Sunday 2 October 2011

भागवद्गीता में ईश्वर का स्वरूप


सुनील कुमार राय
शोध छात्र (दर्शनशास्त्र)
 उ0 प्र0 रा0 ट0 मुक्त विश्वविद्यालय इलाहाबाद

भगवद्गीता में सनातन भगवान को दार्शनिक अनुमान के परमात्मा के रूप में उतना नहीं देखा गया, जितना कि उस करुणामय भगवान के रूप में, जिसे हृदय और आत्मा चाहते हैं और खोजते हैं1; जो व्यैक्तिक विश्वास और प्रेम, श्रद्धा और निष्ठापूर्ण आत्मसमर्पण की भावना को जगाता है।2
गीता में ईश्वर को परम सत्य माना गया है। ईश्वर अनन्त और ज्ञान स्वरूप है। ईश्वर शाश्वत है। ईश्वर विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है। वह जीवों को उनके कार्यों के अनुसार सुख,दुःख प्रदान करता है। ईश्वर कर्म फलदाता है। वह सबका स्वामी है। गीता में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर का अत्यन्त सुन्दर समन्वय हुआ है।3 भगवद्गीता में ईश्वर को पुरुषोत्तम की संज्ञा दी गयी है। उन्हें प्रकृति और पुरुष से परे माना गया है तथा परमात्मा या परमब्रह्म कहा गया है। परमात्मा एवं परम ब्रह्म का वर्णंन करते हुए उनके दो स्वरूप बताये गये हैं- व्यक्त स्वरूप का वर्णन निम्नलिखित उद्धरणों में दिखता है-
‘प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः’4। अर्थात् प्रकृति मेरा स्वरूप है। तथा-‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।5 अर्थात् जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।
गीता में परमात्मा के अव्यक्त का वर्णन अनेक स्थलों पर हुआ है। जिनमें प्रमुख है- अनादित्वान्निर्गुगत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।7 अर्थात् यह परमात्मा अनादि, निर्गुंण और अव्यक्त है, इसलिए शरीर में स्थिर रहकर भी न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है। गीता में परमात्मा के अव्यक्त स्वरूप के तीन भेद किये गये हैं- सगुण, सगुण-निर्गंुण और निर्गुंण।8
यहाँ प्रश्न उठता है कि परमात्मा के अव्यक्त स्वरूपों में कौन श्रेष्ठ है? गीता में परमात्मा के अव्यक्त स्वरूप को व्यक्त स्वरूप की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। क्योंकि परमात्मा का सच्चा स्वरूप अव्यक्त ही है। इसके विपरीत परमात्मा के व्यक्त स्वरूप को गीता में मायिक कहा गया है। भगवान ने स्वयं इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कहा है- नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।9 अर्थात् यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ तथापि बुद्धिहीन पुरुष मुझे व्यक्त समझते हैं और व्यक्त से भी परे मेरे श्रेष्ठ तथा अव्यक्त रूप को नहीं पहचानते।
गीता के अनुसार ईश्वरीय प्रकृति के दो पक्ष हैंै। परा तथा अपरा। अपरा प्रकृति अचेतन है। इसके आठ प्रभेद हैं- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार। परा प्रकृति चेतन है। यह सीमित एवं सशरीर आत्माओं का नियामक है। परा तथा अपरा प्रकृति को ईश्वरीय की शक्तियों के रूप मेें चित्रित किया गया है। अपरा प्रकृति को क्षेत्र तथा परा प्रकृति को क्षेत्रज्ञ भी कहा गया है।10 कुछ श्लोकों में ईश्वर को विश्व में व्याप्त माना गया है। यद्यपि वह विश्व में निहित है, फिर भी वह विश्व की अपूर्णताओं से अछूता रहता है। इस प्रकार गीता में सर्वेश्वरवाद का विचार मिलता है। कुछ श्लोकों में ईश्वर को विश्व से परे माना गया है। वह उपासना का विषय है। इस प्रकार गीता में ईश्वरवाद की भी चर्चा हुई है। गीता केे कुछ श्लोकों में निमित्तोपादानेश्वर का विवेचन हुआ है। विश्वरूप एवं विश्वातीत रूप, ईश्वर के दो रूप माने गये हैं। ईश्वर विश्वव्यापी है। वह आकाश की तरह विश्व में व्याप्त है। वह जगत् का आधार है। ईश्वर विश्वव्यापी होने के अतिरिक्त विश्व के परे भी है। गीता में ईश्वर को व्यक्तित्वरहित, निर्गुण, निराकार, अव्यक्त भी माना गया है जो निमित्तोपादानेश्वरवादि अवधारणा को पुष्ट करते हैं। भगवद्गीता में अवतारवाद की अवधारणा भी पायी जाती है। धर्म के उत्थान के लिए ईश्वर का अवतार होता है। गीता में कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।11
इस प्रकार इस अवतार का प्रयोजन केवल मानवीय एवं सामाजिक जैसा प्रतीत हो रहा है, किन्तु अवतार के प्रसंग में गीता का रहस्योद्घाटन इतना सामान्य और सामाजिक नहीं हो सकता।12 अवतार का प्रयोजन है भगवद्प्राप्ति को मनुष्य के लिए सुलभ बना देना, भागवत जीवन के लिए मनुष्य को प्रेरित कर देना, दिव्य ज्ञान एवं कर्म के आदर्श को स्थापित कर देना, अपने ही उदाहरण से मनुष्य को भागवत चैतन्य और भागवत संकल्प की सिद्धि केे लिए प्रोत्साहित और आश्वस्त कर देना।13
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि गीता में सर्वेश्वरवाद, ईश्वरवाद और निमित्तोपादानेश्वरवाद के उदाहरण  मिलते है जिसके फलस्वरूप गीता को किसी विशेष ईश्वरीय सिद्धान्त तक सीमित करना उचित नहीं प्रतीत होता है। गीता में ईश्वरवाद, रहस्यवाद, एकत्ववाद इत्यादि अनेक धाराओं का सन्तुलन है।14
संदर्भ ग्रन्थ
1. शंकर का गीता भाष्य, अनुवादक - श्री हरिकृष्णदास गोयन्दका, गीता प्रेस, गोरखपुर, पेज 15-16
2. भगवद्गीता- डा0 सर्वेपल्ली राधाकृष्णन, पेज - 77 ।
3. भारतीय दर्शनः आलोचना और अनुशीलन-चन्द्रधर शर्मा, मोती लाल बनारसी दास पेज-16 ।
4. श्रीमद्भगवद्गीता, 9/8, गीता प्रेस, गोरखपुर।
6. वही 10/42
7. वही 13/31
8. भारतीय दर्शन की रूपरेखा - प्रो0 एच0 पी0 सिन्हा, मोतीलाल बनारसीदास, पेज-74 ।
9. श्रीमद्भगवद्गीता, 7/25, गीता प्रेस, गोरखपुर।
10. भारतीय दर्शन का सर्वेक्षण-प्रो0 संगमलाल पाण्डेय, सेन्ट्रल पब्लिसिंग हाउस, इलाहाबाद, पेज-50
11. श्रीमद्भगवद्गीता, 4/7,8, गीता प्रेस, गोरखपुर।
12. गीता का दिव्य संदेश- डा0 ह0 माहेश्वरी, श्री अरविन्द आश्रम, पुदुचेरी, पेज-34।
13. गीता-प्रबंध, श्री अरविन्द, अनुवादक-जगन्नाथ वेदालंकार, श्री अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी, पृष्ठ.154
14. समान्य धर्म दर्शन एवं दार्शनिक विश्लेषण-डा0 या0 मसीह, मोतीलाल बनारसी दास, पेज - 306
15. श्रीमद्भगवद्गीता, 9/23, गीता प्रेस, गोरखपुर।