Wednesday 31 December 2008

अद्वैत वेदान्त एवं संत कबीर


भागीरथी
शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी


भारतीय दर्शन में अद्वैत वेदान्त का अतिविशिष्ट स्थान है। इसने दर्शन एवं व्यावहार के क्षेत्र में एक क्राँतिकारी परिवर्तन किया था। इस परिवर्तन का केन्द्रीय संप्रत्यय व्यवहार एवं सिद्धान्त की समानता है। जो सिद्धान्त रूप में है उसे जीवन में उतारने का प्रयास है। और इस रूप में देखें तो संत कबीर भी उसी परम्परा के निर्वाहक हैं। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि अद्वैत वेदान्त एवं संत कबीर भारतीय चिन्तन परम्परा के दो महत्वपूर्ण बिन्दु हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है और वह है समाज के विगलनकारियों के विरूद्ध एक वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात कराना। अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आचार्य शंकर के समय बज्रयान तथा सहजयान के वामाचार से जनता त्रस्त थी और संत कबीर के समय इस्लाम के बढ़ते हुए प्रभाव से हिन्दू धर्म क्षीण एवं विद्वेष के राह पर चल पड़ा था। अतः अपने-अपने समय की समस्याओं को सुलझाने के लिए इन महापुरूषों ने वैचारिक चिन्तन के द्वारा जो मीमांसा प्रस्तुत की उस समय की जनता के लिए तर्क की कसौटी के रूप में सिद्ध हुआ।
आचार्य शंकर एवं संत कबीर के समय समस्याएँ एक जैसी थी अतः विचारों में साम्य होना सहज बात है। इन दोनों के मध्य समय में बहुत अन्तर है। आचार्य शंकर 9वीं शताब्दी में थे, तो संत कबीर 14वीं शताब्दी के हैं। परन्तु विचार की परम्परा सतत् है, प्रवाहमान, निरंतर गतिशील जो थोड़े बहुत रूप परिवर्तन के साथ अपनी अमरता को बनाएँ रखता है। इसीलिए आचार्य शंकर द्वारा प्रतिपादित उस विचार परम्परा का तत्कालीन एवं बाद के भारतीय चिन्तन परम्परा एवं व्यवहारिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसी आधार पर प्रायः यह स्वीकार किया जाता रहा है कि मध्यकालीन संत कबीर के विचारों पर अद्वैत वेदान्त का व्यापक प्रभाव पड़ा था। कहीं-कहीं तो यह भी स्वीकार किया जाता है कि अद्वैत वेदान्त के मूल तत्त्वों को कबीर ने अक्षरशः अपनी भाषा में उद्घाटित किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें अद्वैत वेदान्त के अनुवादक के रूप् में भी स्वीकार किया जाता है। अनुवादक का कार्य क्या है? इससे हम सभी परिचित हैं। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यदि कबीर अद्वैत वेदान्त के अनुवादक हैं तो उनका अपना क्या है? यह एक बड़ी समस्या है। मूल रूप से देखा जाय तो संत कबीर जिस तरह से अपनी दार्शनिक चिन्तन की स्थापना करते हैं, उससे केवल यही बात स्पष्ट होती है कि वे अद्वैत वेदान्त के अधिक निकट हैं। इसे हम इस प्रकार से भी कह सकते है कि संत कबीर सारग्रही महात्मा थे। जहाँ कहीं उन्हें सत्य तत्त्व की उपलब्धि हुई उसे उन्होंने सहर्ष ग्रहण किया है। यही कारण है कि उनकी विचारधारा अनेक मतों, ग्रन्थों, सन्तों और सम्प्रदायों से प्रभावित लगती है। मूल रूप से देखा जाय तो यह स्पष्ट होगा कि विभिन्न सम्प्रदायों ने एक ही ब्रह्म के भिन्न-भिन्न नाम दे रखे हैं। वस्तुतः कबीर पुस्तकीय ज्ञान से दूर थे और न किसी सम्प्रदाय विशेष की सीमा में ही आबद्ध थे। उनका मन तो उन्हीं की अनुभूति द्वारा परीक्षित था। उन्होंने सबका समन्वय उस एक परमतत्त्व के रूप में ही किया था जो घट-घट में व्याप्त है।
संत कबीर अद्वैत वेदान्त के प्रभावों की चर्चा करने से पहले एक अन्य तथ्य जिस पर चर्चा करना आवश्यक है वह है कबीर एवं स्वामी रामानन्द का सम्बन्ध। स्वामी रामानन्द कबीर के गुरू थे। वे रामानुजाचार्य के शिष्य परम्परा में हुए थे जो विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक आचार्य हैं। आचार्य रामानुज की शिष्य परम्परा में ही राघवानन्द हुए थे जो रामानन्द के गुरू थे। ‘‘राघवानन्द ने रामानुज की भक्ति का सम्मिश्रण योग से किया। यह बात उनकी ‘सिद्धान्त पंचमात्रा’ नामक ग्रन्थ से स्पष्ट हो जाती है।’’1 इसके अधार पर एक प्रश्न यह उठता है कि क्या कोई अपने गुरू से प्रभावित हुए बिना रह सकता है? ऊपरी तौर पर देखने से तो ऐसा लगता है कि कबीर इसके अपवाद हैं, परन्तु जब हम स्वामी रामानन्द के विषय में गहराई से अध्ययन करते हैं तो एक नयी बात यह उभर कर सामने आती है कि स्वामी रामानन्द पहले अद्वैती गुरू के शिष्य थे। इसका उल्लेख पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने अपने लेख ‘योग प्रवाह’ में किया है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि एक ओर रामानुज की शिष्य परम्परा में होने के कारण भक्ति तत्त्व का समावेश हुआ और दूसरी ओर अपने पुराने अद्वैती गुरू के प्रभाव के फलस्वरूप उनमें अद्वैतवाद की छाप लग गई, और इसी का मिश्रित प्रभाव हम संत कबीर के दार्शनिक चिन्तनों में देख सकते हैं।
आचार्य शंकर द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्त के उन सिद्धान्तों का संत कबीर के सिद्धान्तों के साथ परीक्षण करना आवश्यक है जिसके द्वारा यह स्पष्ट हो सकेगा कि संत कबीर आचार्य शंकर से किस सीमा तक प्रभावित थे। इस क्रम में अद्वैत वेदान्त की परम्परा एवं प्राचीनता के सम्बन्ध में भी विचार करना आवश्यक है। अद्वैत वेदान्त की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। प्रो0 अर्जुन मिश्र एवं डाॅ0 हृदयनारायण मिश्र इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि- ‘‘शंकर से पूर्व उपलब्ध दार्शनिक ग्रन्थों का अवलोकन करने पर अद्वैत वेदान्त के सूत्र विश्व के प्राचीनतम् साहित्य ऋग्वेद में मिल जाते हैं। अतः वैदिक साहित्य और शंकर के बीच उपलब्ध अद्वैत वेदान्त की चिन्तन धारा का संकेत हमें उपनिषद्, महावाक्यसूत्र तथा व्याकरण साहित्य में भली प्रकार मिलता है।’’2 पर यह एक सिद्धान्त के रूप में सर्वप्रथम आचार्य गौड़पाद के विचार में मिलता है, जिन्होंने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिख कर अद्वैत वेदान्त को एक व्यवस्थित आधार प्रदान किया ।
आचार्य गौड़पाद के बाद शंकराचार्य ही वह दार्शनिक हैं जिन्होंने अद्वैत वेदान्त को एक तार्किक पृष्ठभूमि प्रदान की। आचार्य शंकर मध्यकालीन भारत के महान धर्मवेत्ता थे, आप तत्कालीन धार्मिक उपदेशकों के मध्य एक तेजस्वी प्रज्ञा, हिन्दूधर्म के प्रखर प्रहरी थे। प्रो0 कीथ के अनुसार-‘‘नवीं शताब्दी में एक महान ज्योतिपुंज का उदय हुआ जो ज्ञान, करूणा, प्रेम तथा त्याग का मूर्तिमान स्वरूप था। संसार के दुःख दर्द तथा दयनीय दशा को देखकर द्रवीभूत हो उठा। भगवान शंकराचार्य के प्रतिभा की किरणों ने विचारधारा के अन्धकार मय कोने में पहुँचकर उसे प्रकाशित किया तथा अनेक निराश हृदयों के दुःखों को दूर कर उन्हें सांत्वना प्रदान की।’’3
अद्वैत वेदान्त के सूत्र श्रुतियों, स्मृतियों और गौड़पाद कारिकाओं में पहले से विद्यमान थे, जिस पर भाष्य लिखकर आचार्य शंकर ने उनका समर्थन किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आचार्य शंकर ने उनके मतों को यथावत् स्वीकार कर लिया है; अपितु उस सिद्धान्त को तार्किक पृष्ठभूमि पर नये ढंग से स्थापित किया। इन सन्दर्भों के साथ जब हम संत कबीर के विषय में विचार करते हैं तो समान परिस्थितियाँ दिखाई देती हैं। संत कबीर ने भी पूर्व के मतों एवं परम्परा के द्वारा प्राप्त अपने गुरू के ज्ञान को ग्रहण करके उसे एक नये मूल्यों के साथ स्थापित किया।
वस्तुतः जिन दार्शनिक चिन्तनों से हम संत कबीर को अद्वैत वेदान्त से प्रभावित मानते हैं वह है तत्त्वमीमांसीय चिन्तन। दोनों के तत्त्वमीमांसीय चिन्तन में समानताएँ दिखाई देती है। वास्तव में दोनों विचारकों के मतों में समानता है या नहीं इस पर कोई मत स्थिर करने से पहले उन सिद्धान्तों का परीक्षण करना आवश्यक है- आचार्य श्ंाकर के तत्त्वमीमांसीय या इस प्रकार से कहें कि उनके दार्शनिक चिन्तन का मूल बिन्दु ‘ब्रह्म’ विचार है जिसके चारों ओर अद्वैत वेदान्त घूमता है। ब्रह्म की व्याख्या के आधार पर ही ये माया, आत्मा, जीव एवं जगत् की व्यख्या करते हैं। वे ब्रह्म को निर्गुण निराकार स्वीकार करते हुए भी इस जगत् का आदि कारण मानते हैं। आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में अद्वैत ब्रह्म की परिभाषा देते हुए कहते है-‘‘नामरूप के द्वारा अव्यक्त अनेक कर्ताओं एवं भोक्ताओं से संयुक्त, ऐसे क्रिया और फल के आश्रय जिसमें देशकाल और निमित्त व्यवस्थित है, मन से भी जिसकी रचना के स्वरूप पर विचार नहीं हो सकता ऐसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, नाश जिस सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान कारण से होते हैं, वह ब्रह्म है।’’4 इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म इस जगत् का आदि कारण है। परन्तु राधाकृष्णन यह स्वीकार करते हैं कि ‘‘आचार्य शंकर ने अपने भाष्य ग्रन्थों में ‘ब्रह्म’ नामक जो सर्वोच्च सत्ता स्वीकार किया है, उसकी सत्ता व्यवहारिक, देशिक, कालिक एवं वैचारिक सत्ताओं से विलक्षण है।’’5 वस्तुतः ‘‘ब्रह्म एक ऐसा विलक्षण तत्त्व है जिसका निर्देश वाणी एवं मन के द्वारा असम्भव है। परन्तु यह अभाव रूप  नहीं है।’’6 इसलिए आचार्य शंकर ब्रह्म की स्थापना नेति-नेति के द्वारा अर्थात् निषेध वृत्ति के द्वारा करते हैं।
संत कबीर भी ब्रह्म के विषय में कुछ ऐसा ही विचार प्रस्तुत करते हैं। वे अद्वैत वेदान्त की तरह ही निर्गुण निर्विशेष स्वीकार करते हुए कहते हैं-
जाके मुँहमाथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।।
पुहुप वास ते पातरा, ऐसा तत्त्व अनूप।।7
इसके साथ ही ब्रह्म की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि - ‘‘ब्रह्म के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता, वह गुण, संख्या आदि की सीमाओं से परे है।’’8 इन तथ्यों से ऐसा लगता है कि संत कबीर का ब्रह्मविचार अद्वैत वेदान्त से पूर्णतः मिलता है। भले ही कबीर नाम देने के क्रम में उसे ‘राम’ स्वीकार करें। जैसे कबीर कहते हैं- ‘‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’’9 कुछ लोग इस विशिष्टाद्वैती परम्परा का स्वीकार कर सकते हैं, परन्तु विशिष्टाद्वैत की परम्परा में ‘वासुदेव’ एक व्यक्ति विशेष का वाचक संज्ञा प्रतीत होता है जो सारे गुणों से आरोपित है। ‘‘परन्तु कबीर का ‘राम’ निर्गुण ही है और जो सभी प्रकार की सीमाओं एवं भेदों से परे है अर्थात् असीम है।’’10
ब्रह्म को निर्गुण निर्विशेष मानने के कारण जीव एवं जगत् की व्याख्या अद्वैत वेदान्त के लिए समस्या रही है जिसके निराकरण के लिए आचार्य शंकर मायावाद की स्थापना करते हैं। विवेक चूड़ामणि में ‘माया’ के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘‘जो अव्यक्त नामवाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की पराशक्ति है वही माया है जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, बुद्धिमान जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं।’’11 माया न तो सत् है न असत् न उभय रूप है। न भिन्न है न अभिन्न हे और न भिन्न-भिन्न उभय रूप है। न अंगसहित है न अंग रहित है और न उभयात्मिका ही है, किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीय रूपा प्रसिद्ध है।’’12 ‘‘आचार्य शंकर माया को ईश्वर की शक्ति मानते हैं, जिसके माध्यम से ईश्वर अनन्त रूपात्मक जगत् की सृष्टि करता है।’’13 इसके साथ ही आचार्य माया की दो शक्तियाँ आवरण एवं विक्षेप को स्वीकार करते हैं। इन्हीं शक्तियों के द्वारा माया नाम रूप प्रपंचात्मक जगत् का ब्रह्म में आभास कराती है।
‘‘माया के सम्बन्ध में जब हम अद्वैत वेदान्त एवं कबीर के विचारों की तुलना करते हैं तो यहाँ ‘माया’ के विषय में अन्तर दिखाई देता है। यद्यपि संत कबीर माया के स्वरूप  को त्रिगुणात्मिका स्वीकार करते है।’’14 और यह भी मानते हैं कि जो भी इस जगत् में दृश्यमान है वह माया है। ‘‘संत कबीर इसे ईश्वर की शक्ति भी मानते हैं जो सारे संसार के जीवों को अपना शिकार बनाने के लिए उद्यत रहती है।’’15 कबीर माया को सर्वव्यापक मानते हुए जप, तप, योग, माता, पिता जल, थल, आकाश को भी माया के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं। यह सरलता से छोड़ी नहीं जाती है, परन्तु ब्रह्म ज्ञान के द्वारा इसका निरास किया जा सकता है।’’16 यहाँ संत कबीर एवं आचार्य शंकर के मायावादी चिन्तन में भेद देख सकते हैं। पहला यह कि कबीर ने माया का मानवीय करण कर उसे कंचन एवं कामिनी का पर्याय माना। इसके आधार पर वे यह स्वीकार करते हैं कि माया अनिर्वचनीय नहीं है, उसका कथन किया जा सकता है। क्योंकि यह संत कबीर में एक सिद्धान्त न होकर व्यावहारिक धरातल से सम्बन्धित है। व्यवहार का स्तर अनिर्वचनीय नहीं होता है। शंकर की माया चतुष्कोटि न्याय मुक्त है। जबकि कबीर ने माया को सर्वत्र झूठा ही कहा है। यदि माया झूठी अर्थात् असत् है तो अनिर्वचनीय कैसे? अतः यहाँ हमें माया के विषय में शंकर एवं कबीर के मतों में भेद स्पष्ट दिखाई देता है।
आचार्य शंकर के मायावाद की व्याख्या से ही जगत् एवं जीव सम्बन्धी समस्याओं का निराकरण हो जाता है। वे जीव एवं जगत् की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मै वनापरः।’’ जगत् तो मिथ्या है फिर भी उसका कुछ न कुछ आधार अवश्य होगा? इसके निराकरणार्थ आचार्य कहते हैं जिस प्रकार रस्सी में दिखाई देने वाला साँप का आधार रस्सी है उसी तरह विश्व का आधार ब्रह्म है यह जगत् व्यवहारिक रूप  से सत्य है किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से असत् है।
यह तो अवश्य है कि जगत् के विषय में संत कबीर अद्वैत वेदान्त की तरह बात करते हैं। वे इस ‘‘नाम रूपात्मक जगत् को ‘बाजी’ अर्थात् खेल समझ कर उसे कृत्रिम मानते हैं।’’17 इसके साथ ही इस ‘‘जगत् को स्वप्न की भाँति मिथ्या मानते हुए जगत् सत्ता को केवल ‘कहने-सुनने’ के लिए व्यवहारिक मानते हैं, जो प्रातिभासिक सत्ता से अधिक सत्य एवं पारमार्थिक सत्ता से कम सत्य है। सत्य जिसे समझा जा रहा है वस्तुतः वह सत्य नहीं है। सत्य तो जगत् का अधिष्ठान रूप ब्रह्म ही है।’’18 इस प्रकार कबीर जगत् को सर्वत्र मिथ्या एवं नाशवान ही मानते हैं। केवल जगत् व्यवहार के लिए उसकी सत्ता मान ली है। यह जगत् ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
जीव के सम्बन्ध में आचार्य शंकर कहते हैं कि- ‘‘जीव व्यवहारिक सत्ता है। जब आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन इत्यादि उपाधियों से सीमित होता है तब वह जीव हो जाता है। अर्थात् जब आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या में पड़ता है तब वह जीव हो जाता है।’’19 अतः जीव ब्रह्म या आत्मा का आभास मात्र है। केवल अविद्या के कारण ब्रह्म से वह अपने को पृथक समझता है। वस्तुतः ब्रह्म एवं जीव अभिन्न है। अविद्या के कारण हमें इस अभिन्नता का ज्ञान नहीं हो पाता है।
जीव के विषय में जब हम संत कबीर का संदर्भ लेते हैं तो ऐसा लगता है कि वे यहाँ भी अद्वैतवादी विचारधारा के पोषक हैं। संत कबीर भी यह मानते हैं कि ब्रह्म एवं जीव में तादात्म्य है। ब्रह्म एवं जीव की एकता को बताते हुए जल एवं कुम्भ का उदाहरण देते हुए कहते हैं-
‘‘जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर, पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यहु तथ कयौ गियानी।।’’20
इस स्पष्टीकरण के बाद यह प्रश्न उठता है कि जब ब्रह्म एवं जीव एक है तो फिर भेद क्यों प्रतीत होता है? इसके उत्तर में संत कबीर कहते हैं कि इसका कारण भ्रम है। जब तक भ्रम का पर्दा हैै तब तक सत्य तत्त्व का ज्ञान सम्भव नहीं हैं। वस्तुतः सभी में एक ही राम आत्म तत्त्व के रूप में समाया हुआ है, दो की तो कोई बात ही नहीं है।’’21 जब भ्रम मिट जाता है तो ब्रह्म एवं जीव के एकत्व का ज्ञान हो जाता है। जीव एवं ब्रह्म के एकत्व का ज्ञान होते ही ज्ञानी व्यक्ति कह उठता- ‘‘राम (ब्रह्म) कबीर (जीव) एक ही तत्त्व है। किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं।’’22 इस प्रकार हम देख सकते हैं कि यहाँ भी संत कबीर के विचार अद्वैत वेदान्त से मेल खता है।
निष्कर्ष के रूप में कुछ बातों पर विचार करना आवश्यक है। संत कबीर ब्रह्म के विषय में कहते-कहते ‘राम’ की भी चर्चा करते है; जो निश्चित रूप से दशरथ सुत नहीं है। वह अद्वैत वेदान्त के ब्रह्म के समान हैं तथा वही ‘कर्ता’23 और सोपाधिक ईश्वर हैं। जीव के विषय में जब विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि जीव ही आत्मा है और ‘माया’ अविद्या है। और संत कबीर में आत्मा तथा परमात्मा का अभिन्नत्व भी उसी प्रकार है जिस प्रकार वेदान्त में ‘जीव ब्रह्मैकत्व’ है। इसके स्पष्टीकरण के लिए कबीर कहते हैं-
‘‘हेरत-हेरत हे सखी, रहा कबीर हेराय।
बूंद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाय।।’’24
एक तथ्य जो ऊपरी तौर पर कबीर को अद्वैत वेदान्त से अलग करती है वह है ‘भक्ति’। कबीर ने बार-बार भक्ति करने का सुझाव दिया है। अन्य कर्मों को छोड़कर निष्काम भक्ति ही वरेण्य है। इसे स्पष्ट करते हुए कबीर कहते हैं-
‘‘और कर्म सब कर्म है, भक्ति करे निष्कर्म।
कहै कबीर पुकारिकै, भक्ति करौतजि धर्म।।’’25
इससे यह बात स्पष्ट होती है कि भक्ति तो अद्वैत भावना के विरूद्ध है। और यहाँ हम कबीर पर अद्वैत वेदान्त के प्रभावों का परिक्षण कर रहे हैं। पर ऐसी बात नहीं है। निर्गुण भक्ति और अद्वैत में वस्तुतः कोई विरोध नहीं है। हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में इस बात को रखते हुए कहते हैं कि- ‘‘भगवद् विषयक अहैतुक प्रेम न निरूपाधिक स्वरूप के लिए असम्भव है और न अद्वैत भावना के विरूद्ध।’’26 पर हमें इसका परिक्षण करना पड़ेगा। भक्तिरसामृत सिन्धु कार ने इसकी सत्यता को इस प्रकार प्रमाणित किया है कि भगवान के सर्वोपाधिविनिर्मुक्त स्वरूप  को तत्पर होकर समस्त इन्द्रियों और मन के द्वार सेवन करना ही भक्ति है-
‘‘सर्वोपाधि विंनिर्मुक्तं, तत्परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेष हृषीकेश सेवनं भक्ति रुच्यते।।’’ 27
अतः आत्माराम के द्वारा कबीर भी भगवान के चैतन्य अंश के साथ अपने चितस्वरूप का तादात्म्य कर लेते हैं। कबीर द्वारा कहे गये वाक्य ‘हरि भजते हरि ही भए मिट गए भेद अपार’ तथा ‘लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल’ से स्पष्ट है कि वे तो अपने स्वरूप को पहचान कर पानी और नमक की भाँति प्रभु से एकरूप हो गये थे। ‘‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे ही भक्तों को अद्वैत वेदान्ती कहा है।’’28 ब्रह्म जिज्ञासा को तो कबीर ने ईश्वर विषयक परम प्रेम ही तो माना है और इसी प्रेम लक्षणा भक्ति को आचार्य नरहरि पाद ने वेदान्त की अपरोक्षानुभूति कहा है।
यह कहा जा सकता है कि कबीर ने अद्वैत वेदान्त के तत्त्वों को ग्रहण करके ज्ञान के विस्तीर्ण धरातल पर निर्गुण निराकार ब्रह्म का वर्णन, आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध, त्रिगुणात्मिका माया की क्षमता और उसका विश्वव्यापी प्रभाव, कर्म और कामना के बंधन में फँस कर जीव का भटकना, जीव जगत् और ब्रह्म का सम्बन्ध आदि विविध प्रसंगों पर विस्तार से विचार किया है। कबीर की दृष्टि में अद्वैत तत्त्व सैद्धान्तिक न होकर अनुभवगम्य है। वह गुण, रूप रंग और आकार रहित है फिर भी उसके अस्तित्त्व का आभास हमें प्रतिक्षण होता है। जब कबीर जल-तरंग और कनक-कुण्डल न्याय की भाँति आत्मा के नानात्व की व्याख्या करते हैं तब पूर्णतः अद्वैती प्रतीत होते हैं। परन्तु कबीर के लिए अद्वैती होना कोई मायने नहीं रखता है। उन्होंने अपने साधना एवं अनुभव के आधार पर सत्य तत्त्व का उद्घाटन किया। भले ही उनके द्वारा उद्घाटित सिद्धान्त किसी परम्परा से मेल क्यों न खाती हो, पूर्वमत के रूप में उसका ग्रहण नहीं किया है। उन्होंने अद्वैत वेदान्त को तथाकथित सीमित रूप में नहीं लिया अपितु उसे एक सामान्य लोकधर्म के रूप में जाना। अतएव यह कहना अधिक समीचीन होगा कि मध्यकाल में वेदान्त उनके पीछे चला वे उसकी सीमा में आबद्ध नहीं हुए।

सन्दर्भ ग्रन्थ-

1. त्रिगुणायत, गोबिन्द, कबीर की विचारधारा, पृष्ठ-113
2. मिश्र, अर्जुन एवं हृदयनरायण, अद्वैतवेदान्त का इतिहास, पृष्ठ-1
3. राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन भाग-2, पृष्ठ‘441
4. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य 1/1/2
5. राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, भाग‘2, पृष्ठ‘534
6. वाङ्मनसातीतत्त्वमपि ब्रह्मणो भावाभि प्रायेणामिधीयते। ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य, 3/2/22
7. दास, श्याम सुन्दर, कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ-47
8. शास्त्री, गंगाशरण, बीजक, पृष्ठ-132
9. दास, श्याम सुन्दर, कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ-81
10. वेद विवर्जित भेद विवर्जित, विवर्जित पाप अरू पुन्यं।
ग्यान विवर्जित ध्यान विवर्जित, विवर्जित स्थूल सुन्यं।। कबीर ग्रंथावली, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-129
11. अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति अनाघविद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधियैव माया यथा जगत् सर्वमिदं प्रसूयते।। विवेक चूड़ामणि, श्लोक110
12. सन्नाप्य सन्नाप्यु भयात्मिकानो, निन्नाप्यभिन्नाप्यु भयात्मिकानों।
साङ्गाप्य नाङ्गप्यु भयात्मिकानों, महाद्भुतानिवर्चनीय रूपः।। विवेक चूणामणि, श्लोक -111
13. श्रीवास्तव, जगदीश सहाय, अद्वैतवेदान्त की तार्किक भूमिका, पृष्ठ-264
14. सत् रज तमथै किन्हीं माया, चारि खानि विस्तार उपाया। कबीर ग्रंथावली, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-229
15. ई माया रघुनाथ की बौरी, खेलनी चली अहेरा हो।। बीजक, सं0 आचार्य गंगाशरण शास्त्री, पृष्ठ-101
16. दास, श्याम सुन्दर, कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ-89
17. बाजी का यह सकल पसारा, बाजी मांहि रहै संसारा।। कबीर वचनावली, हरिऔध, पृष्ठ-196
18. ऐसा तेरा झूठा मीठा लगा, ताथैं साचै सूं मन भागा। कबीर ग्रंथावली, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-147
19. सिन्हा, हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृष्ठ-311
20. दास, श्याम सुन्दर, कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ-93
21. एक राम देख्या सबहिन में, कहै कबीर मन माना।। कबीर ग्रन्थावली, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-93
22. राम कबीरा एक है कोई न सकै पिछानी।। क0 ग्र0, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-254
23. हिन्दू तुरुक का करता एकै, ता गति लखी न जाई।। क0 ग्र0, श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ-94
24. दास, श्याम सुन्दर, कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ-13
25. उपाध्याय, अयोध्या सिंह, कबीर वचनावली, पृष्ठ-103
26. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, पृष्ठ-144
27. भक्ति रसाभूत सिन्धु 1/12
28. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, पृष्ठ-145

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