Wednesday 2 July 2014

भारतीय साहित्य और डॉ0 राम विलास शर्मा की दृष्टि


शिव जी

राम विलास शर्मा ने भारतीय साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार करते हुए उन पहलुओं पर सबसे पहले विचार किया जो भारतीय राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। नये परिवेश में राष्ट्रीय एकता, जातीय एकता के लिए सबसे बड़ी चुनौती उन ताकतों से आयी है, जो परम्परा एवं अतीत की रक्षा के नाम पर भारत की जनता में विभाजन पैदा करने की कोशिश करती है। दूसरी गम्भीर चुनौती जाति व्यवस्था को बनाये रखने वाली शक्तियों की तरफ से आयी है। भारत का उत्तर और दक्षिण के नाम से ध्रुवीकरण करने वाली शक्तियॉ भी गम्भीर चुनौती के रूप में अपना दावा पेश कर रही हैं। इन गम्भीर चुनौतियों के सम्मुख भारत की अनेक भाषा-भाषियों की क्या जिम्मेदारी हो सकती है इन्हीं सब का उत्तर देने के उद्देश्य से डॉ0 राम विलास शर्मा ने ‘भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएॅ’ (1986) और ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ (1996) में विस्तार से प्रकाश डाला है। इसी पर हमें क्रमवार विचार करना होगा और रामविलास शर्मा के भारतीय साहित्य सम्बंधी दृष्टिकोण की छानबीन करनी होगी।

डॉ0 रामविलास शर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएॅ में दो महत्वपूर्ण निबन्ध लिखे हैं- बहुजातीय राष्ट्रीय और साहित्य एवं साहित्य में देशी भषाओं की प्रतिष्ठा। इन निबन्धों के माध्यम से उन्होंने साहित्य इतिहास की दृष्टि से प्रासंगिक समस्याएॅ उठायी हैं उन्होंने एक जगह अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है- बहुजातीयता राष्ट्रीयता की विकास की समस्या समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण समस्या है, उसका जो महत्व भारत के लिए है वह अन्य देश के लिए नहीं।1
शर्मा जी ने राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता सम्बंधी साहित्यिक मूल्यांकन के प्रश्न को सामाजिक सन्दर्भ में उठाकर एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा कर दिया यह तब हुआ जबकि बहुलांश राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता के स्वरूप को अस्वीकार किया गया। राष्ट्रीय विभाजन के सन्दर्भ में अलगाववादी शक्तियॉ नये सिरे से मॉग उठा रही हैं ऐसे समय में भी शर्मा जी ने महत्वपूर्ण ढंग से राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता की प्रासंगिकता को अनिवार्य ठहराया है।
राष्ट्र शब्द का व्यवहार भारत जैसे देश में तीन प्रकार के सामाजों- गण, लघुजाति और जाति के लिए होता आ रहा है। भारत जैसे देश में राष्ट्रीयता का विकास सुदीर्घ ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है ऐसा नहीं है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना केवल अंग्रेजों के आगमन से हुआ बल्कि यह इसके पूर्व भी भारतीय साहित्य में ठोस रूप में दृष्टिगोचर होता है। तात्पर्य यह है कि राष्ट्रीयता की भावना पूरी तरीके से भारतीय साहित्य के सूदीर्घ परम्परा में निहित है। राष्ट्रीय भावना को पैदा करने और भारत वर्ष की भावना को व्यक्त करने में साहित्य सबसे आगे है। संस्कृत और उसके साथ पाली, प्राकृत आदि को हम राष्ट्रीय साहित्य मानते हैं भारतीय साहित्य के इतिहास में उसका विवेचन उचित है साथ ही यह देश बहुजातीय राष्ट्र है, इसलिए उस प्राचीन साहित्य के विवेचन में इस बात का उल्लेख भी उचित है कि इस सांस्कृतिक इतिहास से इस साहित्य का सम्बन्ध कहॉ-कहॉ से जोड़ा जायेगा।3
भारतीय समाज बहुराष्ट्रीय समाज है विभिन्न भाषा-भाषी जनता के जातीय निर्माण की समस्या यहॉ की प्रमुख समस्या है, ये जातियॉ किस तरह और कब अस्तित्व में आयी? साहित्य और समाज का इतिहास लिखते समय धर्म और साम्प्रदायिक मतों को विवेचन का आधार बनाना चाहिए या नहीं? ऐसा क्यों हुआ कि संगीत एवं नृत्य में धर्म निरपेक्ष वर्गीकरण का प्रभुत्व बचा रहा? भारतीय साहित्य का भारतीय भाषाओं के साहित्य से किस तरह का रिश्ता है? क्या भाषाओं के साहित्य का आपस में प्रभाव होता है? रामविलास शर्मा ने लिखा है कि इतिहासकार चाहे मार्क्सवादी हो चाहे गैर मार्क्सवादी हो भारतीय साहित्य का इतिहास लिखेगा तो उसे विभिन्न भाषाओं के साहित्य से उसके सम्बन्धों पर ध्यान देना होगा। वास्तविकता यह है कि भारत के किसी भाषा के साहित्य का इतिहास सही ढंग से अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही लिखा जा सकता है।14
भारत की राष्ट्रीयता की समस्या के विवेचन के लिए राम विलास शर्मा ने स्वीटजरलैंण्ड के उदाहरण को सामने रखा है उनकी राय है हमारे यहॉ ‘नेशन’ के पर्यायवाची शब्द के रूप में जाति का प्रयोग करना अधिक उचित होगा इसलिए ‘नेशनलिटी’ के जातीयता या राष्ट्रीयता का प्रयोग करना चाहिए।5 स्टालिन के आधार पर जाति की परिभाषा देते हुए राम विलास शर्मा ने लिखा है, सामान्य भूमि, सामान्य संस्कृति, सामान्य भाषा, सामान्य ऐतिहासिक परम्परा आदि के साथ मुख्य बात यह है कि जातियॉ आधुनिक पूॅजीवादी विकास की देन हैं, पूजीवाद के अभ्युदय से पहले जातियों की कल्पना नहीं की जा सकती है।6
राम विलास शर्मा ने काल विभाजन के लिए आधुनिक, मध्य एवं प्राचीन पदबन्धों के लिए काल विभाजनों को अवैज्ञानिक मानकर लिखा है कि यदि किसी देश का इतिहास इस तरह लिखना हो कि सामाजिक विकास की मंजिलों पर ध्यान नही दिया जाय तो प्राचीन काल नामकरण सही है यदि साहित्य का इतिहास इस तरह लिखना हो कि वह सामाजिक विकास के सन्दर्भ से मुक्त दिखाई दे तो उक्त नामकरण उचित है। किन्तु यदि देश के इतिहास के लिए साहित्य के इतिहास के लिए सामाजिक विकास की मंजिले महत्वपूर्ण हैं तो यह नामकरण और अध्ययन की रीति दोषपूर्ण है। प्राचीन, मध्य और आधुनिक कालों के इतिहास का विभाजन तभी सार्थक हो सकता है, जब प्राचीनकाल का सम्बन्ध गण व्यवस्था से, मध्यकाल का सम्बन्ध सामन्ती व्यवस्था से और आधुनिक काल का सम्बन्ध पूॅजीवादी व्यवस्था से जोड़ा जाय।7
राम विलास शर्मा की राय है कि आधुनिक काल का आरम्भ जाति निर्माण की प्रक्रिया से माना जाय इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने मध्यकाल को आधुनिक काल का प्रथम चरण माना। आधुनिक उद्योग-धन्धों का विकास, संगठित रूप से शिक्षा का प्रसार, मध्य वर्ग का उदय जिस दौर में हुआ उसे जातीय विकास की दूसरी मंजिल माना। समाज-वादी व्यवस्था के विकास को जातीय विकास की तीसरी मंजिल माना इन तीनों मंजिलों की एक ही प्रक्रिया से सम्बद्ध मानना चाहिए और उन्हें आधुनिक काल के अन्तर्गत रखना चाहिए।
साहित्य के सन्दर्भ में आधुनिक का अर्थ रामविलास शर्मा के लिए सामन्ती व्यवस्था से आगे ज्ञान-विज्ञान का आगमन है। सामन्ती अन्धविश्वासों से बाहर जो साहित्य ज्ञान-विज्ञान और कलात्मक सन्दर्भ की ओर अग्रसर होता है वह साहित्य आधुनिक है।8 रामविलास शर्मा ने सही रेखांकित किया है कि- भारत में किसी काल, किसी भी भाषा में जो साहित्य रचा गया है उसका विवेचन भारतीय साहित्य के अन्तर्गत होना चाहिए। किसी भी भाषा के साहित्य का विवेचन अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही करना उचित है।9
रामविलास शर्मा ने अपनी आलोचना के माध्यम से साहित्य की जातीय रूप और सामाजिक आधार की खोज की है, इसके लिए वह परम्परा को आवश्यक मानते हैं। परम्परा पर जोर देने का एक कारण यह भी है कि हम अपने साहित्य के प्रतिक्रिया वादी और प्रगतिशील तत्वों को समझें और सतर्क ढंग से प्रगतिशील परम्परा से अपना सम्बन्ध जोड़कर जातीय उत्थान में अपना योग दें। साहित्य की परम्परा की प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील तत्व तत्कालीन समाज के ढांचे में अन्तर्निहित होते हैं। इसलिए परम्परा के मूल्यांकन का अनिवार्य पक्ष समाज व्यवस्था का ज्ञान है किन्तु साहित्यिक परम्पराएँ आर्थिक ढांचे का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं होती- सामाजिक विलास की परिस्थितियों से कला की विषय वस्तु प्रभावित होती है एक सीमा तक नियमित होती है किन्तु वह आर्थिक जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है इसलिए विभिन्न गुणों, विभिन्न जातियों और विभिन्न वर्गों के सौन्दर्यबोध में विभिन्नता के साथ समानता भी होती है, इसलिए अनुकूल सामाजिक परिस्थितियों के होते हुए भी यह आवश्यक नहीं कि उच्च कोटि की कला का निर्माण भी हो जाय।
रामविलास शर्मा साहित्य को केवल विचारधारा मानने के खिलाफ लेखक की राजनैतिक विचारधारा का प्रतिबिम्ब उनकी रचना में अनिवार्यतः झलके वह इसके पक्ष में भी नहीं है किन्तु वह यह नहीं कहते कि साहित्य विचारधारा नहीं अथवा राजनीति और रचना का सम्बन्ध नहीं होता। उनका मानना है कि इन दोनों चीजों के अलावा साहित्य में मनुष्य का इन्द्रिय बोध भाव व अन्तः प्रेरणा भी शामिल है। ये चीजें विचार-धारा की अपेक्षा अधिक स्थायी होती हैं क्योंकि व्यवस्था बदलने से सबसे पहले अधिरचना में विचारधारा ही परिवर्तित होती है जो उसे प्राणी मात्र से जोड़ती है।
संदर्भ ग्रन्थ-
1. शर्मा, रामविलास, हिन्दी जाति का साहित्य, 1986, राजपाल - संस, दिल्ली द्वितीय संस्करण-1992,पृ0सं0 6.
2. शर्मा, रामविलास, भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन 1970, पृ0सं0-24.
3. सरकार, सुमित, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन 1992, पृ0 सं0-106.
4. शर्मा, रामविलास, भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन 1970, पृ0 सं0-24.
5. शर्मा, रामविलास, भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन 1970, पृ0 सं0-8.
6. शर्मा, रामविलास, भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन 1970, पृ0 सं0-15.
7. मिश्र, सत्य प्रकाश (सं0) बालकृष्ण भट्ट : प्रतिनिधि संकलन नेंशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इण्डिया 1996,पृ0सं021.
8. यायावर, भारत(सं0) साहित्य विचारः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 1995,पृ0सं0 35
9. शर्मा,रामविलास, हिन्दी नवजागरण और महावीर प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन दिल्ली,1989,पृ0सं0 292-93
शिव जी
पी-एच0डी0, हिन्दी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।