संतोष प्रियदर्शी
शोध-छात्र (नेट/जे0आर0एफ0) पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
परिवार समाज की बुनियादी इकाई है, वह समाज की समस्त संस्थाओं का मूल है। परिवार लघु समाज है और समाज वृहद्् परिवार। जब कहा जाता है कि सारा विश्व एक परिवार है, ‘वसुधैव-कुटुम्बकम््’ या सभी मानव एक परम पिता की संतान हैं, तो वास्तव में परिवार न्याय का विस्तार होता है। समाज, राज्य तथा विश्व को क्रमशः वृहत्तर परिवार मानना एक आदर्श तथा उत्प्रेरक कल्पना है।
भगवान् बुद्ध ने सुव्यवस्थित भिक्षु संघ की स्थापना की। इन्ही संघीय जीवन पद्धति में हमें परिवार की झलक भी मिलती है। भिक्षु संघ परिवार का ही एक रूप था, जो अनुशासनशील समुदाय में रहकर एक प्रजातांत्रिक प्रणाली पर निर्भर था। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि में समाज रचना एवं सामाजिक दायित्वों पर बौद्ध साहित्य में विशेष बल नहीं दिया गया है, अपितु सामाजिक जीवन को दूषित बनाने वाले तत्वों के निरसन पर बल दिया गया है। बौद्ध साधना पद्धति में प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ भावनाओं के आधार पर सामाजिक सन्दर्भ को जाना जा सकता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएँ हैं, वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि के लिए ही हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार ये सभी सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। इनसे सामाजिक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, परन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का प्रयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। भगवान् बुद्ध का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् लोक मंगल के लिए जीवन पर्यन्त कार्य करते रहे। बौद्ध साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि व्यक्ति को समाज से जोड़ने का प्रयास किया गया है, उनकी मुक्ति के संदर्भ में ही सामाजिक महत्व को देखा जा सकता है।
सुत्तपिटक में परिवार के लिए कुल शब्द का प्रयोग किया गया है।1 समाज में कुल शब्द सम्मानित परिवार का द्योतक था। अतः यत्र-तत्र कुल के स्वरूप एवं आदर्श के उल्लेख प्राप्त होते हैं। किसी व्यक्ति के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करने के लिए यह आवश्यक था कि वह माता-पिता दोनों पक्षों से सुजात, शुद्ध रूप से जन्म ग्रहण करने वाली कुल परम्परा में सात पीढ़ी तक कुल दोषों से रहित हो।2 इससे यह प्रकट होता है कि वह कुल जिसमें जातिगत शुद्धता न हो, समाज में उत्तम नहीं माना जाता था। उत्तम कुल के लिए यह आवश्यक था कि वह वैभव सम्पन्न हो, वैभव का सदुपयोग करता हो, किसी का ऋण न लिया हो तथा जिसके सदस्य निर्दोष, मानसिक, वाचसिक एवं कायिक कर्म से मुक्त हो।3 परिवार का प्रमुख ध्येय था- धन अर्जित करना, यश प्राप्त करना, अन्य सदस्यों के साथ दीर्घायु प्राप्त करना तथा मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग प्राप्ति।4 इस ध्येय को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक था कि परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी तथा दास-कर्मकार प्रसन्न रहें, मित्र-अमात्य सन्तुष्ट हों, जाति, अतिथि, भूत-प्रेत, राजा तथा देवता को समुचित बलि दी जाये तथा श्रमण एवं ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्मान एवं श्रद्धा के भाव का प्रदर्शन हो।5 इसलिए कुल के मुखिया को पंचशील से युक्त होना आवश्यक माना जाता था।6 धार्मिक पुरुष भी कुल से स्वागत, अभिवादन आदि बातों की अपेक्षा करता था।7
कुल से सम्बन्धित कुछ शब्द प्राप्त होते हैं, जो तत्कालीन समाज में कुल के महत्व को सुस्पष्ट करते हैं, जैसे- कुलपुत्र, कुलदासी, कुलप्रासाद आदि शब्दों का प्रयोग अच्छे अर्थ में होता था। इसके विपरीत कुलड़गार, कुलदूषक, कुलमात्सर्म आदि शब्द निन्दा सूचक थे।
सुत्तपिटक में जिन कुलों का उल्लेख मिलता है उनमें क्षत्रिय महाशालकुल, राजन्यकुल, ब्राह्मण महाशालकुल, श्रेष्ठिकुल, गहपति महाशालकुल, चाण्डाल कुल, निषाद कुल, रथकार कुल एवं पुक्कस कुल प्रमुख थे।8 इनमें से प्रथम पाँच कुल उच्चकुल एवं अन्तिम पाँच कुल नीच कुल के रूप में समाज में मान्य थे। उच्चकुल वैभव सम्पन्न थे। उनके पास अन्न, वस्त्र, माला, गंध, विलेपन, आवास आदि सभी साधन थे, जबकि नीच कुल के लोग दरिद्र होते थे। उन्हें अन्न-वस्त्र बड़ी कठिनाई से ही मिल पाता था। इन कुलों का आधार जाति था जैसा कि नाम से स्पष्ट है- क्षत्रिय, ब्राह्मण, गहपति (वैश्य) जाति के आधार पर ही क्षत्रिय कुल, ब्राह्मण कुल, गृहपति कुल आदि नाम प्रसिद्ध हुए। जो पुरुष राज घराने से सम्बन्धित थे परन्तु अभिषेक रहित थे, उनके कुलों को राजन्यकुल कहा जाता था।9 इसी प्रकार गृहपतियों में जो नगर सेठ होता था, उसे श्रेष्ठि के नाम से जाना जाता था। श्रेष्ठि उस समय अवैतनिक राजकीय पदाधिकारी होते थे। इनके कुल को श्रेष्ठ कुल कहा जाता था।10 नीच कुलों में उन मनुष्यों के कुलों की गणना होती थी, जिनकी उत्पत्ति विभिन्न जाति के स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क से होती थी। इनमें से उच्च जाति की स्त्री और निम्न जाति के पुरुष से उत्पन्न संतान को समाज में अत्यन्त हीन माना जाता था। ये लोग नगर सीमा के बाहर रहते थे। उन्हें समाज से घोर तिरस्कार मिलता था, यहाँ तक कि उनका दर्शन भी अशुभ माना जाता था।
निश्चय ही परिवार का जन्म संतानोत्पत्ति की इच्छा से हुआ, किन्तु धीरे-धीरे इसके सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक महत्व में वृद्धि होती गयी। पूर्व वैदिक युग से ही संयुक्त परिवार की कल्पना की गयी है। यदा-कदा कुछ ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह आभास होता है कि संयुक्त परिवार का विघटन बौद्धकाल के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था; पर सामान्यतः संयुक्त परिवार के ही उल्लेख मिले हैं। एक स्थान पर पुरोहित वर-वधू को आशीर्वाद देता है, ‘‘तुम यहीं घर में रहो, वियुक्त मत होओ, अपने घर में पुत्रों एवं पौत्रों के साथ खेलते एवं आनन्द मनाते हुए समस्त आयु का उपभोग करो।’’11 पुनः यह भी कहा गया है कि, ‘‘तुम सास-ससुर, ननद एवं देवर पर शासन करने वाली रानी बनो।’’12 यह कथन प्रमाणित करता है कि पूर्व वैदिक काल में संयुक्त परिवार था, जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री सभी रहते थे और बाद में होने वाला उनका परिवार भी उन्हीं के साथ निवास करता था। बौद्ध युग में भी परिवार संयुक्त था जिसमें कई सदस्य होते थे।13 सबसे अधिक आयु वाला व्यक्ति अर्थात् पिता गृहस्वामी होता था, जो कुल की देखभाल करता था। परिवार के सभी सदस्यगण उसके प्रति आदर भाव रखते थे, क्योंकि वह परिवार का रक्षक और पोषणकत्र्ता होता था। ऋग्वैदिक काल में पिता का परिवार पर पूर्ण अंकुश था तथा संपत्ति पर उसका एकाधिकार था, पर कालांतर में संपत्ति का बँटवारा पिता के रहते संभव हुआ। मनु, याज्ञवल्क्य तथा अन्य धर्मशास्त्रकारों और स्मृतियों में राजनीतिक, सामाजिक और सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी नियम कानून मिलते हैं। संयुक्त परिवार के साथ-साथ पारिवारिक विघटन की क्रिया भी चलती रही लेकिन उसका प्रसार सीमित था। विघटन का कारण परिवार के सदस्यों के बीच असंतोष, कुटुम्ब की विशालता, अपने स्वत्व का अभिव्यक्तिकरण थे। आर्थिक दबाव नारियों के पारस्परिक मतभेद14 आदि के कारण भी पारिवारिक विघटन होता था। अनेक जातकों में ऐसे परिवार का उल्लेख है जो अपने सदस्यों के सहयोग और सहायता से चलते थे।15 ऐसे भी कुटुम्बों का उल्लेख है जिनके सदस्य अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार पिता आदि को दुःखी छोड़कर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये थे तथा संपत्ति से अपना अधिकार स्वयं अवरूद्ध कर लिया था।16 कभी-कभी स्त्रियाँ भी शिक्षा ग्रहण कर लेती थीं और अपने परिवार से दूर संघारामों में निवास करती थीं।17 संयुक्त परिवार में वैधानिक और सामाजिक दृष्टि से संपत्ति पर चार-पाँच पीढ़ी तक के सदस्यों का समान अधिकार था। कृषि, वाणिज्य तथा अन्य कार्यों को सम्पन्न करके व्यक्ति परिवार की सम्पत्ति में अभिवृद्धि करता था। सम्मिलित संपत्ति के साथ-साथ परिवार के लोग एक ही मकान में रहते थे जिससे परिवार के सदस्यों का अपेक्षित सहयोग एक-दूसरे को मिलता था।
बौद्ध साहित्य में वर्णित सामाजिक व्यवस्था के तहत पारिवारिक सदस्यों- माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन के पारिवारिक महत्व के साथ-साथ मित्र, अमात्य, दास, कर्मकार एवं श्रमण-ब्राह्मणों का भी संयुक्त परिवार के रूप में उल्लेख है।18 परिवार के प्रत्येक सदस्य के कर्तव्य और अधिकार निश्चित थे। इस प्रकार बौद्ध काल में परिवार अपेक्षाकृत अधिक अनुशासन बद्ध थे।
भगवान् बुद्ध की दृष्टि में जो व्यक्ति अपने माता-पिता, पत्नी, बहन को पीड़ा पहुँचाता है, उसकी सेवा नहीं करता है, वह वस्तुतः अधम ही है।19 बुद्ध20 माता-पिता की सेवा करना पुत्र का परम एवं पवित्र कर्तव्य मानते थे। सुत्तनिपात में कहा गया है कि जो समर्थ होने पर भी दुबले माता-पिता का पोषण नहीं करता, मनुष्य के पतन का कारण है।21 भगवान् बुद्ध सिगालोवाद सुत्त में कहते हैं कि, ‘‘गृहपति को माता-पिता, आचार्यों, स्त्री, पुत्र, मित्र, कर्मकार तथा श्रमण-ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए। ऐसी सेवा से व्यक्ति को अपने माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त होता है, इस आशीर्वाद से वह समृद्धि को प्राप्त करता है। माता-पिता पुत्र पर निम्नांकित पाँच प्रकार से प्रत्युकार करते हैं-
1. पाप कर्म से बचाते हैं। 2. पुण्य कर्म में योजित करते हैं। 3. पुत्र को जीविकोपार्जन के लिए शिल्प की शिक्षा प्रदान करते हैं। 4. योग्य स्त्री से विवाह कराते हैं तथा 5. उत्तराधिकार प्रदान करते हैं।
प्राचीन भारतीय समाज में माता-पिता अर्थात् अपने जन्मदाता की पूजा श्रष्टा की भाँति की जाती थी। अतः उनके महत्व का सर्वत्र उल्लेख मिलता है। बौद्धों ने तो मातृ-पितृ पूजा को स्वर्ग प्रदान करने में भी समर्थ कहा है। एक जातक में तो यहाँ तक कहा गया है कि, यदि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता की समुचित सेवा करेगा एवं गुरूजनों के प्रति सदा श्रद्धालु रहेगा तो उसे अवश्यमेव त्रयोविंश देवलोक में स्थान मिलेगा।22 भगवान् बुद्ध माता-पिता की ब्रह्म तुल्य प्रतिष्ठापन के पक्षधर थे।23
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि स्थान-स्थान पर समृद्धशाली गाँव थे। प्रत्येक गाँव में अनेक गृह होते थे। ये लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति समझे जाते थे। पिता की संपत्ति पर पुत्रों का अधिकार था। आवश्यकता पड़ने पर वे पिता की संपत्ति का विभाजन भी करते थे। गाँव के घर कच्ची-पक्की ईटों से बनते थे। उनकी छतें घास-फूस से पाटी जाती थीं। घर में निवास गृह के अतिरिक्त अग्निशाला, अतिथिशाला, पशुशाला आदि की व्यवस्था थी। घर में पलंग, कुर्सी, बर्तन, घड़ा, चाकू, चम्मच अनेक प्रकार के दैनिक उपयोग की सामग्री रहती थी। पुत्री के बजाय पुत्र का जन्म खुशहाली का द्योतक था, क्योंकि पुत्र ही सारे सामाजिक क्रिया-कलापों का सूत्रधार था। लौकिक एवं पारलौकिक शांति के लिए पुत्रों की आवश्यकता समझी जाती थी। इसी कारण कन्या का जन्म लोग नहीं चाहते थे। पुत्र अपने पिता के कार्यों में सहायक होता था तथा पूर्वजों को उपकादि देता था। धन जन की सुरक्षा हेतु भी शक्तिशाली और शत्रुहन्ता पुत्र आवश्यक था। अतिथि सत्कार गृहस्थ का कर्तव्य माना जाता था। कहा भी गया है, ‘‘अतिथि देवो भवः’’। बिना अतिथि के भोजन किये घर का कोई सदस्य भोजन नहीं करताथा। उसे परिवार की क्षमता के अनुसार सारी सुख सुविधाएँ दी जाती थीं। यहाँ तक कि परिजन अपनी सुख-सुविधा त्याग कर भी उसे यह सुविधा उपलब्ध कराते थे।
श्रेणियों तथा निगमों में भी प्रत्येक परिवार का एक सदस्य श्रेष्ठ होता था। समाज के मांगलिक अर्थों और जातीय समारोहों में भी परिवार ही इकाई माना जाता था। गाँव में पंचायतों की काफी महत्ता थी, ये ग्राम के सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक विवादों के साथ-साथ खेतों की भी देखभाल करती थीं, क्योंकि खेत व्यक्तिगत संपत्ति होते हुए भी व्यक्ति को उसे बेचने के लिए पंचायत की अनुमति लेनी होती थी। गाँव के लोग सरल और सन्तोषमय जीवन बिताते थे। ये न अधिक धनी थे और न अधिक निर्धन। सहकारिता और वस्तु विनिमय के आधार पर उन्होंने अपना जीवन सरल बना लिया था। गाँव के लोग कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी करते थे, जो कि उनकी परिवारिक सम्पत्ति होती थी। उनके लिए पूरे गाँव का एक चरागाह होता था। पशुओं को यहीं सामूहिक रूप में चराया जाता था। विभिन्न व्यवसाय से जुड़े लोग अपने परिवार के साथ व्यावसायिक गाँव में रहते थे तथा पूरे परिवार के लोग अपने व्यवसाय से जुड़ा क्रिया-कलाप ही करते थे। इनमंें कुम्हार, बढ़ई, शिकारी, सोनार प्रमुख थे। पुत्र पिता के कार्यों का ही अपनी यौवनावस्था में वाहक होता था। इस प्रकार जीन्दगी से जुड़ी हर आवश्यकता से लोग बंधे थे और एक दूसरे के पूरक थे, जिससे उनका परिवारिक जीवन बेरोकटोक चलता था।
संदर्भ ग्रंथ
1. पालि इंगलिश डिक्शनरी, पृ0 223
2. दीघनिकाय, खण्ड-1, पृ0 111
3. अंगुत्तर निकाय, खण्ड-2, पृ0 73
4. वही, पृ0 69
5. वही, पृ0 310-311
6. वही, पृ0 450
7. वही, खण्ड-4, पृ0 33
8. म0नि0, खण्ड-2, पृ0 408
9. बुद्धचर्या, पृ0 203
10. वही, पृ0 65
11. वैदिक इण्डेक्स 1, 527
12. वही, 10, 85, 86
13. जातक 2, पृ0 321-403
14. जातक, पृ0 428
15. जातक-2, पृ0 321-340
16. महावग्ग-1, पृ0 60, जातक-6, पृ0 69
17. जातक-6, पृ0 69
18. जातक, पृ0 428
19. सुत्तनिपात, 719
20. माता पितु उपठ्ठान0......एवं मडगलमुत्तम।
खुद्दक निकाय, खण्ड-1, पृ0 308
21. सुत्तनिपात, 6, 8, 12, 14, 18, 22
22. अंगुत्तरनिकाय-2, पृ0 79; इतिबुत्तक, पृ0 106
23. जातक-1, पृ0 202
24. अंगुत्तर निकाय (ब्रह्म सूत्र)
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