Wednesday 31 December 2008

भगवद्गीता में बन्धन और मोक्ष की अवधारणा


डा0 रामसेवक दुबे
उपाचार्य, संस्कृत विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।


उपनिषदों के पश्चात् आध्यात्मिक चिन्तनधारा महर्षि वेद-व्यास की मनीषा से ही फूटती है। परमात्मा के ही सगुण रूप में सर्वमान्य अवतारी ईश्वर कृष्ण को वक्ता के रूप में प्रस्तुत करके व्यास ने गीता को उपनिषदों की ही श्रेणी में रखा है। उपनिषद्-दर्शन की जटिलताओं एवं वैदिक अध्यात्मवाद की न्यूनताओं का निराकरण करके अत्यन्त सरल, सुस्पष्ट एवं सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य स्वरूप में ब्रह्म-विद्या को प्रस्तुत करने का श्रेय निस्सन्देह गीता को ही जाता है। औपनिषद-दर्शन का अत्यन्त विकसित रूप गीता में प्रतिपादित हुआ है। वेदान्त की प्रस्थान-त्रयी के अन्तर्गत स्मृति प्रस्थान होने का भी महत्त्वशाली स्थान गीता को प्राप्त है। इसे ब्रह्म विद्या एवं योगशास्त्र की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है। जहाँ उपनिषदों में वर्णित जगत् का मिथ्यात्व एवं अद्वैत परमात्मा की सार्वकालिक परमार्थ सत्ता का उल्लेख गीता में किया गया है कि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा से सम्पन्न पुरूष गीता में उपदिष्ट मार्ग के द्वारा इस संसार में इतनी व्यावहारिक कुशलतापूर्वक आचरण कर सकता है कि पुनः सांसारिकता का पाश उसे नहीं बाँध सकता है।
जीव की संसार के प्रति अनुरक्ति ही जन्म-मृत्यु रूप बन्धन का कारण है। अनेक प्रकार के लौकिक सम्बन्धों एवं स्वार्थों में लिप्त पुरूष स्वयं को कभी क्षण भर के लिए भले ही संतुष्ट पाता हो परन्तु जीवन कण्टकाकीर्ण ही होता है। विविध छल-प्रपंचों में प्रति क्षण व्यस्त होने के कारण सफलताओं पर क्षणिक सुख तथा असफलताओं पर हृदय-विदारक दुःखों का अनुभव ही जीवन का मुख्य अंग है। इन्हीं धर्म-शास्त्रीय कर्मकाण्डों के द्वारा ऐसे अनेक उपायों का भी आश्रय मनुष्य लेता रहा है, जो सांसारिक दुःखों से रहित, सुखमय स्वर्गलोकादि का कल्पनामय प्रारूप प्रकट करते पुण्यादि सकाम अनुष्ठानों के द्वारा प्राप्य-स्वर्गलोक भी पुण्यकर्मों के परिणामों के साथ ही समाप्त हो जाते हैं और मनुष्य की पुनः वही दुःखमय जन्म-जरा-मरण रूप विनाशशील गति हो जाती है।1 जो अनादिकाल से अपनी भयानकता को धारण किये हुए है। इस प्रकार यह जगत् निरन्तर केवल दुःखमय ही है।
दो प्रकार की सत्ताओं का उल्लेख गीता में किया गया है- क्षर एवं अक्षर। क्षर के अन्तर्गत संसार की वे सम्पूर्ण वस्तुएँ है, जो नाशवान है, जिनमें किसी न किसी प्रकार की क्षति अथवा विकार सदैव होता रहता है अर्थात कुछ समय पश्चात् वस्तु का वह स्वरूप नष्ट हो जाता है जो पहले था। अक्षर सत्ता जीवात्मा स्वयं है। यह अविनाशी है।2 संसार में दृष्टिगोचर होने वाली समस्त वस्तुएँ सत्त्व, रजस एवं तमस् गुणों से युक्त रहती है। जीवात्मा इन्हीं वस्तुओं को अपने जीवन का साधन मानता है, किन्तु विनाशशील होने के कारण वस्तुओं में कोई स्थैर्य तो होता नहीं और जीव एक से दूसरी दूसरी से तीसरी वस्तु के प्रति निरन्तर मोहित होता रहता है। इस प्रकार संसार के समस्त जीवों की प्रवृत्ति ही ऐसी बन जाती है कि वह पदार्थों में ही अपना जीवन निहित मान लेता है। इसका प्रमुख कारण गीता में माया को माना गया है जो एक अलौकिक एवं अद्भुत शक्ति है। माया का वशीभूत हुआ जीव विविध प्रकार की आसुरी प्रवृत्तियों और दुष्कृत्यों में इस प्रकार लिप्त रहता है कि उसे अपना वास्तविक स्वरूप ही विस्मृत हो जाता है।
इसी प्रकार वह क्षर-समूह है, जिसके अन्तर्गत वे समस्त नित्य वस्तुएँ है और इसीलिए अनित्य वस्तुओं का कार्य होने से संसार को भी अनित्य या विनाशशील ही माना जाता है। जगत् को ही अपना सर्वस्व मानकर अक्षर जीवात्मा इसमें प्रवृत्त होता है तथा इसी अनित्य वस्तु-समूह को साधन मानकर अपना अभीष्ट भी सिद्ध करना चाहता है। परिणाम-स्वरूप सुखी या दुःखी रूप में भी स्वयं को अनुभव करता है। इसका कारण माया या प्रकृति ही है। जीवात्मा का प्रकृति तादात्म्य ही उसे सुखी और दुःखी होने के लिए बाध्य करता है। इस तादात्म्य के कारण ही जीवात्मा सांसारिक वस्तुओं के प्रति स्वयं को कर्ता या भोक्ता के रूप में अनुभव करता है। फलस्वरूप अनेक कामनाओं को प्राप्त करने के लिए उसे अनेक योनियों में विविध प्रकार के शरीर धारण करना पड़ता है।3 इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि अक्षर जीवात्मा क्षर प्रकृति में माया के वशीभूत होकर ही प्रवृत्त एवं बन्धनग्रस्त होता है।
परमात्मा एवं जीवात्मा में विभेद प्रकट करने का कारण भी माया को ही माना गया है, क्योंकि संसार के प्रति जीव को प्रेरित तो माया ही करती है। माया से रहित आत्मा ही तो परमात्मा या उत्तम पुरूष है। माया से रहित होने पर यह क्षर एवं अक्षर रूप  में कहे गये उन दोनों सत्ताओं से उत्कृष्ट है और समस्त लोगों में आत्मस्वरूप से व्याप्त है। यही परमात्मा है ईश्वर एवं अव्यय आदि पदों का भूयसा प्रयोग भी इसी के लिए गीता में हुआ है। समस्त प्राणियों में आत्मा के रूप में रहता हुआ भी माया से सर्वथा अप्रभावित होने के कारण इसे साक्षी या उपद्रष्टा भी कहा गया है, क्योंकि विषय-भोगों का प्रत्यक्ष द्रष्टा तो इन्द्रियाँ ही होती हैं। इस प्रकार प्रतिपादित यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि गीता में भी उपनिषदों की भाँति एक अद्वैत परमात्मा की नित्य सत्ता स्वीकार की गयी है, जो सर्वव्यापी एवं अव्यय है। अक्षर जीवात्मा माया के कारण इस क्षर संसार के प्रति स्वयं का तादात्म्य स्थापित करता है। वस्तुतः माया से रहित जीवात्मा परमात्मा ही है। माया से युक्त होने पर ही शरीर इत्यादि को धारण करता है और उसकी जीव रूप में प्रवृत्ति होती है। जैसे आकाश में घटादि उपाधि के द्वारा घटाकाश की पृथक प्रतीति होती है, उसी प्रकार जीव भी परमात्मा का सोपाधिक अंश है। माया से आवृत्त होने के कारण अव्यय, अज, परमात्मा ही उसका स्वरूप है, यह विस्मृत हो जाता है। स्वरूप की यह अनभिज्ञता ही जीवत्व है। यही बन्धन है।
अज्ञानपर्यन्त जीव एक से दूसरा शरीर धारण करता रहता है। गीता में जीर्ण वस्त्र का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि जैसे पुराना वस्त्र जब व्यर्थ हो जाता है तो लोग नया वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार प्राप्त शरीर से तुष्टि न होने पर जीव भी निष्क्रिय-शरीर से नये-नये शरीरों में संक्रमित होता रहता है। बार-बार इच्छाओं की अपूर्वता के कारण यह जन्मादि चक्र निरन्तर चलता रहता है। अनादिकाल से इसी चक्र में दुःखों को सहन करता हुआ जीव इससे बचने के लिए भी उसी प्रकार प्रयत्नशील रहता है, जिस प्रकार सुखों की प्राप्ति के लिए। अतएव अनेक जन्मों में किये गये दुःख-निवारणार्थ प्रयत्न अर्थात् जन्मादि जन्य दुःख से बचने के लिए जो शुभ-कर्म जीव किये रहता है, उन सबके फलस्वरूप ही कभी जीव के अज्ञान का दूरीकरण होता है। अज्ञान नाश के साथ ही आत्म जिज्ञासा एवं तदनुरूप प्रयत्न के द्वारा एक ऐसी अवस्था आ जाती है, जब जीव का अशेष अज्ञान नष्ट हो जाता है और उसे आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है और वह परमात्मा में ही विलीन हो जाता है। इसे गीता में परमगति की अवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है।4 यही मोक्ष के रूप में भी माना गया है।

मोक्ष का स्वरूप-
मोक्ष का स्वरूप विषय में गीताकार का मन्तव्य है जीवात्मा को परमात्मा का वास्तविक ज्ञान एवं तद्रूपता की प्राप्ति। इसे अनेक नामों से गीता में अभिहित किया गया है, जो इसके स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हैं। मुक्ति, ब्रह्मी-स्थिति, नैष्कम्र्य, निस्त्रैगुण्य, कैवल्य, ब्रह्म-भाव, गुणातीत, जीवनमुक्त, स्थित-प्रज्ञ, ज्ञानी, पण्डित, परमगति अनामयपद, शाश्वतंपदमव्ययम्, पराशान्ति इत्यादि मोक्षवाचक पद अनेक बार गीता में कहे गये हैं। मुक्ति वह स्थिति है, जिसमें संसाररूपी अज्ञान राशि से जीवात्मा छूट जाता है और सदा के लिए नित्य, निरतिशय अलौकिक आनन्द को प्राप्त हो जाता है। इसे ही गीता में सर्वोत्तम सुख भी कहा गया है। जीवात्मा नितान्त शान्त मनस निष्पाप होकर सच्चिदानन्द परमात्मा में एकीभाव को प्राप्त हो जाता है। परमात्मा में एकीभूत मुक्तात्मा को अखिल ब्रह्माण्ड में ऐक्य-दर्शन होता है। समस्त भेद-भावों से वह सर्वथा रहित हो जाता है।5 मुक्तात्मा को किसी भी सांसारिक वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती, बल्कि वह तो आत्मा में ही नित्य-तृप्त की दशा में होता है। न तो कोई कत्र्तव्य अवशेष होता है और न ही मुक्तात्मा के लिए कोई अवाप्तव्य ही होता है। स्वर्गलोकादि से भी श्रेष्ठ एवं सर्वज्ञ की यह अवस्था है और यही परम श्रेष्ठ ऐश्वरपद या ब्रह्मपद भी है। ज्ञानों में सर्वोत्तम ज्ञान आत्मज्ञान ही है। आत्मज्ञान ही प्राप्त करके ज्ञानीजन शरीर-बन्धन से सदा के लिए मुक्त होकर मोक्ष रूप परम सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हंै। गीता में जन्म-जरा-मरण का प्रमुख कारण अज्ञानमय कर्मों को ही माना गया है। ये कर्म सकाम कर्म के रूप में ही जीवों के द्वारा किये जाते हैं। तत्सम्बन्धी कामना के प्रति जीव को अपार आसक्ति होती है, जिसके अपूर्ण रह जाने से उसे अत्यन्त कष्ट मिलता है। आत्मज्ञ-जन किसी भी ऐसे कर्म से युक्त नहीं होते जो दुःख का हेतु बन जाय। शरीरस्थ होते हुए भी उनकी स्थिति अनामय अर्थात् समस्त उपद्रवों से रहित होती है अतएव उनके द्वारा अकर्तृत्वभाव से किये गये किसी कर्म का परिणाम उन्हें बन्धन में नहीं रख सकता, अपितु जन्मादि के बन्धन से विनिर्मुक्त अनामय मुक्ति की प्राप्ति में सहायक ही होता है।
गीता दर्शन में यह स्पष्टतया उल्लेख किया गया है कि जीवात्मा को आत्मा का ज्ञान हो जाने पर, जीवित रहते ही मोक्ष हो जाता है। इस अवस्था में जीव का सम्पूर्ण अज्ञान विनष्ट हो जाता है और उसकी बुद्धि एकमात्र अद्वैत परमात्मा में विलीन हो जाती है। इस अवस्था को स्थितप्रज्ञ के रूप में स्वीकार किया गया है। आचार्य शंकर स्थितप्रज्ञ का भाष्य करते हुए कहते हैं- स्थिता-प्रतिष्ठिता अहम् अस्मि परं ब्रह्म इति प्रज्ञा यस्य स स्थितप्रज्ञः। अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्मतत्त्व में ऐक्यभाव को प्राप्त होकर स्थित या चंचलता रहित हो जाती है, वह समस्त प्रपंच से मुक्त होकर स्थितप्रज्ञ रूप जीवन्मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गीता शरीर को मुक्ति की प्राप्ति में बाधक कदापि स्वीकार नहीं करती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शरीर मुक्ति के लिए साधन ही है। स्थितप्रज्ञ अवस्था को जीव-मुक्ति इसलिए माना गया है कि जीवात्मा का अज्ञान यद्यपि विनष्ट तो हो गया तथा उसकी ज्ञान-स्वरूप आत्मतत्त्व में अवस्थिति भी हो गयी है किन्तु पूर्व कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त शरीर उसी प्रकार से स्थित रहता है, जिस प्रकार एक सामान्य पुरूष का शरीर होता है। ऐसी स्थिति में यह सहज ही प्रश्न उठता है कि यदि सामान्य पुरूष एवं स्थितप्रज्ञ में कोई विलक्षणता दृष्टिगोचर नहीं होती तो क्या प्रमाण है कि जीवनमुक्ति वही मोक्षावस्था है, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। अतः गीताकार स्थितप्रज्ञा रूप जीवनमुक्ति की विलक्षणताओं का उल्लेख करते हुए उन सभी अवस्थाओं का तथैव मानते हंै, जो मोक्षावस्था में होती है। केवल अन्तर यह है कि जीवनमुक्ति के रूप में स्थितप्रज्ञ की जो अवस्था है वह एक शरीरधारी की ही अवस्था है अतएव शरीर से उसी रूप में सभी कार्य करने पड़ते हैं। किन्तु शरीर के किसी भी कार्य से अथवा उस कार्य के किसी भी फल से सन्तुष्ट या क्षुब्ध नहीं होता है।
स्थितप्रज्ञ पुरूष की सभी मनोकामनाएँ व्यक्त हो जाती हैं और वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है।6 शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक किसी भी प्रकार के दुःखों से वह दुःखी नहीं होता तथा किसी भी प्रकार के दुःख से उसका रंचमात्र भी लगाव नहीं रहता। आशक्ति, भय एवं क्रोधादि से सर्वथारहित संन्यास भाव को प्राप्त होना ही स्थितप्रज्ञावस्था है। आत्मसंस्थ पुरूष को बाह्य संसार की कोई भी प्रतिक्रिया प्रभावित नहीं कर पाती है। अपनी सभी इन्द्रियों को विषय वासनाओं से परांगमुख करके कछुए की भाँति अन्तर्मुखी कर लेता है। सर्वथा समाहित चित्त पुरूष नित्य शुद्ध-बुद्ध परमात्मा में एकनिष्ठ होकर अज्ञान-पुंज संसार में विवेक युक्त रहता है, तथा जिन सांसारिक भागों के प्रति समस्त जीव लालायित रहते हैं, उनसे उदासीन रहता है। निष्काम पुरूष की यह अवस्था परम शान्तिमय होती है। इस प्रकार एक सामान्य जीव में पायी जाने वाली अखिल विकृतियों से रहित परमात्मा में लीन परम शान्त स्थितप्रज्ञ की यह अवस्था ब्राह्मी स्थिति के रूप में गीता में कही गयी है। इसी स्थिति में रहता हुआ पुरूष पुनः अज्ञान से मुक्त नहीं होता है तथा मृत्यु नामक शरीर वियोग के अन्तिम काल तक इसी अवस्था में रहने वाला स्थिरमति परमात्मा के रूप को प्राप्त होता है। अन्तकाल तक इस स्थिति की अपेक्षा इसलिए की गयी कि यदि मृत्यु के समय यही स्थिति न रही तो वासनाएँ पुनः प्रदीप्त हो उठेंगी और पुनर्जन्म की सम्भावना बनी रहेगी। गीता में यह सर्वमान्य है कि मृत्युकाल में जैसी वासना रहती है, पुनर्जन्म उसी के अनुसार होता है। अतएव स्थितप्रज्ञता की अवस्था में मृत्यु होने से ब्रह्म-निर्वाण की प्राप्ति मानी गयी है। इसी ब्रह्म-निर्वाण को ही परवर्ती दार्शनिकों ने विदेह-मुक्ति के रूप में स्वीकार किया है। विदेह-मुक्ति अवस्था के प्राप्त हो जाने पर मुक्तात्मा सूक्ष्म शरीर से भी मुक्ति पा जाता है तथा पुनः जन्मादि नहीं होता है। परमात्मा में तद्रूपावस्थान की इसी स्थिति को गुणातीतावस्था भी कहा गया है। आत्मा का सम्यक ज्ञान होते ही ज्ञानीजनों को इसका विवेक हो जाता है कि शरीरादि सत्त्व, रजस् एवं तमस् इत्यादि गुणों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। इसी ज्ञान के द्वारा वह इन गुणों का भी उल्लंघन कर जाता है, अर्थात् गुणों के द्वारा अनेक विषयों में प्रवृत्त करायी गयी इन्द्रियों को एवं तज्जन्य फलों को त्याग देता है। किसी कर्म के प्रति आसक्त नहीं होता बल्कि गुणों के द्वारा उनका होना जानकर स्वयं को उनसे मुक्त कर लेता है। इस प्रकार सभी कष्टों एवं जन्म‘मरणादि से भी मुक्त हो जाता है तथा अमर पद या मोक्षपद की प्राप्ति करता है।
जीवनमुक्त के रूप में प्रतिपादित स्थितप्रज्ञ या गुणातीत पुरूष की स्थिति संन्यासी के तुल्य प्रतीत होती है। ऐसा संन्यासी जिसको इस असार संसार से कोई कामना नहीं है बल्कि जीवन-पर्यन्त परमार्थ के कार्यों में ही लगा रहता है। मानापमान, निन्दा-स्तुति एवं शत्रु-मित्र में सदा समान दृष्टि रखता है।7 गीता दर्शन की यह एक अप्रतिम विशेषता है कि ज्ञानावस्था में भी, जबकि युक्त पुरूष को किसी प्रकार की इच्छा नहीं है फिर भी वह कर्मों से पलायन नहीं ग्रहण करता, अथवा निष्काम होने के साथ निष्क्रिय नहीं हो जाता है। क्योंकि जब कोई अवाप्तव्य नहीं है, तो उसे पड़ा रहना चाहिए, किन्तु गीता का उद्देश्य यह भी नहीं है कि निष्काम व्यक्ति प्रयोजन विहीन पागलों की भाँति निरर्थक कर्मों को ही करता रहे। ऐसी अवस्था में जीवनमुक्त पुरुष के लिए लोक कल्याणार्थ कर्मों का विधान किया गया है। जनक इत्यादि तत्त्वज्ञों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए गीता का यह उद्देश्य है कि यदि ज्ञानीजन ही समाज की दृष्टि में अपने कर्मों से विमुख होते हैं तो लोगों पर इसका अत्यन्त ही कुप्रभाव पड़ता है तथा संसार में अव्यवस्था की भी आशंका हो सकती है। अतएव लोक-संग्रहार्थ कर्म करना अनिवार्य है। इस प्रकार किये गये कर्मों का फल पुनः उसे जन्मादि बन्धन में ग्रस्त नहीं कर सकता है, क्योंकि मुक्त पुरुष तो कर्तृत्व से सर्वथा रहित होकर आचारण करता है। समस्त कर्मों एवं गुणों के प्रति उसकी कोई अहं भावना नहीं होती।
अतएव गीता के अनुसार मोक्ष जीवात्मा का, नित्य, सर्वव्यापी परमात्मा में, परम ज्ञानात्मक रूप में एकीभाव है। मुक्ति के विषय में गीता की यह भी संधारणा मानी जा सकती है कि गीता में इसे कल्पना की स्थिति न मानकर जीवितावस्था में प्राप्त करने योग्य अवस्था स्वीकार किया गया। अर्थात् मोक्ष कोई ऐसी अवस्था नहीं है जो मृत्यु के पश्चात् ही प्राप्त की जाती है अपितु यह तो जीवित रहते हुए ही ज्ञानीजन प्राप्त कर सकते हैं। इसी स्थिति मृत्यु पर्यन्त रहने वाला विवेक सम्पन्न व्यक्ति शरीरपात के उपरान्त ब्रह्मपद को प्राप्त हो पुनर्जन्मों से भी हमेशा के लिए विमुक्त हो जाता है। मृत्यु के बाद मुक्ति की अवस्था विचारणीय नहीं है बल्कि जीवित रहते हुए ही ब्रह्म-रूप  होना मोक्ष के विषय में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। विदेह मुक्ति की सत्ता जीवन मुक्ति के आधार पर ही स्वीकार की जा सकती है। यह गीता का प्रमुख महत्त्व है।

सन्दर्भ ग्रन्थ-

1. ते तं भुंक्त्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनु प्रपन्ना-गतागतं काम-कामा लभन्ते। -गीता, 9/21
2. द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरा सर्वाणिभूतानि कृटस्थाऽक्षर उच्यते।।       - वही,15/16
3. पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुड्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। - वही, 13/21
4. प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः।
अनेक जन्म संसिद्धस्ततोयाति परां गतिम्।। - वही, 6/45
5. सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शिनः।। - वही, 6/29
6. प्रजहाति यदाकामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते - वही, 2/55
7. मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते - वही, 4/25

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.