Wednesday 2 July 2014

गाँधीजी का न्यास सिद्धान्त : मानस से प्रेरित


अजय कुमार यादव

सभ्यता के उषाकाल से ही भारत की इस पावन धरा पर अध्यात्म की सुधा-धारा अनवरत प्रवाहमान रही है। इसी से पोषण पाकर अनगिनत धर्म पल्लवित एवं पुष्पित होकर इस ऋषि-देश को धर्म का ‘नखलिस्तान’ सिद्ध कर दिया। प्रत्यक्ष तथ्य है कि यहाँ का कण-कण धर्म से अनुप्राणित रहा है। ऐसे में गाँधी के रामराज्य और ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का गोस्वामी तुलसीदास के मानस से प्रेरित होना स्वाभाविक था।

वास्तव में गाँधी जी को बचपन से ही दुःख में रामनाम लेना सिखाया गया था। वह उन्हें किसी मंदिर से नहीं बल्कि उनकी धाय रंभा से मिली थी। गाँधी जी बचपन में भूत-प्रेत से डरा करते थे। इस धाय मॉ रंभा ने बताया कि इसकी दवा रामनाम है किन्तु, जैसा बापू स्वयं कहते हैं- रामनाम की अपेक्षा रंभा पर मेरी अधिक श्रद्धा थी। इसलिए रामनाम जप शुरू किया। यह सिलसिला यों बहुत दिनों तक जारी नहीं रहा परन्तु जो बीजारोपण बचपन में हुआ था, वह व्यर्थ नहीं गया। रामनाम आज मेरे लिए एक अमोघ शक्ति हो गयी है।1 परन्तु जिस चीज ने उनके दिल में गहरा असर डाला, वह तो थी रामायण का पारायण। उनके पिता बीमारी में रामजी के मंदिर में रोज रात की रामायण सुनते थे। उस समय मोहन की उम्र कोई तेरह साल की होगी। पर उनकी कथा में उनका बहुत मन लगता था। इसलिए बापू लिखते हैं रामायण पर जो मेरा अत्यन्त प्रेम है उसका आधार यही रामायण-श्रवण है।2
उपार्जित सद्गुणों के आधार गाँधी एक अद्भुत व्यक्तिव हैं। राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह उन्मुक्त और शिव की तरह असीम और अनन्त।3 मर्यादित इसलिए है कि उन्होंने राजनीति हो या अर्थनीति, धर्म हो या शिक्षा, इन सभी को नीति और अध्यात्म से मर्यादित किया। उन्मुक्त इसलिए कि जहाँ भी दुःख देखा कृष्ण की तरह दौड़ पड़े, चाहे वह चंपारण में किसानों की व्यथा हो या अहमदाबाद में मजदूरों की विपदा हो, और तो और महामारी हो या भूकम्प, जहाँ भी मानव कराहता हो गाँधी वहीं थे। असल में उनका मस्तिष्क एवं हृदय एक साथ उद्भाषित था। इसी तरह वे शिव की तरह असीम और अनन्त थे।4
गाँधी के लिये सत्य और अहिंसा, केवल देवस्थानों के सद्गुण नहीं बल्कि जनसामान्य के लिये संसद से लेकर हाट बाजार तक के लिए उपयोगी जीवन-तत्व है।5 जब कुछ लोगों ने गाँधी जी से कहा कि वे प्रार्थना सभा का भी उपयोग अपने राजनैतिक विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए करते हैं, उस पर उन्होंने स्पष्ट कहा कि मानव जीवन चूँकि एक और अविभाजित समग्रता है। इसके विभिन्न क्षेत्रों जैसे राजनीति एवं नैतिकता आदि के बीच कोई विभाजन रेखा खींची ही नहीं जा सकती। इसी प्रकार यदि कोई व्यवसायी धोखेबाजी से काफी सम्पत्ति जमा कर उसका कुछ अंश किसी धार्मिक कार्य में खर्च कर अपने पापों का प्रक्षालन करने की कल्पना करता है तो यह असंभव है। संक्षेप में व्यक्ति का दैनिक व्यवहार अध्यात्म से हरगिज अलग नहीं है।6 यही कारण था कि नैतिकता के परम्परागत सिद्धातों का समाजीकरण कर गाँधी ने उनमें एक युगान्तर उपस्थित कर दिया। जिस प्रकार राजनीति के आध्यात्मीकरण की बात रखी उसी प्रकार उन्होंने उस अर्थनीति को अयथार्थ बताया जो नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करती है।7
गाँधी जी आर्थिक समानता के पक्षधर थे। आर्थिक समानता से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्त्ति करने के लिए ही धन की आवश्यकता होनी चाहिए, न कि कृत्रिम और विलासिता की पूर्त्ति हेतु। गाँधी जी का विचार है- आर्थिक समानता के लिए काम करने का अर्थ पूंजी और श्रम के शाश्वत संघर्ष को मिटा देना है। जिसका अर्थ है कि एक तरफ जिन मुठ्ठी भर धनवानों के हाथों में राष्ट्रकी अधिकांश सम्पिŸा इकठ्ठी हो गई है, उनका स्तर घटाया जाय और दूसरी ओर करोड़ों भूखे-नंगे लोगों का स्तर बढ़ाया जाय। जब तक धनवानों और करोड़ों लोगां के बीच की चौड़ी खाई बनी हुई है, तब तक स्पष्ट है कि कोई अहिंसक शासन-प्रणाली कायम नहीं हो सकती।8
गाँधी जी ने सहकारिता, अपरिग्रह एवं ट्रस्टीशिप इत्यादि कार्यक्रमों द्वारा सर्वोदयी विचारधारा को स्पष्ट किया है। वास्तव में सर्वोदय-विचार रचनात्मक कार्यक्रमों की श्रृंखला है। जो, अहिंसात्मक क्रांति के द्वारा ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना करती है, जहाँ न तो कोई शोषण है, न कोई परतंत्रता और न ही संघर्ष।
समाज के विकासात्मक प्रतिमान के रूप में चलाया गया सर्वोदय आंदोलन वस्तुतः वर्ग संघर्ष, व वर्ग-विभेद का अहिंसात्मक तरीके से विरोध कर समतामूलक समाज की प्रतिस्थापना से जुड़ा था। इसमें ट्रस्टी संबंधी अवधारणा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थी। गाँधीजी का मानना था कि जब तक समाज से आर्थिक विषमता समाप्त नहीं हो जाती है तब तक समाज में स्थायी शांति स्थापित नहीं हो सकती है। सम्पत्ति के अधिकार के कारण ही असमान वर्गों का प्रादुर्भाव हुआ है, जो अन्ततः शोषण एवं अत्याचार को जन्म देने में सहायक रहा है। इसीलिए उन्होंने सम्पत्ति के स्वामियों को सम्पत्ति, धन को समाज की धरोहर समझने तथा अतिरिक्त सम्पत्ति धन का ट्रस्टी अथवा संरक्षक की भाँति समाज के हित में प्रयोग किए जाने की बात कही। गाँधी जी की परिकल्पना भेदभाव एवं विषमताविहीन समाज की स्थापना करने की थी। गाँधीजी निजी अथवा व्यक्तिगत सम्पत्ति के विरुद्ध नहीं थे, उनका विचार था कि व्यक्तिगत सम्पत्ति का तात्पर्य-शोषणयुक्त स्वामित्व नहीं है, अपितु ट्रस्टी का जनता के अतिरिक्त अन्य कोई उत्तराधिकारी नहीं होगा।
अब हम गोस्वामी जी के मानस से लिये गए निम्न दोहा का अवलोकन करें-
कीरति भनिति भूति भलि सेई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।9
कविता, कीर्त्ति और संपत्ति वही कल्याणकारी है, जो गंगा के समान सबका हित करें। मानस में गोस्वामी जी कहते हैं कि कीर्त्ति का उद्देश्य अपने आपको चमकाना नहीं, बल्कि दूसरों को प्रकाश देना होना चाहिए। इसी तरह एक कवि यदि अपने काव्य का कौशल प्रदर्शित करके अपने को महिमा से मण्डित होना चाहता है, तो उस कविता के द्वारा कवि कीर्त्ति को भले ही अर्जित कर ले, पर उस कविता के द्वारा उसके जीवन में कोई लाभ नहीं होगा। कविता का उद्देश्य होना चाहिए कि वह समाज का हित करे।
इसी तरह गोस्वामी जी कहते हैं कि सम्पत्ति वह नहीं है जो अपने पास या बैंक के अपने खाते में जमा हो। सम्पत्ति तो वही है जिसका प्रयोग संसार के कल्याण के लिए, लोगों के कल्याण के लिए एवं जनसेवा के लिए हो।
गोस्वामी जी ने कहा कि इन तीनों वस्तुओं की श्रेष्ठता की एक ही कसौटी है कि उस वस्तु के द्वारा सबका हित होता है। इसीलिए उन्होंने इसके संदर्भ में गंगा का दृष्टांत दिया। जब गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु में थीं, तब वे देवलोक में, ब्रह्मलोक में थीं, लेकिन वे देवलोक से उतरकर मृत्युलोक में कैलास पर्वत पर आ गयीं, फिर उतरकर हिमालय की चोटियों पर आ गयीं और वहाँ से उतरकर पृथ्वी पर आ गयीं। इसके बाद पृथ्वी पर बहती हुई वे समुद्र की ओर जा रही हैं। इस अवतरण के पीछे उनका उद्देश्य यही है कि वे पापियों का उद्धार करने के लिए आती हैं, लोककल्याण के लिए अपने आपको सबकी सेवा में लगा देती हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि गंगा का यही जीवन दर्शन हमारे लिए जीवन का आधार होना चाहिए।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि गाँधी जी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त गोस्वामी जी के मानस से प्रेरित है। यह सिद्धान्त प्रेम एवं हृदय परिवर्त्तन पर अवलम्बित है। वस्तुतः गाँधीजी के विचारों की प्रासंगिकता को देखते हुए उनके विचारों की तुलना अन्य विचारकों से की गयी। इस युग में डुरखाइम, मैक्सबेवर, बिलफ्रेड परेटो और मार्क्स आदि ने भी समाज के संकट को पहचानकर नवीन समाज के लिए अपने-अपने मॉडल प्रस्तुत किये हैं किन्तु गाँधी के चिंतन में तो जड़मूल से क्रांति है। जिसकी उच्चतर प्रासांगिकता आज औद्योगिक प्रदूषण, आण्विक अस्त्रवाद एवं सामाजिक संत्रास के संदर्भ में प्रकट हो रही है। शायद यही कारण है कि जोराल्ड हर्ड ने गाँधी के ‘हिन्द स्वराज्य’ को रूसो के ‘सोशल कंट्रेक्ट’ एवं मार्क्स के ‘दास केपिटल’ से भी उच्च स्तरीय सामाजिक प्रबन्ध घोषित किया था।10
संदर्भ सूची-
1. गाँधी मो0 क0, आत्मकथा से, रामनाम, नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, 1982, पृष्ठ-3.
2. गाँधी मो0 क0, आत्मकथा से, रामनाम, नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, 1982, पृष्ठ-3.
3. आत्मकथा, भाग-4, अध्याय 18.
4. रामजी सिंह, गाँधी-विचार, पृष्ठ-13.
5. हरिजन, 8.5.1937.
6. हरिजन, 30.3.1947.
7. यंग इंडिया, 26.12.24.
8. रचनात्मक कार्यक्रम, 1941, पृष्ठ 21-22.
9. गो0 तुलसीदास, रामचरित मानस, बालकाण्ड, पृष्ठ-19.
10. मिल्स, सी0डब्लू, इमेजेस ऑफ मैंन, न्यूयार्क : जार्ज बैजीलीर, 1960, पृष्ठ 3.
डॉ0 अजय कुमार यादव
व्याख्याता, इतिहास विभाग,
एस0एन0एस0वाई0 डिग्री कॉलेज, रामबाग, पूर्णियाँ।