Sunday 2 October 2011

न्याय- वैशेषिक एवं अद्वैत-वेदान्त दर्शन में ‘मोक्ष’ संकल्पना


शकुन्तला मीना
पी-एच.डी. शोध-छात्रा,
संस्कृत विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

इस लेख में विशेष रूप से वेदान्त दर्शन के अनुसार तथा सामान्य रूप से न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार मोक्ष के लक्षण व स्वरूप सम्बन्धी विवेचन किया जायेगा। वेदान्त में ब्रह्म के स्वरूप की अनुमति को मोक्ष; वैशेषिक में ‘निःश्रेयस’ को ही ‘अपवर्ग’ अथवा मोक्ष; एवं न्याय में मुक्ति के स्थान पर ‘अपवर्ग’ का प्रयोग कर दुःख से प्रयत्न अर्थात् पुनरावृत्ति रहित विमुक्ति को मोक्ष रूप में स्वीकार किया है। इसी प्रकार तीनों दर्शनों के मोक्ष सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक विधि से विमर्श करने का प्रयास किया जायेगा।

भूमिका
मोक्ष को चरम लक्ष्य के रूप में प्रायः सभी दर्शन पद्धतियों में स्वीकार किया गया है। इस संसार में जन्म लेते ही जीव-मात्र को किसी न किसी दुःख से अवश्य गुजरना पड़ता है। इस दुःख को दूर करने में हम कभी सफल होते हैं तो कभी असफल। कभी हम एक दुःख से बच भी जाते हैं तो पुनः कुछ समय पश्चात् दूसरा दुःख हमें घेर लेता है। अतएव हमें इस दुःख को दूर करने के लिए कोई न कोई उपाय भी ढूंढना होगा जिससे कि हम सदा के लिए दुःख से बच सके। इस दुःख की समस्या से बचने के लिए ही मोेक्ष विषयक विचार को आधार बनाया जा रहा है।
वेदान्त दर्शन में मोक्ष मीमांसा
शंकराचार्य के मोक्ष संबंधी विचार ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4 में मिलते हैं। शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष आत्मा या ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति होना है। आत्मा या ब्रह्म नित्य शुद्ध चैतन्य एवं अखण्ड आनन्दस्वरूप है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है और इसके विपरीत मोक्ष को आत्मा का स्वरूप ज्ञान माना गया है। ब्रह्म व मोक्ष की एकरूपता को बताते हुए आचार्य शंकर का कहना है कि जिस प्रकार भगवान् बुद्ध के अनुसार अद्वैत परमतत्व और निर्वाण को एक ही माना गया है, उसी प्रकार ब्रह्म और मोक्ष को भी एक ही माना गया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति ब्रह्म को जानता है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।1 आचार्य शंकर के मत में ज्ञान, मोक्ष और ब्रह्म पर्यायवाची शब्द हैं और ये सभी एक ही परमतत्व को द्योतित करते हैं। ज्ञान का तात्पर्य है अज्ञान का नाश तथा ब्रह्म से अभिन्न होने की अनुभूति। यह ज्ञान ही मोक्ष है और यही ब्रह्म भी है। भाष्य में कहा गया है कि अविद्या-निवृत्ति और ब्रह्मभाव या मोक्ष में कार्यान्तर नहीं है।2 आत्मज्ञान मोक्ष को कार्य के रूप में भी उत्पन्न नहीं करता, अपितु मोक्ष- प्रतिबन्धरूप अविद्या की निवृत्तिमात्र ही आत्मज्ञान का फल माना गया है।3 ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्तिमात्र है जो कि ज्ञान के प्रकाश द्वारा होती है, जिस प्रकार प्रकाश द्वारा अंधकार की निवृत्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति के ज्ञान को भी भी अविद्याजन्य बताया गया है और कहा गया है कि मोक्ष किस अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति नहीं है; मोक्ष आत्मभाव है जो सदा प्राप्त है। शंकराचार्य ने मोक्ष के तीन लक्षण बताये हैं-
1. मोक्ष अविद्या-निवृत्ति है (अविद्यानिवृत्तिरेव मोक्षः)
2. मोक्ष ब्रह्मभाव या ब्रह्मसाक्षात्कार है (ब्रह्मभावश्च मोक्षः)
3. मोक्ष नित्य अशरीत्व है। (नित्यशरीरत्वं मोक्षाख्याम्)
    इनमें पहले दोनों लक्षणों को एक बताते हुए इनका निरूपण किया जा चुका है। तीसरे लक्षण के अनुसार मोक्ष स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों प्रकार के शरीरों के सम्बन्ध में अत्यन्त रहित नित्य आत्मस्वरूप का अनुभव है। प्रस्तुत लक्षण में अशरीर का अर्थ शरीर रहित नहीं है, अपितु शरीर-सम्बंध रहित है। इस आधार पर कह सकते हंै कि शंकराचार्य जीवन्मुक्ति का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करते हैं।
आचार्य शंकर ने मोक्ष के स्वरूप का अत्यन्त सुन्दर निरूपण इस प्रकार किया है-
यह पारमार्थिक सत् कूटस्थनित्य है, आकाश के समान सर्वव्यापी है, सब प्रकार के विचारों से रहित है, नित्यतृप्त है, निरवयव है, स्वयंज्योतिःस्वभाव है, यह सुखःदुःखरूपी कार्यों सहित धर्म और अधर्म नामक शुभाशुभ कर्मों से अस्पृष्ट है, यह कालत्रयातीत है, यह अशरीतत्व मोक्ष कहलाता है।4
आचार्य शंकर के इस मोक्ष-निरूपण की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
मोक्ष पारमार्थिक सत् है। बन्धन और मोक्ष अविद्याकृत होने से सापेक्ष और मिथ्या हैं, किन्तु परब्रह्म या परमात्मत्व के रूप में मोक्ष पारमार्थिक सत् है। यहाँ आचार्य शंकर को बन्धन सापेक्ष मोक्ष अभिप्रेत नहीं है। आचार्य के अनुसार ब्रह्म ही मोक्ष अर्थात् नित्य मुक्त परमार्थ है। यह कूटस्थ- नित्य है क्योंकि इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन, परिणाम या विकार सम्भव नहीं है, यह मोक्ष परिणामि-नित्य नहीं है क्योंकि किसी भी प्रकार का परिणाम इसकी नैसर्गिक शुद्धता को नष्ट कर सकता है। यह अनन्त और सर्वव्यापी भूतवस्तु है। यह कार्यकारणभाव के परे है क्योंकि यह सब प्रकार के विकारों से रहित है। यह नित्यतृप्त है अर्थात् आप्तकाम है तथा नित्य अखण्डानन्द है। यह ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान अथवा वेदक-वेद्य-वेदना की त्रिपुटी के पार है, अतः इसका ज्ञान और आनन्द स्वसम्वेद्य नही है। यह स्वयं शुद्ध चैतन्य और आनन्दस्वरूप है। यह अद्वैत निरवयव और अखण्ड है। यह स्वयं ज्योति या स्वप्रकाश है। यह स्वतः सिद्ध है। यह दिक्कालातीत है। यह अविद्या धर्म व अधर्म रूपी कर्म, सुख दुःखरूपी फल, और शरीरेन्द्रिविषयादि के सर्वथा अस्पृष्ट है। यह लौकिक सुख-दुःखातीत है। इसका आनन्द लौकिक सुख नहीं है।
मोक्ष कार्य का उत्पाद्य नहीं है। मोक्ष को किसी कारण विशेष द्वारा उत्पन्न कार्य भी नहीं माना जा सकता। मोक्ष न तो कर्म का फल है और न ही उपासना का फल है। मोक्ष को कार्य या उत्पाद्य मानने पर वह निश्चित रूप से अनित्य होगा। मोक्ष में विश्वास रखने वाले सभी व्यक्ति मोक्ष को नित्य मानते हैं।5 मोक्ष नित्य आनन्द है और लौकिक (सांसारिक) तथा पारलौकिक (स्वर्गिक) सुखों से भिन्न एवं अत्यन्त उत्कृष्ट है। इस प्रकार अद्वैत वेदान्त दर्शन में मोक्ष के लिए सुख शब्द का प्रयोग न करके शंकराचार्य ने आनन्द शब्द का प्रयोग किया है।
अब न्याय के समकक्ष कहे जाने वाले वैशेषिक दर्शन में मोक्ष के स्वरूप की सामान्य रूप से विवेचना प्रस्तुत की जा रही है-
वैशेषिक दर्शन के मोक्ष का स्वरूप
वैशेषिक सूत्र में महर्षि मोक्ष के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि सभी प्रकार के कर्मों (अदृष्ट) के अन्त हो जाने पर आत्मा का शरीर से सम्बन्ध- विच्छेद हो जाता है।6 तत्फलस्वरूप जीवन-मरण के चक्र का अन्त हो जाता है, और सभी सुख अनन्तकाल के लिए समाप्त हो जाते हैं।7 अन्य परिभाषा भी मोक्ष हेतु वैशेषिकसूत्र में दी गई है जिसके अनुसार निःश्रेयस (निश्चित कल्याण) ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है।8
वैशेषिकों की मोक्ष प्रक्रिया के अनुसार ज्ञानपूर्वक किये गये, फल की कामना से रहित कर्म के सम्पादन से विशुद्ध कुल में जन्म होता है, इससे दुःखों का विनाश होता है। तद्नुसार जिज्ञासु साधक आचार्य के समीप जाकर छह पदार्थो का तत्वज्ञान प्राप्त करता है। उस तत्वज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर साधक विरक्त हो जाता है तथा उसमें राग-द्वेष का अभाव हो जाता है। राग द्वेष का अभाव होने पर तज्जन्य धर्माधर्म की उत्पत्ति नहीं होती तथा पूर्वसंचित धर्म तथा अधर्म का भोग द्वारा नाश हो जाता है।9 इस प्रकार की स्थिति में केवल निवृत्ति रूप धर्म शेष रह जाता है। जो ज्ञानपूर्वक किये गये निष्काम कर्म से उत्पन्न होता है। निवृत्तिरूप धर्म भी सन्तोष सुख तथा शरीरादि का सम्यक् ज्ञान कराकर एवं तत्वज्ञान से उत्पन्न होने वाले आनन्द का अनुभव कराकर समाप्त हो जाता है।10
इस प्रकार वैशेषिक में धर्म के दो स्वरूप माने गए हैं एक प्रवृत्तिरूप तथा दूसरा निवृत्तिरूप। प्रवृत्तिरूप धर्म ही संसार भावना का निमित्त बनता है। इसके विपरीत निवृत्तिरूप धर्म द्वारा जन्म-मरण रूप, संसार रूप, संसारचक्र की निवृत्ति हो जाती है। इसी निवृत्तिरूप धर्म के द्वारा परमार्थदर्शन से उत्पन्न सुख की प्राप्ति होती है। इस परमार्थ दर्शन से प्राप्त सुख की स्थिति को जीवनमुक्ति की स्थिति कहा गया है। कर्मभोगों के समाप्त हो जाने पर जब जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, तो यह शरीर का अनुत्पाद ही वैशेषिक के अनुसार विदेहमुक्ति की स्थिति है। अब मोक्ष की स्थिति को बताते है, उसी प्रकार धर्माधर्म रूप बीज से आत्मा के रहित होने पर शरीरादि की निवृत्ति हो जाती है यही उपशम अर्थात् मोक्ष की स्थिति है।11 वस्तुतः इसी तथ्य को भासर्वज्ञ ने ‘न्यायसार’ में वैशेषिकमत को पूर्वपक्ष के रूप में स्थापित किया है- जिसके अनुसार मोक्ष एक ऐसी अवस्था है; जिसमें आत्मा के समस्त विशेष गुणों का नाश हो जाने पर प्रलय काल में आकाश की स्थिति की भांति आत्मा सर्वदा के लिए अपने स्वरूपमात्र में स्थित हो जाती है।12 अब न्यायदर्शन में प्रतिपादित मोक्षमीमांसा के स्वरूप का निरूपण इस प्रकार करते हैं-
न्याय दर्शन में मोक्ष सम्बन्धी विचार- सामान्यतः दुःखनिवृत्ति एवं तत्फलस्वरूप सुख-शान्ति की प्राप्ति ही मोक्ष है। परन्तु विशेष रूप से विचार करने पर सभी दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप के विषय में यत् किंचिद् भेद मिलता है। न्याय दर्शन में प्रथम सूत्र में न्याय शास्त्र के प्रयोजन के रूप में ‘‘निःश्रेयस’’ शब्द आया है। इस निःश्रेयस शब्द का अर्थ ‘मुक्ति’ ही प्रसिद्ध है। परन्तु कल्याण व अभीष्ट अर्थ भी इसके द्वारा जाना जा सकता है। महाभारत में कल्याण अर्थ में निःश्रेयस शब्द का प्रयोग हुआ है।13
महर्षि गौतम ने न्यादर्शन के द्वितीय सूत्र में तथा अन्यान्य सूत्रों में मुक्ति के स्थान पर ‘अपवर्ग’ शब्द का प्रयोग किया है। न्यायसूत्र (1.1.22) में मोक्ष का लक्षण ‘तदत्यनतविमोक्षोऽपवर्गः’ (उस जन्म रूप दुःख से प्रत्यन्त अर्थात् पुनरावृत्ति रहित विमुक्ति मोक्ष है) इस प्रकार किया है। मोक्ष की स्थिति का निरूपण करते हुए, भाष्यकार वात्स्यायन का कथन है कि मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेने पर उपात्त-जन्म का त्याग हो जाता है तथा दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता। यह मोक्षावस्था अविनाशी अपवर्ग स्वरूप है। यह अवस्था सर्वथा भयरहित, जरारहित, शाश्वत ब्रह्मस्वरूप एवं क्षेम (नित्यसुख) स्वरूप है।14
न्यायभाष्य में मोक्ष के लिए पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है- अभयम् (भयरहित), अजरम् (परिवर्तन रहित), अमृत्युपदम् (मृत्यु-रहित), ब्रह्म तथा क्षेम-प्राप्तिः (कल्याण-प्राप्ति)। इन पाँचों विशेषणों की वाचस्पतिमिश्र ने तात्प्र्यटीका में अत्यन्त सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है। वाचस्पतिमिश्र के अनुसार ‘अभयम्’ के द्वारा यह द्योतित किया गया है कि मोक्ष की अवस्था में पुनर्जन्म का भय नहीं रहता, ‘अजरम्’ का प्रयोग यह दिखाने के लिए किया गया है कि मोक्ष उस ब्रह्म की अवस्था से भिन्न है जिसको कुछ लोग नाम-रूप के रूप में परिणत होता हुआ मानते हैं, तथा ‘अमृत्युपदम्’ का प्रयोग बौद्धो से भेद दिखलाने के लिए किया गया है क्योंकि निर्वाण में विज्ञानसंतति का विरोध हो जाता है। अंतिम दो विशेषणों ‘ब्रह्म’ तथा ‘क्षेमप्राप्तिः’ की व्याख्या नहीं की गई है। ‘ब्रह्म’ शब्द का प्रयोग मोक्ष के लिए संभवतः परम्परागत है किन्तु इसे वेदान्त की ब्रह्मरूपता से भिन्न मानना चाहिए। ‘क्षेमप्राप्तिः’ का तात्पर्य संभवतः दुःख निवृत्ति है।15
मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि यह दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति है। अर्थात् यह दुःखों का ऐसा नाश है कि भविष्य दुःखों का अनन्तकाल के लिए नाश है। न्यायसूत्र 1/1/2 पर भाष्य करते हुए वात्स्यायन कहते हैं कि जब तत्वज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञान का नाश हो जाता है तो उसके फलस्वरूप सभी दोष समाप्त हो जाते हैं। दोषों के समाप्त होने से कर्म करने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। प्रवृत्ति के समाप्त हो जाने पर जन्म का बन्धन छूट जाता है। जन्म-मरण के चक्र के रुक जाने पर दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। इसी स्थिति को ‘मोक्ष’ ‘अपवर्ग’ या ‘निःश्रेयस’ कहा गया है। यह दुःखनिवृत्ति अनात्यन्तिक और आत्यन्तिक भेद से दो प्रकार की होती है। अनात्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति के समय सभी दुःख एक साथ निवृत्त नहीं होते। इन दुःखों का औषधि, पानादि उपचार करने पर भी पुनरावृत्ति हो जाती है जैसे कि दवा के सेवन से ज्वर उतर जाता है, परन्तु फिर से आने की आशंका बनी रहती है।
आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति का अर्थ है इक्कीस16 प्रकार के दुःखों का सदा-सदा के लिए ध्वंस हो जाना। इन दुःखों से सर्वदा के लिए आत्मा का मुक्त हो जाना ही अपवर्ग हैं तदत्यन्तविमोऽक्षोपवर्गः’’ (1.1.22) इस सूत्र में ‘अत्यन्त’ पद का अर्थ है दुःख के कारण शरीरादि का पुनः उत्पन्न न होना, एवं शरीर का आत्मा के साथ संसर्ग न होना।
अपवर्ग में आत्मा का स्वरूप
‘अपवर्ग’ की अवस्था में आत्मा का शरीर, इन्द्रिय, विषय आदि से सम्बन्ध नहीं रहता। मोक्ष की दशा में आत्मा के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग और विभाग इन 24गुणों का उच्छेद हो जाता है। कारण यह है कि यदि मोक्ष की अवस्था में आनन्द, सुखादि की उत्पत्ति मानी जाए तो ये गुण अनित्य हैं। इनकी उत्पत्ति मानने से युक्ति अनित्य मानी जाएगी। अतः मोक्ष को नित्य मानने से, मोक्ष की अवस्था में सभी आगन्तुक गुणों का उच्छेद मानना समीचीन प्रतीत होता है। मुक्त आत्मा में जिस प्रकार दुःख का अभाव होता है, उसी प्रकार आनन्द सुखादि का भी अभाव रहता है। मोक्ष की दशा में केवल आत्मा का शेष रह जाना है। मुक्ति की अवस्था में जो गुण आत्मा में नहीं रहते वे गुण आत्मा का स्वभाव नहीं हो सकते। सुखदुःखादि आत्मा के गुण हैं व गुण गुणी से भिन्न होते हैं। इसी कारण भिन्न वस्तु किसी तत्व का स्वभाव नहीं होती।
न्यायदर्शन में प्राचीनकाल से ही मोक्ष के विषय में दो धारायें चली आ रही हैं- (प) दुःखाभावरूप मोक्ष व (पप) नित्यसुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष।
दुःखाभावरूप मोक्ष
दुःखाभावरूप मोक्ष को मानने वाले आचार्यों ने ‘तदत्यन्तविमोक्षाऽपवर्ग’ (न्यायसूत्र 1/1/22) इस सूत्र के शब्दों का अर्थ केवल दुःखाभावमात्र स्वीकार किया। अर्थात् मोक्ष को एक अभाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया। इनके अनुसार मोक्ष केवल दुःखांे की निवृत्तिमात्र है। इस प्रकार ‘‘सुखमपि दुःखानुषड़्गाद् दुःखम्’’17 इस मत में विश्वास करने वाले आचार्यों ने मोक्ष की अवस्था में आत्मा के सुखादि समस्त धर्मों की सत्ता को अस्वीकार किया। इसके विपरीत जयन्तभट्ट का मानना है कि मोक्ष की स्थिति में न केवल दुःख का नाश आवश्यक है, अपितु आत्मा के अन्य समस्त विशेष गुणों ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार- इन सभी का नष्ट होना भी आवश्यक है, क्योंकि इनके नाश के बिना दुःखों का पूरी तरह नाश नहीं हो सकता।18
नित्यसुखभिव्यक्तिरूप मोक्ष
नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष के मानने वाले आचार्यो ने मोक्ष को न केवल दुःखाभावमात्र स्वीकार किया् वरन् मोक्ष की अवस्था में नित्य सुख की अभिव्यक्ति को  भी स्वीकार किया। अर्थात् इन आचार्यो ने मोक्ष की भावरूपता पर भी निश्चयपूर्वक बल दिया। न्यायादर्शन के अनुसार मोक्ष के सम्बन्ध में यह विशेष रूप से देखा गया है कि वेदान्त के समान न्याय में मोक्ष की स्थिति सच्चिदानन्द की स्थिति हैः अपितु वह दुःखाभाव की स्थिति है। जो कि स्वभावतः सुख की स्थिति ही मानी जा सकती है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष की स्थिति को बताया गया हैं।
अब दोनों दर्शनों के उपरोक्त मोक्ष सम्बन्धी विचार का अध्ययन करने पर जो तथ्य समाने आते हैं। उनको प्रस्तुत कर रहे हैं।
1. वेदान्त-ब्रह्मात्मा, आनन्द व मोक्ष इन तीनों को एक ही मानता है, जबकि न्यायमत में‘ आत्मा’ धर्मी में ‘सुख’ धर्म की की नित्यसमवेतत्व माना गया है।
2. शंकराचार्य ने अद्वैत वदेान्त दर्शन में मोक्ष के लिए सुख शब्द का प्रयोग न करके शब्द का प्रयोग किया है।
3. मुक्ति की अवस्था में आत्मा में नित्य आनन्द की अभिव्यक्ति होती है, ऐसा कहने वाले वेदान्तियों की मुक्ति का उपहास करते हुए। नैयायिक कहते हैं कि जिस मोक्ष में कोई पदार्थ नहीं रहता, कोई विशेष गुण नहीं रहता है, उसमें नित्य आनन्द का अनुभव होता है यदि ऐसा माना जाए, तो इसकी अपेक्षा तो वृंदावन के हरे-भरें जंगलो में गीदड़ बनकर रहना ही अच्छा होगा। पर जिस मुक्ति में बिना ही किसी गुण या पदार्थ के आनन्द मिले व सुख की अनुभूति हो ऐसी वेदान्तियों की मुक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता है19 इसी प्रसंग में भासर्वज्ञ ने भी न्यायभूषण में एक प्राचीन पद्य उद्धत किया है। जिसमें केाई वैष्णव-भक्त कहता है कि गौतम को भी अभावरूप मोक्ष अभिप्रेत नहीं था।
निष्कर्ष
भारतीय दर्शन का मोक्ष-चिन्तन एैसी विशेषता है जो उसे पाश्चात्य दर्शन से पृथक् करती है। त्रिविध दुःखों से सन्तप्त मानव जाति के लिए दुःखों से एकान्तिक व आत्यन्तिक निवृत्ति हेतु मोक्ष की सड्कल्पना प्रायः भारतीय दर्शन की समस्त विधाओं में किसी न किसी रूप मंे स्वीकार की गई है। जैसा कि बताया जा चुका है न्यायदर्शन में दुःखाभावरूप तथा नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष। वैशेषिक तथा न्याय की मुख्य धारा में प्रचलित मोक्ष की अभावरूपता का जिस रीति से निराश किया गया है, वह भी रोचक सिद्ध होती है।
संदर्भ
1 ‘‘ब्रह्ा वेद ब्रह्मैव भक्ति’’- मुण्डकोपनिषद्, 3/2/9
2 ‘‘श्रुतयों मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति’’- शा0भाष्य0, 1/1/4
3 ‘‘मोक्षप्रतिबन्धनिवृत्तिमात्रमेव आत्माज्ञानस्य फलम्’’ -शा0भाष्य, 1/1/4
4 ‘‘इदं तु पारमार्थिकं, कूटस्थनित्यं, व्योमवत्, सर्वव्यापी, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्, यत्र कार्येण, कालत्रयं, नोपावर्तेत, तदेतत् अशरीरत्वं मोक्षाख्याम्।’’
-शा0भाष्य, 1/1/4
5 ‘‘नित्यश्च मोक्षः सर्वमोक्षवादिभिरुपगम्यते।’’ शा0भाष्य, 1/1/4
6 ‘‘तदा स्वकार्यकरणात् कर्मसमुच्छेदे तत्कार्यस्य शरीरस्य निवृत्तिः।’’
प्रशस्तपाद्भाष्य पर न्यायकन्दली, पृ0- 688
7 ‘‘तदभावे संयोगोभावोऽप्रादुर्भावश्य मोक्षः।’’ वैशेषिक सूत्र, 5/2/18
8 ‘‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस सिद्विः स धर्मः।’’ वैशेषिक सूत्र, 1/1/2
9 ‘‘ज्ञानपूर्वकान्तु कृताद्सड़्कल्पितफलाद् विशुद्धे कुले जातस्य दुःखविगमोपायजिज्ञासोरा- चार्यमुपसड़्गम्योत्पन्नषट्पदार्थतत्वज्ञानस्याज्ञानिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषाद्यभावात् तज्जयो-धर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ पूवसंचितयोश्चोपभोगान्निरोधे।’’ प्र0प्रा0भा0, पृ0- 682
10 ‘‘सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदं चोत्पाद्य, रागादिनिवृत्तौ, केवलो धर्मः परमार्थदर्शनजं सुखं कृत्वा निवर्तते।’’- प्र0पा0भा0 पृ0- 211
11 ‘‘तदा निर्बीजस्यात्मनः शरीरादिनिवृत्तिः। पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवद् उपशमो मोक्ष।’’ प्र0पा0भा0, पृ0-211
12 ‘‘एके तावद् वर्णयन्तिसमस्यात्मविशेषगुणोच्छेदे संहारावस्थायामाकाशवदात्म-
नोऽत्यन्तावस्थानं मोक्ष इति।’’- न्यायभूषण, पृ0 594
13 ‘‘कच्चित् सहस्त्रैमूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम्।
पडितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निः श्रेयसं परम्।।’’ महाभारत, सभापर्व, 5/35
14 ‘‘उपात्तस्य जन्मनों हानम्, अन्यस्य चानुपादानम्। एतामवस्थापर्यनतामपवर्गं मन्यन्तेऽपवर्गविदः। तद्भयम्, अजरम्, अमृत्युपदम् ब्रह्य, क्षेमप्राप्तिः।’’ न्यायभाष्य, 1/1/22
15 भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याएँ, पृ0 111
16 ‘‘स चैकविंशतिप्रभेदभिन्नस्य दुःखस्यात्मिन्तिकी निवृत्तिः।’’- तर्कभाषा, पृ0 330
17 न्यायवार्तिक, पृ0 6
18 ‘‘यावदात्मगुणाः पृ0 6
19 ‘‘यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्न वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिर्नावकल्यते।’’-
न्यायमंजरी, नवमाह्निक, अपवर्गपरीक्षा।
20 ‘‘नित्यानन्दानुभूतिः स्यान्मोक्षे तु विषयादृते।
वरं वृन्दावने रम्ये श्रृगालखं वृणोम्याहम्।।’’ - भारतीय दर्शन और मुक्ति मीमांसा, पृ0 197
21 ‘‘वरं वृन्दावने रम्ये श्रृगालत्वं वृणोम्यहम्।
न तु निर्विषयं मोक्षं गौतमों गन्तुमिच्छति।।’’- न्यायभूषण, पृ0 594
ग्रन्थसूची
1 केशव मिश्र, तर्कभाषा, संपा, गजानन शास्त्री मुसलगाँवकर, चैखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1992
2 गौतम, न्यायदर्शन, भाष्य-वात्र्तिक सहित, संपा, तारानाथ, न्यायतर्कतीर्थ एवं अमरेन्द्रमोहन न्यायतर्कतीर्थ, मंुशीराम मनोहर लाल पब्लिशर्स, दिल्ली, 1985, द्वितीय संस्करण।
3 वैशेषिक सूत्र- प्रशस्तपादभाष्य, श्रीधरकृत न्यायकन्दली सहित, संपा, दुर्गाधर, झा शर्मा, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1997, द्वितीय संस्करण।
4 भासर्वज्ञ, न्यायभूषण, संपा, स्वामी योगीन्द्रानन्द, षड्दर्शन प्रकाशन प्रतिष्ठान, वाराणसी, 1968।
5 जयन्तभट्ट, न्यायमंजरी, संपा, गौरीनाथ शास्त्री, संपूर्णानन्द, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1982।
6 उद्योतकर, न्यायवात्र्तिक, संपा, विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, चैखम्भा प्रकाशन, वाराणसी, 1915
7 वादरायण, ब्रह्मसूत्र शारीरिक भाष्य सहित, संपा. स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, वाराणसी, 1984।
8 वेदव्यास, महाभारत, सभापर्व, संपा, दामोदर सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, पारडी, 1968
9 किशोरदास स्वामी, भारतीय दर्शन और मुक्ति मीमांसा, स्वामी रामतीर्थ मिशन, देहरादून, 1998
10 चन्द्रधर शर्मा, भारतीय दर्शनः आलोचना एवं अनुशीलन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1995,
11 ईशादि नौ उपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000



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