Wednesday 2 July 2014

भारत में संसदीय प्रणाली के समक्ष चुनौतियाँ : एक विश्लेषण



26 जनवरी, 1950 के दिन भारतीय गणराज्य के संविधान का शुभारम्भ हुआ, और भारत एक आधुनिक संस्थागत ढाँचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतन्त्र बना। लोकतन्त्र एवं प्रतिनिधि संस्थाए भारत के लिए पूर्णतयः नयी नहीं हैं। ‘सभा’ तथा ‘समिति’ जैसी प्रतिनिधि निकाय वैदिक काल में भी विद्यमान थी (3000-1000ईसा पूर्व)। हमारे प्राचीन उच्च संस्कृत साहित्य में कल्याणकारी राज्य की एक उत्कृष्ट परिभाषा दी गयी है, जो इस प्रकार है- प्रजानाम् एव भूत्यार्थ स ताभ्यो बलिम ग्रहीत सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रवि
आधुनिक अर्थो में संसदीय शासन प्रणाली एवं विधायी संस्थाओं का उद्भव एवं विकास लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटेन के साथ भारत के सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है, परन्तु यह मानलेना गलत होगा कि बिल्कुल ब्रिटेन जैसी संस्थाए किसी समय भारत में प्रतिस्थापित हो गयी। जिस रूप में भारत की संसद और संसदीय संस्थाओं को आज हम जानते हैं, उनका विकास भारत में ही हुआ। इनका विकास विदेशी शासन से मुक्ति के लिए और स्वतन्त्र लोकतन्त्रात्मक संस्थाओं की स्थापना के लिए किए गए अनेक संघर्षों और ब्रिटिश शासकों द्वारा धीरे-धीरे, टुकड़ों में दिए गए संवैधानिक सुधारों के द्वारा हुआ।
‘संसदीय’ शब्द का अर्थ विशेष रूप से एक प्रकार की लोकतन्त्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था हैं, जहाँ सर्वोच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के निकाय में निहित है जिसे ‘संसद्’ कहते हैं। यह वह धुरी है, जो देश की राजनीतिक व्यवस्था की नींव है। भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों-राज्यसभा (कौंसिल ऑफ स्ट्ेट्स) और लोकसभा (हाउस ऑफ द पीपुल) से मिलकर बनती है। भारत की संसद, राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक रूप से संगठित सभी लोगों के विचारों का प्रतिनिधत्व करती है, उनका देश की राजनीतिक व्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें जनता की ‘प्रभुसत्ता’ का समावेश एवं सार है, यह राष्ट्र की आवाज और उसका दर्पण है। संसद ‘‘राष्ट्र की जाँच पड़ताल करने वाली एवं प्रहरी महान संस्था’’ के रूप में कार्य करती है। इसके अलावा संसद के मौलिक कार्य हैं- राजनीतिक और वित्तीय नियन्त्रण, प्रशासनिक निगरानी, जानकारी प्राप्त करने का अधिकार, प्रतिनिधत्व करना, शिकायतें व्यक्त करना, शिक्षित करना और मंत्रणा देना, संघर्षों का समाधान और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना, विधि निर्माण, विकास, सामाजिक परियोजना और वैधीकरण, संविधायी भूमिका (संविधान में संशोधन करना), नेतृत्व (भर्ती एवं प्रशिक्षण) इत्यादि।
वर्तमान समय में संसदीय शासन प्रणाली के समक्ष कई चुनौतियाँ प्रमुख रूप से हैं। जैसा कि हम जानते हैं, संसद एक निकाय है, जो अपने कार्य प्रणाली के लिए जानी जाती है। इसमें सचिवालय में सचिव व निजी सचिव होते हैं जो अपने विचार से कार्य प्रणाली को प्रभावित करते हैं। संसद की कार्यवाही में ब्यूरोक्रेसी का प्रभाव होता है, जिससे बचा नहीं जा सकता है। वर्तमान समय में वे अपने साथ एक ऐसी कार्य संस्कृति जोड़ रहे हैं, जिसमें भ्रष्टाचार व जी हजूरी है। अफसर की एक जीवन शैली होती है, जो संसद तक लेकर पहुँच ही जाते हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि लोकसभा व राज्यसभा में स्वायत्तता कहीं बची ही नहीं है। प्रत्येक कार्य में ब्यूरोक्रेसी का हस्तक्षेप है। यह हस्तक्षेप दोहरे नुकसान कर रहा है। एक ओर तो लोकसभा को अपने काम-काज में जैसी आजादी चाहिए उसका अभाव हो गया दूसरी तरफ ऊपर से भारी भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया।
इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में अनुच्छेद 98 इस बात की व्यवस्था करता है कि संसदीय सचिवालय के लिए एक कानून होगा। इतने वर्षो बाद भी उस कानून का पक्षपोषण नहीं हो पा रहा है। यह कितने आश्चर्य कि बात है कि जो संसद पूरे देश के लिए कानून बनाती है, वह इतने वर्षों के बाद भी अपने सचिवालय के लिए कोई कानून नहीं बना सकी है। ऐसा क्यों है? इसका सीधा सा उदाहरण है, लोकसभा का कोई भी अध्यक्ष किसी कानून से नहीं बधना चाहता नहीं तो जो उसकी मनमर्जी चलती है वह रुक जायेगी।
वास्तव में देखा जाय तो संसद का कार्य दो हिस्सों में बंटा हुआ है नागरिक और सरकार। पहले हिस्से का सम्बन्ध नागरिकों से है। संसद और विशेषकर लोकसभा की कार्यवाही भी इसी आधार पर चलती है। निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रश्न और सरकार दोनों का एक-दूसरे के प्रति जवाबदेही है। इन प्रश्नों और सरकार के बीच गहरा सम्बन्ध होता है। लिखित प्रश्नों से भी सरकार की नींद हराम करने के उदाहरण है। इंदिरा गांधी के समय में मारूति घोटाला एक लिखित प्रश्न से बाहर आया था। आज तो ऐसी स्थिति है कि शायद ही कोई ऐसा हो जो प्रश्न तैयार करता हो। प्रतिनिधि ऐसे लोगों से प्रश्न तैयार करवाते है, जिनका कोई विधिवत अध्ययन नहीं होता। अब ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता जो सरकार को परेशानी में डाले, कारण यह है कि सचिवालय में ऐसे प्रश्न पहले ही बैलेट से बाहर कर दिए जाते है। इस से यह प्रतीत होता है कि संसद के पक्ष व विपक्ष में सदस्य सरकार के अधीन हो गये है, और कोई निष्पक्ष सार तत्व नहीं निकल रहा है।
हिन्दुस्तान की अस्मिता व अस्तित्व को बचाने के लिए सांसद संसद में बहस करें और कानून बनाये। एक रोचक तथ्य प्रकाश में आया है कि चौधरी मुब्बर सलीम (उ0प्र0) ने कहा कि हमें दलगत सियासत से ऊपर उठ कर 118वाँ संशोधन करना चाहिए, गंगा को गंदा करने वालों को जेल की सलाखों में होना चाहिए। वे तमाम नाले, जो नदियों को गंदा करते हैं, उनके रास्ते बदल दिए जाय, ताकि नदियों का पानी पाक रहे। सिर्फ गंगा ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की सारी नदियों के लिए ऐसा कानून आना चाहिए।
इसी प्रकार भूमि अधिग्रहण बिल संसद के लिए अत्यन्त कठिन कार्य था। यह विधेयक वर्ष 2011 में रखा गया था, जो जाकर 2013 में पास हुआ। यह अधिनियम 1894 के स्थान पर भू अधिग्रहण अधिनियम 2013 हुआ। इस अधिनियम का विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संर्पूण भारत पर है। इस अधिनियम में तीन मुख्य बिन्दुओं पर जोर दिया गया ;पद्ध भूमि अधिग्रहण हेतु भू स्वामियों की सहमति ;पपद्ध उचित मुआवजा ;पपपद्ध पुनर्वासन एवं पुनर्व्यवस्थापना पर आधारित है।
इस अधिनियम के अर्न्तगत सिंचित बहुफसली भूमि का अर्जन नहीं किया जायेगा। अधिनियम के तहत विवादों के निपटारें हेतु भू-अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन प्राधिकरण की स्थापना की जाएगी। जिसका एक पीठासीन अधिकारी होगा। जिस प्रयोजन के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाता है यदि उस प्रयोजन हेतु इसका उपयोग 5 वर्षों में नहीं किया जाता है तो उसे प्रत्यावर्तन द्वारा यथास्थिति मूल भू-स्वामी को या उसके वारिसों को या समुचित सरकार को वापस कर दिया जाता है। भूमि का कोई भी अर्जन यथासम्भव अनुसूचित क्षेत्रों में नहीं किया जाएगा। अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति दोनों को विस्थापित क्षेत्रों में प्राप्त आरक्षण तथा अन्य लाभ पुर्नस्थापित क्षेत्र में भी जारी रहेंगे। संसदीय शासन प्रणाली में शासन व प्रशासन अत्यन्त कठिन होता है। संसद में लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक बहुत चर्चा में रहा है और इसका सार्थक प्रयास भी सामने आया। उल्लेखनीय है कि भारत में केन्द्र स्तर पर लोकपाल एवं राज्य स्तर पर लोकायुक्त के गठन की सर्व प्रथम अनुशंसा वर्ष 1966 में गठित मोरार जी देसाई की अध्यक्षता वाले प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा की गयी। लोकपाल विधेयक को 1968 में पहली बार चौथी लोक सभा की अवधि में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में पेश किया गया था। यह कुल 11 बार (1968, 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005, 2008 और वर्ष 2011 में) संसद के किसी न किसी सदन में प्रस्तुत किया गया किन्तु कभी भी दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं हुआ। अन्ततः 18 दिसम्बर, 2013 को लोकसभा द्वारा केन्द्र सरकार स्तर पर लोकपाल और राज्यों के स्तर पर लोकायुक्त संस्था की स्थापना संबंधी (लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक -2013) पारित कर दिया गया।
इस प्रकार संसदीय शासन प्रणाली में सैद्धान्तिक तौर पर देखा गया कानून तो बन गये लेकिन उनका सही ढंग से प्रणयन नहीं हो सका। लेकिन जिन समस्याओं पर कानून नहीं बन पाये थे, उस पर संसद ने व्यवहारिक व सैद्धान्तिक पद्धति से निराकरण किया। निःसन्देह संसद के समक्ष चुनौतियाँ तो आती रही लेकिन संसद ने संविधान की मर्यादा व गरिमा को बनाये रखा और अनेकों जटिल से जटिल अधिनियम पारित किए। इसलिए हम सबकों मिलकर संसदीय प्रणाली की सुरक्षा करनी चाहिए, तभी हमारे राष्ट्र का सम्मान बढे़गा।
सन्दर्भ ग्रन्थ
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सीमा सिंह
शोध छात्रा, राजनीति विज्ञान विभाग,
नेहरू ग्राम भारती डीम्ड विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।