Sunday 2 October 2011

प्राचीन भारत की सामाजिक एवं राजनैतिक इतिहास के स्रोत


राजीव कुमार, 
शोध छात्र, उ0 प्र0 रा0 ट0 मुक्त विष्वविद्यालय
डॉ0 सूर्यप्रकाश सिंह, 
निदेशक, संत तुलसीदास पी0 जी0 कालेज

प्राचीन काल से मध्यकाल तक समय-समय पर ऐसे अनेकानेक साहित्य का निर्माण हुआ जिनसे भारतीय समाज और संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। ब्राह्मण, बौद्व और जैन धर्म प्रधान साहित्य के अतिरिक्त अनेक ऐतहासिक ग्रंथों की रचना की गई जिनसे तत्कालीन समाज की गति-विधियों का पता चलता है। विदेशी लेखकों और यात्रियों के विवरण भी भारतीय समाज और संस्कृति के भंडार को भरते रहें हंै।3 इस लेख में इतिहास के इन्हीं श्रोतों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

(क) साहित्यिक स्रोत-
प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए साहित्यिक स्रोतों सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय साहित्य को दो वर्गो में विभाजित कर सकते हैं धार्मिक साहित्य और धर्मेत्तर साहित्य। धार्मिक साहित्य को हम भागों में विवेचना करेंगे- ब्राह्मण साहित्य, बौद्ध एवं जैन साहित्य। ब्राह्मण साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। इस ग्रंथ से प्राचीन आर्यों के धार्मिक समाजिक एवं आर्थिक जीवन पर कुछ अधिक और राजनीतिक जीवन पर कुछ कम प्रकाश पड़ता है।4
वैदिक साहित्य के बाद भारतीय साहित्य में रामायण और महाभारत नामक दो ग्रंथों का समय आता है। ‘‘इन महाकाव्यों से तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन उद्घाटित होते हैं तथा समाज के तारतमिक विकास का ज्ञान भी प्राप्त होता है। आदि काव्य रामायण के रचनाकार वाल्मीकि थे। इसकी रचना संभवतः छठी सदी ई0पू0 में हुई थी। इसका वर्तमान स्वरूप प्रायः दूसरी सदी ई0पू0 का है। महाभारत का प्रणयन व्यास ने किया था जो संभवतः 5वी सदी ई0पू0 में प्रणीति है।’’5
बौद्व ग्रंथ-
‘‘बौद्व ग्रन्थों में त्रिपिटक सबसे महत्वपूर्ण है बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बाँटा गया। ये है- विनयपिटक (संघ सम्बन्धी नियम तथा आचार की शिक्षाये) सूत्तपिटक (धार्मिक सिद्धान्त अथवा धर्मापदेश) तथा अभिधम्मपिटक (दार्शनिक सिद्धान्त) इसके अतिरिक्त निकाय तथा जातक आदि से भी हमें अनेकानेक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है। पाली भाषा में लिखे गये बौद्ध ग्रन्थों को प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है।’’6
‘‘बौद्ध साहित्य से भारत और विदेशों के सांस्कृतिक सम्बन्धों पर बहुत प्रकाश पड़ता है। प्रारम्भिक बौद्ध धार्मिक साहित्य से हमें प्राचीन भारत के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन की जानकारी तो मिलती ही है छठी शताब्दी ई0पू0 की राजनीतिक दशा का भी पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। अंगुत्तर निकाय में जिन सोलह महाजनपदों का वर्णन मिलता है वह कल्पना पर आधारित नहीं है। ये सोलह जनपद उस समय वस्तुतः विद्यमान थे।’’7
जैन ग्रंथ-
‘‘जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। जैन साहित्य का दृष्टिकोण भी बौद्ध साहित्य के समान ही धर्मपरक है। जैन ग्रंथ में परिशिष्ट पर्वन, भद्रबाहु चरित, आवश्यकसूत्र, आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, कालिकापुराण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है। जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास कल्पसूत्र (लगभग चैथी शती0 ई0पू0) से ज्ञात होता है, जिसकी रचना भद्रबाहु ने की थी। परिशिष्टपर्वन तथा भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की प्रारम्भिक तथा उत्तरकालीन घटनाओं की सूचना मिलती है। जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें चरित भी कहा जाता है। ये प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में लिखे गये हैं।8
धर्मेत्तर भारतीय साहित्य-
धर्मेत्तर साहित्य में पाणिनि के अष्टाध्यायी में मौर्य काल से पूर्व के भारत की राजनीतिक सामाजिक व धार्मिक दशा की जानकारी मिलती हैै। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस, सोमदेव के कथासरित्यसागर और क्षेमेन्द्र की वृहतकथामंजरी से मौर्य काल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मौर्य शासन के आदर्श और पद्धति का पता चलता है पंतजलि के महाभाष्य और कालिदासकृत मालविग्निमित्र नामक नाटक से शुंगवंश के इतिहास काल पर प्रकाश पड़ता है। कालिदास के रघुवंश में संभवतः संमुद्रगुप्त की दिग्विजय की झलक मिलती है।9
‘‘प्राचीन भारतीय साहित्य से शुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ केवल कल्हणकृत राजतरंगिणी है। कल्हण ने कश्मीर के इतिहास के विषय में सभी उपलब्ध सामग्री का संग्रह करके 1149-50ई0 में इस ग्रंथ की रचना की। उसने यह ग्रंथ लिखते समय कश्मीर के शासकों के लिखित आदेशों और प्राचीन लेखकों के शासको के जीवन चरित्रो का अध्ययन करके यथा संभव सही चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया।’’10
प्राचीन भारतीय साहित्य प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास लिखने में बहुत उपयोगी सिद्व नहीं हुआ है किन्तु इससे तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस साहित्य की तीन बड़ी कमियाँ है। एक तो ग्रंथ विशेष की रचना की तिथि निश्चित नहीं है। दूसरे किसी भी ग्रंथ से प्रायः उसी प्रदेश की जानकारी मिलती है जिससे उसकी रचना हुई थी। तीसरे इन ग्रंथो की प्रतियाँ लिखने वाले विद्वानो ने बहुधा अपनी इच्छानुसार उनके पाठ में हेर-फेर कर दिया जिससे यह पता नहीं लगता कि मूल पाठ क्या था। इसी प्रकार बौद्ध साहित्य के जातकों में कुछ अंश एक काल के प्रतीत होते हैं तो अन्य किसी और काल के। वैज्ञानिक अध्ययन से भी यह तथ्य विशेष रूप से सामने आया है कि एकरूप प्रतीत होने वाला कौटिलीय अर्थशास्त्र जैसे- ग्रंथो में भी विभिन्न स्तर है।
इन कमियों के बावजूद जब ऊपर वर्णित कौशाम्बी महोदय की इतिहास विषयक परिकल्पना को ध्यान में रखते हैं तो प्राचीन भारत में सम्बद्ध साहित्यक स्रोतों की उपयोगिता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है’’।11
(ख) पुरातात्विक स्रोत-
प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्विक सामग्री का विशेष महत्व है। उसके तीन प्रमुख कारण है। पहला यह है कि भारतीय ग्रंथों का रचना काल ठीक से ज्ञात नहीं है, इसलिए उनसे किसी काल विशेष की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का ज्ञान नहीं होता। दूसरे साहित्यिक साधनों में लेखक का दृष्टिकोण भी बहुधा सही चित्र प्रस्तुत करने में बाधक हो जाता है। तीसरे ग्रंथो की प्रतिलिपि करने वालों ने अपनी इच्छानुसार अनेक प्राचीन प्रकरणों को छोड़ दिया और नए प्रकरण जोड़ दिए। पुरातात्विक सामग्री में इस प्रकार की हेर-फेर की बहुत कम संभावना थी इसलिए पुरातात्विक स्रोत अधिक विश्वसनीय है।12
(ग) अभिलेख-
प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के लिए अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व साहित्यिक साक्ष्यों से अधिक है।  प्राचीन भारत के अधिकतर अभिलेख पत्थर या धातु की चादरों पर खुदे मिले है, इसलिए उनमें साहित्य की भाँति हेर-फेर करना संभव नहीं था। यद्यपि सभी अभिलेखों पर उनकी  तिथि अंकित नहीं है फिर भी अक्षरों के बनावट के आधार पर काल मोटे रूप पर निर्धारित हो जाता है। सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के है।’14
‘‘अशोक के बाद भी अभिलेखों की परंपरा कायम रही। अब हमें अनेक प्रशस्तियाँ मिलने लगती हैं जिनमें दरबारी कवियों अथवा लेखकों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के शब्द मिलते हैं। यद्यपि ये प्रशस्तियाँ अतिरंजित है तथापि इनसे, सम्बन्धित शासको के विषय में अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। ऐसे लेख में खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, शक्क्षत्रप, रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध है। समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ-लेख में उसकी विजयों का विशद् विवरण है। ऐहोल लेख हर्ष-पुलकेशिन युद्ध का विवरण देता है। ग्वालियर  लेख से गुर्जर-प्रतिहार शासकों के विषय में विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त होती है’’।15
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत का राजनीतिक एवं सामाजिक इतिहास लिखने में भारतीय और विदेशी अभिलेख बहुत उपयोगी सिद्ध हुए है। प्राचीन भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा का अध्ययन करने के लिए भी जो साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हैं उनकी पुष्टि अभिलेखोें से हुई है।
1ण् प्राचीन भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास,बी.के. पाण्डेय, पुस्तक भवन, इलाहाबाद2009 पृ.सं. 1
2ण् प्राचीन भारत का इतिहास, झा एवं श्रीमाली, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली 2004, पृ.सं. 13
3ण् प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, डाॅ. जय शंकर मिश्र बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 2006 पृ.सं. 1
4ण् प्राचीन भारत का इतिहास,झा एवं श्रीमाली, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली 2004, पृ.सं. 21
5ण् प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, डाॅ. जय शंकर मिश्र बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 2006 पृ.सं. 5
6ण् प्राचीन भरत का इतिहास तथा संस्कृति, कृ0च0 श्रीवास्तव, यूनाइटेड बुक डिपो, इलाहाबाद2005, पृ.सं. 8
7ण् प्राचीन भारत का इतिहास,  झा एवं श्रीमाली, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली 2004, पृ.सं. 23
8ण् प्राचीन भरत का इतिहास तथा संस्कृति, कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव, यूनाइटेड बुक डिपो, इलाहाबाद2005,पृ.सं. 8
9ण् प्राचीन भारत का इतिहास, झा एवं श्रीमाली, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय दिल्ली 2004, पृ.सं. 24


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