Wednesday 2 July 2014

मुद्राराक्षसम् नाटक के नायक का नाट्यशास्त्र के आधार पर निर्धारण

महेश कुमार गिरि

नाट्यपरम्परा में नायक के लिए जिन गुणों का होना आवश्यक बताया गया है,1 अधिकांशतः वे गुण चाणक्य में विद्यमान है। नाटक के नायक को नेता, विनीत, मधुर त्यागी, दक्ष, प्रिय बोलने वाला, आदि गुणों से युक्त होना चाहिए। चाणक्य त्यागी, दक्ष, शुचि, वाग्मी, रूढ़वंश, स्थिर, बुद्धिमान, उत्साही, स्मृतिवान् तथा प्रज्ञावान् है। वह दृढ़ तेजस्वी एवं शास्त्रज्ञ है। इस रूप में उसमें नायक के पर्याप्त गुण विद्यमान है। यद्यपि चाणक्य न तो विनीत है, न मधुर, न ही प्रियभाषी, किन्तु जिस कार्य के लिए वह प्रवृत्त है उसके लिए विनीत, मधुर एवं प्रियभाषी होना दोष है, गुण नहीं।

वस्तुतः विशाखदत्त ने नायक सम्बन्धिनी प्राचीन परम्परा की उपेक्षा कर अपने क्रान्तिकारी विचारों को उपन्यस्त किया है। उन्होंने अपने नाटक के लिए ऐसे निःस्वार्थ राजनीतिज्ञ ब्राह्मण को नायक बनाना चाहा है जो कुलीनवंशोत्पन्न राजा न होकर एक निरीह ब्राह्मण मात्र है। जो स्वयं के लिए कुछ नहीं चाहता। उसका लक्ष्य था, नन्दवंश का उत्खात कर चन्द्रगुप्त के लिए निष्कण्टक राज्य की स्थापना करना तथा राजनीतिज्ञ राक्षस को मंत्री बनाना, और वह अपने कार्य में पूर्णरूपेण सफल होता है। इसलिए चाणक्य ही इस नाटक का नायक है। किन्तु उसकी चारित्रिक विशेषताएँ नायक के ऐसे समन्वित ;ेलदजीमेपेद्ध स्वरूप को प्रकट करती हैं, जो नाट्यचार्यों द्वारा निर्धारित नायकों के चतुष्टयात्मक साँचे में समायोजित नहीं हो पाता। इसके व्यक्तित्व में धीरशान्त एवं धीरोद्धत नायकों की विशेषताओं का मिश्रण समाहित है। उसकी निस्पृहता, त्यागशीलता, धैर्यशीलता, दृढ़प्रतिज्ञता एवं पुरुषार्थ के प्रति अटल विश्वस्तता उसे यदि धीरोदात्त नायक की श्रेणी में परिगणित करती है तो आत्मश्लाघता, कठोरता एवं षड्यन्त्रमयी नीतिमत्ता उसे धीरोद्धत नायक की कोटि में स्थान देती है। उसके धीरोद्धत स्वरुप की झलक नाटकारम्भ में उसकी कड़कती आवाज में देखने में मिलती है। आः क एष मयिं स्थिते चन्द्रमभिभवतुमिच्छति बलात्।2 अरे, वह कौन है? जो मेरे रहते चन्द्रगुप्त को पराभूत करना चाहता है। उसका अहित करना अत्यन्त क्रुद्ध सिंह के मुख से जबरन तोड़कर दाँत निकालने के समान भयंकर है- जृम्भाविदारितमुखस्त मुखात् स्फुरन्तीं को हर्तुमिच्छति हरेः परिभूय दंष्ट्राम्।।3
उक्त दो स्वरूपों के अतिरिक्त नाटककार ने उसके एक भिन्न स्वरूप को भी अंकित किया है, और वह है उसका प्रशान्त स्वरूप। उसके इस स्वरूप के दर्शन नगर से बाहर बनी जीर्ण-शीर्ण उस कुटिया में होते हैं, जहाँ शिष्यों के द्वारा एकत्र किए हुए कुशाओं का ढेर लगा है, कुटी का छप्पर सुखाई हुई समिधाओं के भार से झुका हुआ है, और दीवारें जीर्ण-शीर्ण हो रही हैं।4 चाणक्य के बाहरी रूप को देखकर भले ही वह रुक्ष क्रोधविष्ट दिखाई देता हो, पर वह हृदय से कोमल है। इसकी सत्यता तब प्रकट होती है, जब वह अपने शिष्य-बटुओं को कह उठता है- ‘वत्स’ मेरा शिष्यों के प्रति कोई स्वभावतः रुक्ष व्यवहार नहीं है, परिस्थितियों ने मुझे ऐसा बना दिया है। इसलिए तुम मेरे प्रति यह धारणा न बनाना कि उपाध्याय का व्यवहार रुक्ष एवं कटु है।5 उसके हृदय की कोमलता राजनीतिक-कठोर आवरण में से तब परिलक्षित होती है जब वह अपने प्रतिद्वन्द्वी राक्षस के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए भी उसकी प्राण रक्षा का समुचित ध्यान रखता है। वह भागुरायण से कहता है- ‘‘रक्षणीया राक्षसस्य प्राणा इत्यार्यादेशः।“ चाणक्य निस्पृहता, सत्यता और आत्मविश्वास के बल पर ही भारत सम्राट् चन्द्रगुप्त को सहज ही ‘वृषल्’ कह देता है, उसकी दृष्टि में राजे-महाराजे तृण के समान है- निरीहाणामीशस्तृणमिव तिरस्कार विषयः।6
चाणक्य की बुद्धि में प्रत्युत्पन्नता के साथ दूरदशि्र्ाता का भी सुन्दर योग रहा है। आश्चर्य तो यह है कि राक्षस जैसा राजनीति का विदग्ध पण्डित भी उसे परखने में असमर्थ रहता है, किन्तु चाणक्य अपनी दूरदशि्र्ाता तथा मनोवैज्ञानिक निपुणता के कारण राक्षस की प्रत्येक गतिविधि को सम्यक् रूप से जान लेता है। संभवतः राक्षस स्वयं भी अपने गुणों को उतना अधिक नहीं समझ पाता, जितना गुणग्राहक चाणक्य समझता है। इसीलिए वह कहता है-‘अत एव अस्माकं त्वयि संग्रहे यत्नः।’
चाणक्य ने लक्ष्य की पूर्ति के लिए पुरुषार्थ को अमोघ साधन बनाया है। वह नियतिवाद में विश्वास नहीं करता। ‘दैव’ शब्द सुनते ही उसका क्रोध चरमसीमा पर पहुँचता है। चन्द्रगुप्त के द्वारा यह कहा जाने पर कि नन्दवंश का उत्खात दैव ने किया है- ‘नन्दकुलविद्वेषिणा दैवेन’ चाणक्य क्रोध से चन्द्रगुप्त को तिरस्कृत करते हुए कहता है- ‘‘दैवमविद्वांसः प्रमाणयन्ति“- मूर्ख पुरुष ही दैव का विश्वास करते हैं। चाणक्य की राजनीति सभी को नियति की तरह चित्र-विचित्र रूप से परिलक्षित होती है। चाणक्य की राजनीतिक चालें कभी प्रकाशित होती परिलक्षित होती हैं, तो कभी इतनी गूढ़ बन जाती हैं कि बुद्धि भी उन्हें पकड़ नहीं पाती, कभी ऐसा ज्ञात होता है, जैसे चाणक्य की नीति का बीज तक नष्ट हो रहा है, तो कभी सम्पूर्ण रूप से सफल होती लक्षित होती हैं। नियति की तरह चाणक्य की नीति विविध प्रकार के खेलों का प्रदर्शन करती है और अपने यथार्थ रूप को प्रकट नहीं करती।7
चाणक्य को अपनी नीति और बुद्धि पर पूर्ण विश्वास है। कोई भी उसका शत्रु हो, जब तक उसके पास बुद्धि है, जब तक वह उसे छोड़ कर नहीं जाती, वह अपनी बुद्धि से सैकड़ों सेनाओं की शक्ति का सामना कर सकती है, वह कहता है-
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका। नन्दोन्मूलनदृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम।।8
सामान्य व्यवहार में जिस दया-माया के प्रदर्शन की नितान्त आवश्यकता होती है, उसे राजनीतिक दाँव-पेचों के अवसर पर प्रदशि्र्ात करने की आवश्यकता नहीं होती। परिणामतः राजनीति के खिलाड़ी पुरुष आपाततः दुष्ट बुद्धि के क्रूर परिलक्षित होते हैं। चन्दनदास को भी चाणक्य की इसी क्रूरता का आभास हुआ था। इसीलिए चन्दनदास फाँसी पर चढ़ने के लिए जाने के अवसर पर अपने पुत्र से कहता है- पुत्र! चाणक्य से रहित देश में निवास करना।“ (पुत्र! चाणक्यविरहिते देशे वस्तव्यम्।)। चाणक्य ने नन्दों की हत्या कर राज्यक्रान्ति घटित करने के अवसर पर भले ही राज्य से सम्बन्धित लोगों से क्रूरता का व्यवहार किया हो, किन्तु कुसुमपुर के सामान्य नागरिकों को युद्ध की आँच नहीं आने दी।
उसके व्यक्तित्व के प्रभाव की छाया चन्द्रगुप्त से लेकर सामान्य दूत पर पड़ी हुई परिलक्षित होती है। प्रत्येक उसके आदरयुक्त भीति का अनुभव करता है। चाणक्य ने बुलाया है, यह सुनते ही निर्दोष व्यक्ति भी कम्पित हो उठता है, फिर अपराधी व्यक्ति की बात ही क्या है।9 सम्पूर्ण नाटक में यहाँ तक कि प्रत्येक पृष्ठ पर उसका भययुक्त प्रभाव तथा पातालगामी बुद्धि प्रत्यक्षरूप में अंकित सी दिखाई देती है।
चाणक्य के चरित्र की तेजस्विता गुणों के प्रति अनुरक्त होने में है। वह भले ही राक्षस को अपने से अधिक असमर्थ और हीन उद्घोषित करता है। चाणक्यस्त्वमपि च नैव, केवलं ते साधर्म्यं मदनुकृतेः प्रधानवैरम्।10 किन्तु उसके हृदय में राक्षस की बुद्धि, उसके पराक्रम और उसकी राज्यभक्ति के प्रति आस्था है। इन्हीं गुणों से अभिभूत होकर वह राक्षस को अपने वश में करके चन्द्रगुप्त का आमात्य बनाना चाहता है। उसे विश्वास है कि राक्षस की असाधारण बुद्धि और चन्द्रगुप्त की असाधारण शक्ति का समन्वय ही राज्य को सुदृढ़ बना सकता है। इसी समन्वय के लिए प्रारम्भ से अन्त तक वह क्रियाशील दिखाई देता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के अनन्तर वह मलयकेतु को क्षमा कर उसे अपने पिता के राज्य पर प्रतिष्ठित करता है और चन्दनदास को पृथ्वी के सभी नगरों के नगर सेठ के पद पर। इस प्रकार चाणक्य मुद्राराक्षस में आत्मविश्वासी, दृढ़प्रतिज्ञ, दूरदर्शी, पुरुषार्थी, बुद्धिशाली तथा कूटनीतिनिपुण रूप में चित्रित हुआ है।
संदर्भ सूची-
1. नेता विनीतो मुधरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः। रक्तलोकः शुचिर्वाग्मी रुढ़वंशः स्थिरो युवा।।
    बुद्धयुत्साहस्मृतिप्रज्ञाकलामानसमन्वितः। शूरो दृढ़श्च तेजस्वी शास्त्रचक्षुÜच धर्मिकः।। दशरूपक, 2/1-2.
2. मुद्राराक्षसम्, भारतीय विद्या प्रकाशन, अङ्क प्रथम, पृष्ठ 12.
3. मुद्रा, अङ्क 1/8, पृ0 16.
4. उपलशकलमेतद्भेदकं गोमयानं बहुभिरुपहृतानां बर्हिषां स्तोम एषः।
शरणमपि समिद्भिश्शुष्यमाणाभिराभिर्विनमितपटलान्तं दृश्यते जीर्णकुड्यम।। मुद्रा0, अङ्क 3/5, पृ0 139.
5. वत्स, कार्याभिनियोगे एवास्मानाकुलयति न पुनरुपाध्यायसहभूः शिष्यजने दुःशीलता। मुद्रा, अङ्क 1, पृ0 20.
6. मुद्रा0, अङ्क 3/16, पृ0 14.
7. मुहुर्लक्ष्योद्भेदा मुहुरधिगमाभावगहना मुहुः सम्पूर्णाङ्गी मुहुरतिकृशा कार्यवशतः।
   मुहुर्नश्यद्बीजा मुहुरपि बहुप्रापितफले- त्यहो चित्राकारा नियतिरिव नीतिर्नयविदः।। मुद्रा0, अङ्क 5/3, पृ0 224.
8. मुद्रा, अङ्क 1/26 पृ0 63.
9. मुद्रा, अङ्क 1/21, पृ0 49.
10. मुद्रा, अङ्क 3/12, पृ0 135.
महेश कुमार गिरि
शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग,
उ0प्र0 राजषि्र्ा टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।