Wednesday, 31 December 2008

गुप्तकालीन मृण्मय कला में दैनिक उपादानों का अंकन


आनन्द कुमार गौतम
शोध छात्र, कला इतिहास विभाग,
 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |


वैदिक साहित्य में जीवनोपयोगी विविध प्रकार की वस्तुओं के संदर्भ प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ तो प्रायः लुप्त प्राय हो चुके हैं और कुछ भारतीय संस्कृति में आज भी हमारे दैनिक जीवन में प्रयुक्त होते हैं जिसका अंकन गुप्तकालीन मृण्मय कला में भी हुआ है। गुप्तकालीन मृण्मयकला में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों के साधनों का प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर निरीक्षण करने पर तत्युगीन समाज के जीवनयापन का परिचय प्राप्त होता है।
गुप्तकालीन मृण्मयकला में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों में सिंहासन, आसन, शय्या, पादआसन, तकिया, गद्दियाँ, पीकदान, दर्पण एवं विविध पात्र उल्लेखनीय हैं; पात्रों में घट या कलश, कमण्डलु, कटोरा या तश्तरी आदि का यहाँ अंकन देखने को मिलता है।
साहित्य में सिंहासन के उल्लेख मिलते हैं। सिंहासन एक साधारण ढांचा होता था, जिसमें वर्गाकार अथवा आयताकार तख्ता लगा रहता था जिसमें चार पावें लगे होते थे जो विविध प्रकार के मनोहारी स्वरूपों में प्रदर्शित किये गये हैं। यदा-कदा मृण्फलकांे में सिंहासन की पीठ दिखायी देती है और ये सिंहासन गद्दीदार प्राप्त हुए हैं।1 रघुवंश2, कादम्बरी3 तथा वृहत्संहिता4 मंे वर्णित है कि सिंहासनों का निर्माण सोने, गजदन्त तथा बहुमूल्य पत्थरों द्वारा होता था। मीरपुरखास (सिंध) से प्राप्त एक मृण्फलक पर मृण्मयसिंहासन का अंकन किया गया है जिसमें पीठाधारमकर एवं सिंह की आकृति उत्कीर्ण की गयी है।5
बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थों मंे रत्नजटित तथा सिंह के पंजों के सदृश्य पावे वाले आसनों का उल्लेख किया है।6 वृहत्संहिता के अनुसार आसनों तथा शय्या का निर्माण विजयसार, स्पन्दन, हरिद्रा, सुरदाल, तिदुकी, शाल, कश्मरी, अन्जन, पद्यक और शिशप्पा आदि लकडि़यों द्वारा होता था।7 यदा-कदा काष्ठ के साथ साथ गजदन्त का भी प्रयोग किया जाता था। गुप्तकालीन मृण्मयकला में एक या दो व्यक्तियों के बैठने योग्य आयताकार एवं वर्गाकार आसन प्राप्त हुये हैं जिनमें कुछ का आधार ठोस तथा कुछ पावे युक्त बनाये गये हैं। व्यक्ति के दाब से इन आसनों के फलक दबे हुये प्रतीत होते हैं जिनसे आभास होता है कि इन आसनों में संभवतः गद्दी भी लगी रही होगी।8 मीरपुरखास (सिंध) से प्राप्त उक्त प्रकार का मृण्मय आसन विशेष उल्लेखनीय है।9
गुप्तकालीन गं्रथों में शय्या के विभिन्न उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिज्ञान शाकुन्तलम में शय्या का अर्थ चारपाई से संदर्भित है।10 वृहत्संहिता में उल्लिखित है कि शय्याओं के चारों कोनों पर संभवतः तराशे हुए पावे लगाये जाते थे जिन्हें शिर, कुम्भ, जंघा, आधार, खुर आदि नामों से भी जाना जाता था।11 शय्या प्रायः चैड़ी और व्यक्ति के बराबर लम्बी होती थी।12 बंगाल के पुरास्थल से प्राप्त हुये एक मृण्फलक पर शय्या का विशेष प्रकार का अंकन है। इसके पावे टेढ़े है जो मुख्यतः मशीन द्वारा बनाये गये प्रतीत होते हैं।13 शय्या के साथ गद्दे14 एवं तकिया का भी अंकन किया गया है।15 उपरोक्त स्थल से मिले एक अन्य मृण्फलक से गुप्तकाल में शय्याओं की प्रयोगविधा पर भी प्रकाश पड़ता है इस मृण्फलक में माया देवी शय्या पर घुटने फैलाकर हाथों को तकिये की भाँति सिर के नीचे लगायी लेटी दिखायी गयीं हैं।16 इस प्रकार की मुद्रा को भरत मुनि के नाट्य शास्त्र मंे ‘प्रसारित मुद्रा‘ से समीकृत किया गया है।17 उक्त स्थलों से प्राप्त हुये कुछ मृण्फलकों में शय्याओं के समीप पीकदान18 दीपदान तथा अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुयें भी आकारित हैं।19 यह उच्चवर्गीय शयनकक्षों में सुसज्जित शय्या का संकेत माना जा सकता है।
पादआसन सामान्यतः पैर के नीचे रखने के काम आता है। गुप्तकालीन मृण्मय कला में पाद आसन का भी अंकन देखने को मिलता है। ये पाद आसन सादे और अलंकृत दोनों प्रकार के प्राप्त हुये हैं। अह्च्छित्र (बरेली) के उत्खन्न से 3.5 इंच परिधि का, 1.5 इंच मोटा एक उत्कृष्ट प्रकार का पादआसन मिला है। इस पादआसन के मुख्य भाग में दानेदार उभार है इस प्रकार का पादआसन आज भी प्रचलन में है।20
तत्कालीन मृण्मयकला में तकिये का अंकन दृष्टव्य होता है। बंगाल के पुरास्थल से प्राप्त हुये एक मृण्फलक मंे चपटी (आयताकार) तकिया प्रदर्शित है। वर्तमान समय में उक्त फलक कुशन के रूप में संदर्भित है।21
गुप्तकालीन मृण्फलकों पर गद्दियों के अंकन भी हुये हैं, जो इस तथ्य के द्योतक हैं कि तत्कालीन समाज में इनका व्यापक रूप से प्रयोग होता रहा होगा। सिंहासन अथवा आसन के फलक एवं पीठिकाओं में भी ये संयुक्त रूप से दृष्टव्य होते थे। इसका उल्लेख उपर्युक्त सिंहासनों के वर्णन में किया गया है। इस काल की मृण्मयकला मंे सामान्य रूप से फर्श पर रखी हुयी गद्दियों पर आकृतियाँ बैठी हुयी प्रदर्शित हैं।22 आकार-प्रकार की दृष्टि से गोल गद्दियों के अलावा अण्डाकार23, आयताकार आदि विभिन्न प्रकार की गद्दियों के अंकन मिलते हैं। ये गद्दियाँ सादी एवं धारीदार, अलंकृत आदि स्वरूपों में अंकित है।24 गुप्तकालीन मृण्मयफलकों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि विवेच्यकाल में गोल आकृति की गद्दियाँ विशेष रूप से पसन्द की जाती थीं। गोल गद्दियों की पहचान ’मसूरक’ से भी गयी है।25 भीतरगाँव (कानपुर)26 एवं राजघाट (वाराणसी) से उक्त प्रकार के अंकन वाले मृण्फलक प्राप्त हुये हैं।27
विवेच्यकालीन मृण्मयकला में पीकदान का भी अंकन हुआ है जो साधारणतया शय्या के नीचे अंकित है। यह आकार-प्रकार की दृष्टि से आधुनिक पीकदान के सदृश्य ही है। ये सामान्यतः चैड़े मुखवाले एवं इनका आधार चैकोर है। उक्त प्रकार के पीकदान बंगाल के पुरास्थल28 से प्राप्त हुये मृण्फलक पर अंकित है जबकि श्रावस्ती एवं भीटा29 के प्राप्त हुये पुरातात्विक अवशेषों में स्वतंत्र पीकदान के उदाहरण भी प्राप्त हुये हैं। गुप्तकालीन मृण्मय कला में अंकित पीकदान पान-चवर्ण के प्रयोग का संकेत करते हैं।
प्रसाधन सामग्री के रूप में दर्पण का महत्व सर्वविदित है। विवेच्यकालीन मृण्मयकला में दर्पण स्त्री आकृतियों के हाथों में अभिव्यक्त है। ये दर्पण सामान्यरूप से चिपटे, गोल30 एवं अण्डाकार रूपों में दिखायी देते हैं।31 इनको पकड़ने के लिए पीछे मुठिया भी लगी हुयी है।32 रंगमहल (राजस्थान) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक में गोलाकार दर्पण प्रदर्शित है जिसमें लम्बी मुठिया लगी हुयी है। कुछ भिन्न प्रकार का दर्पण बादोपाल से भी प्राप्त हुआ है इसमें दर्पण का दण्ड छोटा एवं मोटा है।
विवेच्ययुगीन मृण्मयकला में पात्र, कमण्डलु, घट एवं कलश, कटोरा या तश्तरी आदि का भी अंकन हुआ अंकित है। यह मुख्य रूप से देववर्ग की आकृतियों के साथ-साथ सामान्य जीवन या ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित आकृतियों के साथ प्रदर्शित है।
साहित्यिक विवरणों से ज्ञात होता है कि इस पात्र में सोमरस, दधि, जल एवं आभूषणों33 आदि को भरकर रखा जाता था। पूर्णघट जीवन की उत्पत्ति, समृद्धता आदि का प्रतीक माना जाता है। सार्वभौमिक रूप से इसका प्रयोग घरों, मन्दिरों तथा भव्य इमारतों की सज्जा अथवा अलंकरण के लिए भी होता था।34 रंगमहल (राजस्थान) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक मंे कृष्णदान लीला प्रसंग के अंतर्गत एक गोपी अपने सिर पर पूर्ण घट लिये हुए अंकित है। वह अपने बायें हाथ से घट को पकड़े हुए है तथा घट के मध्य मंे वर्तुलाकार वृत्त के मध्य में कुछ ज्यामितिक अलंकरण भी बना है यह घट वृहदाकार रूप मंे प्रदर्शित है। संम्भवतः गोपी घट में दूध अथवा दधि विक्रय हेतु ले जा रही है (चित्र संख्या-1)।35




अह्च्छित्र (बरेली) से प्राप्त हुयी मकरवाहिनि गंगा एवं कच्छपवाहिनी यमुना की वृहदाकार मृण्मूर्तियों में पपोटे (ढक्कन) युक्त पूर्णघट का अंकन किया गया है। मृण्मूर्ति मंे गंगा अपने बायें हाथ में (चित्र संख्या-2) तथा यमुना अपने दाहिने हाथ में (चित्र संख्या-3) घट लिये खड़ी  हैं।36 यह उदाहरण वर्तमान समय मंे राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली मंे संग्रहित हैं।                              
           (चित्र संख्या-2)



     (चित्र संख्या-3)




संभवतः घट लिये हुये गंगा-यमुना का अंकन गुप्तकालीन समस्त कला केन्द्रों में हुआ है। गुप्तकाल से ही मंदिरों के द्वार के पाश्र्वों में गंगा-यमुना के अंकन की परम्परा आरंभ हुयी। गंगा का एक विशेष प्रकार का अंकन बर्लिन संग्रहालय मंे संग्रहित है, इस मृण्फलक मंे गंगा मकर पर घुड़सवार की भाँति आरूढ़ हैं इनके हाथ मंे एक लम्बी ग्रीवा वाला पूर्णघट अंकित है जिसमें से वे कमलदल अर्पित करते हुए प्रदर्शित हैं। घट की ग्रीवा के निम्न भाग में सुन्दर कमलदल का अंकन है। मृण्फलक मंे अंकित मकर के दंत व नेत्र काफी सजीव प्रतीत दिख रहे हैं (चित्र संख्या-4)।37


                                                                    (चित्र संख्या-4)

राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त हुयी एक स्त्री मृण्मूर्ति में वह अपने सिर पर दोनों हाथों से घट लिये हुये प्रदर्शित है। संभवतः वह घट में दूध भरकर विक्रय हेतु जा रही है।38 अहिच्छत्रा (बरेली) से प्राप्त हुये एक मृण्फलक में शिव चतुर्भुजी दक्षिणामूर्ति स्वरूप मंे अंकित है इनके बायें हाथ में कलशनुमा पात्र का अंकन है जिसमें से संभवतः पौधा या फल निकलता हुआ प्रदर्शित है।
गुप्तकालीन मृण्मयकला में कमण्डलु का भी अंकन देखने को मिलता है
जो मुख्यतया देवआकृतियों के हाथ में ही प्रदर्शित है। रंगमहल (राजस्थान) से मिले एक मृण्फलक में उमा-माहेश्वर अपने अनुचर के साथ अंकित हैं इस मृण्फलक में माहेश्वर त्रिमुखी एवं द्विभुजी स्वरूप मंे हैं इनका दाहिना हाथ वक्ष पर अवस्थित है तथा बायें हाथ में ये कमण्डलु पात्र लिये हुये प्रदर्शित हैं (चित्र संख्या-5)।

    (चित्र संख्या-5)
                                   
विवेच्ययुगीन मृण्मयकला में कटोरा या तश्तरी का अंकन आकृतियों के हाथों में दृष्टव्य है। निःसंदेह इसका उपयोग गुप्तकाल में विविध प्रकार की वस्तुओं को रखने के लिए किया जाता रहा होगा। भीतरगाँव (कानपुर) से प्राप्त हुए एक मृण्फलक में गणेश से मोदक छिनते हुए कार्तिकेय का अंकन है। मृण्फलक मंे चतुर्भुजी गणेश के बायें ओर के हाथ में मोदक से भरा हुआ कटोरा अंकित है।39
गुप्तकालीन मृण्मयकला मंे दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विविध प्रकार के उपादानों का अंकन हुआ जिनसे तत्कालीन समाज में प्रचलित उपादानांे का परिचय मिलता है उनमें से कुछ उपादानों का प्रयोग आज भी भारतीय समाज में किसी न किसी रूप मंे होता रहा है जो कि भारतीय संस्कृति की निरन्तरता का द्योतक है।


संदर्भ सूची:-

1. रघुवंश 6.1; 17.6
2. वहीं 6.6; 17.21; 6.4
3. कादम्बरी पृ0 22
4. वृहत्संहिता 79.2, पृ0 481
5. मुल्कराज आनन्द- भीतरगाँव मार्ग अंक 22, भाग-2, चित्र 15
6. वासुदेव शरण अग्रवाल-कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ0 218
7. वृहत्संहिता 79.2 पृ0 481; 17.19 पृ0 482
8. मुल्कराज आनंद- पू0नि0
9. मोतीचन्द्र- ए स्टडी इन दि टेराकोटा फ्राम मीरपुरखास, प्रिन्स आफ वेल्स म्यूजियम बुलेटिन, अंक 7   चित्र 2ए- 4बी
10. अभिज्ञान शाकुन्तलम् 3.24
11. वृहत्संहिता 79; 29-31
12. एस0एस0 विश्वास- टेराकोटा आर्ट आफ बंगाल, फलक 41, चित्र ए
13. वहीं - पृ0 193 फलक 61, चित्र ए
14. वहीं- फलक 41, चित्र ए
15. वहीं- फलक 61, चित्र ए
16. वहीं
17. भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र मंे लेटने की मुद्राओं के अनेक नाम गिनाए हैं यथा आकंुचित, सम, प्रसारित, विवर्तित, उद्वाहित, नत; देखिये नाट्यशास्त्र, पृ0 240
18. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
19. वहीं
20. वासुदेव शरण अग्रवाल- टेराकोटा फिगरिन्स आॅफ अहिच्छत्रा (बरेली), ए0इ0, अंक 4, पृ0 161 फलक 57, चित्र बी, नं0 261
21. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
22. रामचन्द्र सिंह- भीतरगाँव ब्रिक टेम्पुल- बुले0 म्यू0 एण्ड आर्के0 इन यू0पी0 अंक 8, पृ0 35 चित्र 13
23. वासुदेव शरण अग्रवाल- गुप्त आर्ट, चित्र 1; सतीश चन्द्र काला- भारतीय मृत्तिका कला, चित्र 108
24. पवाया से प्राप्त एक चित्रफलक में अंकित गद्दियों के किनारे धारियांे से अलंकृत है; अग्रवाल, वहीं चित्र 1; राजघाट से भी धारीदार आकृतियों से अलंकृत गद्दी का अत्यन्त रोचक अंकन मिला है, सतीश चन्द्र काला, पू0नि0
25. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा- पृ0 169
26. मुल्कराज आनन्द- पू0नि0
27. सतीश चन्द्र काला- भारतीय मृत्तिका कला, पू0नि0, चित्र 108
28. एस0एस0 विश्वास- पू0नि0
29. आर्कियोंलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया एनवल रिपोर्ट 1910-11, पृ0 21-22
30. उमाकान्त परमानंद साहू, टेराकोटा फ्राम फारमर बीकानेर स्टेट-फलक 24ए, चित्र 14
31. सतीश चन्द्र काला- टेराकोटा कौशाम्बी इन द इलाहाबाद म्यूजियम, चित्र 91
32. उमाकांत परमानंद शाह पू0नि0
33. ऋग्वेद 1/117/12; 9/8/6; 9/60/3; 9/75/3
34. वासुदेव शरण अग्रवाल- पूर्णकलश, पृ0 31
35. जे0सी0 हर्ले- गुप्त स्कल्पचर, पृ0 30, चित्र 127
36. वहीं पृ0 31, चित्र 139
37. एमी0जी0पोस्टर- फ्राम इण्डियन अर्थ 4000 इयर्स आफ टेराकोटा आर्ट, पृ0 165, फलक 103
38. एस0के0श्रीवास्तव- छवि गोल्डेन जुबली वैल्यूम, अक 1, पृ0 377, फलक 579
39. राज्य संग्रहालय लखनऊ, पं0सं0 2026

Appropriating Epic Theatre: A Study of Habib Tanvir’s Charandas Chor


Shyam Babu
Research Scholar, Dept. of English, 
Banaras Hindu University, Varanasi.


German poet, playwright, social thinker, and theatrical reformer Bertolt Brecht (1896-1956) was one of the highly influential literary figures in 20th century Western Theatre. He is popular for his avant-garde experiment in theatre which is known as ‘epic’ theatre.This new experiment has impressed the theatre practitioners across the world, cutting barriers of nation, culture, language and so on. Indian theatre in many ways was the source to the Brechtian epic technique because its ingredients like sutradhar as nat-nati samvada,narrative (i.e.kathavachaka),and employment of vidushak (clown) and high stylized physical performance etc have been integral part of ‘epic’ theatre but with some variations. And this Brechtian theatre has been by virtue of its co-mingling of narrative into drama and spirit of enquiries instead of emotional involvement in the performance which he has called ‘illusion of reality’, for the better understanding of the society, was much acclaimed and sought after. The paper will develop into two sections. First section illustrates Brechtian concept of ‘Epic’ theatre and the second discusses Charandas Chor respectively.
‘Epic’ Theatre: In his works Brecht is concerned with encouraging audiences/spectators to think rather than becoming too much involved in the story and to identify with the characters. So it appeals less to the spectators’ feelings than to their reason. In this way, the political design of theatre became apparent and the play going experience became a catalyst for individual and collective change. His commitment for social change was Marxist legacy where he firmly sticks to the line of principle of Karl Marx –“philosophers have only interpreted the world, the point, however, is to ‘change it”. This dawn of change was drawn out on the different levels and from heterogeneous ways. Brecht was influenced by many performance traditions including Chinese, Japanese, Indian theatre, the Elizabethan (especially-Shakespeare), Greek tragedy, German drama fair ground entertainment, and Bavarian folk play. He abhorred the Aristotelian theatre  and its attempt to lure the spectators for ‘willing suspension -of –disbelief’ state, a total identification with the hero to the point of complete self-oblivion and resulting in feelings of terror and pity, and ultimately an emotional ‘catharsis’. ‘Brecht criticizes the aesthetic tradition initiated by Aristotle for its preference for dramatic narratives that please but do not instruct or provide real learning about the sources of human suffering. He attacks Aristotelian catharsis as a kind of “opium of masses”, arguing that empathizing with characters prevents viewers from “reflecting critically on the social causes of human suffering” (Curran: 2001:2).He did not want his audiences to be emotional rather he wanted them to think and towards this end, he was determined to destroy the theatrical illusion.
Brecht goes against the Aristotelian concept of epic meaning i.e. he does not follow any rule of consistency or logical coherence which is essential to build the structuration of the Aristotelian plot. Where Aristotle has enunciated: “It should have for its subject a single action, whole and complete, with a beginning, middle, and an end” (Butcher: Poetics: xxiii). Instead of tight knit plot Brecht prefers episodic form of narrative, self contained scene complete in itself. He treated each scene as an independent entity not subordinate to the whole structure of the play. He distinguished between the dramatic and epic spectators. Dramatic and epic theatres have a different construction that were defined by Aristotle, whose laws, says Brecht “were dealt with by two different branches of aesthetics”. The dramatic aesthetic is the strong centralization of the story and momentum that draws the six poetic elements (plot, character, theme, dialogue, rhythm and spectacle) into a common relationship. The epic aesthetic by contrast “can take a pair of scissors and cut it into individual piece, while remain fully capable of life”. For centuries, theatre on the single stage was thought to be dramatic spectacle, while festival and carnival presented on multiple and simultaneous sites, was something done outside the theatre building. However, Brecht’s innovation in staging brought the epic on stage, and revealed that the relationship of dramatic and epic spectator is not a duality but a dialectic: there are dramatic aspect to epic pieces and epic aspect in drama. Epic theatre invites the spectator to take a critical and intelligent role; the actors and the script purposely do not invite empathetic viewing.
Epic theatre assumes “that the audience is a collection of individuals capable of thinking and reasoning, of making judgments even in the theatre, it treats it as individuals of moral and embodied maturity, and believes it wishes to be so regarded” (Short Organum: 1948) In his view Brecht is quite near to Augusto Boal’s concept of spect-actor where audience acts and observe at the same time. Dramatic theatre assumes just the opposite; the audience wants to be passive spectators, a kind of a mob, which must be and can be reached only through its emotions; that it has the mental immaturity and high emotional suggestibility of mob.
For this, Brecht deployed many theatrical devices or paraphernalia that helped promote to get alienation effect or making strange the spectators instead of giving air to empathy that was his recurring motives for theatre. So that, they could not identify the actors with them and would understand life critically and more comprehensively. Among the devices he deployed to offer the idea of alienation are: historification of the text, use of narrative, rendering the text into third person, use of songs that check the flow of the actions, gest (or Gestus), loose plot structure in the form of episode and each complete in itself, special use of set design and lighting effect, highly stylized performance, use of mask and mime, masquerade and dialects and regional folk myth as parable, mixing human and non human elements etc. All together these efforts were made to pull down what he called the fourth wall. Major concept of epic theatre is alienation effect which is being discussed below:
Alienation effect: The corner stone of epic theatre is, Verfremdungs effect variously known as estrangement, disillusionment, making strange or alienation effect but by whatsoever name it may be denoted, its relevance lies as he himself likes to quote the pudding analogy ‘the proof of the pudding is in the eating’. It was to make the spectators adopt an attitude of enquiry and criticism in his approach to incidents shown on the stage’ (Willett:1964:177) He saw Chinese performance and was impressed by its artful act of self- alienation that stop the spectators from losing himself in the characters completely and lent a splendid remoteness to the events (ibid.19). He might have also got simulated from the Russian Formalist Viktor Shlovsky’s concept of ‘making strange’ (priem ostranenniya) and Marx concept of ‘Alienation’ which has a bit different connotation. In its totality ‘verfremdung’ was a weapon in his theatre mission to describe the way in which art ‘by its own means’ could further the great social task of mastering life’ (ibid: 96). Thus, it endeavours making the spectators to think instead of shedding tears on illusion of reality shown on the stage and thus triggers the process of change in society.
Thus, Brechtian concepts of alienation effect, strange making, simultaneous looking at the incidents, pedagogic bent of the story, catering nature of play by topsy-turvy and folk theme and so on, are hall marks of his theatre which are seemingly seen a tool of appropriating epic theatre in the play Charandas Chor. This becomes, indeed explicit when we view Tanvir’s opinion in connection with Brecht: “I respect Brecht very much. He has deeply impressed me. I see many similarities in his German theatre and in our Hindustani theatre. Brecht wrote ‘to establish the new creative principle, we should begin with the necessary task of radical changing because it inherits the probability of reconstruction of the society. In this, we assess the complete interpersonal behaviours and relationship and it is but essential to observe every thing from social angle” (Saapeksh: 2006:34, translation mine.)
Habib Tanvir (b.1924) is an eminent director, actor, playwright, poet and literary personality who began his career as a journalist as early as in fourties, and has been actively associated with Indian People Theatre Association and Progressive Writers Association from its very inception. Though he has widely experimented and learnt form many sources-from Shakespeare to Brecht and from Indian Classical theatre to Parsi theatre, he is world wide known for his tremendous works in folk theatre especially Chhattisgarhi folk culture with rural people of Chhattisgarh. Hence, he writes and performs plays in Chhattisgarhi (a dialect of Hindi which is spoken in the state).His are the many brilliant plays like Agra Bazaar ,Mitti Ki Gadi,  Gao Ka Naam Sasural, Mor Naam Damaad, Dekh Rahe Hai Nain, Hirma Ki Amar Kahani and Charandas Chor which is his major breakthrough in Indian drama after independence.
Tanvir's theatre journey reaches its high water marks with his play Charandas Chor, which has almost become a classic of contemporary Indian theatre repertoire. The play has an interesting background which involves experimentation and improvisation until it reached in the final shape in 1975.Tanvir took up the Vijaydan Detha’s Rajsthani folk tale and gave a mould to it according to his purpose. In Detha’s version, the thief is killed for his vows and the queen’s offer is accepted by the guru who becomes the king thereafter. The playwright, having the consummate artistic sensibility uses this tale not only as a narrative which is bent itself upon contemporary socio-political realities but also as the very structure of the meaning in the text. He does not stick him to the original form of the story but makes the variations and dramatically ends on the highest dramatic point of the thief's prosecution. And thus, with the chorus the play closes with an anti climatic note. The play has been staged across the Western world where it has also received the Fringe First award in 1982 at International Drama Festival in Edinburgh and got much acclaimed over the world. 
Charandas Chor (Charan, the Thief) was first performed in original Chhattisgarhi by Naya theatre (writer’s theatre company) at Kamani Auditorium, New Delhi on 3 May 1975. It simply consists of two acts including ten scenes. It is at the same time exemplar of the satire of an autocratic power and the commendation of a thief's moral uprightness. The episode of the guru and his many shisyas continues through out the first act and which may be understood in the rubric of subplot. The second act is entirely pervaded by the presence of Charandas and his confrontation with leader and officials and ultimately Queen where he meets his death as a punishment because of the preservation of the values and denial of the will of authority. These incidents function as the base of the main plot in play.
Charandas is an ordinary thief but of unique quality. Playwright did not romanticize or produce the protagonist in a conventional style i.e. heroic but rather as ordinary man of lopsided who on account of ‘naivete, ignorance, conservative nature, and old fashioned belief in vows’ meet his final undoing. Though he is scared of death and shows all the fears that a common man has, he is at the same time has caught up in the web of vows, no matter he had taken it non-seriously or inadvertently. In development of the play his oaths are crucial which intensify the story and lead to the denouement of the play. His four simple, paradoxical vows are – (i) he would never eat in a golden platter, (ii) he would not ride the elephant back, (iii) not ever he would be the king, and (iv) lastly he would never marry a queen. Realizing the hypothetical day dreams, his guru took pity to add a new -never to tell a lie.
The curtain rises with the songs of Satanami Panthi (a religious sect) and guru’s eulogy:

"Praise the guru, he one greets
Who alone brings down to us?
The Devine nectar of Truth.
This nectar will redeem us
Brought down from high –
Where pure truth resides –
By our holy guru.”

(Charandas Chor.: 55)

And ends with the same kind of praise of hypocrite guru which is very akin to the invocation of Vakratunda (crippled) Ganesh (who drives all hindrance away and solve the problems) for peaceful performance in Karnad’s play Hayavadana and epic pattern (of India).But still the play is not religious. The setting of the play is a rectangular plate from centre stage about 6’ft deep, 12ft wide, and 9 inches high. The places created by this austere architectural design are used in different ways throughout the production. For the opening scene between police man and the thief, only the fore stage is used. But in the guru dakshina scene, the entire stage comes into the use with guru and his followers sitting on the entire platform and the rest scattered all over the stage.
In an innovative and visually planning method, the plat form on the stage is approached some times in rectilinear fashion (as in guru dakshnina scene) and some times diagonally (as in the temple scene). This creates interesting variations in the spectator’s perception of the stage, which appears psychically altered. Stage props are kept to the minimum. The objects which are actually used in the action are – such as the treasure chest or the idol or the sacks of rice. Change in the locale is suggested almost entirely through changing the grouping and not by any physical rearrangement of the stage. During the early scenes, the stage is quite flexible and informal. But after half of the play, it suddenly takes on a formal and sharply defined quality in order to present the royal treasury, the queen’s court and bed chamber.
The texture of the play lies in the organizing skills of the actors and improvisations. This minimalist stage prop reinforces the sense of the openness that is in the soul of the story. He used simply stage props, like a triangular plat form with just one tree, which was continued till some shows. But finally he deployed only two bamboos, and a little foliage piece, the branch of a tree connecting them. As Tanvir has commented: “Then I got rid of even that, keeping only one bamboo, one branch, and it stayed at that. In other plays also, the bare minimum, absolutely simple” (Katyal: 2004:48). Unhampered by any physical changes in the scene, the action unfolds briskly and grippingly from scene to another action of the folk or mythical tale, until the final episode when its serious import all of a sudden comes into focus.
Thematically this story is full of contradictions and paradoxes. Charndas earns his bread and butter by gulling and robbing people off and flouting the laws and order (as his pious duty). Charandas, the protagonist of the play first comes before us after the opening Satnami song with heavy bundle of clothes on his head .He is caught by the Hawaldar who is in the search of the thief of the golden platter. He escaped away from his clutches by bluffing. Then he came across a peasant who was carrying edible thing tied in a piece of cloth. He also snatches his purse tucked into the waist and hand of his loin cloth and threat him away. Charandas now got a chance to loot a wealthy merchant’s wife and instantly he caught the site with amazement:

Charandas:  Arrey baap rey! What a load of jewellery!    (ibid: 61)

Though he would have taken all the jewels of the woman easily, he took pity on woman and handed over her ornaments.Charandas is the protagonist of the play but does not come from the higher or noble descent family. Above all, he accomplished the task of masquerade or clown from time to time and produces the hilarious comic sense in the play. His double role is meaningful from two fold perspectives. First, as a noble and kind hearted who lives a life of values of human dignity like truth and strives for betterment of the poverty stricken people and secondly as a jest or masquerade who is fraud and deceitful and consequently dies out of his mocking pledges. Hence his portrayal as victimizer and victimized offers the viewers to look on the incident with altogether an objective or detached perspective. And here it paves the way for simultaneity and complex consciousness which ‘epic’ theatre is intended to put forth to spectators. 
In scene 2, we notice guru sitting on the platform spreading his mat. All his disciples including drunkard and gamblers touch his feet. Guru tries his best to solve their problems e. g. smoking, gambling, drinking, and stealing etc, but on the charge of the guru dakshina. According to the sum of the Dakshina, he gives guru mantra for their welfare and happiness .Because without money nothing is possible in the world:

Guru: You’ll have to give guru dakshina.
Smoker: No problem! I’ll just give it to you. Here! (Hands over his gamachha with something knotted in the corner).
Guru: Here is a true disciple! How much is there, beta?
Smoker: A full bundle of twenty –five, guru-ji.
Guru: (undoing the knot). Arrey, what’s this? I thought it was twenty five rupees, but you’ve given me bidis! - - -
Guru:             Look, beta, nothing happens without guru dakshina .It’s a must.
Smoker:         But I don’t have any money, gurudev.
Guru. (Begs): Beta, if nothing else, at least fork out a few coins for a cup of tea. (ibid: 69)
 And ultimately smoker has to pay guru dakshina unintentionally .Then comes Charandas followed by hawaldar (policeman). He tells about his profession. Guru coaxes him to give this job up and take ‘only one’ vow which is not to tell a lie. But Charandas is willing to take four pledges (analogous to four Arya Satya as has been stated in Buddhism) that is mentioned above. And guru from his behalf adds a new –not to tell a lie.        
 But he is also a man of commitment and principles. His strong sense of social justice and humanly and sympathetic treatment with the impoverished and the poor, makes him no less than a social reformer, to some extent virtuous man. That's why the chorus announces "Charandas is not a thief, no way?”(ibid: 84). 
Stealing for him is a sacred duty. It has become as essential as the breathing itself for Charandas. On asking about his promises and stealing (the things), two contrary things by the queen, he gives breathe taking answer: “but it is my dharma! How can I give up my dharma? (101.)
On other question and his oaths which astonished to Rani and seemed absurd, he speaks frankly so as to expose the hidden theft and deep corruption prevalent in the ruling mechanism and governmental institutions:

Charandas:  Good or bad, every one steals rani-sahib.
Queen       :  What do you mean?
Charandas:  Others steal on the sly, while I do it in broad day light, with great fanfare. That‘s the only difference. (ibid: 99) 

 The wretched condition of the poor is deteriorating .The peasants are compelled to starve and die .However, landlord has so much who did not bother about the poverty of the his   Ploughmen. Instead, he is interested in seeking the way to spend on like merrymaking and feeding the animals like horse. The irony that is visible in the conversation between landlord and peasant is pathetic and shocking:

Peasant: My children have not eaten for three days. They’re half-dead of starvation. If you could spare a kilo or so of rice, it would save them, malik…
Landlord: Am I under obligation it save everyone’s sons and daughters?
Peasant: By the grace of god, you have so much, malik! I’ll repay every bit as soon as I can .Save my children!
Landlord : Just because I have plenty, doesn’t mean I start giving it all away to the likes of you! (ibid: 80)
 And so, the entire thread of the play has been woven into the fabric of socio-political ideology.
Charandas’s effort is also to bring in the limelight the irregularities of the beurocrats of the kingdom of rani. In the case of gold coins theft, he confessed his guilt of stealing the coins and hence enforced the high officials to investigate impartially and exclusively in the matters. And thus, helps puncture the false system of ruling class and their hierarchy with utmost frankness. The playwright employs many elements like chorus, which renders commentary through songs; stage is devoid of all sets, minimal props are used and panthi tunes of satnami religious sects are incorporated. Again this "complex consciousness” principle presents a complex and dialectical process of things in such a way that its underside also becomes visible. This is explicit in the three representations which run simultaneously. Firstly, the Guru Dakshina scene where there is mass gathering but to serve only their own grinds by hooks or by crooks .There is almost a lack of discipline and understanding between ‘guru’ and ‘shishya’ (the traditional concept of Ashrama Parampara in the Hindu religion). The guru ashram has turned into a safe place for drunkards, gamblers and thieves and many of the like.
The second stance is quite visible in the Arti scene where everything is religious except the faith in the deity. Police man and thief’s coming in and out of the crowd throughout the "arti' undermines the religiosity and invokes us to think over with critical distance. Is there any religious sanctity in the prayer? This spirit of enquiry reaches to its climax when the prayer celebration ends away with the stealing of idol itself.
The third stance, which is also the end point of the play, is Charandas’s prosecution. . He was a life long thief but became a canonized saint after death. His Samadhi is to be erected and floral tribute is to be offered. However, clearly speaking, we are persistently made alert to the contexts of the play as a whole. We are familiar with the process of getting sainthood of a man from the troublesome thief over all the enactment of the performance.
The play appears out and out hilarious because of Charandas’ actions are intimated as masquerade or gest till the end of the story. And suddenly death strikes Charandas. We are left speechless and spectators are suspended and emotionally disturbed. There is a total silence in the last due to the prosecution of him-a strange silence. Tanvir has spoken at length on the experience of performanve in the interview “People got up thinking, when the next line will come? Disturbed. The restive, Delhi audience was moved. And then, before going out they stopped, turned and then stood for several minutes, watching from the door, uncomfortably” (Katyal: 2004:43).Thus Brechtian theatre is revisited in the play .And this is how spectators are enforced to think over the story coolly and a sense of dissatisfaction is aroused in them instead of providing a ready made resolution so that they can draw out their own conclusion accordingly.
Charandas Chor is also premised on the principles of carnivalesque and reversal, the principle of a world upside down where hierarchies are blurred. This reversal of hierarchies particularly on moral and ethical levels that of truthfulness, honesty, integrity, ethical values and even profession efficiency are shown to belong exclusively to a thief.
Thus, the play is steeped in comic irony and incites us for ‘complex seeing’. The way in which Charandas is confronted with the choices that oblige him to keep up the pledges that he had mockingly taken; the very co-existence of honesty and sincerity in a thief; the guru’s acceptance of stolen goods as ‘guru dakshina’, narrative pattern of the play, religious songs which punctuate the flow of the action, minimal props and bare stage manager - these are the elements which contribute towards the illusion of reality, the idea that leads to what Brecht has called ‘A (alienation) effect’.

References:

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Ø   Wright, Elizabeth.1989. Postmodern Brecht: A Re-Presentation. London &New York, Rutledge.

मिर्जापुर परिक्षेत्र की प्रागैतिहासिक चित्रकला


शाम्भवी शुक्ल 
शोध-छात्रा, प्रा0 इति0, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग,
इ0वि0वि0, इलाहाबाद |



मानव जब अपने हृदय की भावना से अथवा स्वाभाविक आनन्द से प्रेरित होकर अपने हृदयगत भावों को प्रकट करना चाहता है, तभी मानव कला का आश्रय लेता है। कला की उत्पत्ति, अन्तःप्रेरणा एवं आनन्द से है जिसका वाह्य रूप सौन्दर्य है। अतः कलाकार सौन्दर्योत्पादक होते हैं। जब आत्मा आनन्द विभोर होकर अपने को छान्दोमय और लीन कर लेता है- छान्दोमयमात्मानं कुरूते (ऐतरेय ब्राह्मण), तब अपने आनन्द को बाहर भी प्रकट करना चाहता है, तभी कला की उत्पत्ति होती है। कला के अन्तर्गत मनुष्य विकास कर चित्रकला के विकास को भी परिलक्षित करता है। ‘बृहस्पति संहिता’ की टीका में ‘चित्रकारदयः’ लिखकर यह अभिप्राय स्पष्ट कर दिया गया है कि शिल्पियों के वर्ग में चित्रकार भी सम्मिलित किये जाते थे। ‘गर्गसंहिता’ में भी शिल्पी शब्द का कदाचित् यही अभिप्राय ग्रहण किया गया है।
भारतीय शैलकला का प्रणयन एक विस्तृत कालावधि तक होता रहा। प्रत्येक चित्रित भित्ति, चित्रांकन के चित्रण का प्रतिफल है। चित्रण का उद्देश्य विषय वस्तु तथा चित्रण पद्धति समय के साथ बदलती रही है, किन्तु सभी कालों में कैनवास अगठित शैल भित्ति ही रही। चित्रण-पद्धति के रंगों को बनाने की क्रिया भी लगभग समान रही, चित्रकारों ने भी अपनी वर्ण सामग्री अपने वातावरण से ही ग्रहण की थी। शैलचित्र कला वास्तव में प्रत्ययात्मक (कान्सेप्चुअल) है। ये आश्चर्यपूर्ण बात है कि निर्जीव प्रकृति की चित्रकारी कलाकारों को आकर्षित नहीं करती थी, बल्कि उस समय के कलाकार मानव जाति से सम्बन्धित क्रियाकलाप को अपने कलाकृतियों में प्रदर्शित करते थे।
चित्रांकन प्रायः बालुकाश्यों में से निर्मित शैलाश्रयों में तथा उत्कीर्णन प्रायः ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित शैलाश्रय में मिलते हैं। विन्ध्य, सतपुड़ा तथा अरावली की बालुकाश्य उपत्काओं में सबसे अधिक चित्रित शैलाश्रय मिलते हैं। मध्यवर्ती विन्ध्यक्षेत्र में राजस्थान की चंबल घाटी तथा मध्य प्रदेश के शिवपुरी, नरसिंहगढ़ सागर आदि आते हैं तथा उ0 विन्ध्यक्षेत्र में उत्तर प्रदेश का अविभाजित मिर्जापुर, भीमबेठका, वाराणसी के कुछ भाग, दक्षिण इलाहाबाद के क्षेत्र, सतना, रीवा आदि आते हंैं।
मिर्जापुर- डाॅ0 राधाकान्त वर्मा’ ने अपने शोधग्रन्थ के 9 वें अध्याय में मिर्जापुर क्षेत्र में स्थित स्थलों को जिन तीन (उपक्षेत्रों। में विभाजित किया उनकी स्थिति इस प्रकार है-
अ. भैसोर क्षेत्र- 1. सहबइया (मोरहना पहाड़) 2. बेदिका 3. लइबेदिया 4. बागा 5. बघईखोर 6. मोरचहवा 7. खडत्री पथरी 8. मन्नीबाला 9. लिखनिया
ब. राजपुर क्षेत्र- 1. पंचमुखी 2. कंडाकोट 3. चनमनवा 4. लिखनिया
स. अरौरा क्षेत्र- 1. लिखनिया 2. कोहबर 3. भण्डारिया 4. महड़रिया 5. विजयगढ़ 6. थरपथरा
मिर्जापुर की भूमि सुंदर एवं स्पष्ट रूप से उच्छृंखल लहरों (धाराओं), पर्वत, श्रेणियों, जंगलों के झुरमुट और हरी-भरी घाटियों से भरा है। डाॅ0 राधाकान्त वर्मा इस जिले की टेढ़ी-मेढ़ी आकृति के कारण इसे अफ्रीका जैसे पैमाने से समीकृत करते हैं। यह नगर विन्ध्य गिरि के उत्तर तथा गंगा के दक्षिण तट पर 15 वर्ग मील के क्षेत्र में अवस्थित है। यह अक्षांश 0.250520 से 250320 उत्तर तथा देशान्तर 82070 से 830390 पूर्व में मध्यस्थित है। यह नगर गंगा के किनारे इलाहाबाद से 55 मील पूर्व तथा वाराणसी से 46 मील पश्चिम में दक्षिणांचल मार्ग की एक शाखा पर स्थित है। इस क्षेत्र के पश्चिमी अंश, अगोरी, राजपुर चोपन, विजयगढ़ का क्षेत्र प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की खान है। पूरब करमनासा तट तक कैमूर के आंचल में एक दर्जन स्थान अवश्य है, जहाँ पाषाण आद्य धातुयुगीन शैलचित्रों की खोज की जा चुकी है। मिर्जापुर जिले के एक ओर सोन नदी के कांठे से लगा कैमूर का पठार है। पठार से लगी विन्ध्य पहाडि़याँ हंै, जो कि खोह, दर्रा और घाटियों से भरी है। अधिकतर गुहाचित्र सोन तथा बेलन की घाटी और नालों झरनों से संबंधित पहाडि़यों और गुफाओं में बने हैं।



चित्र संख्या-1




 मिर्जापुर क्षेत्र में 105 से अधिक शिलाश्रय तथा गुफाएँ प्राप्त हुई है, जिसमें गुहावासी मानव की चित्रकला का प्रमाण है। ये प्रायः पहाडि़यों के ऊपर, उनकी ढाल की तरफ घाटी को देखते हुए, नदियों, नालों तथा लघु नदियों के किनारों पर मिलते हैं। इनके आकार में विविधता दृष्टिगोचर होती है। कैमूर की पहाडि़यों को स्थानीय लोग सामान्यतः ‘कैमोर’ कहते हैं। गुफा की भीतरी छत और भित्तियों पर अंकित विविध प्रकार के आखेट दृश्यों , पशु-चित्रों तथा नर्तन-वादन आदि के आलेखनों से उन आदिम निवासियों की कला प्रियता और सौन्दर्यबोध का परिचय मिलता है। ये चित्रण-शैलाश्रयों के दीवारों व छतों पर किया गया है। कभी-कभी चित्र खुले में ऊँचे प्रस्तर पटल पर भी मिलते हैं। चित्र संयोजित रूप में नहीं बनाये गये हैं।
प्राकृतिक आपदा तथा विभिन्न प्रकोपों को झेलते हुए हजारों वर्षों से ये शिलाश्रयी चित्र जिनमें कि आदिमानव के जीवन सम्बन्धी विचारों, विश्वासों व क्रिया-कलापों का जीवन्त आरेखन हुआ है, ये अचानक ही प्रकाश में नहीं आये। स्पेन, फ्राँस के प्रागैतिहासिक चित्र जब प्रकाश में आए तब से लगभग एक दशक के पश्चात् भारत में भी शिलाचित्र चर्चा का विषय बन गया। इन शैलाश्रयी चित्रों की खोज का श्रेय सर्वप्रथम कार्लाइल और काकबर्न को जाता है। विन्ध्य क्षेत्र में स्थित मिर्जापुर के निकटवर्ती कैमूर की पहाडि़यों के गुहा चित्रों का परिचय आर्चिवाल्ड कार्लाइल को सन् 1880 ई0 में मिला। वे इसकी सूचना ही दे पाये थे, जबकि इसी समय काकबर्न ने इन चित्रों को देखा, इसका सचित्र विवरण ‘एशियाटिक सोसायटी आॅफ बंगाल (1883 ई0 की पत्रिका में प्रकाशित है। इस लेख के साथ ‘घोड़मगर’ नामक शिलाश्रय से प्राप्त गैंडे का आखेट दृश्य की रेखानुकृति भी प्रकाशित हुआ। ‘केव ड्रांइग्स इन दी कैमूर रेंज, नार्थवेस्ट प्रार्विंसेंज (1899)’ में प्रकाशित काकबर्न महोदय का सचित्र लेख है, जिसमें भल्डारियां लोहरी और लिखनिया के चित्रों की अनुकृतियां भी दी गयी हैं। इन्होंने इन चित्रों को प्राचीन माना तथा कैमूर क्षेत्र के शिलाश्रयों जो कि दक्षिणी श्रेणी (सोन नदी के किनारे) में स्थित था, श्रेष्ठ बताया गया। उन्होंने अपने लेख में बांदा जिले के मर्कडी और मझावन, इलाहाबाद के खैरागढ़ परगना, मिर्जापुर, चुनार, पभोसा और चित्रकूट आदि का भी उल्लेख किया गया है।
‘इम्पीरियल गजेटियर’ (1909) के अंक में कैमूर क्षेत्र के शैलचित्रों की पुनः समीक्षा की गयी। उन्हें नवपाषाण काल का बताया गया और 3,000 वर्ष से अधिक प्राचीन अनुमानित किया गया। डी0एल0 ड्रेक द्वारा प्रस्तुत मिर्जापुर के 1911 ई0 के गजेटियर में पांचवें अध्याय के अन्तर्गत इतिहास का परिचय देते हुए वहाँ के चित्रमय गुफाओं को सर्वप्राचीन मानव निवास स्थल बताया गया है। इसके पश्चात् मिर्जापुर के प्रागैतिहासिक शैलचित्रों को नये क्षेत्र का पता रायसाहब श्री मनोरंजन घोष ने लगाया, उन्होंने लिखनिया (छातु ग्राम के समीप) से अपना सर्वेक्षण प्रारम्भ किया। एक प्रमुख बात यह थी कि इनके सर्वेक्षण वाले क्षेत्रों में काकबर्न वाला क्षेत्र सम्मिलित नहीं था।
गार्डन का प्रभुत्व 1880-1932 ई0 के बीच प्रथम स्तर पर रहा, इस काल में उन्होंने मिर्जापुर तथा बांदा पर कार्य किया। इसके बाद गार्डन ने 1935 ई0 में अपने कार्य के द्वितीय स्तर की शुरूआत की जो निरंतर 10 वर्षों तक चलता रहा। इस समय उन्होंने प्रथम स्तर के क्षेत्रों के साथ-साथ पंचमढ़ी और आस-पास के क्षेत्रों का भी भ्रमण किया। यहाँ से सम्बंधित शिलाचित्रों के विषय में गार्डन ने विदेशों में भी प्रकाशन कराया।
प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष प्रो0 जी0 आर0 शर्मा द्वारा की गयी रौंप, लिखनिया, कंडाकोड तथा बसौली की शोधयात्रा का सचित्र विवरण भी प्रकाशित है। सन् 1880 ई0 में इस प्रदेश की यात्रा करके कैमूर की पहाडि़यों के चित्रों से सम्बंधित जो लेख काकबर्न ने प्रकाशित किया था, इसी को ध्यान में रखते हुए शर्मा जी ने इस क्षेत्र का निरीक्षण किया तथा नवीन चित्रित शिलाश्रयों के अतिरिक्त पुरातन अस्थियाँ और लघु पाषाणास्त्र भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराया। ‘आजकल’ के जून (1958 ई0) के अंक में  ‘भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकलाः एक परिचय’ शीर्षक से प्रस्तुत जगदीश गुप्त का एक लेख प्रकाशित हुआ जिनमें मिर्जापुर नामक सुप्रसिद्ध स्थान से प्राप्त शिलांकित चित्रों का सचित्र विवरण प्रथम बार प्रकाश में आया। ‘सम्मेलन पत्रिका’ के कला विशेषांक (सन् 1958 ई0) में भारत के ‘कला मंडप’ शीर्षक से जो सूचनाएँ दी गयी है, उसमें मिर्जापुर क्षेत्र के अंतर्गत सहबइयापथरी, मोरहनापथरी, बागापथरी, लकहरपथरी नामक पहाडि़यों का उल्लेख मिलता है, जिन पर लगभग सौ कला-मण्डल प्रागैतिहासिक काल के चिह्नित हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डाॅ0 राधाकान्त वर्मा ने पहली बार मिर्जापुर क्षेत्र के प्रागैतिहासिक चित्रों का पाषाणयुगीन संस्कृतियों पर क्या प्रभाव पड़ा, उक्त सन्दर्भ को अपने शोध प्रबन्ध में सचित्र दर्शाया है। इसके बाद डा0 जगदीश गुप्त ने स्वयं यहाँ के स्थानों का सर्वेक्षण कर सन् 1967 में अपनी पुस्तक ‘प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला’ में मिर्जापुर के शैलचित्रों का सम्पूर्ण विवरण दिया। तत्पश्चात् उत्तर प्रदेश के पुरातत्व द्वारा मिर्जापुर के सर्वेक्षण में जो शिलाश्रय पाये गये उनमें ढोलकिया पहाड़, जटवा, चिरहिया और सामदेवी आदि का पहाड़ जो कि अहरौरा क्षेत्र में मुख्य है। इन क्षेत्रों में जो चित्र पाये गये उनमें दौड़ते हुए जानवर पशु-पक्ष़्ाी, सूर्य चतुर्भुजाकार टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं। ये चित्र लाल रंग से चित्रित किये गये हैं। ए0 एच. बाड्रिक की ‘प्रीहिस्टाॅरिक पेण्टिंग’ (जो कि 1958 ई0 में प्रकाशित) में मिर्जापुर के घायल सुअर को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा मिली है।




चित्र संख्या-2   



राधाकान्त वर्मा महोदय ने मिर्जापुर के पाषाण युगीन संस्कृतियों पर प्रस्तुत अपने शोध-प्रबन्ध में शिलाश्रय के चित्रों की स्थिति पर विचार व्यक्त किया है। पूर्व ज्ञात राजपुर और अहरौरा क्षेत्रों के अतिरिक्त उन्होंने नवोपलब्ध भैंसोर क्षेत्र को क्रमशः चार, छः और नौ वर्गों में विभाजित करके प्रथम बार व्यवस्थित एवं सचित्र परिचय दिया। उन्होंने इलाहाबाद विकास क्षेत्र के विषय में वर्णन किया। उनके अनुसार वहाँ के कला के निर्माता (आक्षेटक-संग्रहक वर्गद्ध प्रायः उन्हीं पशुओं का चित्रण करते थे, जो कि भोज्य थे, जिनमें से हिरण उनका प्रिय पशु था, जिसके बाद गैंडे का स्थान आता था। गाय, भैंस का चित्रण, हाथी का राजसी रूप तथा जंगली सुअर को झुण्ड में प्रदर्शित किया है। रौंप शिलाश्रय समूह के एक शिलाश्रय में एक्स-रे शैली में निर्मित एक घोड़ा पहचाना गया है। उन्होनें चित्रण प्रक्रिया को एक विकासात्मक क्रम में विभाजित किया, जो निम्न है- 
1. प्राकृतिक 2. भाषात्मक 3. सांकेतिक 
परन्तु इन चित्रों में दिन-प्रतिदिन की क्रिया -कलापों से सम्बंधित दृश्यों का चित्रण नहीं मिलता और न ही स्त्री-पुरूष की आकृतियों में विभेद ही किया गया है। इन सभी चित्रों को एस0 के0 पाण्डेय ने पाँच भागों में बाँटा जो कि निम्न है- 1. प्राकृतिक 2. साहित्यिक 3. आकारिक  4. लौकिक 5. ग्रहणीय 
इनके अनुसार चित्रण क्रिया का प्रारम्भ उच्च पाषाण काल के समय में हुआ है। वी0एन0 मिश्रा तथा मठपाल महोदय ने सम्पूर्ण चित्रकला के निर्माण काल को विभाजित कर नौ कालखण्डों में रखा जिनमें प्रथम पाँच प्रागैतिहासिक काल, छठें को संक्रमण काल तथा ताम्र पाषाण युगीन एवं अन्त के तीन को ऐतिहासिक काल में स्थान प्रदान किया। ककड़कर ने अपना मत व्यक्त करते हुए निर्माण काल को पाँच कालों में बाँटा तथा इन्हें 20 शैलियों में रखा, जिनमें से प्रथम 6 शैलियों को मध्य पाषाणकाल 2,500 ई0पू0 की कालावधि में स्थान प्रदान किया। 
उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र के शिलाश्रयों को सर्वप्रथम उच्चपूर्व पाषाण काल तथा मध्य पाषाण काल (संक्रमण काल)के लोगों ने अपना आवास बनाया, जिससे ये अनुमान किया जा सकता है, कि इन्हीं लोगों ने यहाँ के चित्रों का निर्माण किया होगा। अतः सम्भव है, कि मध्य पाषाणकाल की तिथि ही शैलचित्रों की तिथि होगी। यदि कार्बन तिथियों की ओर दृष्टिपात करें, तो उस आधार पर संक्रमण काल को 14,000-13,000 ई0 पू0 से 10,000-9,000 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में तथा मध्य पाषाणकाल को 12,000-11,000 ई0 पू0 से 2,000-1,500 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में रख सकते है। 
काकबर्न को सर्वपथम रौंप नामक जगह में गैंडे का चित्र देखने को मिला। तत्पश्चात् विजयगढ़ के समीपवर्ती इसी भू-भाग के शिलाश्रयों में गैंडे के अनेक चित्र दिखायी दिये। परन्तु उन्होनंें जिस गैंडे का दृश्य प्रकाशित किया वह विजयगढ़ से दूर घाड़मगर का है। इस दृश्य में गैंडे ने एक शिकारी को अपनी सींग से आगे की ओर उछाल दिया है तथा अन्य शिकारी समूह प्रस्तर युगीन भाले से गैंडे पर प्रहार कर रहे हैं। ये गैरिक वर्णी प्रभावशाली चित्र है। 


चित्र संख्या-3    



काकबर्न ने लिखनिया-2 के विवरण को प्रधानता प्रदान किया है। इसके बायीं ओर कंडाकोट और सोरहोघाट के शिलाश्रय प्राप्त होते है, जो कि राबर्टसगंज से चार मील दूर है। पास में ‘ढोकवा महारानी’ नामक से विख्यात शिलाएँ है, जिनमें ‘पे्रतभय के दृश्य’ के साथ-साथ ‘साही के आखेट’ दृश्य मिलता है। गरई और भल्डारिया नदी के संगम पर स्थित छातु ग्राम से प्राप्त आखेट दृश्य पर काकबर्न महोदय का हस्ताक्षर अंकित है। सम्भवतः इस स्थान की पहली खोज इन्हीं के द्वारा की गयी है। यह आखेट दृश्य शिलाचित्रों में सबसे पुरातन स्थान बनाए हुए है, यह दृश्य हाथी के आखेट का है। कंडाकोट पहाड़ के समीप लिखनिया नामक गुफा के दायीं ओर गहरे गेरूए रंग में ‘सांभर का आखेट’ मिलता है। इसकी खोज भी काकबर्न महोदय ने ही किया तथा सन् 1899 में ‘जे0 आर0 ए0 एस0’ में प्रकाशित किया। उन्होनें यहाँ के काँटेदार भाले के चित्रण शैली की तुलना आस्ट्रेलिया के आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त शैली से की है। 




चित्र संख्या-4 



डा0 जगदीश गुप्त ने मिर्जापुर के सम्भवतः समस्त क्षेत्र से प्राप्त विभिन्न प्रकार के आखेट चित्र का वर्णन अत्यन्त ही सुगठित रूप में किया है। इन्होनें मुख्यतया क्षेत्र परिचय से लेकर रंग योजना के साथ- साथ भौगोलिक परिचय को भी बताने का प्रयास किया है। इन्होनें चित्रों की स्वाभाविकता को ध्यान में रखते हुए चित्रों का वर्णन अत्यन्त ही मनोहारी रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया। पहली बार यहाँ पशुपालन की अवस्था के पूर्व युग की मनः स्थिति की परिकल्पना की। हालाँकि पक्षियों के चित्रों का अभाव मिलता है। परन्तु कुछ स्थानों पर पक्षी भी अंकित पाये गये है, जैसे-लिखनिया-1 में गहरी लाल रंग की रेखाओं से अंकित एक मयूराकृति जो कि ज्यामितीय कलात्मक विन्यास के साथ संपुजित किया गया है। इसी के साथ-साथ कोहबर नामक स्थान से प्राप्त सशक्त लाल रेखाओं में एक मयूराकृति की अद्वितीय चित्र है। चित्रों में मानव आकृतियाँ अधिकतर समूह में आखेट को जाते हुए या करते हुए दृष्टव्य है अथवा अकेले किसी पशु का सामना कर रहे हैं। कहीं-कहीं मनोरंजन के दृश्य तथा कहीं-कहीं नृत्य वादन की अवस्था में दिखते हैं। अधिकतर चित्र असम्बद्ध प्रतीत होते हैं। रौंप से प्राप्त एक शिलाश्रय में अचित्र स्त्री की लगती है परन्तु रेखाएँ अस्पष्ट होने से उसका केवल आभास मात्र ही हो पाता है। 
आखेट, नृत्य-वादन, युद्ध अश्वारोही आदि के अतिरिक्त आदिम मानवों में धर्म एवं उपासना के भी भाव परिलक्षित होते हैं। ‘स्वास्तिक’ का प्रमाण हमें पंचमढ़ी क्षेत्र के बनियाबेरी नामक गुफा से मिलता है। लिखनिया-2 की गुफा के एक चि़त्र में एक अद्भुत देवाकृति की परिकल्पना दिखती है। इसके प्रतीकात्मक रूप  को देखकर देवत्व का आभास होता है। इसी क्रम में अन्य स्थल कंडाकोट पहाड़ के पास बसौली ग्राम के निकट स्थित ‘ढ़ोकवा महारानी’ में विचित्र एवं रहस्यमयी भाव की एक आकृति है, जिसके पैर उल्टी दिशा में अंकित है तथा हाथ वरद मुद्रा में अंकित  है। रौंप नामक स्थान पर हमें चैक पूरने की अनुकृतियाँ मिलती है। इसी स्थान पर कई ज्यामितीय प्रतीक चिह्न प्राप्त होते हैं, जिन्हें वृत्तों तथा आयत की सहायता से बनाया गया है। इस समय के कलाकार की रेखाओं में जादुई भावनाओं के समस्त गुण विद्यमान थे। इनके अंकनों में एक अन्य गुण स्वाभाविकता से प्रतीकात्मकता की ओर गमन भी दृष्टिगोचर होता है। इन्हें धूप-छाँव का अनुभव था, क्योंकि जानवरों के आकार विशेष को काले या लाल रंगों द्वारा इसके प्रभाव को दिखाने का प्रयत्न किया गया।


चित्र संख्या-5   

चित्रण प्रायः गेरू तथा लोहे के अन्य भस्मों से किया जाता था, जो पीले, भूरे, नारंगी तथा लाल रंगों में नोडूल अथवा छर्रियों के रूप में मिलते हैं। काले के लिए मैगनीज आक्साइड तथा सफेद के लिए काउलिन (एक प्रकार का चूना पत्थर) अथवा चल्सिडनी प्रयोग में लाते थे। गहरे हरे रंग के लिए ताँबे का मिश्रण प्रयोग करते थे। जानवरों के पुट्ठों की हड्डियों का प्रयोग वह सम्भवतः प्लेट या तश्तरी के रूप में करते थे। आकृतियों की सीमारेखा को अधिकांश नुकीले पत्थर से खोदकर बनाया गया है, जिससे उनका स्थायित्व बना रहे। रंगने के लिए जिस तूलिका का प्रयोग करते थे, उसे रेशेदार लकड़ी, बाँस या नरकुल आदि के सिरे को कूटकर बनाते थे। 
ये शिलाचित्र विषय शैली तथा सामग्री की दृष्टि से उस समय के मानव जीवन के प्रतीक हे, अर्थात् इनके विषय मुख्यतः जानवर, उनका आखेट करते हुए मनुष्य, आपस में युद्ध करते हुए मनुष्य एवं पूजनीय आकृतियाँ है। इनकी शैली आदिम है। इनकी सामग्री घातु (खनिज रंग मुख्यतः गेरू, हिरौंजी आदि) हैं, तथा इनके स्थान उक्त गुहागृह एवं खुली चट्टानें हैं। अस्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक चित्रकला कृतियाँ तत्कालीन मानव जीवन की जीवन्त कहानी है, जिनके सूक्ष्म अवलोकन से उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा प्रकृति शक्तियों के प्रति उनके विश्वासों का आकलन तथा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। 

संदर्भ-ग्रन्थ
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2. वाकणकर, वी0एस0-भारतीय प्रागैतिहसिक चित्रकला धर्मयुग, 14 जून 1959 ई0
3. वर्मा, आर0 के0-1. भारतीय प्रागैतिहास परम् ज्योति प्रकाशन, इला0 1977 ई0  2. स्टोन एज कल्चर्स आॅफ मिर्जापुर (अनपब्लिस्ड थिसिस) 1965 ई0 3. द मीसोलिथिक एज इन मिर्जापुर, इला0 1985 इ्र0 
4. आयंगर, श्रीनिवासन पी0टी0-द स्टोन एज इन इण्डिया 
5. ब्राउन, पर्सी- इण्डियन पेण्टिंगग्स, 1953
6. ड्रे, डी0 एल0- इम्पीरियल गजेटियर आॅफ मिर्जापुर डिस्ट्रिक, 1911 ई0 
7. गुप्ता, जे0 पी0-भारतीय कला के पदचिह्न
8. पाण्डेय, एस0 के0- इण्डियन राॅक आर्ट आर्यन बुक, नई दिल्ली 1993
9. दास, रामकृष्ण-भारत की चित्रकला, इला0 1972
10. शर्मा, नन्दिता-विन्ध्य क्षेत्र की लोक चित्रकला, किताबघर, दरियागंज, नई दिल्ली 
11. गार्डन, डी0 एच0-इण्डियन केव पेण्टिंग्स
12. क्लार्क, जी0- द हण्टर एण्ड गैदरर आॅफ स्टोन एज (द ड्रा आॅफ सिविलाइजेशन)
13. सिंह, मुनि- गुहाचित्र, यू0 पी0 स्टेट, ललित कला एकेडमी सवेनियर, 1972 ई0
14. गुप्ता, अन्नपूर्ण- मीरजापुर के कंदरा चित्र (उ0प्र0 की पुरा सम्पदा, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग) 
15. अग्रवाल, आर0 ए0- भारतीय चित्रकला का विवेचन, इण्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, 2000 ई0 
16. केसरी, अर्जुनदास-मीरजापुर के गुहाचित्रों का सांस्कृतिक एवं तुलनात्मक अध्ययन 
17. मिश्र, देवकुमार- सोने के पानी का रंग 
18. चतुर्वेदी, गोपाल चन्द्र मधुकर-भारतीय चित्रकला के ऐतिहासिक संदर्भ, साहित्य संगम, इलाह0 1999 ई0 
19. सम्मेलन पत्रिका, कला विशेषांक1958 -लेखक 1. भारत के कला मंडप (नन्दलाल चतुर्वेदी) 2. विश्वकला की मंजिलें (भगवतशरण अग्रवाल)
20. संस्कृति, पुरातत्व विशेषांक, जनवरी 1962 ई0 
21. इण्डियन आक्र्योलाॅजी ए रिव्यू 1966-67 ई0 
22. इण्डियन आक्र्योलाॅजी ए रिव्यू 1969-1970 ई0
23. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, वाल्यूम-15
24. जनरल आॅफ राॅयल एशियाटिक सोसायटी आॅफ बंगाल, वाॅल्यूम-4, 1918 ई0 




शमथ-भावना-विधि में कर्मस्थान (कम्मट्ठान)


अमिताभ उपाध्याय
शोध छात्र (यू0जी0सी0/जे0आर0एफ0), पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी |


साधक शील में प्रतिष्ठित होकर चित्त की एकाग्रता के लिए जब साधन करता तो उसे स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में शमथ-भावना के रूप में जाना जाता है। शमथ का अर्थ है - ‘पंच नीवरणानं समथ समनट्ठेन समथ’ अर्थात् पाँच नीवरण जिनसे विध्नो का उपशम (विनाश) हो। अतः शमथ-भावना का उद्देश्य चित्त की एकाग्रता में विध्न उपस्थित करने वाले पाँच नीवरण को शान्त करना है। पाँच नीवरण इस प्रकार से हैं - कामछन्द-विषय के प्रति अनुराग कामछन्द है। व्यापाद-व्यापाद हिंसा को कहते हैं। स्त्यान मिद्ध (थीन मिद्ध) चित्त की अकर्मण्यता और मन्दता को सत्यान-मिद्ध कहते हैं। औद्धत्य-कौकुत्य (उद्धच्च-कुकुच्छ) खेद एवं पश्चाताप को औद्धत्य-कौकुत्य कहते हैं। विचिकित्सा (विचिकिच्छा)- संशय को विचिकित्सा कहते हैं।
संसार से विरक्त, निर्वाण प्राप्ति के लिए शीलवान् साधक समाधि के प्राप्ति के लिए विभिन्न कार्मस्थानों में से किसी एक को आलम्बन बनाकर चित्त की एकाग्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। समाधि (शमथ-भावना) के विकास के लिए कर्मस्थानों का अत्यधिक महत्व है। ‘कम्मस्स ठानं कम्मट्ठानं’ के अनुसार भावना आदि कर्म के अनुसार आश्रयभूत आलम्बन को कर्मस्थान कहते हैं। बौद्ध परम्परा के अनुसार कर्मस्थान चालीस प्रकार के होते हैं, इनका सात भागों में वर्गीकरण किया गया है -1
1ण् दस कृत्सन (कसिण)
2ण् दस अशुभ
3ण् दस अनुस्मृतियाँ
4ण् चार ब्रह्मविहार
5ण् चार आरूप्य
6ण् आहार में प्रतिकूल संज्ञा
7ण् एक व्यवस्थान या चतुर्धातु व्यवस्थान।
दस कसिण -
कसिण ‘शब्द’ संस्कृत शब्द ‘कृत्सन’ का रूपान्तरण है, जिसका अर्थ सम्पूर्ण या सकल के अर्थ में होता है। बौद्ध साहित्य में इस शब्द का अर्थ समाधि के उन विषयों के लिए हुआ है जो सम्पूर्ण चित्त को ग्रहण करता है और इसे अन्य विचारों के प्रादुर्भाव का अवसर नहीं देता है। ये इस प्रकार से हैं -
पृथ्वीकसिण, आपोकसिण, तेजोकसिण, वायुकसिण, नीलकसिण, पीतकसिण, लोहितकसिण, अवदात कसिण, आलोक कसिण तथा परिच्छिन्नाकाश कसिण।
पृथ्वीकसिण -
पृथ्वीकसिण की भावना करने वाले योगी को एक बालिश्त चार अंगुल के फैलाव वाले मिट्टी के गोले को अपने ध्यान का आलम्बन बनाना चाहिए। मिट्टी को अरुण रंग (सूर्योदय के समय, सूर्य के समान लाल रंग) का होना चाहिए।2 योगी द्वारा निर्मित इस आलम्बन की सम्पूर्ण भावना करना आवश्यक है। उनके किसी भी अंश का परित्याग अनपेक्षित है। पृथ्वी ही सम्पूर्ण रूप में भावनीय आलम्बन है। योगी को पृथ्वी-कसिण की प्रतिमा को अपने अन्तःकरण में उसी प्रकार स्पष्ट और विशिष्ट रूप में देखना चाहिए जैसा कि वह पूर्णतः खुली आँखों से देखता था। ज्यों ही यह स्थिति पूर्ण होती है वह पाँच नीवरणों तथा क्लेशों से मुक्त हो जाता है।
आपोकसिण -
आपोकसिण को भावना करने वाले योगी को सुखासन में बैठकर, कसिण के चतुर्विध दोषों को नष्ट कर, नील, पीत तथा श्वेत वर्णी जल को ग्रहण न कर, जो अभी भूमि पर न पहुँचा हो, आकाश में शुद्ध वस्त्र द्वारा ग्रहण किया गया हो, उसे पात्र में पूर्णतः भरकर अप् की भावना करनी चाहिए।3 भावना के क्षण में विविध पर्यायों में से किसी एक प्रथित नाम का उच्चारण कर अप् की भावना करना आवश्यक है।
तेजोकसिण -
तेजोकसिण की भावना करने वाले योगी के लिए तेज आलम्बन होता है। तेजोकसिण की भावना करने के लिए स्वच्छ लकडि़यों को संकलित कर मण्डप में जाकर सूखी लकड़ी को जलाकर चमड़े, कपड़े या चटाई में एक बालिश्त चार अंगुल का छेद कर उसमें से अग्नि को देखते हुए ध्यान करना चाहिए।4


वायोकसिण-
इस प्रसंग में वायु, ध्यान का आलम्बन होता है। वायुकसिण में दृष्टि या स्पर्श द्वारा उनको निमित्त बनाया जाता है। वृक्षादि के अग्रभाग को वायु द्वारा संचालित देखकर दृष्टि से तथा वायु के स्पर्श का अनुभव कर, स्पर्श से वायु का ध्यान-भावना करना चाहिए।5
नीलकसिण-
नील कसिण में ध्यान का आलम्बन नील रंग होता है। यह रंग नीलपुष्प, वस्त्र तथा नीलवर्णीं धातु में भी हो सकता है। ध्यान की इस प्रक्रिया में योगी को चाहिए इस नील आलम्बन को अन्य विविध रंगों में समावृत कर तथा पुष्प के अन्य लक्षणों को निराकृत कर नीले रंग पर चित्त को एकाग्र करना चाहिए।6
पीतकसिण -
नीलकसिण के ही अनुरूप पीतकसिण का भी क्रम है। पीत कसिण की भावना करने का इच्छुक योगी पीत पुष्प, वस्त्र तथा पीतवर्णी की धातु में निमित्त ग्रहण करता है।7
लोहितकसिण -
लोहितकसिण की भावना करने वाले योगी को रक्तपुष्प, रक्तवस्त्र तथा रक्तधातु में लोहितकसिण निमित्त ग्रहण किया जा सकता है।8
अवदातकसिण -
अवदातकसिण की भावना करने वाले योगी को श्वेतपुष्प, श्वेतवस्त्र या श्वेतधातु में निमित्त ग्रहण करना चाहिए।
आलोककसिण -
आलोककसिण की भावना करने वाले योगी भित्तिछिद्र में आलोक का निमित्त ग्रहण करता है। पूर्वजन्म के अभ्यस्त योगी के समक्ष भित्तिछिद्र से प्राप्त सूर्य प्रकाश के या चन्द्र प्रकाश के प्रकाश गोलक के अभिदर्शन मात्र से निमित्त का उदय हो जाता है।
आकासकसिण -
परिच्छिन्न आकास कसिण की भावना करने वाले योगी भित्ति छिद्र या गवाक्ष में आकाश कसिण की भावना करता है। पूर्वजन्म में कृताभ्यास योगी के समक्ष भित्तिछिद्र आदि में से किसी एक के अवेक्षण से निमित्त का उदय हो जाता है।
इस प्रकार से दस कसिणों में पृथ्वी आदि चार कसिण, नीलादि चार वर्ण कसिण तथा परिच्छिन्नाकाश आकाश कसिण तथा चन्द्र सूर्य आलोक कसिण है।


दस अशुभ -
अशुभ कुत्सित अर्थ में प्रयुक्त होता है। ‘अशुभ’ शब्द ‘अशोभन’ का प्रत्यायक है। मुख्यतया शव को अशुभ की संज्ञा दी गयी है। मरणोपरान्त शव के आकृति में अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती है, उन विकारों से उत्पन्न शव की विभिन्न अवस्थओं को दस अशुभ कर्मस्थानों को माना गया है। जो कि निम्नलिखित है- उद्धुमातक, विनीलक, विपुब्बक, विच्छिद्दक, विक्खायितक, विक्षिप्तक, हतक्खित्तक, लोहितक, पुलवक, अट्ठिक।9
1ण् उद्धुमातक -
मरणोपरान्त वायु के शोध के कारण हाथी की तरह फूले हुए शव को उद्धुमातक कहते हैं।
2ण् विनीलक -
श्वेत वर्ण मिश्रित नीलवर्ण को विनीलक कहते हैं। मनुष्य के शरीर में मांस के स्थूल पर रक्त का वर्ण, पीब के स्थल पर श्वेत वर्ण अन्य स्थल पर नील वर्ण का प्रत्यक्षीकरण होता है। अर्थात् विभिन्न वर्णों के संयोग से युक्त शरीर विनीलक कहलता है।
3ण् विपुब्बक -
बहते हुए पीब से युक्त शरीर का नाम विपुब्बक है।
4ण् विच्छिद्दक -
नाना प्रकार के विशिष्ट छिद्रों से युक्त मृत शरीर को विच्छिद्दक कहते हैं।
5ण् विक्खायितक -
विविध जीवों श्वान, श्रृंगाल, सिंह आदि के द्वारा भक्षित मृत शरीर को विक्खायितक कहते हैं।
6ण् विक्षिप्तक -
जिस मृत शरीर का प्रत्येक अंग एकत्र न हो विक्षिप्तक कहलाता है।
7ण् हतविक्खित्तक -
किसी शस्त्र द्वारा काटकर इधर-उधर छितरा दिये गये अंगों वाला मृत शरीर हतविक्खित्तक कहलाता है।
8ण् लोहितक -
बहते हुए रक्त से सने मृत शरीर को लोहितक कहते हैं।
9ण् पुलवक -
कीड़ांे से परिपूर्ण मृत शरीर को पुलवक कहते हैं।


10ण् अट्ठिक-
अस्थियों से परिपूर्ण मृत शरीर को अट्ठिक कहते हैं। अर्थात् जिस मृत शरीर में केवल अस्थियाँ ही शेष हों।
एकाग्रता के लिए दस अशुभ कर्मस्थानों की भावना योगी के लिए उसी स्थान पर विहित है जहाँ ये सहजतया से सुलभ हों। अशुभ कर्मस्थान प्रायः श्मशान पर ही मिलते हैं। इनको ग्रहण करते समय कुछ सावधानी रखना चाहिए, उन्हें निमित्त बनाने के लिए, संघ के स्थविर या अन्य स्थविर भिक्षुओं को बता देना चाहिए। क्योंकि श्मशान में वन्य जीव, भूत-प्रेत तथा चोरों आदि के उपद्रव की आशंका रहती है। बताकर जाने से उस योगी की सुरक्षा-सम्बन्धी व्यवस्था करना सम्भव हो जाता है।10
दस अनुस्मृतियाँ -
जो धर्म, विषयों का स्मरण करता है या जिसके द्वारा स्मरण किया जाता है, उसे स्मृति कहते हैं। ‘अनुस्मृति’ शब्द ‘अनु’ उपसर्ग पूर्वक स्मृति से निष्पन्न है जो पुनः पुनः स्मरण का बोधक है। स्मृति अपने क्षेत्र में पवर्तमान् शीलादि सद्गुणों का अनुसरण करती है। अविस्मरण इसका प्रमुख कार्य है। स्मृति का अनुक्षण अनुचिन्तन या अनुस्मरण ही अनुस्मृति है। कर्मस्थान के प्रसंग में विवेचित अनुस्मृतियाँ निम्नलिखित हैं-
1ण् बुद्धानुस्मृति -
बुद्धानुस्मृति में योगी को तथागत के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिए। प्रसन्नचित्त होकर एकान्त व दोषरहित स्थान पर बैठकर, भगवान, अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध हैं। विद्याचरण सम्पन्न हैं, सुगत हैं, लोकविद् हैं 11 इत्यादि प्रकार से भगवान् बुुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिए।
2ण् धर्मानुस्मृति -
धर्म की अनुस्मृति ही धर्मानुस्मृति है। धर्मानुस्मृति के अभिलाषी योगी को यह भावना करनी चाहिए कि तथागत से धर्म स्व विख्यात है। धर्मानुस्मृति के अनुस्मरण से राग मोहादि विकार दूर हो जाते हैं। योगी को बार-बार इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए कि भगवान् बुद्ध का धर्म अच्छी तरह से कहा गया है, तत्काल फल देने वाला है, कालान्तर में फल की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। वह विज्ञ पुरुषों द्वारा अपने आप जानने योग्य है।12
3ण् संघानुस्मृति -
संघानुस्मृति की साधना करने वाले योगी को यह विचार करना चाहिए कि भगवान् बुद्ध का श्रावक संघ सीधे, न्यायसंगत एवं उचित मार्ग पर चल रहा है। स्रोतापत्ति, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत् के चार मार्गस्थ तथा चार फलस्थ पुरुषों को भगवान् के श्रावक संघ के रूप मंे जाना जाता है। यह श्रावक संघ आह्वान के योग्य, दान देने के योग्य एवं हाथ जोड़ने के योग्य होता है। श्रावक संघ की पूजा करने से पुण्य लाभ होता है।13
4ण् शीलानुस्मृति -
शील की शुचिता, अखण्डता, निर्दोषता, निर्मलता आदि के गुणों का सतत् बार-बार स्मरण करना शीलानुस्मृति है।14
5ण् त्यागनुस्मृति -
त्याग का अनुस्मरण ही त्यागनुस्मृति है। त्यागानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को सदा दान देने वाला होना, चाहिए, साथ ही उसे अपने दान-कार्य रूप गुण से सन्तोष का अनुभव करना चाहिए।15
6ण् देवतानुस्मृति -
देवतानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को देवत्व के गुण समन्वित देवताओं के श्रद्धा, शील, श्रुत, त्याग एवं प्रज्ञा आदि गुणों का पुनः पुनः चिन्तन करते हुए अपने में भी उन गुणों का अस्तित्व का अनुस्मरण करना चाहिए।16
7ण् मरणानुस्मृति -
जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद ही मरण है। मरणानुस्मृति की भावना करने वाले योगी को मरण एवं जीवितेन्द्रिय के विनाश की वास्तविकता को बार-बार स्मरण कर दृढ़ करना चाहिए।17
8ण् उपशमानुस्मृति -
निर्वाण के परम प्रणीत एवं शान्त सुख स्वभाव का अनुस्मरण ही उपशमानुस्मृति है। योगी समस्त दुःखों के उपशय स्वरूप निर्वाण के गुणों की चिन्तन करता है।18
9ण् कायानुस्मृति -
बौद्ध-साधना में कायानुस्मृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह शरीर के प्रत्यवेक्षण एवं ध्यान का प्रत्यायक है। कायानुस्मृति की भावना में योगी चार महाभूतों से बने गन्दे शरीर के केश आदि पर विचार करता हुआ उनमें विरक्ति के भाव लाता है। इस प्रकार की भावना से योगी कायिक आसक्ति से विमुक्त हो परम शान्ति को प्राप्त करता है।
10ण् आनापान अनुस्मृति -
आनापान अनुस्मृति में योगी आने श्वास पर भावना करता है। आनापान में ‘आन’ बाहर की ओर निकलने वाली वायु है और अन्दर गमन करने वाली वायु ‘अपान’ है। आनापान स्मृति की भावना करने वाले योगी के लिए प्रथमतः आना (प्राण) की और तत्पश्चात् अपान की भावना विहित है।


चार ब्रह्मविहार -
सत्पुरूषों के उत्तम विहार को ब्रह्मविहार कहते हैं। यह न केवल चित्त की एकाग्रता का निमित्त है, अपितु चित्तविशुद्धि के लिए सर्वोत्तम साधन भी है प्राणियों के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए इसकी शिक्षा ब्रह्म विहारों से मिलती है। भेद के दृष्टि से यह चार प्रकार का है। मैत्री, करूणा, मुदिता एवं उपेक्षा। जब योगी इन चार ब्रह्मविहारों की भावना करता है, तो वह सभी प्राणियों के हित-सुख की कामना करता है। दूसरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा करता है। जो सम्पन्न हैं, उन्हें देखकर प्रमुदित होता है तथा उसका सभी प्राणियों के प्रति समभाव रहता है। इन चार ब्रह्मविहारों की भावना से चित्त के राग, द्वेष, ईष्र्यां आदि विकारों का सर्वथा विनाश हो जाता है। अन्य कर्मस्थान आत्महित के साधन हैं जबकि ये चार ब्रह्मविहार पर हित के भी साधन हैं।
चार ब्रह्मविहारों को अप्रमाण भी कहा गया है। इसका कारण यह है कि इनका आलम्बन प्रमाणरहित जीव होते है।19
1ण् मैत्रीभावना -
जीवों के प्रति स्नेह और सुहृदयभाव के साथ व्यवहार करना मैत्री है। यह अद्वेष नामक कुशल चित्तवृत्ति है, जिसके कारण सभी प्राणियों के प्रति प्रेमभाव का उदय होता हेै। सभी प्राणी व्यापादरहित (आलस्यरहित), उपद्रवरहित, सुखपूर्वक जीवन यापन करें, ऐसी भावना ही मैत्री भावना है। ‘‘सब्बे सत्ता भवतु सुखितत्ता’’ की उदात्त भावना ही मैत्री भावना है।
2ण् करूणा भावना -
दूसरों के दुःखी होने पर जब सत्पुरुषों का हृदय कम्पित हो उठता, द्रवित हो उठता है, अथवा दूसरे के दुःख का जो विनाश करती है, अथवा जो दुःखित प्राणियों में फैलती है वह करूणा है।20 दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करना इसका लक्षण है, दूसरों के दुःख को सहन न करना इसका कृत्य है। अन्य प्राणियों को दुःख से बचाना इसे जानने का आकार है।21 दसों दिशाओं में करूणा युक्त चित्त से विहार करना और सभी प्राणियों के लिए मंगल-भावना से युक्त होना ही करूणा है।
3ण् मुदिता -
मुदिता का अर्थ प्रसन्नता होता है। जो धर्म प्रसन्नता का कारण है उसे मुदिता कहते हैं अथवा जो धर्म स्वयं मुदित होता है, वह मुदिता है। सुखी प्राणियांे को देखकर प्रमुदित होना इसका लक्षण है। ईष्र्या न करना इसका कार्य है। दूसरे प्राणियों को गुण, ऐश्वर्य, धन आदि से सम्पन्न देखकर उनके प्रति ईष्र्या भाव उत्पन्न न होने देना ही मुदिता का कार्य है।22
‘‘या सत्तेसु मुदिता मुदितायना मुदतायितत्तं
मुदिताचेतोविमुत्ति अयं वुच्चति ‘‘मुदिता’’।।23
4ण् उपेक्षा -
‘उपेक्खती ति उपेक्खा’ उपेक्षा की भावना ही ‘उपेक्षा’ है। अर्थात् जिसका किसी विषय के प्रति न राग होता है और न द्वेष, उसे उपेक्षा कहते हैं। यह मैत्री भावना की तरह न तो दूसरे सत्तवों के हित की इच्छा करती है, न करूणाभावना की तरह प्राणियों के दुःखों का प्रहाण करने की कामना करती है और न मुदित भावना की तरह अन्य प्राणियों की सुख-सम्पत्ति देखकर सुख अनुभव ही करती है। वरन् सभी प्राणी अपने-अपने कर्मो के दायाद हैं, कर्म से ही उत्पन्न हैं तथा कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त करते हैं, ऐसा सोचकर उपेक्षाभाव रखती है। इसे ही उपेक्षा कहते हैं।24 योगी को उपेक्षा की भावना करते समय उपेक्षा की ही तरह व्यवहार करना चाहिए। ‘या सत्तेसु उपेक्खा उपेक्खायना उपेक्खायितत्तं उपेक्खाचेतोविमुत्ति अयं वुच्चति ‘‘उपेक्खा’’।’25
इन चार ब्रह्मविहारों को चार अप्रमाण भी कहा जाता है। मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा में विहार करना श्रेष्ठ विहार है।
चार आरूप्य -
जब योगी चतुर्थ रूपध्यान के अनन्तर रूप की समतिक्रम के अरूप ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है तो वह चार आरूप्य कर्मस्थानों को अपनी साधना का आलम्बन बनाता है। चार आरूप्य इस प्रकार से हैं - आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानत्यायतन, आकिंचन्यायतन एवं नैवसंज्ञानासंज्ञायतन। अरूप समाधि की सिद्धि से सभी प्रकार के रूपों का अतिक्रमण हो जाता है।
1ण् आकाशान्त्यायतन -
अरूपध्यान का सर्वप्रथम विषय अनन्त आकाश आयतन है। इसमें योगी जड़सृष्टि, इन्द्रिय विषय का सम्बन्ध तथा रूप-शब्दादि आलम्बनों के विचार का निवारण कर ‘आकाश अनन्त है’ इस प्रकार की भावना करता है। योगी कसिण को आलम्बन बनाकर क्रमशः बड़ा करते हुए उसे विश्वाकार आकृति का बना लेता है। यह चतुर्थ रूपध्यान की स्थिति है। तत्पश्चात् योगी उस विश्वकार रूपाकृति को दूर कर उसके स्थान पर विश्व में केवल एक आकाश है- इस प्रकार अरूप आलम्बन को ग्रहण कर आकाश की अनन्तता के विषय में अपने ध्यान को पूर्ण करता है। योगी की इस अवस्था को आकाशानन्तयायतन कहा जाता है।26
2ण् विज्ञानानन्त्यायतन -
आकाशानन्त्यायन समाधि के दृढ़ होने पर योगी उससे विरत होकर आकाश के स्पर्श से युक्त विज्ञान के आनत्य की भावना से आकाशान्त्यायतन का अतिक्रमण कर विज्ञानानन्त्यायन को प्राप्त कर विहार करता है।
3ण् आकिंचायतन -
आकिंचन के भाव को ही आकिंचन्य कहते हैं। इस दिशा में योगी अपने चित्त को अपने अनन्त आकाश रूप विज्ञान से समाकृष्ट कर विज्ञान की अनुपस्थिति की कल्पना करता है और आकिंचायतन को प्राप्त करता है।
4ण् नैवसंज्ञानासंज्ञायतन -
इस स्थिति में संज्ञा अत्यन्त सूक्ष्म रूप में रहती है। चूँकि संज्ञा स्थूलरूप में नहीं रहती है अतः उसे संज्ञा नहीं कहा जा सकता है एवं संज्ञा अत्यन्त सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती है इसलिए उसे असंज्ञा भी नहीं कहा जा सकता है। इन चार आरूप्यों को आलम्बन बनाते समय योगी के ध्यान के दो अंग ही रहते हैं - उपेक्षा एवं एकाग्रता।27
आहार में प्रतिकूल संज्ञा -
चार आरूप्यों के अनन्तर आहार में प्रतिकूल संज्ञा नामक कर्मस्थान का उल्लेख मिलता है। यद्यपि कवलीहार, स्पर्शाहार, मनोसंचेतनाहार तथा विज्ञानाहार के रूप में आहार चार प्रकार का होता है किन्तु यहाँ आहार से केवल कवलीहार ही अभिप्रेत है। कवलीहार में प्रतिकूल संज्ञा से यह कर्मस्थान सिद्ध होता है। इस कर्मस्थान के सिद्ध होने पर योगी की इस सम्बन्धी तृष्णा नष्ट होती है। फलतः वह रसास्वादन की अपेक्षा अपने शरीर की स्थिति के लिए ही आहार ग्रहण करता है। इससे उसके कामराग का प्रहाण होता है एवं कायानुस्मृति उत्पन्न होती है।28
चतुर्धातु व्यवस्थान -
यह अन्तिम कर्मस्थान के रूप में उल्लिखित है। इसमें योगी अपने शरीर में विद्यमान पृथ्वी, आप, तेज एवं वायु धातुओं के स्वभाव का विनिश्चय करता है। इससे योगी धातुओं में अनात्म दुःख एवं अनित्य संज्ञा में चित्त को एकाग्र करता है। अर्थात् उसे विपश्यना की उपलब्धि प्राप्त होती है।
इस प्रकार से चालीस प्रकार के कर्मस्थानों में योगी किसी भी आलम्बन को अपने शमथ-भावना का विषय बना सकता है किन्तु उसे सर्वप्रथम एक कल्याण मित्र की पर्येषणा (खोज) करना चाहिए।
समाधि भावना के लिए स्थान की अनुरूपता भी विचरणीय है। प्रथमतः साधक को देशकाल, योगमात्रा, अभ्युपाय तथा सामथ्र्य प्रधारण का प्रत्यवेक्षण कर योगानुबद्ध होना चाहिए। इसके प्श्चात् योगी निर्जन तथा निःशब्द शय्या का आसन का उपसेवन कर मानसिक एकाग्रता को उपचित करता है। कल्याण मित्र को चाहिए कि वह साधक के मानसिक वृत्तियों की जानकारी परिपृच्छा के माध्यम से कर ले। आध्यात्मिक उपदेष्टा (कल्याण-मित्र) का यह सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह साधक के चरित्र की परीक्षा करने के बाद, उसके अनुसार ही कर्मस्थान का निर्देशन करे जिससे की वह आसानी से विपश्यना को प्राप्त कर सके।


आधार - सामग्री

1. तत्थ स¦ातनिद्देसतो ति चत्तालीसाय कम्मट्ठनेसू ति हि वुत्तं, तत्रिमानि चत्तालीस कम्मट्ठनानि दस कसिणा, दस असुभा, दस अनुस्सतियो, चत्तारो ब्रह्मविहार, चत्तारो आरूप्पा, एकस´्´ा, एकं ववत्थानं ति। (विसुद्धिमग्ग प्रथम खण्ड पृष्ठ-236)
2. तस्मा नीलादिवण्णं मत्तिकं अग्गहेत्वा ग¯ावहे मत्तिकासदिसाय अरूणवण्णाय कसिणं कातब्बं .... अरूणवण्णाय मत्तिकाय विदत्थिचतुरंगुलवित्थारं वट्टं कातब्बं। (वही, पृष्ठ 263, 264)
3. अकताधिकारेन चत्तारो कसिण दोसे परिहरन्तेन नीलपीतलोहितोदातवण्णांन अ´्´तरवण्णं आपं अगहेत्वा यं पन भूमिं असम्पत्तमेव आकासे सुद्धवत्थेन गहितं उदकं, अ´्´ं वा तथारूपं विप्पसन्नं आनाविलं, तेन पत्तं वा कुुण्डिकं वा समतित्तिकं पूरेत्वा विहारपच्चन्ते वुत्तप्पकारे पटिच्छन्ने ओकासे ठपेत्वा सुखनिसिन्नेन व वण्णो पच्चवेक्खितब्बो (वही, पृष्ठ- 359, 360)
4. कटसारके वा चम्मे वा पटे बा विदत्थिचतुरंगुलप्पमाणं छिद्दं कातब्बं। (वही, पृष्ठ - 361)
5. अ´्च स्वो दिट्ठवसेन वा फुट्ठवसेन वा। .... तस्मा समसीसट्ठितं धनपत्तं उच्छुं वा वेलंु वा रूक्खं वा .... वातेन पहरियमानं दिस्वा।  (वही, पृष्ठ - 362)
6. नीलकसिणं उग्गण्हन्तो नीलकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा नीलवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 363)
7. पीतकसिणं उग्गण्हन्तो पीतकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा पीतवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 364)
8. लोहितकसिणं उग्गण्हन्तो लोहितकस्ंिम निमित्तं गणहाति पुप्फस्ंिम वा वत्थस्ंिम वा वण्णधातुया वा ति वचनतो कताधिकारस्स पु´्´वतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा लोहितवत्थमणीनं वा अ´्´तरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। (वही, पृष्ठ - 364)
9. उद्धुमातकं विनीलकं विपुब्बकं विच्छिद्दकं विक्खायितकं विक्खित्तकं हतविक्खित्तकं लोहितकं पुलुवकं अट्ठिक´्चेति इमे दस असुभा नाम। (अभिधम्मत्थसंगहो खण्ड 2 पृष्ठ 872)
10. गच्छन्तेन च संघत्थेरस्स वा अ´्´तरस्स वा अभि´्´ातस्स भिक्खुनो कथेत्वा गब्बं। सच्चे हिस्स सुसाने अमनुस्सीहब्याग्घादीनं रूपसद्दादिअनिट्ठारम्मणाभिभूतस्य अ¯पच्च¯ानि वा पवेधेन्ति भुत्तं वा न परिसण्ठाति, अ´्´ो वा आबाधो होति। अथस्स सो विहारे पत्तचीवरं सुरक्खितं करिस्सति। (विसुद्धिमग्ग खण्ड 1 पृष्ठ 377)
11. इति पि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धो भगवा ति। (दीघनिकाय खण्ड 1 पृष्ठ 54)
12. स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको पच्चत्तं वेदितब्बो वि´्´ूही ति। (मज्झिम निकाय 1/50)
13. सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसंघो यदिदं चत्तारिपुरिसयुगानि, अट्ठपुरिसपुग्गला.... अनुत्तरं पु॰´ खेत्तं लोकस्साति। (वही)
14. अरियसावको अत्तनो सीलानि अनुस्सरति अखण्डानि अच्छिद्वानि असबलानि ...... समाधिसंवत्तनिकानि। (अंगुतर निकाय 3/9)
15. ..... अत्तनो चागं अनुस्सरति-लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे .... दान सविभागरतो ति। (वही)
16. अरिय सावको देवतानुस्सतिं भावेति-सन्ति देवा चातुमहाराजिका.... मय्हं पि तथारूपा प॰´ा संविज्जति ति। (वही पृष्ठ 10)
17. मरणं भविस्सति, जीवितिन्द्रियं उपच्छिज्जिस्सती ति वा मरणं मरणं ति वा योनिसो मनसिकारो पवत्तेतब्बो। (विसुद्धिमग्ग 1/505)
18. यावता, भिक्खवे, धम्मा संखता वा असंखता वा विरागो तेसं धम्मानं अग्गमक्खायति.....। (अंगुतर निकाय 2/37)
19. मेत्ता, करूणा, मुदिता, उपेक्खा चेति इमा चतस्सो अप्पम´्´ायो नाम; ब्रह्मविहारा’ ति पि वुच्चन्ति। (अभिधम्मत्थसंगहो 2/881)
20. परदुक्खे सति कारुणिकानं हृदयवेदनं करोतीति करूणा, किरति वा परदुक्खं विक्खिपति, किणाति वा परदुक्खं हिंसती ति करूणा, किरीयति दुक्खितेसु पसारीयतीति वा करूणा। (परमत्थदीपनी पृष्ठ 89, विभावनी पृष्ठ 85)
21. दुक्खापनयनाकाप्पवत्तिलक्खणा करुणा, परदुक्खासहनरसा, अविहिंसापच्चुपट्ठाना, दुक्खाभिभूतानं अनाथभावदस्सनपदट्ठाना। विहिंसूपसमो तस्मा सम्पति, सोकसम्भवो विपत्ति। (विसुद्धिमग्ग 2/677)
22. पमोदनलक्खणा मुदिता, अनिस्सायनरसा, अरतिविधातपच्चुपट्ठाना, सत्तानं सम्पत्तिदस्सनपदट्ठाना। अरतिवूपसमो तस्मा सम्पत्ति, पहास सम्भवो विपत्ति। (वही 2/678)
23. विभंग पृष्ठ - 330।
24. .....कम्मस्सका सत्ता, ते कस्स रुचिया सुखिता वा भविस्सन्ति, दुक्खतो वा मुच्चिस्सन्ति, पत्तसम्पत्तितो वा न परिहायिस्सन्ती ति। पटिघानुनयवूपसमो तस्सा सम्पत्ति, गेहसिताय अ॰´ाणुपेक्खाय सम्भवो विपत्ति। (विसुद्धिमग्ग 2/678)
25. विभंग पृष्ठ- 331।
26. सो तत्थ एवं आदीनवं दिस्वा निकन्तिं परियादाय आकासान´्चायतनं सन्ततो अनन्ततो मनसिकरित्वा चक्कवालपरियन्तं वा यत्तकं इच्छति तत्तकं वा कसिणं पत्थरित्वा तेन फुट्ठोकासं ‘‘आकासो आकासो’’ ति वा, ‘‘अनन्तो आकासो’’ ति वा मनसिकरोन्तो उग्घाटेति कसिणं। (विसुद्धिमग्ग 2/700)
27. तमेव पठमारुप्पवि॰´ाणं अनन्तवसेन परिकम्मं करोन्तस्स दुतियारुप्पमप्पेति। पठमारुप्पवि॰´ाणं पन नत्थि कि॰चीति परिकम्मं करोन्तस्स ततियारुप्पमप्पेति। ततियारुप्पं सन्तमेतं पणीतमेतं ति परिकम्मं करोन्तस्स चतुत्थारुप्पमप्पेति। अवसेसु च दससु कम्मट्ठानेसु बुद्धगुणादिकमारमणमारब्भ परिकम्मं कत्वा तस्मिं निमित्ते साधुकमुग्गहिते तत्थेव परिकम्म´्च समाधियति, उपचारो च सम्पज्जति। (अभिधम्मत्थसंगहो खण्ड 2 पृष्ठ 907-911)
28. आहारे पटिक्कूलस´्´ं अनुयुत्तस्स भिक्खुनो रसतण्हाय चित्तं पतिलीयति..... कायगतासतिभावना पि पारिपूरिं गच्छति। (विसुद्धिमग्ग खण्ड 2 पृष्ठ 749)