Wednesday 2 July 2014

कालिदास के काव्यों का परवर्ती साहित्य पर प्रभाव


देवनारायण पाठक एवं कृष्ण कान्त दूबे

वस्तुतः जहाँ कवि काव्यनिर्माण में लोक शास्त्रादि के गहन अनुशीलन से उपर्जित व्युत्पत्ति का प्रयोग अपने काव्य में करता है, उसके परवर्ती अनुशीलन से परवर्ती साहित्य प्रेरणा ग्रहण करता है। जिस प्रकार जगत्प्रकृति अतीतकल्प परम्परा से बहुविध वस्तु प्रप०च का आविर्भाव करती हुई प्रतिपल नवीन पदार्थ का निर्माण स्वतः करती चलती है, कभी विनष्ट नहीं होती, उसी प्रकार यह काव्य स्थिति भी अनन्त कवि वाचस्पतियों की प्रतिभाओं द्वारा प्रयुक्त होकर भी कदापि क्षीण नहीं होती अपितु विदग्ध कवि की नूतन व्युत्पत्ति से बढ़ती ही जाती है।1

वस्तुतः साहित्य के विकास की परम्परा में आदान-प्रदान प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। यह एक गतिशील जीवन्त प्रबल प्रक्रिया है। पूर्ववर्ती के आधार रूप में साहित्य भी उपलब्ध होता है उस पर आधृत होकर ही वह आगे के लिये अपना कदम उठाता है। इसी तथ्य को नीतिवाक्य में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन बुद्धिमान अर्थात बुद्धिमान् व्यक्ति अपने पैर से खड़ा रहता है और दूसरे पैर से चलता है। यह केवल व्यक्ति सत्य नहीं, अपितु साहित्यिक सन्दर्भ में भी यही शाश्वत सत्य है। पैर का आधार पूर्ववर्ती उपजीव्य साहित्य होता है। इसी उपजीव्य परम्परागत साहित्य की भूमि पर कवि का पैर आधृत रहता है। यही कवि का आदान है, और गतिशील पैर प्रदान है जो उत्तरवर्ती साहित्य पर उसकी कृति का प्रभाव होता है।
जिस प्रकार शशि की रमणीयता लेकर रमणी का मुखमण्डल और अधिक सुशोभित होता है। उसी प्रकार पुरातन कवि की रमणीयता को ग्रहण करने से कवि की काव्यवस्तु और अधिक शोभा धारण करती है, पुनरूक्त नहीं प्रतीत होती।2 वैसे तो कवि को व्युत्पन्न काव्य का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक होता है, क्योंकि इन्हीं से कवि को काव्यनिर्माण की प्रेरणा मिलती है।3
कालिदास के काव्य का उत्तराधिकार ग्रहण करने वाले रीति एवं रस का जो मनोभिराम साम०जस्य उनकी कृतियों में विद्यमान है, उसका उचितरूप से पालन नहीं कर सके। वक्तव्य वस्तु के औचित्यपूर्ण उपन्यास एवं भावों की मार्मिकता की रक्षा की ओर उनका ध्यान नहीं गया और वे काव्य को अलङ्कृत करने में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करने लगे। परिणाम यह हुआ कि कालिदास की वागर्थाविव संपृक्तौ वाली प्रतिज्ञा का पालन उनसे नहीं हो सकता और उन्होंने काव्य पुरूष को चमत्कारों एवं अलङ्कारों से इतना भाराक्रान्त बना दिया कि साहित्य वधु के प्राणों का स्वाभाविक उच्छ्वास प्रतिहत हो गया। भावपक्ष के दरवाजे तथा रीति पक्ष के प्राधान्य ग्रहण कर लेने के फलस्वरूप काव्य केवल पाण्डित्य तथा कल्पना के चमत्कारी व्यायाम का विषय बन गया।
भारवि, माघ एवं श्री हर्ष इन तीनों महाकवियों के प्रयास से संस्कृत साहित्य में अलङ्कृत शैली का विकास हुआ और भाषा के कलात्मक शृङ्गार, अर्थलङ्कार की विचित्र विच्छित्तपूर्ण योजना एवं शब्दालङ्कार, श्लेष, यमक इत्यादि के निर्बाध प्रयोग से कवि सहृदय भावकों की योग्यता को चुनौती देने लगे। शृङ्गार रस का इतना सान्द्र एवं अनियन्त्रित चित्रण होने लगा कि कवियों ने रति केलि वर्णन के प्रसङ्ग में वीर्यस्खलन, तथा स्त्री योनि के आकार प्रकार का उल्लेख भी प्रारम्भ कर दिया।4 वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ से प्रसङ्ग गृहीत हुए और उनके उल्लसित चित्रण में सुरूचि एवं औचित्य के तत्त्व कर्पूरवत गये।
महाकाव्यों की रचना में कवियों ने जीवन की व्यापकता तथा मार्मिकता को तिलांजलि दे दी और भामह एवं दण्डी द्वारा निर्दिष्ट लक्षणों का रूढ़िवत पालन महाकाव्यों का आदर्श बन गया। इन सब बातों के कारण रस एवं नीति का जो म०जुल समन्वय कालिदास के काव्यों में प्रतिष्ठित हुआ था, वह उनके पश्चादभावी काव्यों में अब पुनः लक्षित नहीं हुआ। निसर्गोंज्ज्वलता की बारम्बार शपथ खाने पर भी मनः कवियशः प्रार्थी की सौवर्ण शुद्धि संस्कृत काव्य में पुनः उसी गौरव के साथ प्रतिष्ठित न हो सकीं।5
किन्तु संस्कृत साहित्य के इस परवर्ती विकास के बीज भी कालिदास की कृतियों में वर्तमान है। रघुवंश के नवम सर्ग में यमक का प्रयोग चित्र काव्यों के प्रणेताओं के लिये प्रेरणा का सूत्र बना होगा। उपमा उत्प्रेक्षादि अर्थालङ्कारों के प्रयोग में भी कालिदास ने चमत्कार का सन्निवेश किया था। पुराणों एवं व्याकरणादि शास्त्रों से उपमान ग्रहण किये थे। परवर्ती कवियों से सन्तुलन की रक्षा नहीं हो सकी और अपने पूर्वज कविचक्रचूड़ामणि कालिदास के द्वारा स्वाद बदलने के लिये सन्निवष्टि इन प्रयोगों से प्रेरणा प्राप्त कर उन्होंने काव्य की धारा को एक अभिनव मोड़ ही प्रदान कर दिया।
कुमारसंभव के अष्टम सर्ग में उमा शिव के सुरत विहार का अत्यन्त उन्मुक्त चित्रण तथा रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग में अग्निवर्ण का विलास वर्णन- ये दो प्रसङ्ग कालिदास में ऐसे प्राप्य है कि परवर्ती संस्कृत काव्य तथा उसके अप्रत्यक्ष उत्तराधिकारी हिन्दी के श्रृंगारिका काव्य में इनके स्पष्ट अनुकरण दृष्टिगोचर होते है। नवोढ़ा युवती पतिसमागम के समय किस प्रकार आचरण करती है सखियाँ उसे कैसी शिक्षा देती है, इत्यादि प्रसङ्गो का वर्णन कुमारसम्भव में हुआ है। विवाहोपरान्त पार्वती यह चाहती थीं कि शङ्कर जी के सन्निध्य में निरन्तर बनी रहें, परन्तु साथ ही कुछ झिझक भी होती थी।
उपर्युक्त अवतरणों को देखने से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि सम्पूर्ण संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य के शृङ्गार काव्य में कोई ऐसा चित्र नहीं जिसका पूर्व रूप कालिदास के इस चित्रण में उपलब्ध न हो सके। सुरतसंग्राम, रत्यंत चित्र, प्रमदाओं का वारूणी पान, सखियों का प्रश्न विनोद, नख-क्षत एवं दन्त-क्षत जैसे स्मरणीयकों के प्रति कामिनियों की ममता, इत्यादि का जो पृथुल एवं उन्मुख चित्रण परवर्ती साहित्य में दिखायी पड़ता है, उसके स्पष्ट सूत्र कालिदास में उपन्यस्त मिलते हैं। कालिदास का एक चित्र क्योंकर हिन्दी के बिहारी लाल तक पहुँच गया है उसे कुमारसम्भव, अमरूक शतक और बिहारी सतसई में क्रमशः निम्नोद्धृत अवतरणों में देखा जा सकता है-
कैतवेन शयिते कुतूहलात्पार्वती प्रतिमुखं निपातितम्। चक्षुरुन्मिषति सस्मितं प्रिये विद्युदाहितमिव न्यमीलपत्।।
विस्रन्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थलीं लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता।।
मैं मिसहा सोयौ समुझि मुहुँ चूम्यौ दिग जाय। हँस्यौ खिस्यानी गल गहयौ रही गैरे लपटाय।।
कालिदास की नायिका सोने का बहाना करने वाले प्रियतम की ओर टकटकी बाँधकर केवल देखती हैं और उसकी मुस्कराती हुई आँखे खोल देने पर लज्जा से आँखे बन्द कर लेती है, जबकि अमरू कवि की नायिका निद्रा का ब्याज करने वाले पति के मुख का चुम्बन करती है, और तथ्य का पता चलने पर लज्जावनत हो प्रिय द्वारा देर तक चुम्बित होती रहती है अथच बिहारी की नायिका पति मुख का चुम्बन कर उसके कण्ठाश्लेष में आबद्ध हो जाती है।
कालिदास मदिरा पान को सुरतविलास का उपकारक उपकरण मानते हैं। अज को देखने वाली स्त्रियों में ऐसी देवियाँ भी है जिनके मुख से आसव की गन्ध निकलती है। वसन्त वर्णन में सुरम्य, सन्ध्या स्फुट चन्द्रिका, कोकिल की काकली, सुगन्धित पवन तथा मतवाले भौरों को गु०जार के साथ-साथ रात्रि में मदिरापान भी कामदेव को उद्दीप्त करने वाले रसायन का घटक तत्त्व बताया गया है- निशि सीधुपानं सर्वं रसायनमिदं कुसुमामुधस्य और तो वाल्मीकि ने सीता को, कालिदास ने जगदम्बिका पार्वती को भी मदिरा पिला दी है और उन्हें साधारण मतवाली प्रमदा का स्वभाव प्रदान कर दिया है।6
अग्निवर्ण के विलास वर्णन में कालिदास और भी गहराई में उतर गई है। यद्यपि उनका उद्देश्य निबिड़ विलास-सेवन के दुष्परिणामों की ओर संकेत करना है तथापि संयोग शृङ्गार के जो घोर चित्र इसमें अंकित हो गये है उनसे परवर्ती कवियों के प्रचुर प्रभाव ग्रहण किया है। सौतो, खण्डिताओं, प्रेमगर्विताओं, मानिनियों, विप्रलब्धाओं, उत्कण्ठिताओं, कलहान्तरिताओं, इत्यादि जैसी नायिकाओं का महावर लगाने, झूला झूलने इत्यादि जैसे विहारों का, विपरीत रति दूतियों तथा वर्षा एवं वसन्त के उद्दीपक होने का कथन हुआ है।
नारी रूप के वर्णन में कालिदास के चित्र टकसाली सिद्ध हुए है और परवर्ती शृङ्गार काव्य में उन्हें ही अलङ्कृत करने का उद्योग किया गया। कालिदास के ये सौन्दर्य चित्र व्यक्तिगत आसक्ति से पूर्ण है और नारी रूप की सार्थकता वीर्यक्षोभ उत्पन्न करने के सामर्थ्य में निहित मानते हैं। उनकी सभी नायिकाएँ ऐसी ही रूप सम्पदा की धनी है, और उनके सभी नायक श्री रामचन्द्र को छोड़कर उसके ऐन्द्रिय उपभोग के लिये आतुर एवं लालायित है। उमा के रूप वर्णन में नख शिख चित्रण के सूत्र वर्तमान है। जिन्हें परवर्ती कवियों ने भरपूर पल्लवित एवं परिपुष्ट किया है। कालिदास के नायक नायिकाओं को अपने प्रिय की मूर्ति चित्रित करने का अभ्यास है और परवर्ती काव्य में भी चित्रालेखन की यह परम्परा अक्षुण्ण चलाती आयी है। नारी देह के लिये ‘लता’7 और ‘दीपशिखा’8 उपमान साहित्य में रूढ़ हो गये है। कालिदास ने इन उपमानों का प्रयोग क्रमशः पार्वती और इन्दुमती के लिये किया है। उत्तरमेघ की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त हुआ है-
तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा चकितहरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्ना स्तनाभ्यां या तत्र स्याव्द्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।।
वयः सन्धि का कहीं कोई विशेष वर्णन कालिदास ने नहीं किया तो भी- मुग्धत्वस्य च यौवनस्य च सखे मध्ये मधुश्रीः स्थिता कहकर उन्होंने उसकी ओर परवर्ती कवियों का ध्यान आकृष्ट कर ही दिया।
कालिदास के एक अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ गीति काव्य मेघदूत का प्रभाव परवर्ती साहित्यों पर अत्यधिक पड़ा है। यह रमणीय काव्य इतना मोहक सिद्ध हुआ कि सौ डेढ़ सौ वर्षों के भीतर ही वायुदूत, पवनदूत, हारीतदूत, चक्रवाकदूत प्रभृति अनेक दूतकाव्यों की रचना हुई। ये काव्य अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। लेकिन छठी शताब्दी ईसवी में वर्तमान आचार्य भामह ने ऐसे काव्यों की तीव्र टीका टिप्पणी की है जिससे यह ज्ञात होता है कि आचार्यों की कृपा दृष्टि न पा सकने पर भी ऐसे काव्य यथेष्ट लोकप्रिय हो चले थे।
परवर्ती काल में दूतकाव्यों का प्रणयन चलता रहा और इधर विद्वानों ने लगभग पचास दूतकाव्यों का पता लगाया है जिनमें से अधिकांश ग्यारहवीं शताब्दी के बाद लिखे गये हैं।9 इन काव्यों में उद्धव जैसे- मनुष्य, शुक, हंस, कोकिल, चातक और चक्रवाक जैसे पक्षी चन्द्रमा तथा पवन जैसे अचेतन पदार्थ, अथच मन एवं भक्ति सदृश अमूर्त तत्त्वों को दूत बनाकर प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा संदेश वाहनार्थ भेजा गया है। इनमें से अधिकांश विप्रलम्भ शृङ्गारात्मक होने के कारण मन्दाक्रान्ता छन्द में ही लिखे गये है। इनमें अनेक स्थलों पर ‘मेघदूत’ के पदों एवं कल्पनाओं का उपयोग किया है।
आधुनिक काल में मेघदूत के पूरक में दो काव्यों की रचना हुई है। प्रथम मेघप्रति सन्देश में यक्ष पत्नी ने अपने प्रियतम को मेघ के द्वारा संदेश भेजा है, और द्वितीय मेघदौत्य में ऐसी कथा आयी है कि यक्ष प्रिया ने कुबेर के समीप मेघ के द्वारा अपनी करूण दशा का निवेदन प्रेषित करके अपने प्रियतम यक्ष को मुक्त कराया है।10
दूतकाव्यों की परम्परा इतनी लोकप्रिय सिद्ध हुई है कि वैष्णव तथा जैन कवियों ने धर्म सिद्धांतों के प्रचार हेतु एतादृश काव्यों की रचना की। वैष्णव कवियों ने सीताराम तथा गोपीकृष्ण की प्रेम कथाओं को लेकर दूतकाव्यों का प्रणयन किया। दूसरी ओर जैन कवियों की रचनाओं में शान्तरस का स्रोत प्रवाहित हो गया है। आठवीं शताब्दी ईसवी में जिनसेन नामक एक जैन कवि ने ‘पार्श्वाभ्युदय’ नामक काव्य में मेघदूत की प्रत्येक पंक्ति पर समस्या पूर्ति की है और उस शृङ्गारी ग्रन्थ के प्रत्येक चरण को इस प्रकार तीर्थंकर के चरित्र के उन्मीलनार्थ प्रयुक्त किया है। अन्य जैन कवियों ने दूत काव्य के रूप में अपने आचार्यों को स्ववृत्त विषयक संवाद भेजे है। विक्रम के नेमदूत में जैन दर्शन के अनुसार आध्यात्मिक तत्त्व का निरूपण भी काव्य की सरल भाषा में किया गया है।
क- भवभूति- महाकवि कालिदास के परवर्ती महाकवियों में भवभूति का नाम उल्लेखनीय है। मालती माधव और उत्तररामचरित इनके प्रमुख नाटक है। परवर्ती नाटककार होने के कारण महाकवि कालिदास का उनके नाटकों पर प्रभाव पड़ा। दुष्यन्त शकुन्तला एवं पुरूरवा-उर्वशी को प्रसिद्धि प्रदान करने का एकमात्र कारण कालिदास ही है। यह सत्य है कि कालिदास के ये पात्र उनके अपने नहीं है। इन पात्रों का सूत्र कालिदास को पुराण महाभारत इत्यादि अन्य प्राचीन सूत्रों से अवश्य मिला किन्तु इन कथानकों में यत्र तत्र थोड़ा परिवर्तन करके महाकवि ने इस पात्रों को प्रसिद्धि के चारूतम एवं उच्चतम शिखर पर पहुँचाया।
मालती माधव के नवम अङ्क में मेघदूतम का प्रभाव स्वतः स्पष्ट हो जाता है। नवम अङ्क में मालती के विरह में व्याकुल माधव की प्रायः सभी चेष्टाएं विक्रमोवर्शीयम् के चतुर्थ अङ्क में उर्वशी के विरह में व्याकुल पुरूरवा की विरह की चेष्टाओं के समान है। इस नाटक में मालती के अकस्मात अदृश्य हो जाने से माधव उन्मत्त हो गया है और अपनी प्रियतमा के पास सन्देश ले जाने के लिये मेघ से प्रार्थना की है। यह कल्पना भवभूति को मेघदूतम् से मिली होगी। जहाँ केवल भाव साम्य ही नहीं अपितु वृत्त साम्य तथा शब्द साम्य भी दृष्टिगोचर होता है। मालती माधव में मेघ के प्रति माधव के कथन-
कच्चित्सौम्य प्रियसहचरी विद्युदालिङ्गति त्वाम् की तुलना मेघदूतम् में मेघ के प्रति यक्ष द्वारा कथित कच्चित्सौम्य से आरम्भ होने वाले पद्य के साथ की जा सकती है।11
उत्तररामचरितम् में भी कई स्थलों पर कालिदास का प्रभाव दिखायी देता है। प्रथम अङ्क में चित्र-दर्शन के दृश्य की कल्पना भवभूति को सम्भवतः ‘रघुवंशम्’ से प्राप्त हुई होगी। कालिदास ने चित्र दर्शन का केवल संकेत किया है।12 गौरीगुरो पावनः जैसे- शब्द प्रयोग भी भवभूति को कालिदास से मिले होंगे। ऐसी कतिपय समानताओं के आधार पर यह अनुमान असंगत नहीं दिखता कि भवभूति ने कालिदास के काव्य से प्रभाव ग्रहण किया है। कालिदास और भवभूति की उक्तियों में सादृश्य उद्धृत किये जा रहे हैं-
1. कालिदास-‘‘कुवलयितगवाक्षां लोचनैरङ्गानानाम्’’। (रघुवंश सर्ग 11)
भवभूति-‘‘कटाक्षैर्नारीणां कुवलियितवातायनमिव’’। (मालती माधव 2)
2. कालिदास-‘‘मोहादभूत्कष्टतरः प्रबोधः’’। (रघुवंश 14)
भवभूति-‘‘दुःखसंवेदनायैव रामे चैतन्यमाहितम्’’। (उत्तररामचरितम् 1)
3. कालिदास-‘‘गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते’’। (रघुवंश 3)
भवभूति- गुणाः पूजा स्थानम् गुणिषु न लिङ्ग न च वयः। (उत्तररामचरितम् 4)
4. कालिदास- पर्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाघ्तरोहिवृद्धेः।। (रघुवंश 5)
भवभूति- कला शेषा मूर्तिः शशिनइव नेत्रोत्सवकरी। (मालतीमाधव 2)
5. कालिदास-तमवेक्ष्य रूरोद सा भृशं स्तनसम्बाधमुरो जघान च। (रघुवंश 5)
भवभूति-स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते।। (उत्तररामचरितम् 4)
ख- माघ- कालिदास कृत लघुत्रयी का प्रभाव माघ पर भी पड़ा है। महाकवि ने रघुवंश तथा कुमारसंभव दोनों से ही शिशुपाल वध प्रबन्ध रचना की प्रेरणा पायी है। किन्तु शिशुपाल वध पर रघुवंश की अपेक्षा कुमारसंभव का प्रभाव कम है। महाकवि माघ ने कविकुलगुरू कालिदास से पद, भाव, छन्द तथा बहुत कुछ प्रबन्धयोजना में भी शिक्षा अर्जित की है।
रघुवंश के त्रयोदश सर्ग में राम सीता से महोदधि की महत्ता का यशोगान करते हुए कहते हैं- युगान्त के समय योगनिद्रा के अभ्यासी पुराण पुरूष विष्णु समस्त भुवन को अपने उदर में समाविष्ट कर इसी महोदधि में शयन करते है।13 शिशुपाल वध महाकाव्य के तृतीय सर्ग महाकवि ने रघुवंश के उपर्युक्त कथन का अनुकरण इस प्रकार किया है- जब समुद्र ने द्वारिका से इन्द्रप्रस्थ जाते समय अपनी गोद में सोने वाले युगान्त बन्धु जगदाधार श्रीकृष्ण को आया देखा तो हर्षातिरेक में उत्तुंग तरङ्गरूप बाहुओं को फैलाकर मानों उनकी अगवानी की।14
रघुवंश में वर्णित है- आकाश गङ्गा की तरंगों के सम्पर्क से शीतल ऐरावत मदसुरभित आकाश वायु सीता के मुख पर दोपहर की गर्मी से उठी पसीनें की बूँदों को दूर कर रहा है।15 महाकवि ने लिखा है- समुद्र के तट से जाते हुए श्री कृष्ण की पसीने की बूँदों को इलाइची की लताओं के सम्पर्क से सुगन्धित, शीतल (सीकर पूर्ण) नभ स्वान (आकाश वायु) पोंछ रहा था।16
रघुवंश के प०चम सर्ग में प्रभात वर्णन में हाथी दोनों करवटों में नींद पूरी कर उठते है।17 शिशुपाल वध में उसी प्रकार एक करवट में सोकर उठा हुआ हाथी पैर में बंधे शृङ्खला के शब्द के साथ दूसरे करवट में पीलवान द्वारा पुनः सुलाया जाता है।18 रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर में मगधेश्वर परन्तप के द्वारा अपने यज्ञ में निरन्तर इन्द्र को बुलाये रहने के कारण शची प्रोषितपतिका ही बनी रहती है और मन्दर पुष्प का शृङ्गार अपने अलकों में नहीं करती।19 शिशुपाल वध में धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में भी रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर की उक्त दशा देव पत्नियों की बतायी गयी है।20 रघुवंश के नवम सर्ग में कालिदास ने द्रुतविलम्बित छन्द में यमक अलङ्कार का मनोरम जोड़ा बैठाया है। महाकवि माघ को कालिदास की यह योजना इतनी आकर्षक लगी कि उन्होंने स्वयं शिशुपाल वध के षष्ठ सर्ग में षडऋतु का वर्णन उसी प्रकार द्रुतविलम्बित छन्द में तथा यमक के पदमाधुर्य के साथ किया।
रघुवंश, कुमारसंभव तथा शिशुपालवध के कुछ सादृश्य पद उदहरणार्थ दृष्टव्य है-
1. कालिदास-स्मरमते रमते स्ववधूजनः। - रघुवंश 2/47
माघ- स्मरमयं रमयन्ति विलासिनः। - शिशुपालवध- 6/6
2. कालिदास-ययावनुद्धातसुखेन मार्गम्। - रघुवंश 2/72
माघ- ययावनुद्धात सुखेन सोऽध्वना। - शिशुपालवध- 12/2
3. कालिदास-प्रतीपगामुत्तरतोऽस्य गङ्गाम्। - रघुवंश 16/23
माघ- प्रतीपनाम्नी कुरूतेस्म निम्नगाः। - शिशुपालवध- 12/57
4. कालिदास-गणं निषादाहृतनौविशेषस्ततार सन्धामिव सत्य सन्धः।-रघुवंश 14/52
माघ-तीत्वजिवेनैवनितान्तदुस्तरां नदीं प्रतिज्ञामिव तां गरीयताम्। - शिशुपालवध- 12/74
5. कालिदास-आकुमारकथोद्धातम्। - रघुवंश 4/68
माघ- आकुमारमखिलाभिधानवित्। - शिशुपालवध- 13/68
6. कालिदास- स्वयेममूर्त्यत्यन्तरमष्टमूर्तिः। - कुमारसंभवम् 1/57
माघ- अष्टमूर्तिधर मूर्तिरष्टमी।। - शिशुपालवध- 14/18
ग-श्री हर्ष- परवर्ती कवियों में नैषधकार श्री हर्ष भी महाकवि कालिदास से प्रभावित रहे। प्रमाण स्वरूप कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदास ने रघुवंश के इन्दुमती के विवाह प्रसङ्ग में स्वयंवर का जो वर्णन किया है उससे प्रभावित होकर ही श्री हर्ष ने दमयन्ती स्वयंवर का वर्णन किया है।21 नैषध के अठारहवें सर्ग में नलदमयन्ती के सुरत विलास का जो वर्णन हुआ है वह कुमार संभव के आठवें सर्ग से प्रभावित है।22 नैषध के नवम सर्ग के नल दमयन्ती संवाद पर कुमार संभव के प०चम सर्ग में वर्णित शिव पार्वती का संवाद का प्रभाव खोजा जा सकता है। दोनों संवादों में प्रणयी, शिव और नल अपने को छिपाकर आते हैं और बाद में प्रकट होते हैं। लेकिन कालिदास ने इस प्रसङ्ग में जो भाव सरसता दिखायी है वह नैषध के नल के पाण्डित्य से बोझिल होती हुई, दमयन्ती के प्रति व्यक्त किये गये उद्गारों में दृष्टिगोचर नहीं होती। कुमार संभव का सप्तम सर्ग पार्वती के शृङ्गार प्रसाधनों एवं विधियों पर प्रकाश डालता है, नैषध में हर्ष ने दयमन्ती शृङ्गार का नख-शिख वर्णन किया।
परवर्ती काव्यकारों ने कालिदास की कल्पनाओं तथा वर्णित प्रसङ्गों का अनुकरण किया है। वत्सभट्टि रचित मन्दसोरवाली प्रशस्ति में ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ की कल्पनाओं की स्पष्ट प्रतिच्छाया झलकती है। छठी शताब्दी ईसा में गया के समीप नागार्जुन पहाड़ी के ऊपर गुफा में उत्कीर्ण अनन्तवर्मा नामक मौखरी राजा के लेख में यस्याहूतसहस्रनेत्रविरहक्षामा सदैवाध्वरैः, पौलोमी चिरमश्रुपातमलिनां धत्ते कपोलश्रितम् श्लोक मिलता है जिसमें रघुवंश के छठे सर्ग के तेइसवें श्लोक की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है। अश्वघोष के बुद्धचरित में भी अनुकरण प्राप्त होता है।23 ईसा की सातवीं शताब्दी में रचित भट्टिकाव्य तथा ऐहोल की रविकीर्ति कृत प्रशस्ति में कालिदास की कल्पनाओं की प्रतिध्वनि कई स्थलों पर सुनायी पड़ती है। उसी शताब्दी में कम्बोडिया में उत्कीर्ण भववर्मा के दो श्लोकों में ‘रघुवंश’ के श्लोकों की छाया दिखायी पड़ती है।24
सन्दर्भ
1. वाचस्पतिसहस्राणां सहय्रैरपियत्नतः। निबद्धा सा क्षयं नैति प्रकृतिर्जगतामिव।। - हव0 - 4/10
2. आत्मनोऽन्यस्यं सद्भावे पूर्वास्थित्यनुयाय्यपि। वस्तुभातितरां तन्व्याः शशिच्छायमिवाननम्।। - हव0 - 4/14
3. शक्तिर्निपुणता लोकर्शास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्। काव्यज्ञ शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।। काव्यप्रकाश- 1/36
4. नैषधचरित - सर्ग - 83, 96
5. मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्यु पहास्यताम् - रघुवंश - 1/3
  ‘‘तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सद्सद्व्यक्तिहेतवः। हेम्नः संलक्ष्यते हयग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा’’। - रघु- 1/10
6. मान्यभक्तिरथवा सखीजनः सेव्यतामिदमगंदीपनम्। इव्युदारमभिधाय शंकरस्तामपाययत पानमम्बिकाम्।।  कुमार सम्भवम् 8/77
घूर्णमाननयनं स्खलत्कथं स्वेदबिन्दुमदकारणस्मितम्। आननेन न तु तावदीश्वरश्चक्षुषा चिरमुमानमुखं पपौ।। -कुमार सम्भवम् 8/80
7.आवर्जिता किंचिदिव स्तनाभ्यां वासे वसाना तरूणार्करागम्। पर्याप्तपुष्पस्तबकावनभ्रा संचारिणी पल्लविनी लतैव।। कुमारसम्भव 3/54
8.स०चारिणी दीपशिखैव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।। रघुवंश - 6/67
9.इनमें धोयी का ‘पवनदूत’ तथा वेदान्तदेशिक, वामनभट्टबाणएवं रूप गोस्वामी के हंसदूत नितान्त प्रसिद्ध है।
10ण्ब्ीपदजींंतंद ब्ींतंअंतजप . श्ज्ीम वतपहपद ंदक कमअमसवचउमदज वि क्नजांंअलं स्पजमतंजनतम पद ैंदेतपजण् ;ज्ीम प्दकपंद भ्पेजवतपबंस फनंतजमतसलण् टवसण् प्प्प्द्ध . च्तवणि् डपतेंप पद ज्ञंसपकें . च्ंहम 288.289
11. शापान्तो में भुजगशयनादुस्थिते शार्ङ्गपाणौ शेषान्मासान्गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा। मालती माघव- 9/25
   पश्चादावां विरहगुणितं तं तमात्मभिलाषं  निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु।। - मेघदूत उत्तर मेघ - 53
12.तयोर्यथाप्रार्थितमिन्द्रियार्थानासेदुषो सद्यसु चित्रवस्तु। प्राप्तानि दुःखान्यपि दण्डकेषु सि०चन्त्यमानानि सुखान्यभूवन्।। रघुवंश - 14/25
13.नाभिप्ररूढाम्बुरूहासनेन संस्तूययानः संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा। अयुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहृत्य लोकान्पुरूषोऽधि शेते।। - रघुवंश - 13/6
14.तमागतं वीक्ष्य युगान्तबन्धुमुत्संग शय्याशयमम्बुराशिः। प्रत्युज्जगामेव गुरूप्रमोद प्रसातिरतोत्तुङ्गतरङ्ग बाहुः।। - शिशुपालवध - 3/78
15.असौमहेन्द्र द्विपदानगन्धि स्त्रिमार्गगावीचिविमर्दशीतः। आकाशवायुर्दिनयौवनोत्थानाचामति स्वेदलवान् मुखेते।। - रघुवंश 13/20
16.उत्संगिताम्भः कणकोनभस्वानुदन्वतः स्वेदलवान्ममार्जः। तस्यानुवेलं प्रजतोऽधिवेलमेलालतास्फालनलब्धगन्धः।। - शिशुपाल वध 3/79
17.शय्याजहत्युभटापक्षविनीतनिद्राः स्तम्बेरपामुखर शृङखकर्षिपस्ते। येषां विभन्ति तरूणारूणरागयोगाद्भिन्नाद्रि गैरिक तटा इव दन्तकोशाः।।-रघुवंश 5/72
18.क्षितितटशयनान्ता दुत्थितंदान पंक, प्लुतबहुतशरीरं शाययत्येष भूपः। मदुचलदपरान्तोदीरितान्दूनिनादं गजपतिमधिरोहः पक्षकव्यत्ययेन।।-शिशुपाल वध - 11/7
19.क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्रमाहूत सहस्रनेत्रः। शय्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान् मन्दारशून्यानलकांश्चकार।। - रघुवंश - 6/23
20.तत्र नित्यविहितो पतिषुप्रोषितेषु पतिषु द्युयोषिताम्। गुम्फिताः शिरसिवेणयो भवन्नप्रफुलल सुरपादपस्रजः।। - शिशुपालवध- 14/30
21.नैषघ - 11, 12, 13, 14 सर्ग
22.एक अन्य कवि कुमारदास ने भी जानकी हरण काव्य में वर-वधू के प्रथम समागम का वर्णन किया है, जिस पर कुमार सम्भव के अष्टम सर्ग का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है।
23.क.वलयार्पितमहोवलप्रभाबहुली कृतप्रतनुरोमराजिना। हरिवीक्षणाक्षणिकचक्षुन्यया करवल्लवेन गलदम्बर दहो।। शिशुपालवध 13/44
ख.शीघ्रं समर्थोपि तु मन्तुमन्यागतिं निजग्राह्ययोन्तूर्णम्। ह्रिया प्रगल्यानि निगृहमाना रहः प्रयुक्तानिविभूषणानि।  बुद्धचरित - 3/17
24. शरत्कालाभियातस्य परानावृततेजसः। द्विषामसहयो यस्येव प्रतापो न खेरपि।
यस्य सेनारजोधूतमुज्झितालंकृतिष्वपि। रिपुस्त्रीगण्डदेशेषु चूर्णभावमुपागत्म। (भववर्मा)
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1- द्विवेदी डॉ0 पारस नाथ, काव्य प्रकाश।
2- झा डॉ0 तारणीश, नैषधीय चरितम्।
3- जायसवाल डॉ0 सुनीता, कुमार संभवं।
4- द इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली च्तवणि् डपतेंप पद ज्ञंसपकें - टवसण् प्प्प्
5- झा डॉ0 तारणीश, मेघदूत।
6- मिश्र डॉ0 आद्या प्रसाद, कालिदास साहित्यम्।
7- मिश्र डॉ0 उमेश, कामेश्वर सिंह, संस्कृत विश्विद्यालय से प्रकाशित ‘महामहोपाध्याय’।
8- ळनचजं ैण्छण् क्ेंए भ्पेजवतल वि ैंदेतपज स्पजमतंजनतमण्
9- भ्ंरंतं त्ंउमे ब्ींदकए प्दकपंद ब्नसजनतमए ब्ंसबनजजंए 1948ण्
10- बाणभट्ट, हर्ष चरित्र, चौखम्भा ओरियण्टलिया, वाराणसी।
11- भारतीय संस्कृति, भारतीय विद्या भवन।
डॉ0 देवनारायण पाठक
उपाचार्य संस्कृत विभाग,
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।
कृष्ण कान्त दूबे
शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग, 
टी0जी0यू0ए0 शिलॉंग, मेघालय।