणाओं पर आधारित श्रेणीबद्ध तथा जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था द्वारा किये किसी न किसी अर्थ में पद दलित तथा शोषित थे, जिसके कारण हिन्दू समाज में सदैव ही मौलिक एकता का अभाव रहा है। अतः एक महत्वपूर्ण अर्थ में यथा तथ्य ही है कि आधुनिक भारत में जाति के आधार पर हिन्दूओं का विभक्त होना साम्प्रदायिकता की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुसलमानों के साथ राजनीतिक गठजोड़ रहा है। इस गठजोड़ में मुसलमानों की प्रतिनिधि उ0प्र0 के सहरनपुुर स्थित देवबंद स्कूल से सम्बन्धित जमायत-अल-उलेमा-ए-हिन्द थी। कांग्रेस के साथ जमायत के सहयोग के पीछे एक राजनीतिक सौदेबाजी थी, जिसके तहत उलेमा का मानना था कि उनके समर्थन के एवज में उनके पूजास्थल, धार्मिक निधियों, मुस्लिम पर्सनल लाॅ और इस्लामी संस्कृति के अन्य पहलुओं की रक्षा की जायेगी। कांग्रेस को मिला मुस्लिम समर्थन 1952, 1957, 1962 में हुए तीन आम चुनावों में उसे मिले वोटों से समझा जा सकता है। 1963 में साम्प्रदायिक दंगों की वजह से मुसलमान कांग्रेस से असंतुष्ट हुए, वे मानने लगे कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रधान हैसियत और मुसलमानों के सम्पूर्ण समर्थन के बावजूद कांगेे्रस ने उनके भरोसे को तोड़ा है। यह भी माने जाने लगा कि कांग्रेस सरकार दंगों के दौरान उनके जान-माल की रक्षा नहीं कर पायी। मुसलमान इस बात से भी खफा थे कि उर्दू को उसका राजकीय दर्जा नहीं दिया गया।23 न ही शिक्षा और अर्थव्यवस्था में मुसलमानों को उचित हिस्सा मिल सका।
1967 में जब राजनीति में कांग्रेस का प्रभुत्व कमजोर हुआ तब मुस्लिम-मजलिस-ए मुशावरात (मुस्लिम सलाहकार समिति) ने एक नई रणनीति पर चलने की कोशिश की। 1964 लखनऊ में मुस्लिम नेताओं ने एक बैठक में की थी। मुशावरात में भारतीय मुसलमानों से जुड़े सभी वैचारिक नजरियों को शामिल किया गया था। उनमें राष्ट्रवादी जमायत-अल-उलेमा-ए-हिंद, जमायत-ए-इसलामी, मुस्लिम लीग कांग्रेसी और गैर-गांग्रेसी आधुनिकतावादी शामिल थे। 1967 में इसने ‘पीपुल्स मैनोफेस्टो’ छापा और राजनीतिक पार्टियों व उम्मीदवारों के सामने समर्थन देने के बदले कुछ शर्तें रखी पर यह रणनीति नाकाम साबित हुई। 1967 के चुनावों के बाद से मुशावरात का कामकाज सुस्त पड़ गया।24 पर उसकी असफलता ने कई मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों को जन्म दिया जैसे उ0 प्र0 में मुस्लिम मजलिस (1968) और आन्ध्र प्रदेश में मजलिस-ए-इत्तिहाद-उल-मुसलीन। ये दोनों ही केरल में मुस्लिम लीग केी सफलता से प्रभावित थी। कुछ लोगों का मानना था कि एक अलग मुस्लिम राजनीतिक पार्टी का होना निहायत जरूरी है क्योंकि ‘इस्लामी राजनीतिक मूल्यों’ के संदर्भ में मुसलमानों को ही मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, न कि राजनीतिक जिम्मेदारी लेने वाले निर्वाचित गैर-मुसलमानों को।25 यह आग्रह इस इस्लामी विश्वास पर आधारित है कि समाज मुसलमानों और गैर मुसलमानों में अपरिवर्तनीय रूप से बंधा है।
गरीबी, शैक्षणिक पिछड़ापन बार-बार होने वाले साम्प्रदायिक दंगों और अपनी पहचान खत्म होने के डर से मुसलमान कई जगहों पर सामूहिक रूप से वोट डालना पसन्द करते हैं। खासतौर से ऐसे जगहों पर जहां लोक जीवन में मुसलमानों की हैसियत परंपरागत रूप से अच्छी खासी है। पर उन्हें साथ में यह डर भी लगा रहता है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम वोटों की गोलबंदी की प्रतिक्रिया में कहीं हिन्दूओं में भी ऐसी लहर न चल पड़े। हमारे देश की संवैधानिक संरचना में निहित लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और विधि के शासन जैसे मूल्यों को मुस्लिम धर्मगुरूओं और इस समुदाय से सम्बन्धित नेताओं द्वारा कई दशकों से निशाना बनाया जा रहा है। चूँकि हर राजनीतिक दल की निगाह अल्पसंख्यक मतों पर टिकी होती है। इसलिए मुस्लिम धर्मगुरूओं ने राजनेताओं के साथ सांठ-गांठ कर न्यायालयों के निर्णयों को विधायिका के जरिए प्रभावशून्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सच यह है कि उन्होंने नौकरशाही पर भी राजनीतिक दबाव डलवाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है शाहबानो मामला। जिस क्षण इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया, उलेमाओं ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर कानून में संशोधन करने का दबाव डालना आरंभ कर दिया।26
मुस्लिम सम्प्रदायिकता के समक्ष सरकार ने समर्पण कर दिया और मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पारित कर दिया। धर्मगुरूओं द्वारा राजनेताओं का ब्लैकमेल करने का एक अन्य उदाहरण है, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक्ट 1981, जिसे सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को प्रभावशून्य बनाने के लिए पारित किया गया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब राजनीतिक नेतृत्व ने मुस्लिम समुदाय के दबाव में घुटने टेक दिए और उनके पक्ष में कानून को ही संशोधित कर डाला।
इस प्रकार साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीति को तेजी से प्रभावित कर रही है। राजनीतिज्ञों द्वारा धार्मिक उन्माद फैलाकर सत्ता प्राप्त करने की हर कोशिश साम्प्रदायिकता को बढ़ा रही है, चाहे वह कोशिश किसी भी व्यक्ति, समूह या दल के द्वारा क्यों न होती हो। अधिकतम् वोट हासिल करने के लिए धर्म-गुरूओं और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल लगभग सभी दल कर रहे है, इसमें धर्म-निरपेक्षता की बात कहने वाले राजनीतिक दल भी शामिल है। यदि धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले दलों ने मौका परस्ती की यह राजनीति नहीं की होती तो धर्म-सम्प्रदाय आधारित राजनीति करने वालों को इतना बढ़ावा कभी नहीं मिलता। जब धर्म-सम्प्रदाय की राजनीति होगी तो स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता अधिक ताकतवर बनेगी।
पूँजीवादी शोषणकारी वर्तमान व्यवस्था के पोषक और पोषित, वे सभी लोग साम्प्रदायिकता  बढ़ाने में सक्रिय साझेदार है। हमें याद रखना चाहिए कि धर्म सम्प्रदाय की राजनीति के अगुवा चाहे वे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, इसाई हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाले, आम तौर पर वही लोग है, जो वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से अपना निहित स्वार्थ साध रहे है- पूँजीपति, पुराने राजे-महाराजे, नवाबजादे, नौकरशाह और नये-नये सत्ताधीश, सत्ता के दलाल! और समाज का प्रबुद्ध वर्ग, जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि साम्प्रदायिकता जैसी समाज को तोड़ने वाली दुष्प्रवृत्तियों का विरोध करेगा, आज की उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होकर मूक दर्शक बना हुआ है, अपने दायित्वों का निर्वाह करना भूल गया है और, हम-आप भी, जो इनमें से नही है, धार्मिक-उन्माद में पड़कर यह भूल जाते है कि भविष्य का निर्माण इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से नहीं होता। अगर इतिहास में हुए रक्तरंजित सत्ता, धर्म, जाति, नस्ल, भाषा आदि के संघर्षें के बदला लेने की हमारी प्रवृत्ति बढ़ी, तो एक के बाद एक इतिहास की पर्ते उखाड़ेगी और सैकड़ों नहीं हजारों सालों के संघर्षों, जय-पराजयों का बदला लेने वाला उन्माद उभड़ सकता है। फिर तो, कौन सा धर्म-समूह है जो साबूत बचेगा क्या हिन्दू-समाज के टुकड़े-टुकड़े नहीं होंगे? क्या इस्लाम के मानने वाले एक पंथ के लोग दूसरे पंथ से बदला नहीं लेगे? दुनिया के हर धर्म में पंथ भेद है और उनमें संघर्ष हुए है। तो बदला लेने की प्रवृत्ति मानव-समाज को कहाँ ले जायेगी? क्या इतिहास से हम सबक नहीं सीखेंगे? क्या क्षमा, दया, करुणा, प्यार, सहिष्णुता, सहयोग आदि मानवीय गुणों का वर्धन करने के बजाय प्रतिरोध, प्रतिहिंसा, क्रूरता, नफरत, असिहिष्णुता, प्रतिद्वन्द्विता को बढ़ाकर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को कब तक संभाल पायेंगे। अतः अब वक्त आ गया है कि हम भारतीय समाज में बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों को गहराई से समझे और साम्प्रदायिकता के फैलते जहर को रोके।
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