Wednesday 2 July 2014

क्षेत्र और जाति की राजनीति : बिहार सन्दर्भ



चाहे आज हम जो कुछ भी कह ले व सुन ले, लोकतंत्र के बारे में, मगर सच्चाई यही देखने को मिलती हैं कि आजादी के इतने लम्बे वर्षो बाद भी आज भी हम जातियता व क्षेत्रियता के शिकार हैं। चुनाव के पहले हमें जरूर महॅगाई, बेरोजगारी, किसानों, युवाओं की समस्या नजर आती है, परन्तु चुनाव के दिनों हम इन सारी महत्वपूर्ण समस्याओंं को दरकिनार कर जातियता व क्षेत्रीयता के चुंगल में फंस कर अपने जाति, अपने संप्रदाय व क्षेत्र के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करते हैं, परिणाम चाहे जो हो। राजनीतिक दल भी आम मतदाताओं को लामबंद करने के लिए जातीय व क्षेत्रीय अस्मिताओं को आधार बनाते हैं, जो सच्चे लोकतंत्र के माथे पर कलंक है। आवश्यकता है जातियता व क्षेत्रीयता को दर किनार कर इससे ऊपर उठकर सोचने की मतदान करने की, जिससे एक सच्चे व सफल लोकतंत्र का सपना साकार हो सके।

बिहार में आरंभ से ही जातीयता की बड़ी मजबूत जमीन है। जाति तोड़ो अनेक तोड़ो, बोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा, पिछड़ा पावे सौ में साठ, रोम पोप का मथुरा गोप का जैसे नारे खूब लगे इत्यादि। चाहे वे राष्ट्रीय दल हो या क्षेत्रीय दल सभी में आम मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए क्षेत्र और जाति कि अस्मिताओं को आधार बनाने कि होड़ सी लगी रहती है। अगर एक राष्ट्रीय दल दलितों को लुभाकर राज्यसभा में भेज रहा है या फिर किसी प्रान्त में गठबंधन कर रहा है, तो दूसरी ओर दूसरा दल पिछड़ेपन के आधार पर जाटों को पिछड़ों श्रेणी की सूची में डाल रहा है। इसी कड़ी में कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन तेलंगाना पर राजनीति करते रहे और अंत में जब चुनाव के ऐन मौके पर केन्द्र सरकार ने आन्ध्र प्रदेश विभाजन कि घोषणा की तो वे अनशन पर चले गये। इस दौरान हिंसा भी हुई और समय व उर्जा की बर्बादी हुई। लेकिन दलों व संगठनों पर कोई असर नहीं पड़ा। आश्चर्य की बात है कि आर्थिक व सांस्कृतिक रूप ये पिछड़े पूर्वोत्तर व छोटानागपुर आदिवासी पर बहस न के बराबर है।
आज भारत के साथ-साथ बिहार की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर है। एक जाने माने समाजशास्त्री ने लिखा था कि भारतीय राजनीति में जातियों और धर्मो के आधार पर जनता अब वोट नहीं देती है बल्कि वोट देने का आधार सुशासन होता है। बिहार के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने इस विचार को गलत साबित कर दिया है। सच्चाई यह है कि राजनीतिक दल चुनावों के समय जातियों के समूहों का निर्माण करते हैं। कभी यह समीकरण माई के रूप में सामने आती है तो कभी अजगर के रूप में। बिहार की बात करें तो नीतीश कुमार ने पहले 2005 और 2010 में उससे भी बड़ा समीकरण तैयार किया था जिससे अति पिछड़े वर्गो के हितों को आधार बनाया गया। नीतीश का समीकाण रंग लाया और भाजपा-जदयू कि जोड़ी ने बड़ी राजनीतिक सफलता हासिल की। भाजपा भी पुनः जातीय समीकरण को अपने पक्ष में करना चाहती है, उपेन्द्र कुशहवाहा के रूप में उसे एक नया सहयोगी मिल गया और अब पासवान को भी अपने पाले में ले आये। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस ताकतवर समीकरण से जूझना होगा। संभवतः इसी तैयारी में उन्हांने राजद के बोट बैंक को अपनी ओर खींचने कि कोशिश की है।
वी0 पी0 सिंह के राजनीतिक उभार के समय से प्रचलन में आया सामाजिक न्याय का नारा अब नये-नये रूप में सामने आ रहा हैं। वी0 पी0 सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ नायक बनकर राजनीति में उभरे थे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद मंडलवाद उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा सहारा बन गया। उस समय उनके साथ जो लोग रहे उनमें से अनेक आज अलग-अलग दलों में सामाजिक न्याय की लड़ाई अपने-अपने तरीके से लड़ रहे हैं। जातियों कि छतरी बड़ी मोहक व आकर्षक होती है। मतदाता बड़ी आसानी से उसके तले आ जाता है। इसलिए उनका इस्तेमाल भी जमकर होता है। आज बिहार के राजनीति में शुचिता, सिद्धान्त, पवित्रता, जैसी बातें हाशिए पर चले गये हैं।
राजद में टूट कि खबर ने लालू प्रसाद यादव कि राजनीतिक मुश्किलें बढ़ाने के साथ ही अपने देश में संवैधानिक संस्थाओं की गिरावट को नये सिरे से सतह पर ला दिया है। यह गिरावट सभी संवैधानिक संस्थाओं में देखी जा रही है। राजद में टूट के बाद बिहार विधान सभा के स्पीकर ने जिस तरह अलग हुए विधायकों को आनन फानन में एक अलग गुट कि मान्यता दे दी वह हैरान करने वाला है। विधानसभा स्पीकर ने यह काम बड़े ही मनमाने तरीके से किया और उसका आचरण निंदनीय ही कहा जायेगा। राजद के संख्या बल के लिहाज से टूट को वैधानिक मान्यता तभी दी जा सकती थी जब कम से कम 15 विधायक पार्टी से अलग होने पर हस्ताक्षर करते इसके बावजूद स्पीकर ने 13 विधायकों के हस्ताक्षर को भी अपनी मंजूरी प्रदान की। इतना ही नहीं उन्होंने हस्ताक्षर को प्रमाणित करने की भी आवश्यकता महसूस नहीं की। भले ही पार्टी से अलग हुए कुछ विधायक फिलहाल लौट आये है। लेकिन पाला बदलने वाले विधायकों कि संख्या बढ़ भी सकती है। राजद में जो टूटे हुई उसमें जाति ही है।
जातीयता व क्षेत्रीयता का अपना अलग समाजशास्त्र है। जिसे हम भाषा व संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। भाषायी अस्मिता क्षेत्रवाद को जन्म देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण 1956 में देखने को मिला था। राज्य पुनर्गठन आयोग कि संस्कृति पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भाषायी आधार पर एक राज्य का गठन कर दिया गया। जिससे एक राज्य में एक भाषा बोलने वालों का ही वर्चस्व हो गया है। होना यह चाहिए था कि कई भाषाओं को मिलाकर एक राज्य बनाया जाता ताकि भाषा के आधार पर प्रान्त विकसित हो सकते। अगर इसे अब भी नहीं रोका गया तो महाराष्ट्र नवनिमार्ण सेना जैसे राजनीतिक दल क्षेत्रीयता के सहारे अपनी राजनीति चमकाते रहेंगे। मनसे प्रमुख राज ठाकरे की क्षेत्रीयता की राजनीतिक सोच मौलिक नहीं है। सोच बाला साहेब ठाकरे से उधार ली है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1960-70 के दशक में शिवसेना आमची मुम्बई का नारा देकर सत्ता के लिए दक्षिण भारतीय व उत्तर भारतीय को निशाना बनाता था। नब्बे के दशक तक उसने बम्बई का नाम बदल कर मुम्बई रख दिया। फिर क्या था कलकत्ता कोलकाता, बंगलॉर बैगलूर, पाण्डिचेरी पुन्डुचेरी हो गया। सवाल यह उठता है कि इन सबसे क्या यहॉ रहने वालों के जीवन में कोई गुणात्मक सुधार आया? आज भी बार-बार मराठी व बिहारी अस्मिता के आधार पर लोगों को भावनात्मक रूप से छला जाता है।
जातीयता और जातिवाद राष्ट्र निर्माण के मार्ग में बाधक है। आज भारत के हर प्रान्त में एक या दो शक्तिशाली जातियों ने राजनीति में अपना प्रभुत्व जमा रखा है जैसे बिहार में यादव एवं कुर्मी, महाराष्ट्र में मराठी व कुनबी, पंजाब व हरियाणा में जाट आदि। इन सभी जातियों कि विशेषता यह है कि वर्तमान भारतीय सामाजिक संरचना में ये जातियॉ अगड़ी जातियों की तरह हैं परन्तु वर्ण, आश्रम, धर्म, के आधार पर इनको पिछड़ी जाति में रखा गया। इतना ही नहीं मंडल आयोग ने भारतीय मुस्लिम समाज को भी पिछड़ी जाति में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया।
कुर्सी के लिए जातियता से जुड़े ढेर सारे आख्यान हैं। 1926 की कांउसिल, 1937 कि प्रान्तीय सभा 1938 का जिला परिषद चुनाव। आजादी के दौर में भी जाति आधारित राजनीतिक उठापटक खूब हुई, हाँ तब इसका स्वरूप अभी जैसा घिनौना नहीं था। बिहार मे हर जाति का एक संगठन है एक जाति के कई-कई संगठनों के पदों पर नेता है। जाति के आगे पार्टी लाइन मायनें नहीं रखती। आम बिहारी राजपूत, ब्राह्मण भूमिहार, कोइरी, कुर्मी यादव, वैश्य बना दिया गया। खाट में बाँट दिया गया। महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नारायण, स्वामी सहजानंद श्री कृष्ण सिंह, कर्पूरी ठाकुर सबको जाति के दायरे में बाँधा जा रहा है। ढेर सारे समिकरण है एम-वाय, लव-कुश, कुर्मी-कुशवाहा, डी-एम, एड-डी-एम, बी एस 4, महादलित, पसमांद मुसलमान आदि।
यह कुछ उदाहरण है, इस बात के कि कैसे आजकल नेता जातीय धुड़ी से जनता को चार्ज कर रहे हैं। राजद सुप्रिमों लालू प्रसाद सबको अहीर मरोड़ दाँव बना व समझा रहे है। कुर्मी बहुल इलाके में इसकी सफाई देते हैं- कुर्मी भाइयों मैं हमेशा आपके दिल में रहा हूॅ कुछ लोगों ने साजिश कर आपको हमसे दूर करने कि कोशिश की। सवर्ण जातियों को लेकर लालू आज ज्यादा ही उतावले हैं, कहते फिर रहे हैं कि- मैंने कभी नही कहा की भूरा बाल (भूमिहार, राजपूज, ब्राह्मण, लाला) साफ करों। इधर हाल ही में साबिर अली ने सबको बताया है कि जदयू ने उनकों क्यों राज्यसभा से बेटिकट किया? साबिर के अनुसार चुॅकि वे मुसलमान थे, इसलिए ऐसा हुआ, कुर्मी होते तो ऐसा नहीं होता। संतोष प्रसाद सिंह पुराने समाजवादी नेता है, पाँच दिन मुख्यामंत्री भी रहे। उन्होंने यह कहते हुए भाजपा से इस्तीफा दे दिया कि पार्टी ने वायदे के मुताबिक कुशवाहा समाज के लोगों को टिकट नहीं दिया। नरेद्र मोदी भी बिहार आने पर जाति की बातें दोहराना नहीं भूलते। यह नेताओं व पार्टियों का दोहरापन है कि चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे के स्थान पर जाति को ही आधार बनाया गया है। भाजपा, जदयू, राजद, कांग्रेस, लोजपा यानी किसी दल ने भी उम्मीदवार तय करते वक्त अपने सामाजिक समीकरण से अलग होने कि हिम्मत नहीं दिखाई।
जातीय संगठन टिकट के लिए पार्टियों पर दबाब बनाने का चरण पूरा कर चुके हैं। अब फतवा का दौर आ चला है। यह जाति तोड़ो जनेउ तोड़ो आन्दोलन के उत्कृष्ट सहयोगी रहे बिहार का मिजाज नहीं है। अगर कहीं से यह सामाजिक जागरूकता का पर्याय है भी तो समग्रता में इसका फायदा समाज को नहीं मिल रहा है। पूरी बिरादरी के भावनात्मक शोषण के बदौलत एकाध लोग कुर्सी के और करीब जरूर आ जाते है, उनका खानदान क्रीमीलेयर की औकात पा जाता है। यह मौजूदा राजनीति का सपाट या व्यावहारिक पक्ष है। यहॉ इसकी सामाजिक या मनोवैज्ञानिक व्याख्या नहीं होती कि कैसे इसके मूल में सदियों का स्वाभाविक या जातीय संघर्ष या आग्रह था, जो दब रहा है।
अगर हम जाति के आधार पर राष्ट्रीय राजनीति दलों के संगठनात्मक ढाँचे को देखे तो उनमें हमें साफ तौर पर एस.सी./एस.टी./ओ.बी.सी. प्रकोष्ठ मिल जायेंगे। जो प्रत्यक्ष रूप में इन जातियों का प्रतिनिधि सुनिश्चित करने के लिए बनाये गए हैं। हालांकि वास्तविकता में ये दल इनका वोट तो ले लेते हैं लेकिन इनके विकास के लिए कुछ नहीं करते। राज्य पार्टियों में भी लगभग यह व्यवस्था है। उदाहरण के लिए यू0पी0 में समाजवादी पार्टी को ही ले। राज्य में 2012 के चुनावों में सपा ने लगभग 58 आरक्षित सिटों पर कब्जा किया, लेकिन जब पदोन्नति में आरक्षण की बात चली तो इन विधायकों ने एकबार भी मुँह खोल कर पार्टी के आलाकामन का विरोध नहीं किया। आज इस स्थिति पर राज्य के कर्मचारियों के बीच खिंचाव साफ देखा जा सकता है। दूसरी ओर राजस्थान में लगातार गुर्जरों के आरक्षण को लेकर कांग्रेस व भाजपा आमने-सामने रहे। जिससे सामाजिक अलगाव बना रहता है। भारतीय राजनीति में जातियों का दुष्परिणाम ही है कुछ जातियों ने सत्ता व शासन में एकाधिपत्य बना लिया है। इसका परिणाम यह भी हुआ कि मजबूर होकर कमजोर जातियों ने भारतीय प्रजातंत्र में भागीदारी के लिए अपने संगठन बनाना शुरू कर दिये। अगर हमें प्रजातंत्र को शक्तिशाली बनाना है तो सभी अस्मिताओं को स्वभाविकताओं के आधार पर सम्मलित करना होगा।
महान कथा शिल्पी फणिश्वर नाथ रेणु की पुरानी कहानी है पंचलाईट। जिसके आरंभ की तीन पक्तियाँ इस प्रकार हैं- पिछले पन्द्रह महीने से दण्ड जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमेक्स खरीदा है। गाँव में सब मिलकर आठ पंचायते हैं। हरेक जाति की अलग अलग सभा चट्टी है सभी पंचायतों में दरी, जामित, सतरंगी और पेट्रोमेक्स है जिसे गाँव के लोग पंचलाईट कहते है। इन्हीं पक्तियों से कहानी आगे बढ़ती है कहानी पुरानी है लेकिन इस चुनाव में सभा चट्टी भी खूब बिछाई गई और टोलों कि पंचलाईट भी खूब जली है बेशक, सभाचट्टी में अगर जातिगत टॉकें नहीं हो तो अच्छी बात है। इसमें सामूहिकता का बोध है। परस्पर के दुख दैन्य का आपसी बटवारा है। लेकिन यही सभा चट्टी जब हर जाति के लिए अलग-अलग बिछाई जाती है तब राजनीतिक समीकरण भले ही बनते बिगड़ते हो समाज आत्महंता प्रकृति कि ओर बढ़ जाता है।
आज सवाल उठता है कि जब संगठन का आधार ही जाति है तो फिर राजनीति इससे कैसे अछूती रहेगी ? यह तय करना मुश्किल है कि जातीय उद्देश्य वोट हमारा राज तुम्हारा वाली हकमारी कि खिलाफत कि वाजिब परिणति है या चालाक राजनीतिज्ञों का जनता के बुनियादी सवालों से बरगलाने कि कोशिश है। बिहार के संदर्भ में दोनों ही बात सही हैं। संख्या के खेलवाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में निश्चित रूप से बहुसंख्यक आबादी ठगी का शिकार हो रही है।
निष्कर्ष- हमें पहले ब्राह्मणवादी व मनुवादी व्यवस्था ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र में बाँटा, फिर अंग्रेजों ने बाँटा और अब इस देश की राजनीति कभी जाति के खॉचे में तो कभी क्षेत्र विशेष के दायरे में बाँट रही है। अब समय है हम सभी हिन्दुस्तानियों को जाति व क्षेत्र के दायरों से बाहर निकलने का। अपने जनतंत्र को सफल व बेहतर बनाने का। यह जरूरी है कि प्रजातंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं कि पूर्ति हो। यह तब अस्वीकार्य हैं जब ऐसी आकांक्षाए राष्ट्रीय हितों पर चोट करें। संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के फेर में क्षेत्रवाद व जातिवाद से खाद पानी देने का जो काम हो रहा है उससे राष्ट्र की एकता को क्षति ही पहुँच रही है। क्षेत्रवादी, जातिवादी राजनीति को हतोस्साहित करने का काम विवेकपूर्ण मतदान से संभव है। यह काम तनिक भी कठिन नहीं क्योंकि हम यह आसानी से जान सकते हैं कि वोट से जातिवादी और क्षेत्रवादी तत्व मजबूत होंगे। आवश्यकता है हमें इन सब बुराइयों के खिलाफ तन और मन से विरोध करने का। क्षेत्र व जाति के दलों को वोट नहीं करने का। जब हम ऐसा सोचने और करने लगेंगे तभी स्वस्थ्य जनतंत्र और सभ्य समाज कि कल्पना कर सकते हैं।
संर्दभ-
1. पालीवाल कृष्ण दत्त, दलित साहित्य बुनियादी सरोकार।
2. पटनायक किशन, भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि, राजकमल प्रकाशन दिल्ली।
3. शाह डा0 मु0 ब0  भारतीय समाज क्रांति के जनक महात्मा ज्योतिबा फूले, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली।
4. भारतीय संतोष, निशाने पर : समय समाज और राजनीति, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली।
5. स्वरुप देवेन्द्र, जातिविहीन समाज का सपना, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली।
6. कान्त श्री, बिहार में चुनाव : जाति, हिंसा और बूथ लूट, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
7. चौबे कमलनयन, जातियों का रानीतिकरण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
डॉ0 बीरेन्द्र कुमार पासवान
एम0 ए0, पी-एच0डी0, राजनीतिशास्त्र,
भू0 ना0 मं0 विश्वविद्यालय, मधेपुरा, 
 छोटी चातर, मोरसंडा, कटिहार, बिहार।