Wednesday, 31 December 2008

मिर्जापुर परिक्षेत्र की प्रागैतिहासिक चित्रकला


शाम्भवी शुक्ल 
शोध-छात्रा, प्रा0 इति0, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग,
इ0वि0वि0, इलाहाबाद |



मानव जब अपने हृदय की भावना से अथवा स्वाभाविक आनन्द से प्रेरित होकर अपने हृदयगत भावों को प्रकट करना चाहता है, तभी मानव कला का आश्रय लेता है। कला की उत्पत्ति, अन्तःप्रेरणा एवं आनन्द से है जिसका वाह्य रूप सौन्दर्य है। अतः कलाकार सौन्दर्योत्पादक होते हैं। जब आत्मा आनन्द विभोर होकर अपने को छान्दोमय और लीन कर लेता है- छान्दोमयमात्मानं कुरूते (ऐतरेय ब्राह्मण), तब अपने आनन्द को बाहर भी प्रकट करना चाहता है, तभी कला की उत्पत्ति होती है। कला के अन्तर्गत मनुष्य विकास कर चित्रकला के विकास को भी परिलक्षित करता है। ‘बृहस्पति संहिता’ की टीका में ‘चित्रकारदयः’ लिखकर यह अभिप्राय स्पष्ट कर दिया गया है कि शिल्पियों के वर्ग में चित्रकार भी सम्मिलित किये जाते थे। ‘गर्गसंहिता’ में भी शिल्पी शब्द का कदाचित् यही अभिप्राय ग्रहण किया गया है।
भारतीय शैलकला का प्रणयन एक विस्तृत कालावधि तक होता रहा। प्रत्येक चित्रित भित्ति, चित्रांकन के चित्रण का प्रतिफल है। चित्रण का उद्देश्य विषय वस्तु तथा चित्रण पद्धति समय के साथ बदलती रही है, किन्तु सभी कालों में कैनवास अगठित शैल भित्ति ही रही। चित्रण-पद्धति के रंगों को बनाने की क्रिया भी लगभग समान रही, चित्रकारों ने भी अपनी वर्ण सामग्री अपने वातावरण से ही ग्रहण की थी। शैलचित्र कला वास्तव में प्रत्ययात्मक (कान्सेप्चुअल) है। ये आश्चर्यपूर्ण बात है कि निर्जीव प्रकृति की चित्रकारी कलाकारों को आकर्षित नहीं करती थी, बल्कि उस समय के कलाकार मानव जाति से सम्बन्धित क्रियाकलाप को अपने कलाकृतियों में प्रदर्शित करते थे।
चित्रांकन प्रायः बालुकाश्यों में से निर्मित शैलाश्रयों में तथा उत्कीर्णन प्रायः ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित शैलाश्रय में मिलते हैं। विन्ध्य, सतपुड़ा तथा अरावली की बालुकाश्य उपत्काओं में सबसे अधिक चित्रित शैलाश्रय मिलते हैं। मध्यवर्ती विन्ध्यक्षेत्र में राजस्थान की चंबल घाटी तथा मध्य प्रदेश के शिवपुरी, नरसिंहगढ़ सागर आदि आते हैं तथा उ0 विन्ध्यक्षेत्र में उत्तर प्रदेश का अविभाजित मिर्जापुर, भीमबेठका, वाराणसी के कुछ भाग, दक्षिण इलाहाबाद के क्षेत्र, सतना, रीवा आदि आते हंैं।
मिर्जापुर- डाॅ0 राधाकान्त वर्मा’ ने अपने शोधग्रन्थ के 9 वें अध्याय में मिर्जापुर क्षेत्र में स्थित स्थलों को जिन तीन (उपक्षेत्रों। में विभाजित किया उनकी स्थिति इस प्रकार है-
अ. भैसोर क्षेत्र- 1. सहबइया (मोरहना पहाड़) 2. बेदिका 3. लइबेदिया 4. बागा 5. बघईखोर 6. मोरचहवा 7. खडत्री पथरी 8. मन्नीबाला 9. लिखनिया
ब. राजपुर क्षेत्र- 1. पंचमुखी 2. कंडाकोट 3. चनमनवा 4. लिखनिया
स. अरौरा क्षेत्र- 1. लिखनिया 2. कोहबर 3. भण्डारिया 4. महड़रिया 5. विजयगढ़ 6. थरपथरा
मिर्जापुर की भूमि सुंदर एवं स्पष्ट रूप से उच्छृंखल लहरों (धाराओं), पर्वत, श्रेणियों, जंगलों के झुरमुट और हरी-भरी घाटियों से भरा है। डाॅ0 राधाकान्त वर्मा इस जिले की टेढ़ी-मेढ़ी आकृति के कारण इसे अफ्रीका जैसे पैमाने से समीकृत करते हैं। यह नगर विन्ध्य गिरि के उत्तर तथा गंगा के दक्षिण तट पर 15 वर्ग मील के क्षेत्र में अवस्थित है। यह अक्षांश 0.250520 से 250320 उत्तर तथा देशान्तर 82070 से 830390 पूर्व में मध्यस्थित है। यह नगर गंगा के किनारे इलाहाबाद से 55 मील पूर्व तथा वाराणसी से 46 मील पश्चिम में दक्षिणांचल मार्ग की एक शाखा पर स्थित है। इस क्षेत्र के पश्चिमी अंश, अगोरी, राजपुर चोपन, विजयगढ़ का क्षेत्र प्रागैतिहासिक शैलचित्रों की खान है। पूरब करमनासा तट तक कैमूर के आंचल में एक दर्जन स्थान अवश्य है, जहाँ पाषाण आद्य धातुयुगीन शैलचित्रों की खोज की जा चुकी है। मिर्जापुर जिले के एक ओर सोन नदी के कांठे से लगा कैमूर का पठार है। पठार से लगी विन्ध्य पहाडि़याँ हंै, जो कि खोह, दर्रा और घाटियों से भरी है। अधिकतर गुहाचित्र सोन तथा बेलन की घाटी और नालों झरनों से संबंधित पहाडि़यों और गुफाओं में बने हैं।



चित्र संख्या-1




 मिर्जापुर क्षेत्र में 105 से अधिक शिलाश्रय तथा गुफाएँ प्राप्त हुई है, जिसमें गुहावासी मानव की चित्रकला का प्रमाण है। ये प्रायः पहाडि़यों के ऊपर, उनकी ढाल की तरफ घाटी को देखते हुए, नदियों, नालों तथा लघु नदियों के किनारों पर मिलते हैं। इनके आकार में विविधता दृष्टिगोचर होती है। कैमूर की पहाडि़यों को स्थानीय लोग सामान्यतः ‘कैमोर’ कहते हैं। गुफा की भीतरी छत और भित्तियों पर अंकित विविध प्रकार के आखेट दृश्यों , पशु-चित्रों तथा नर्तन-वादन आदि के आलेखनों से उन आदिम निवासियों की कला प्रियता और सौन्दर्यबोध का परिचय मिलता है। ये चित्रण-शैलाश्रयों के दीवारों व छतों पर किया गया है। कभी-कभी चित्र खुले में ऊँचे प्रस्तर पटल पर भी मिलते हैं। चित्र संयोजित रूप में नहीं बनाये गये हैं।
प्राकृतिक आपदा तथा विभिन्न प्रकोपों को झेलते हुए हजारों वर्षों से ये शिलाश्रयी चित्र जिनमें कि आदिमानव के जीवन सम्बन्धी विचारों, विश्वासों व क्रिया-कलापों का जीवन्त आरेखन हुआ है, ये अचानक ही प्रकाश में नहीं आये। स्पेन, फ्राँस के प्रागैतिहासिक चित्र जब प्रकाश में आए तब से लगभग एक दशक के पश्चात् भारत में भी शिलाचित्र चर्चा का विषय बन गया। इन शैलाश्रयी चित्रों की खोज का श्रेय सर्वप्रथम कार्लाइल और काकबर्न को जाता है। विन्ध्य क्षेत्र में स्थित मिर्जापुर के निकटवर्ती कैमूर की पहाडि़यों के गुहा चित्रों का परिचय आर्चिवाल्ड कार्लाइल को सन् 1880 ई0 में मिला। वे इसकी सूचना ही दे पाये थे, जबकि इसी समय काकबर्न ने इन चित्रों को देखा, इसका सचित्र विवरण ‘एशियाटिक सोसायटी आॅफ बंगाल (1883 ई0 की पत्रिका में प्रकाशित है। इस लेख के साथ ‘घोड़मगर’ नामक शिलाश्रय से प्राप्त गैंडे का आखेट दृश्य की रेखानुकृति भी प्रकाशित हुआ। ‘केव ड्रांइग्स इन दी कैमूर रेंज, नार्थवेस्ट प्रार्विंसेंज (1899)’ में प्रकाशित काकबर्न महोदय का सचित्र लेख है, जिसमें भल्डारियां लोहरी और लिखनिया के चित्रों की अनुकृतियां भी दी गयी हैं। इन्होंने इन चित्रों को प्राचीन माना तथा कैमूर क्षेत्र के शिलाश्रयों जो कि दक्षिणी श्रेणी (सोन नदी के किनारे) में स्थित था, श्रेष्ठ बताया गया। उन्होंने अपने लेख में बांदा जिले के मर्कडी और मझावन, इलाहाबाद के खैरागढ़ परगना, मिर्जापुर, चुनार, पभोसा और चित्रकूट आदि का भी उल्लेख किया गया है।
‘इम्पीरियल गजेटियर’ (1909) के अंक में कैमूर क्षेत्र के शैलचित्रों की पुनः समीक्षा की गयी। उन्हें नवपाषाण काल का बताया गया और 3,000 वर्ष से अधिक प्राचीन अनुमानित किया गया। डी0एल0 ड्रेक द्वारा प्रस्तुत मिर्जापुर के 1911 ई0 के गजेटियर में पांचवें अध्याय के अन्तर्गत इतिहास का परिचय देते हुए वहाँ के चित्रमय गुफाओं को सर्वप्राचीन मानव निवास स्थल बताया गया है। इसके पश्चात् मिर्जापुर के प्रागैतिहासिक शैलचित्रों को नये क्षेत्र का पता रायसाहब श्री मनोरंजन घोष ने लगाया, उन्होंने लिखनिया (छातु ग्राम के समीप) से अपना सर्वेक्षण प्रारम्भ किया। एक प्रमुख बात यह थी कि इनके सर्वेक्षण वाले क्षेत्रों में काकबर्न वाला क्षेत्र सम्मिलित नहीं था।
गार्डन का प्रभुत्व 1880-1932 ई0 के बीच प्रथम स्तर पर रहा, इस काल में उन्होंने मिर्जापुर तथा बांदा पर कार्य किया। इसके बाद गार्डन ने 1935 ई0 में अपने कार्य के द्वितीय स्तर की शुरूआत की जो निरंतर 10 वर्षों तक चलता रहा। इस समय उन्होंने प्रथम स्तर के क्षेत्रों के साथ-साथ पंचमढ़ी और आस-पास के क्षेत्रों का भी भ्रमण किया। यहाँ से सम्बंधित शिलाचित्रों के विषय में गार्डन ने विदेशों में भी प्रकाशन कराया।
प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष प्रो0 जी0 आर0 शर्मा द्वारा की गयी रौंप, लिखनिया, कंडाकोड तथा बसौली की शोधयात्रा का सचित्र विवरण भी प्रकाशित है। सन् 1880 ई0 में इस प्रदेश की यात्रा करके कैमूर की पहाडि़यों के चित्रों से सम्बंधित जो लेख काकबर्न ने प्रकाशित किया था, इसी को ध्यान में रखते हुए शर्मा जी ने इस क्षेत्र का निरीक्षण किया तथा नवीन चित्रित शिलाश्रयों के अतिरिक्त पुरातन अस्थियाँ और लघु पाषाणास्त्र भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराया। ‘आजकल’ के जून (1958 ई0) के अंक में  ‘भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकलाः एक परिचय’ शीर्षक से प्रस्तुत जगदीश गुप्त का एक लेख प्रकाशित हुआ जिनमें मिर्जापुर नामक सुप्रसिद्ध स्थान से प्राप्त शिलांकित चित्रों का सचित्र विवरण प्रथम बार प्रकाश में आया। ‘सम्मेलन पत्रिका’ के कला विशेषांक (सन् 1958 ई0) में भारत के ‘कला मंडप’ शीर्षक से जो सूचनाएँ दी गयी है, उसमें मिर्जापुर क्षेत्र के अंतर्गत सहबइयापथरी, मोरहनापथरी, बागापथरी, लकहरपथरी नामक पहाडि़यों का उल्लेख मिलता है, जिन पर लगभग सौ कला-मण्डल प्रागैतिहासिक काल के चिह्नित हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डाॅ0 राधाकान्त वर्मा ने पहली बार मिर्जापुर क्षेत्र के प्रागैतिहासिक चित्रों का पाषाणयुगीन संस्कृतियों पर क्या प्रभाव पड़ा, उक्त सन्दर्भ को अपने शोध प्रबन्ध में सचित्र दर्शाया है। इसके बाद डा0 जगदीश गुप्त ने स्वयं यहाँ के स्थानों का सर्वेक्षण कर सन् 1967 में अपनी पुस्तक ‘प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला’ में मिर्जापुर के शैलचित्रों का सम्पूर्ण विवरण दिया। तत्पश्चात् उत्तर प्रदेश के पुरातत्व द्वारा मिर्जापुर के सर्वेक्षण में जो शिलाश्रय पाये गये उनमें ढोलकिया पहाड़, जटवा, चिरहिया और सामदेवी आदि का पहाड़ जो कि अहरौरा क्षेत्र में मुख्य है। इन क्षेत्रों में जो चित्र पाये गये उनमें दौड़ते हुए जानवर पशु-पक्ष़्ाी, सूर्य चतुर्भुजाकार टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं। ये चित्र लाल रंग से चित्रित किये गये हैं। ए0 एच. बाड्रिक की ‘प्रीहिस्टाॅरिक पेण्टिंग’ (जो कि 1958 ई0 में प्रकाशित) में मिर्जापुर के घायल सुअर को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा मिली है।




चित्र संख्या-2   



राधाकान्त वर्मा महोदय ने मिर्जापुर के पाषाण युगीन संस्कृतियों पर प्रस्तुत अपने शोध-प्रबन्ध में शिलाश्रय के चित्रों की स्थिति पर विचार व्यक्त किया है। पूर्व ज्ञात राजपुर और अहरौरा क्षेत्रों के अतिरिक्त उन्होंने नवोपलब्ध भैंसोर क्षेत्र को क्रमशः चार, छः और नौ वर्गों में विभाजित करके प्रथम बार व्यवस्थित एवं सचित्र परिचय दिया। उन्होंने इलाहाबाद विकास क्षेत्र के विषय में वर्णन किया। उनके अनुसार वहाँ के कला के निर्माता (आक्षेटक-संग्रहक वर्गद्ध प्रायः उन्हीं पशुओं का चित्रण करते थे, जो कि भोज्य थे, जिनमें से हिरण उनका प्रिय पशु था, जिसके बाद गैंडे का स्थान आता था। गाय, भैंस का चित्रण, हाथी का राजसी रूप तथा जंगली सुअर को झुण्ड में प्रदर्शित किया है। रौंप शिलाश्रय समूह के एक शिलाश्रय में एक्स-रे शैली में निर्मित एक घोड़ा पहचाना गया है। उन्होनें चित्रण प्रक्रिया को एक विकासात्मक क्रम में विभाजित किया, जो निम्न है- 
1. प्राकृतिक 2. भाषात्मक 3. सांकेतिक 
परन्तु इन चित्रों में दिन-प्रतिदिन की क्रिया -कलापों से सम्बंधित दृश्यों का चित्रण नहीं मिलता और न ही स्त्री-पुरूष की आकृतियों में विभेद ही किया गया है। इन सभी चित्रों को एस0 के0 पाण्डेय ने पाँच भागों में बाँटा जो कि निम्न है- 1. प्राकृतिक 2. साहित्यिक 3. आकारिक  4. लौकिक 5. ग्रहणीय 
इनके अनुसार चित्रण क्रिया का प्रारम्भ उच्च पाषाण काल के समय में हुआ है। वी0एन0 मिश्रा तथा मठपाल महोदय ने सम्पूर्ण चित्रकला के निर्माण काल को विभाजित कर नौ कालखण्डों में रखा जिनमें प्रथम पाँच प्रागैतिहासिक काल, छठें को संक्रमण काल तथा ताम्र पाषाण युगीन एवं अन्त के तीन को ऐतिहासिक काल में स्थान प्रदान किया। ककड़कर ने अपना मत व्यक्त करते हुए निर्माण काल को पाँच कालों में बाँटा तथा इन्हें 20 शैलियों में रखा, जिनमें से प्रथम 6 शैलियों को मध्य पाषाणकाल 2,500 ई0पू0 की कालावधि में स्थान प्रदान किया। 
उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र के शिलाश्रयों को सर्वप्रथम उच्चपूर्व पाषाण काल तथा मध्य पाषाण काल (संक्रमण काल)के लोगों ने अपना आवास बनाया, जिससे ये अनुमान किया जा सकता है, कि इन्हीं लोगों ने यहाँ के चित्रों का निर्माण किया होगा। अतः सम्भव है, कि मध्य पाषाणकाल की तिथि ही शैलचित्रों की तिथि होगी। यदि कार्बन तिथियों की ओर दृष्टिपात करें, तो उस आधार पर संक्रमण काल को 14,000-13,000 ई0 पू0 से 10,000-9,000 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में तथा मध्य पाषाणकाल को 12,000-11,000 ई0 पू0 से 2,000-1,500 ई0 पू0 के काल कोष्ठक में रख सकते है। 
काकबर्न को सर्वपथम रौंप नामक जगह में गैंडे का चित्र देखने को मिला। तत्पश्चात् विजयगढ़ के समीपवर्ती इसी भू-भाग के शिलाश्रयों में गैंडे के अनेक चित्र दिखायी दिये। परन्तु उन्होनंें जिस गैंडे का दृश्य प्रकाशित किया वह विजयगढ़ से दूर घाड़मगर का है। इस दृश्य में गैंडे ने एक शिकारी को अपनी सींग से आगे की ओर उछाल दिया है तथा अन्य शिकारी समूह प्रस्तर युगीन भाले से गैंडे पर प्रहार कर रहे हैं। ये गैरिक वर्णी प्रभावशाली चित्र है। 


चित्र संख्या-3    



काकबर्न ने लिखनिया-2 के विवरण को प्रधानता प्रदान किया है। इसके बायीं ओर कंडाकोट और सोरहोघाट के शिलाश्रय प्राप्त होते है, जो कि राबर्टसगंज से चार मील दूर है। पास में ‘ढोकवा महारानी’ नामक से विख्यात शिलाएँ है, जिनमें ‘पे्रतभय के दृश्य’ के साथ-साथ ‘साही के आखेट’ दृश्य मिलता है। गरई और भल्डारिया नदी के संगम पर स्थित छातु ग्राम से प्राप्त आखेट दृश्य पर काकबर्न महोदय का हस्ताक्षर अंकित है। सम्भवतः इस स्थान की पहली खोज इन्हीं के द्वारा की गयी है। यह आखेट दृश्य शिलाचित्रों में सबसे पुरातन स्थान बनाए हुए है, यह दृश्य हाथी के आखेट का है। कंडाकोट पहाड़ के समीप लिखनिया नामक गुफा के दायीं ओर गहरे गेरूए रंग में ‘सांभर का आखेट’ मिलता है। इसकी खोज भी काकबर्न महोदय ने ही किया तथा सन् 1899 में ‘जे0 आर0 ए0 एस0’ में प्रकाशित किया। उन्होनें यहाँ के काँटेदार भाले के चित्रण शैली की तुलना आस्ट्रेलिया के आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त शैली से की है। 




चित्र संख्या-4 



डा0 जगदीश गुप्त ने मिर्जापुर के सम्भवतः समस्त क्षेत्र से प्राप्त विभिन्न प्रकार के आखेट चित्र का वर्णन अत्यन्त ही सुगठित रूप में किया है। इन्होनें मुख्यतया क्षेत्र परिचय से लेकर रंग योजना के साथ- साथ भौगोलिक परिचय को भी बताने का प्रयास किया है। इन्होनें चित्रों की स्वाभाविकता को ध्यान में रखते हुए चित्रों का वर्णन अत्यन्त ही मनोहारी रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया। पहली बार यहाँ पशुपालन की अवस्था के पूर्व युग की मनः स्थिति की परिकल्पना की। हालाँकि पक्षियों के चित्रों का अभाव मिलता है। परन्तु कुछ स्थानों पर पक्षी भी अंकित पाये गये है, जैसे-लिखनिया-1 में गहरी लाल रंग की रेखाओं से अंकित एक मयूराकृति जो कि ज्यामितीय कलात्मक विन्यास के साथ संपुजित किया गया है। इसी के साथ-साथ कोहबर नामक स्थान से प्राप्त सशक्त लाल रेखाओं में एक मयूराकृति की अद्वितीय चित्र है। चित्रों में मानव आकृतियाँ अधिकतर समूह में आखेट को जाते हुए या करते हुए दृष्टव्य है अथवा अकेले किसी पशु का सामना कर रहे हैं। कहीं-कहीं मनोरंजन के दृश्य तथा कहीं-कहीं नृत्य वादन की अवस्था में दिखते हैं। अधिकतर चित्र असम्बद्ध प्रतीत होते हैं। रौंप से प्राप्त एक शिलाश्रय में अचित्र स्त्री की लगती है परन्तु रेखाएँ अस्पष्ट होने से उसका केवल आभास मात्र ही हो पाता है। 
आखेट, नृत्य-वादन, युद्ध अश्वारोही आदि के अतिरिक्त आदिम मानवों में धर्म एवं उपासना के भी भाव परिलक्षित होते हैं। ‘स्वास्तिक’ का प्रमाण हमें पंचमढ़ी क्षेत्र के बनियाबेरी नामक गुफा से मिलता है। लिखनिया-2 की गुफा के एक चि़त्र में एक अद्भुत देवाकृति की परिकल्पना दिखती है। इसके प्रतीकात्मक रूप  को देखकर देवत्व का आभास होता है। इसी क्रम में अन्य स्थल कंडाकोट पहाड़ के पास बसौली ग्राम के निकट स्थित ‘ढ़ोकवा महारानी’ में विचित्र एवं रहस्यमयी भाव की एक आकृति है, जिसके पैर उल्टी दिशा में अंकित है तथा हाथ वरद मुद्रा में अंकित  है। रौंप नामक स्थान पर हमें चैक पूरने की अनुकृतियाँ मिलती है। इसी स्थान पर कई ज्यामितीय प्रतीक चिह्न प्राप्त होते हैं, जिन्हें वृत्तों तथा आयत की सहायता से बनाया गया है। इस समय के कलाकार की रेखाओं में जादुई भावनाओं के समस्त गुण विद्यमान थे। इनके अंकनों में एक अन्य गुण स्वाभाविकता से प्रतीकात्मकता की ओर गमन भी दृष्टिगोचर होता है। इन्हें धूप-छाँव का अनुभव था, क्योंकि जानवरों के आकार विशेष को काले या लाल रंगों द्वारा इसके प्रभाव को दिखाने का प्रयत्न किया गया।


चित्र संख्या-5   

चित्रण प्रायः गेरू तथा लोहे के अन्य भस्मों से किया जाता था, जो पीले, भूरे, नारंगी तथा लाल रंगों में नोडूल अथवा छर्रियों के रूप में मिलते हैं। काले के लिए मैगनीज आक्साइड तथा सफेद के लिए काउलिन (एक प्रकार का चूना पत्थर) अथवा चल्सिडनी प्रयोग में लाते थे। गहरे हरे रंग के लिए ताँबे का मिश्रण प्रयोग करते थे। जानवरों के पुट्ठों की हड्डियों का प्रयोग वह सम्भवतः प्लेट या तश्तरी के रूप में करते थे। आकृतियों की सीमारेखा को अधिकांश नुकीले पत्थर से खोदकर बनाया गया है, जिससे उनका स्थायित्व बना रहे। रंगने के लिए जिस तूलिका का प्रयोग करते थे, उसे रेशेदार लकड़ी, बाँस या नरकुल आदि के सिरे को कूटकर बनाते थे। 
ये शिलाचित्र विषय शैली तथा सामग्री की दृष्टि से उस समय के मानव जीवन के प्रतीक हे, अर्थात् इनके विषय मुख्यतः जानवर, उनका आखेट करते हुए मनुष्य, आपस में युद्ध करते हुए मनुष्य एवं पूजनीय आकृतियाँ है। इनकी शैली आदिम है। इनकी सामग्री घातु (खनिज रंग मुख्यतः गेरू, हिरौंजी आदि) हैं, तथा इनके स्थान उक्त गुहागृह एवं खुली चट्टानें हैं। अस्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक चित्रकला कृतियाँ तत्कालीन मानव जीवन की जीवन्त कहानी है, जिनके सूक्ष्म अवलोकन से उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा प्रकृति शक्तियों के प्रति उनके विश्वासों का आकलन तथा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। 

संदर्भ-ग्रन्थ
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