Sunday 2 October 2011

उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाट्य साहित्य में अभिनय, रंगमंच और रस


डा0 (श्रीमती) शषि वर्मा
प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
वी0वी0इ0 कालिज, शामली जिला- मुजफ्फरनगर

उपेन्द्रनाथ अष्क के नाटकों में चारों प्रकार के अभिनय की आयोजना की गयी हैं। ‘जय-पराजय’ से लेकर भॅंवर तक की नाट्य यात्रा में अभिनय के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाटक पठनीय भी हैं और रंगमंच पर अभिनीत भी। अष्क के नाटकों में भी विभिन्न मानवीय भावनाओं के माध्यम से रस निष्पत्ति की गयी हैं। शान्त, करुण, वीर रस की छटा उनके नाटको में परिलक्षित होती हैं। यहाॅं संक्षेप में अष्क जी के नाटकों में रस योजना और रस निष्पत्ति का अध्ययन करेंगे -

          ‘जय-पराजय’ नाटक ऐतिहासिक कथानक को लेकर लिखा गया नाटकीय, आख्यान हैं, जिसका अंगीरस हैं- ‘वीर रस’ राणा लक्षसिंह का नारियल स्वीकृति का निर्णय, चण्ड का संघर्ष और फल प्राप्ति का उद्देष्य- ऐसे घटनात्मक प्रतिफल हैं, जिसमें नाटक की रस योजना का सम्पूर्ण रूप निखर उठता हैं।  राणा लक्षसिंह का निम्न कथन उनकी वीरत्व भावना का पोषक हैं-‘‘मैं विचारक सुधारक अथवा प्रबन्धक कुछ भी नही। मैं तो केवल सिपाही हॅूं, तलवार पर भरोसा रखने वाला, बात पर कट मरने वाला, राजपूत सिपाही हॅूं।’’1 निश्चय ही प्रस्तुत नाटक का ताना-बाना सुनियोजित ढंग से बनाया गया हैं, जिसमें शान्त, श्रृंगार और वीर रस की छटा प्रतिबिम्बित होती हैं। राघव और भारमली के प्रेम में श्रृंगार तो हंसाबाई और चण्ड के प्रसंग में जुगुप्सा का भाव निहित हैं। इसप्रकार नाटकीय रस चेतना की दृष्टि से यह एक सफल नाटक हैं।2
‘पैंतरे’ नाटक सामान्य जीवन की चतुराई और उद्देष्य प्राप्ति की सफलता पर आधारित नाटक हैं, जिसमें शान्त रस की सुन्दर आयोजना हुई हैं। नाटक के सभी पात्र फिल्म में काम पाने के उद्देष्य से निदेषक की मनुहार करते हैं, सेवा चाकरी करते हैं, आधुनिक अकर्मण्य पुरुष समाज की सोच, समझ, मनुहार करने की प्रवृत्ति और सुविधाओं से सम्पन्न अभिजात वर्गीय जीवन जीने की लालसा का सुन्दर चित्रण इस नाटक में किया गया हैं।3
‘बड़े खिलाड़ी’ नाटक में सुजला की शादी की समस्या मूल प्रष्न हैं, जो केवल की दहेज लोलुपता के कारण पूर्ण होने से पहले टूट जाती हैं। बड़े खिलाड़ी का प्रारम्भ जीवन के नैराष्य से प्रारम्भ होता हैं- ‘‘मैं क्या कहॅूं डैडी से, जिन्होंने मुझसे पूछा तक नही और बात चला दी।’’4 सुजला की पीड़ा का अन्त तब होता हैं, जब पं0 पाराषर जी केवल से सुजला की शादी का प्रस्ताव रद्द कर देते हैं। प्रस्तुत नाटक में जीवन की सहजात गतिविधियों का निरूपण हैं। जिसमें निराषा, अवसाद, पीड़ा, कष्ट, सहिष्णुता, विवषता के साथ जीवन के इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति का हर्ष भी हैं। इस नाटक में करुण रस के साथ शांत रस की सुन्दर आयोजना हैं।
‘अंजो-दीदी’ नाटक का श्री गणेष जीवन की स्वर्णिम कल्पना के साथ-साथ होता हैं। अंजो अपने आदर्ष और व्यवस्था के अनुरूप अपने परिवार को चलाने में असमर्थ रहती हैं। फलतः असमय संसार से विदा हो जाती हैं। उनका आदर्ष उनके पति वकील साहब को अन्त तक सालता रहता हैं। अंजो के पति वकील इन्द्रनारायण का कथन हैं- ‘‘नही भाई, अंजो की मौत के बाद मैने कसम खा ली थी, कि अब मैं न पियॅूंगा। न मैं चोरी से पीने लगता, और न वह मरती।’’5 संघर्ष, व्यथा, वेदना और असफल जीवन की दारुण स्थिति का अवसाद नाटक में शोकमय वातावरण की सृष्टि करता हैं। इस नाटक का अंगीरस हैं-करुण।
‘कैद’ नाटक में अप्पी की आत्मा जीवन पर्यन्त छटपटाती रहती हैं। प्राणनाथ का समर्पण और स्नेह उसके मन को जीतने में असमर्थ ही रहता हैं। वह दिलीप को आजीवन भूल नही पाती। नाटक का प्रारम्भ भी अप्पी के वेदनापूर्ण कथन से होता हैं- ‘‘आजादी की आग में जलकर कुंदन बन गये तुम और न टूटने वाली बेडि़याॅं मेरे पाॅंव में बॅंधती चली गयी।’’6 प्रस्तुत नाटक में छटपटाहट, बैचेनी और अप्राप्ति का भटकाव हैं। अप्पी आजीवन इस दर्द से छटपटाती रहती हैं।7
          ‘उड़ान’ नाटक में मदन माया का इच्छित पुरुष हैं जो साहसी और पुरुषार्थी हैं। शंकर क्रूर और निर्दयी है। लेकिन रमेष भावुक कवि-हृदय कल्पना लोक का पुरुष हैं। माया के जीवन की विडम्बना हैं कि वह किसका वरण करे। नाटक का प्रारम्भ करुणा-जनित हैं और अन्त में माया मदन की वास्तविकता को जानकर अत्यन्त दुःखी होती हैं और स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा करती हैं। माया का कथन- ‘‘मतलब तुम मुझसे प्रेम नही करते जाओ! तुम अपने रास्ते चले जाओ इस बर्बर षिकारी से मैं स्वयं निपट लूॅंगी।’’8 नाटक का अन्त भी अत्यन्त करूणाप्रद हैं। इसलिये इस नाटक का अंगीरस भी करुण रस हैं।
‘भॅंवर’ नाटक की प्रतिभा प्रोफेसर नीलाभ के व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। अन्य पात्रों में ज्ञान, जगन, हरदत्त, निर्मल और नीहार के व्यक्तित्व में उसे नीलाभ का प्रतिबिम्ब परिलक्षित नही होता हैं। वह इसी पीड़ा से त्रस्त आजीवन कुमारिका ही बनी रहती हैं- उसकी पीड़ा- ‘‘हरेक आदमी अपने खोल के अन्दर महज एक बच्चा हैं।’’9 प्रतिभा अन्त में स्वयं अपनी सोयी हुई व्यथा से पीडि़त और दुखी दिखाई देती हैं और सोचती हैं- ‘‘अपनी खोल के भीतर क्या मैं भी सिर्फ एक बच्ची हॅूं, बच्ची जो चाॅंद को चाहती हैं और खिलौने से जिसकी तसल्ली नही होती।’’10 प्रस्तुत कथन में प्रतिभा की आन्तरिक पीड़ा का निदर्षन हुआ हैं। इसप्रकार प्रस्तुत नाटक शोकपूर्ण भावो की पुष्टि करने वाला करुण रस से आप्लावित हैं।
‘अलग-अलग रास्ते’ नाटक में रानी का जीवन चित्र करुण रस से परिपूर्ण हैं। वहीं उसकी बहन राज अनेक कष्ट सहकर भी अपने पति के घर जाने के लिये सहर्ष तैयार हो जाती हैं- ‘‘मैं आपके पाॅंव पड़ती हॅूं, पिताजी मुझे इसी घड़ी भेज दीजिए। मेरे देवतातुल्य ससुर को और अपमानित मत कीजिए।’’13 राज के इस निर्णय में जीवन की अपरिमित शांति निहित हैं। निष्चय ही ‘‘अलग-अलग रास्ते’’ नाटक में करुण और शान्त रस की अभिव्यक्ति हुई हैं।
‘‘स्वर्ग की झलक’’ शांत रस प्रधान नाटक हैं। इसमें मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की परिस्थितियों और घटनाओं का विवरण हैं। रघु के सामने समस्या हैं कि वह षिक्षित लड़की से विवाह करे या अषिक्षित से इस जटिल प्रष्न को सुलझाने में ही उसे जीवन में कुछ कटु और सरस जीवन सन्दर्भों का अनुभव होता हैं। जिसका निदान एक कम पढ़ी लिखी, संस्कारित लड़की से पाणिग्रहण करने में होता हैं। ‘छठा बेटा’ नाटकीय कौषल से परिपूर्ण अद्वितीय नाटक हैं। यह नाटक पं0 बसंतलाल के परिवार के विभिन्न व्यक्तियों की भावनाओं, जीवन स्थितियों और घटनाओं का निरूपण करते हुए जीवन की सहज प्राणधारा का निरूपण करता हैं। इसमें हास्य, व्यंग्य और विनोद के अनेक स्थल हैं। पारस्परिक संघर्ष एंव उनके पुत्रों की समस्या हैं। व्यंग का एक चित्र ‘‘डा0 लुम्बा...‘‘आपरेषन जो वह करता हैं, उनमें से 75 प्रतिषत सीधे स्वर्ग के पासपोर्ट सिद्ध होते हैं।’’13
इस प्रकार अष्क जी के नाट्य षिल्प की सबसे बड़ी विषेषता यह हैं कि वे पात्रों के मनोविज्ञान को समझकर उसी जीवन स्थिति को कुषल पात्रों के माध्यम से रंगमंच पर प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। सम्प्रेषण की यह क्षमता ही नाटक में रस की सृष्टि करती हैं। अतः ये नाटक पठनीय ही नही, मनुष्य की व्यथा और वेदना से जोड़ने वाले सम्प्रेषणीय नाटक भी हैं।
1. जय-पराजय, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986 पृ0सं0 54
2. जय-पराजय, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986 पृ0सं0 121
3. पैंतरे, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1967 पृ0सं0 59
4. बड़े खिलाडी, भार्गव प्रकाषन इलाहाबाद सन् 1969 पृ0सं0 61
5. अंजो-दीदी, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1995-1996 पृ0सं0 111
6. कैद, लोक भारती प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 65
7. कैद, लोक भारती  इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 74
8. उड़ान, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 151
9. भॅवर, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1961, पृ0सं0 111
10. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1963 पृ0सं0 89
11. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963 पृ0सं0 124
12. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963 पृ0सं0 118
13. छठा बेटा, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1971 पृ0सं0 91