आनन्द कुमार गौतम
शोध छात्र, कला इतिहास विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |
वैदिक साहित्य में जीवनोपयोगी विविध प्रकार की वस्तुओं के संदर्भ प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ तो प्रायः लुप्त प्राय हो चुके हैं और कुछ भारतीय संस्कृति में आज भी हमारे दैनिक जीवन में प्रयुक्त होते हैं जिसका अंकन गुप्तकालीन मृण्मय कला में भी हुआ है। गुप्तकालीन मृण्मयकला में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों के साधनों का प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर निरीक्षण करने पर तत्युगीन समाज के जीवनयापन का परिचय प्राप्त होता है।
गुप्तकालीन मृण्मयकला में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों में सिंहासन, आसन, शय्या, पादआसन, तकिया, गद्दियाँ, पीकदान, दर्पण एवं विविध पात्र उल्लेखनीय हैं; पात्रों में घट या कलश, कमण्डलु, कटोरा या तश्तरी आदि का यहाँ अंकन देखने को मिलता है।
साहित्य में सिंहासन के उल्लेख मिलते हैं। सिंहासन एक साधारण ढांचा होता था, जिसमें वर्गाकार अथवा आयताकार तख्ता लगा रहता था जिसमें चार पावें लगे होते थे जो विविध प्रकार के मनोहारी स्वरूपों में प्रदर्शित किये गये हैं। यदा-कदा मृण्फलकांे में सिंहासन की पीठ दिखायी देती है और ये सिंहासन गद्दीदार प्राप्त हुए हैं।1 रघुवंश2, कादम्बरी3 तथा वृहत्संहिता4 मंे वर्णित है कि सिंहासनों का निर्माण सोने, गजदन्त तथा बहुमूल्य पत्थरों द्वारा होता था। मीरपुरखास (सिंध) से प्राप्त एक मृण्फलक पर मृण्मयसिंहासन का अंकन किया गया है जिसमें पीठाधारमकर एवं सिंह की आकृति उत्कीर्ण की गयी है।5
बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थों मंे रत्नजटित तथा सिंह के पंजों के सदृश्य पावे वाले आसनों का उल्लेख किया है।6 वृहत्संहिता के अनुसार आसनों तथा शय्या का निर्माण विजयसार, स्पन्दन, हरिद्रा, सुरदाल, तिदुकी, शाल, कश्मरी, अन्जन, पद्यक और शिशप्पा आदि लकडि़यों द्वारा होता था।7 यदा-कदा काष्ठ के साथ साथ गजदन्त का भी प्रयोग किया जाता था। गुप्तकालीन मृण्मयकला में एक या दो व्यक्तियों के बैठने योग्य आयताकार एवं वर्गाकार आसन प्राप्त हुये हैं जिनमें कुछ का आधार ठोस तथा कुछ पावे युक्त बनाये गये हैं। व्यक्ति के दाब से इन आसनों के फलक दबे हुये प्रतीत होते हैं जिनसे आभास होता है कि इन आसनों में संभवतः गद्दी भी लगी रही होगी।8 मीरपुरखास (सिंध) से प्राप्त उक्त प्रकार का मृण्मय आसन विशेष उल्लेखनीय है।9
गुप्तकालीन गं्रथों में शय्या के विभिन्न उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिज्ञान शाकुन्तलम में शय्या का अर्थ चारपाई से संदर्भित है।10 वृहत्संहिता में उल्लिखित है कि शय्याओं के चारों कोनों पर संभवतः तराशे हुए पावे लगाये जाते थे जिन्हें शिर, कुम्भ, जंघा, आधार, खुर आदि नामों से भी जाना जाता था।11 शय्या प्रायः चैड़ी और व्यक्ति के बराबर लम्बी होती थी।12 बंगाल के पुरास्थल से प्राप्त हुये एक मृण्फलक पर शय्या का विशेष प्रकार का अंकन है। इसके पावे टेढ़े है जो मुख्यतः मशीन द्वारा बनाये गये प्रतीत होते हैं।13 शय्या के साथ गद्दे14 एवं तकिया का भी अंकन किया गया है।15 उपरोक्त स्थल से मिले एक अन्य मृण्फलक से गुप्तकाल में शय्याओं की प्रयोगविधा पर भी प्रकाश पड़ता है इस मृण्फलक में माया देवी शय्या पर घुटने फैलाकर हाथों को तकिये की भाँति सिर के नीचे लगायी लेटी दिखायी गयीं हैं।16 इस प्रकार की मुद्रा को भरत मुनि के नाट्य शास्त्र मंे ‘प्रसारित मुद्रा‘ से समीकृत किया गया है।17 उक्त स्थलों से प्राप्त हुये कुछ मृण्फलकों में शय्याओं के समीप पीकदान18 दीपदान तथा अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुयें भी आकारित हैं।19 यह उच्चवर्गीय शयनकक्षों में सुसज्जित शय्या का संकेत माना जा सकता है।
पादआसन सामान्यतः पैर के नीचे रखने के काम आता है। गुप्तकालीन मृण्मय कला में पाद आसन का भी अंकन देखने को मिलता है। ये पाद आसन सादे और अलंकृत दोनों प्रकार के प्राप्त हुये हैं। अह्च्छित्र (बरेली) के उत्खन्न से 3.5 इंच परिधि का, 1.5 इंच मोटा एक उत्कृष्ट प्रकार का पादआसन मिला है। इस पादआसन के मुख्य भाग में दानेदार उभार है इस प्रकार का पादआसन आज भी प्रचलन में है।20
तत्कालीन मृण्मयकला में तकिये का अंकन दृष्टव्य होता है। बंगाल के पुरास्थल से प्राप्त हुये एक मृण्फलक मंे चपटी (आयताकार) तकिया प्रदर्शित है। वर्तमान समय में उक्त फलक कुशन के रूप में संदर्भित है।21
गुप्तकालीन मृण्फलकों पर गद्दियों के अंकन भी हुये हैं, जो इस तथ्य के द्योतक हैं कि तत्कालीन समाज में इनका व्यापक रूप से प्रयोग होता रहा होगा। सिंहासन अथवा आसन के फलक एवं पीठिकाओं में भी ये संयुक्त रूप से दृष्टव्य होते थे। इसका उल्लेख उपर्युक्त सिंहासनों के वर्णन में किया गया है। इस काल की मृण्मयकला मंे सामान्य रूप से फर्श पर रखी हुयी गद्दियों पर आकृतियाँ बैठी हुयी प्रदर्शित हैं।22 आकार-प्रकार की दृष्टि से गोल गद्दियों के अलावा अण्डाकार23, आयताकार आदि विभिन्न प्रकार की गद्दियों के अंकन मिलते हैं। ये गद्दियाँ सादी एवं धारीदार, अलंकृत आदि स्वरूपों में अंकित है।24 गुप्तकालीन मृण्मयफलकों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि विवेच्यकाल में गोल आकृति की गद्दियाँ विशेष रूप से पसन्द की जाती थीं। गोल गद्दियों की पहचान ’मसूरक’ से भी गयी है।25 भीतरगाँव (कानपुर)26 एवं राजघाट (वाराणसी) से उक्त प्रकार के अंकन वाले मृण्फलक प्राप्त हुये हैं।27
विवेच्यकालीन मृण्मयकला में पीकदान का भी अंकन हुआ है जो साधारणतया शय्या के नीचे अंकित है। यह आकार-प्रकार की दृष्टि से आधुनिक पीकदान के सदृश्य ही है। ये सामान्यतः चैड़े मुखवाले एवं इनका आधार चैकोर है। उक्त प्रकार के पीकदान बंगाल के पुरास्थल28 से प्राप्त हुये मृण्फलक पर अंकित है जबकि श्रावस्ती एवं भीटा29 के प्राप्त हुये पुरातात्विक अवशेषों में स्वतंत्र पीकदान के उदाहरण भी प्राप्त हुये हैं। गुप्तकालीन मृण्मय कला में अंकित पीकदान पान-चवर्ण के प्रयोग का संकेत करते हैं।
प्रसाधन सामग्री के रूप में दर्पण का महत्व सर्वविदित है। विवेच्यकालीन मृण्मयकला में दर्पण स्त्री आकृतियों के हाथों में अभिव्यक्त है। ये दर्पण सामान्यरूप से चिपटे, गोल30 एवं अण्डाकार रूपों में दिखायी देते हैं।31 इनको पकड़ने के लिए पीछे मुठिया भी लगी हुयी है।32 रंगमहल (राजस्थान) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक में गोलाकार दर्पण प्रदर्शित है जिसमें लम्बी मुठिया लगी हुयी है। कुछ भिन्न प्रकार का दर्पण बादोपाल से भी प्राप्त हुआ है इसमें दर्पण का दण्ड छोटा एवं मोटा है।
विवेच्ययुगीन मृण्मयकला में पात्र, कमण्डलु, घट एवं कलश, कटोरा या तश्तरी आदि का भी अंकन हुआ अंकित है। यह मुख्य रूप से देववर्ग की आकृतियों के साथ-साथ सामान्य जीवन या ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित आकृतियों के साथ प्रदर्शित है।
साहित्यिक विवरणों से ज्ञात होता है कि इस पात्र में सोमरस, दधि, जल एवं आभूषणों33 आदि को भरकर रखा जाता था। पूर्णघट जीवन की उत्पत्ति, समृद्धता आदि का प्रतीक माना जाता है। सार्वभौमिक रूप से इसका प्रयोग घरों, मन्दिरों तथा भव्य इमारतों की सज्जा अथवा अलंकरण के लिए भी होता था।34 रंगमहल (राजस्थान) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक मंे कृष्णदान लीला प्रसंग के अंतर्गत एक गोपी अपने सिर पर पूर्ण घट लिये हुए अंकित है। वह अपने बायें हाथ से घट को पकड़े हुए है तथा घट के मध्य मंे वर्तुलाकार वृत्त के मध्य में कुछ ज्यामितिक अलंकरण भी बना है यह घट वृहदाकार रूप मंे प्रदर्शित है। संम्भवतः गोपी घट में दूध अथवा दधि विक्रय हेतु ले जा रही है (चित्र संख्या-1)।35
अह्च्छित्र (बरेली) से प्राप्त हुयी मकरवाहिनि गंगा एवं कच्छपवाहिनी यमुना की वृहदाकार मृण्मूर्तियों में पपोटे (ढक्कन) युक्त पूर्णघट का अंकन किया गया है। मृण्मूर्ति मंे गंगा अपने बायें हाथ में (चित्र संख्या-2) तथा यमुना अपने दाहिने हाथ में (चित्र संख्या-3) घट लिये खड़ी हैं।36 यह उदाहरण वर्तमान समय मंे राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली मंे संग्रहित हैं।
(चित्र संख्या-2)
(चित्र संख्या-3)
संभवतः घट लिये हुये गंगा-यमुना का अंकन गुप्तकालीन समस्त कला केन्द्रों में हुआ है। गुप्तकाल से ही मंदिरों के द्वार के पाश्र्वों में गंगा-यमुना के अंकन की परम्परा आरंभ हुयी। गंगा का एक विशेष प्रकार का अंकन बर्लिन संग्रहालय मंे संग्रहित है, इस मृण्फलक मंे गंगा मकर पर घुड़सवार की भाँति आरूढ़ हैं इनके हाथ मंे एक लम्बी ग्रीवा वाला पूर्णघट अंकित है जिसमें से वे कमलदल अर्पित करते हुए प्रदर्शित हैं। घट की ग्रीवा के निम्न भाग में सुन्दर कमलदल का अंकन है। मृण्फलक मंे अंकित मकर के दंत व नेत्र काफी सजीव प्रतीत दिख रहे हैं (चित्र संख्या-4)।37
(चित्र संख्या-4)
राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त हुयी एक स्त्री मृण्मूर्ति में वह अपने सिर पर दोनों हाथों से घट लिये हुये प्रदर्शित है। संभवतः वह घट में दूध भरकर विक्रय हेतु जा रही है।38 अहिच्छत्रा (बरेली) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक में शिव चतुर्भुजी दक्षिणामूर्ति स्वरूप मंे अंकित है इनके बायें हाथ में कलशनुमा पात्र का अंकन है जिसमें से संभवतः पौधा या फल निकलता हुआ प्रदर्शित है।
गुप्तकालीन मृण्मयकला में कमण्डलु का भी अंकन देखने को मिलता है
जो मुख्यतया देवआकृतियों के हाथ में ही प्रदर्शित है। रंगमहल (राजस्थान) से मिले एक मृण्फलक में उमा-माहेश्वर अपने अनुचर के साथ अंकित हैं इस मृण्फलक में माहेश्वर त्रिमुखी एवं द्विभुजी स्वरूप मंे हैं इनका दाहिना हाथ वक्ष पर अवस्थित है तथा बायें हाथ में ये कमण्डलु पात्र लिये हुये प्रदर्शित हैं (चित्र संख्या-5)।
(चित्र संख्या-5)
विवेच्ययुगीन मृण्मयकला में कटोरा या तश्तरी का अंकन आकृतियों के हाथों में दृष्टव्य है। निःसंदेह इसका उपयोग गुप्तकाल में विविध प्रकार की वस्तुओं को रखने के लिए किया जाता रहा होगा। भीतरगाँव (कानपुर) से प्राप्त हुए एक मृण्फलक में गणेश से मोदक छिनते हुए कार्तिकेय का अंकन है। मृण्फलक मंे चतुर्भुजी गणेश के बायें ओर के हाथ में मोदक से भरा हुआ कटोरा अंकित है।39
गुप्तकालीन मृण्मयकला मंे दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों का अंकन हुआ जिनसे तत्कालीन समाज में प्रचलित उपादानांे का परिचय मिलता है उनमें से कुछ उपादानों का प्रयोग आज भी भारतीय समाज में किसी न किसी रूप मंे होता रहा है जो कि भारतीय संस्कृति की निरन्तरता का द्योतक है।
संदर्भ सूची:-
1. रघुवंश 6.1; 17.6
2. वहीं 6.6; 17.21; 6.4
3. कादम्बरी पृ0 22
4. वृहत्संहिता 79.2, पृ0 481
5. मुल्कराज आनन्द- भीतरगाँव मार्ग अंक 22, भाग-2, चित्र 15
6. वासुदेव शरण अग्रवाल-कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ0 218
7. वृहत्संहिता 79.2 पृ0 481; 17.19 पृ0 482
8. मुल्कराज आनंद- पू0नि0
9. मोतीचन्द्र- ए स्टडी इन दि टेराकोटा फ्राम मीरपुरखास, प्रिन्स आफ वेल्स म्यूजियम बुलेटिन, अंक 7 चित्र 2ए- 4बी
10. अभिज्ञान शाकुन्तलम् 3.24
11. वृहत्संहिता 79; 29-31
12. एस0एस0 विश्वास- टेराकोटा आर्ट आफ बंगाल, फलक 41, चित्र ए
13. वहीं - पृ0 193 फलक 61, चित्र ए
14. वहीं- फलक 41, चित्र ए
15. वहीं- फलक 61, चित्र ए
16. वहीं
17. भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र मंे लेटने की मुद्राओं के अनेक नाम गिनाए हैं यथा आकंुचित, सम, प्रसारित, विवर्तित, उद्वाहित, नत; देखिये नाट्यशास्त्र, पृ0 240
18. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
19. वहीं
20. वासुदेव शरण अग्रवाल- टेराकोटा फिगरिन्स आॅफ अहिच्छत्रा (बरेली), ए0इ0, अंक 4, पृ0 161 फलक 57, चित्र बी, नं0 261
21. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
22. रामचन्द्र सिंह- भीतरगाँव ब्रिक टेम्पुल- बुले0 म्यू0 एण्ड आर्के0 इन यू0पी0 अंक 8, पृ0 35 चित्र 13
23. वासुदेव शरण अग्रवाल- गुप्त आर्ट, चित्र 1; सतीश चन्द्र काला- भारतीय मृत्तिका कला, चित्र 108
24. पवाया से प्राप्त एक चित्रफलक में अंकित गद्दियों के किनारे धारियांे से अलंकृत है; अग्रवाल, वहीं चित्र 1; राजघाट से भी धारीदार आकृतियों से अलंकृत गद्दी का अत्यन्त रोचक अंकन मिला है, सतीश चन्द्र काला, पू0नि0
25. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा- पृ0 169
26. मुल्कराज आनन्द- पू0नि0
27. सतीश चन्द्र काला- भारतीय मृत्तिका कला, पू0नि0, चित्र 108
28. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
29. आर्कियोंलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया एनवल रिपोर्ट 1910-11, पृ0 21-22
30. उमाकान्त परमानंद साहू, टेराकोटा फ्राम फारमर बीकानेर स्टेट-फलक 24ए, चित्र 14
31. सतीश चन्द्र काला- टेराकोटा कौशाम्बी इन द इलाहाबाद म्यूजियम, चित्र 91
32. उमाकांत परमानंद शाह पू0नि0
33. ऋग्वेद 1/117/12; 9/8/6; 9/60/3; 9/75/3
34. वासुदेव शरण अग्रवाल- पूर्णकलश, पृ0 31
35. जे0सी0 हर्ले- गुप्त स्कल्पचर, पृ0 30, चित्र 127
36. वहीं पृ0 31, चित्र 139
37. एमी0जी0पोस्टर- फ्राम इण्डियन अर्थ 4000 इयर्स आफ टेराकोटा आर्ट, पृ0 165, फलक 103
38. एस0के0श्रीवास्तव- छवि गोल्डेन जुबली वैल्यूम, अक 1, पृ0 377, फलक 579
39. राज्य संग्रहालय लखनऊ, पं0सं0 2026