Wednesday 1 January 2014

श्री अरविन्द, गाँधी व गोखले के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन


अपर्णा मिश्रा

श्री अरविन्द एक ऋषि, आध्यात्मवादी व मानवतावादी राजनीतिक चिन्तक थे। गोपाल कृष्ण गोखले एक उदारवादी राजनीतिक चिंतक थे। गाँधी जी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। गोखले, गाँधी और श्री अरविन्द तीनों के राजनीतिक विचारों के स्रोत भारतीय धर्म ग्रंथ व पाश्चात्य साहित्य था और इन तीनों विचारकों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के कारगर अस्त्र के रूप में ‘निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त’ का समर्थन किया था तथा अपने राजनीतिक चिंतन को व्यवहारिक रूप देने का प्रयास किया।

श्री अरविन्द एक उग्र राजनीतिक चिंतक के रूप में भारतीय राजनीतिक मंच पर अवतरित हुए। अपने राजनीतिक जीवन के आरम्भ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे किन्तु कालान्तर में यही संस्था उनके उग्र राजनीतिक विचारों का कारण बन गयी। श्री अरविन्द इंग्लैण्ड निवास के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अत्यधिक प्रभावित थे किन्तु जब उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लिया तो उन्हें इस संस्था में अनेक कमियाँ दृष्टिगोचर हुई। श्री अरविन्द ने अपने लेख न्यूलैम्प्स फाॅर द ओल्ड में स्वयं स्वीकार किया है कि कांग्रेस उनके लिए प्रेरणा का स्रोत थी। कांग्रेस हम लोगों के लिए वह सब प्रतीत होती थी जो मनुष्यों के लिए सर्वाधिक प्रिय, सर्वाधिक पवित्र एवं सर्वोच्च होता है, वह हमारे लिए मरुस्थल में पानी से भरे हुए कुएं की तरह, स्वतंत्रता-संग्राम के सम्मानजनक झण्डे की तरह तथा परस्पर सामंजस्य स्थापित करने वाले एक ऐसे पवित्र मंदिर की तरह थी जहाँ विभिन्न जातियाँ आपस में मिलती थीं तथा परस्पर घुल जाती थीं।1 स्पष्ट है कि कांग्रेस के प्रति अरविन्द का दृष्टिकोण प्रारम्भ से नकारात्मक न था किन्तु जब उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में वास्तव में भाग लिया तब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि ‘मन्दिर’ जैसा पवित्र शब्द कांग्रेस के योग्य नहीं है। उनके इस दृष्टिकोण का कारण यह था कि वे तिलक की भाँति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ‘प्रार्थना’ व ‘याचना’ की नीति के आलोचक थे। उनका विचार था कि कांग्रेस का उद्देश्य अस्पष्ट व पद्धति अनुचित है। इनकी याचना पद्धति ने इसे एक अकर्मण्य संस्था बना डाला है। श्री अरविन्द ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करते हुए कहा कि- जिस पद्धति को इसने चुना है, वह उचित पद्धति नहीं है तथा जिन व्यक्तियों में यह विश्वास करती है, वे नेता बनने योग्य नहीं है।2
भारत-माता को परतंत्रता की बेडि़यों से मुक्त कराना श्री अरविन्द के राजनीतिक जीवन का लक्ष्य था। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु श्री अरविन्द ने विभिन्न राजनीतिक पद्धतियों का आविष्कार किया। डाॅ0 कर्ण सिंह ने उचित ही लिखा है कि यदि उन्होंने मात्र आदर्शों एवं लक्ष्यों पर विचार किया होता तो वे केवल आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतकों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर पाते किन्तु श्री अरविन्द ने इससे अधिक कार्य किया। उन्होंने ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों की रूप-रेखा भी तैयार की जिससे लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। उन्होंने व्यवहारिक राजनीतिक पद्धतियों पर अपने वक्तव्य दिये। वे राजनीतिक इतिहास की उन विभूतियों में से थे जो केवल एक विचारक ही नहीं अपितु राजनीतिक दांव पेचों में भी कुशल थे।3
श्री अरविन्द ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपाय के रूप में निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त में अपना विश्वास व्यक्त किया। श्री अरविन्द ने निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त को राष्ट्रीय जनता के समक्ष स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि राष्ट्र अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु तीन प्रकार से प्रतिरोध करते हैं-
1. संगठित सैनिक शक्ति की सहायता से प्रतिरोध,
2. एक सक्रिय एवं संगठित आक्रमणशील प्रतिरोध,
3. निष्क्रिय प्रतिरोध, जिससे पारनेल ने आयरलैण्ड में ‘कर न अदा करने’ की नीति अपनाई।
श्री अरविन्द ने ‘सक्रिय’ एवं ‘निष्क्रय प्रतिरोध’ में अन्तर स्पष्ट किया- सक्रिय प्रतिरोध के द्वारा जब हम किसी कानून का अन्त करना चाहते हैं तो उस अवैध कानून का निर्माण करने वाली सत्ता का अन्त कर दिया जाता है। इसके विपरीत निष्क्रिय प्रतिरोध द्वारा अवैध कानून का निर्माण व समर्थन करने वाली सत्ता को निष्प्रभावी व पंगु बना दिया जाता है। यह सिद्धान्त किसी अवैध या कठोर कानून के विरुद्ध एक संगठित अवज्ञा पर केन्द्रित है जिससे सरकार को उस कानून में संशोधन करने के लिए अथवा उसे रद्द करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इस सिद्धान्त के अनुसार कुछ परिस्थितियों में कठोर या अवैध कानून का उल्लंघन करना केवल वैधिक रूप से उचित ही नहीं है अपितु ऐसे कानूनों का उल्लंघन करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कत्र्तव्य भी हो जाता है।4
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अरविन्द ने हर प्रकार के कानून के उल्लंघन को उचित ठहराया है। उनका विचार है कि जिस कानून के निर्माण में जनता भाग लेती है, जिस कानून के निर्माण में उसकी सहमति निहित है, उस कानून का उल्लंघन वह तब तक नहीं कर सकती जब तक ऐसा करना आवश्यक न हो जाय किन्तु ऐसा कानून जो जनता की इच्छा के विरूद्ध है, उसके ऊपर बलात् थोपा गया है, उसका उल्लंघन करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कत्र्तव्य है। श्री अरविन्द एक दूरदर्शी व व्यवहारिक राजनीतिज्ञ थे, उन्हें ज्ञात था कि जब भारतीय जनता अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करेगी, अंग्रेजी राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं को पंगु बनाने का प्रयास करेगी तो नौकरशाही क्रूरता पूर्वक दमनात्मक नीति अपनायेगी। श्री अरविन्द ने इस प्रकार की दमनात्मक कार्यवाही को तभी तक सहन करने की सलाह दी जब तक सरकार आन्दोलनकारियों के आन्दोलन में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप न करे किन्तु यदि सरकार अवपीड़क हो जाय तो दमन सहना कायरता है। श्री अरविन्द ने अपने लेख निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त में इस विषय पर विचार व्यक्त किया है स्वतंत्रता राष्ट्र के जीवन की श्वांस है। जब प्राणों पर आक्रमण किया जाता है और श्वांस लेने के हर प्रयास को दमन द्वारा दबा दिया जाता है तो आत्म-रक्षा हेतु कोई भी उपाय अपनाना उचित एवं न्यायपूर्ण है। उदाहरणार्थ यदि कोई शत्रु किसी व्यक्ति का गला घोंटता है तो पीडि़त व्यक्ति के लिए यह सर्वथा उचित है कि वह अपनी रक्षा हेतु हर सम्भव उपाय अपनाये। जहाँ शीघ्र स्वतंत्रता प्राप्ति अत्यावश्यक है तथा यह राष्ट्र के जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गयी है वहाँ विद्रोह ही एकमात्र विकल्प है किन्तु जहाँ स्वतंत्रता, जीवन एवं सम्पत्ति का आदर होता है, जहाँ श्वांस लेने के लिए समय अभी शेष है तो समय की मांग यही है कि हम शांतिमय प्रतिरोध का उपाय अपनाएं।5 स्पष्ट है कि श्री अरविन्द निष्क्रिय प्रतिरोध की परामर्श तभी तक देते हैं जब तक दमन सह्य हो किन्तु जैसे ही सरकार की दमनात्मक कार्यवाही असह्य हो जाय निष्क्रिय प्रतिरोध को छोड़कर सक्रिय प्रतिरोध का आश्रय लिया जाना चाहिए।
श्री अरविन्द एक व्यवहारिक राजनीतिज्ञ थे। वे जानते थे कि ‘कर न अदा करने की नीति’ अपनाई जाय तो प्रशासन को सर्वाधिक आघात पहुँचेगा किन्तु उन्होंने इसे ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ में शामिल नहीं किया। उन्होंने कहा- कर न अदा करना निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त का अंतिम सशक्त रूप है। यह सशक्त रूप जानबूझ कर हमने अपने कार्यक्रम में लागू नहीं किया। इस नीति को अपनाने वाले देशों में जो परिस्थितियाँ थीं वे भारत में नहीं हैं। आयरलैण्ड में लोगों ने जमींदारों को कर न अदा करने की नीति अपनाई थी, न कि सरकार को। आयरलैण्ड में लोग जमींदारों के अत्याचार से पीडि़त थे लेकिन भारत में जमींदारों का स्थान विदेशी नौकरशाही ने ले लिया है। यहाँ ‘कर न अदा’ करने का तात्पर्य होगा- सीधे सरकार का विरोध करना। इसे निष्क्रिय प्रतिरोध के अन्तिम उपाय के रूप में अपनाना उचित होगा।6 इस प्रकार श्री अरविन्द ने कर न अदायगी की नीति को निष्क्रिय-प्रतिरोध में शामिल न करके दूरदर्शिता का परिचय दिया। कोई व्यक्ति जब स्वदेशी वस्तु का प्रयोग करता है और विदेशी वस्तु का बहिष्कार करता है तो ऐसा करके वह किसी कानून का उल्लंघन नहीं करता। ऐसे कार्यों के लिए सरकार उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं कर सकती और यदि वह ऐसा करती है तो इसका तात्पर्य यही है कि वह स्वयं आन्दोलनकारियों को चुनौती देती है और उसके बाद जो कुछ होगा उसके लिए शासक उत्तरदायी होंगे न कि आन्दोलनकारी।
इस प्रकार श्री अरविन्द के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त के तीन आदर्श हैं-
1.अन्यायपूर्ण/उत्पीड़क कानून का उल्लंघन करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक एवं विधिक कत्र्तव्य है।
2.नौकरशाही द्वारा आन्दोलन में अनुचित हस्तक्षेप किये जाने पर दमन सहने की नीति का परित्याग कर देना चाहिए।
3.ऐसे देशद्रोहियों का बहिष्कार उचित है जो देश के विरुद्ध षडयंत्रकारी कार्यवाही में भाग लेता हो।
श्री अरविन्द के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि वे गाँधी के समान अहिंसावादी न थे। ‘‘देशकाल व परिस्थिति के अनुसार सर्वोत्तम नीति के रूप में उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त को स्वीकार किया था, श्री अरविन्द का विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र को यह अधिकार है कि वह स्वाधीनता प्राप्ति के लिए क्रांति का सहारा ले। हाँ, समय परिस्थिति और साधन को देखते हुए, नीति में हेर-फेर करना आवश्यक है।’’7 1905 में बंगाल विभाजन विरोधी आन्दोलन में बंगालियों द्वारा जो नीति अपनायी गयी थी वह गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के सदृश ही थी। दोनों में निम्नलिखित समानताएं थीं-
1. गाँधी जी के समान श्री अरविन्द ने भी निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त में ‘स्वदेशी’ व ‘बहिष्कार’ का समर्थन किया था।
2. दोनों ही सरकारी स्कूलों व सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने के पक्ष में थे।
3. दोनों ने राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया।
4. दोनों ने आपसी विवादों के समाधान हेतु पंचायती अदालतों का गठन करने की परामर्श दी।
किन्तु उपर्युक्त समानताओं के आधार पर श्री अरविन्द और गाँधी जी के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त को एक मान लेना बड़ी भूल होगी, क्योंकि दोनों के विचारों में जो मूलभूत अन्तर था- वह था साधन का। गाँधी जी अपने लक्ष्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन अहिंसा को मानते थे। उनके लिए अहिंसा का कोई विकल्प न था। वे शत्रु को अपने शक्तिशाली प्रेमभाव द्वारा जीत लेने का संदेश देते हैं। डाॅ0 वी0पी0 वर्मा ने लिखा है, गाँधी जी ने निष्क्रिय प्रतिरोध की यूरोपीय धारणा को विकसित किया जिसमें शत्रु की हिंसापूर्ण गतिविधियों का विरोध व्यक्ति हिंसा द्वारा नहीं अपितु आन्तरिक इच्छाशक्ति एवं प्रेरणा द्वारा करता है। गाँधी जी ने अपने सत्याग्रह दर्शन में इसे दृढ़ आत्मबल की संज्ञा दी है इसके विपरीत श्री अरविन्द के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त में अहिंसा का विकल्प है- हिंसा।8 गाँधी जी ने यंग इण्डिया में लिखा है- ‘अपने शत्रु से प्रेम करो, जो तुमसे घृणा करते हैं, तुम्हें कष्ट देते हैं, उनके लिए भी तुम ईश्वर से प्रार्थना करो क्योंकि वे उसी पिता की संतान हैं जिसकी तुम हो।’’9 इसके विपरीत श्री अरविन्द का कथन है ‘हिंसा का उत्तर हिंसा से, कोड़े का उत्तर रिवाॅल्वर से, कैद का उत्तर दंगे से, फाँसी का उत्तर डायनामायट बाॅम्ब से दो।’10 श्री अरविन्द धर्म-युद्ध में साधन को अधिक महत्व नहीं देते थे। श्री अरविन्द ने अपनी इस राय को कभी नहीं छिपाया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए यदि किसी राष्ट्र के पास कोई दूसरा उपाय न बचा हो तो उसे हिंसा द्वारा अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने का अधिकार है और इस प्रश्न का उत्तर कि उसे ऐसा करना चाहिए या नहीं, इस बात पर निर्भर है कि उसके लिए सबसे अच्छी नीति क्या है, इस बात पर नहीं कि इस विषय में नैतिकता क्या कहती है।11 इस विषय में श्री अरविन्द की नीति ठीक वही थी जो तिलक या अन्य राष्ट्रवादी नेताओं की थी। वे किसी भी रूप में अहिंसा के पुजारी नहीं थे।
श्री अरविन्द निष्क्रिय प्रतिरोध को सक्रिय प्रतिरोध में बदलते समय गीता से प्रेरणा लेते हैं जबकि गाँधी इस विषय में टाॅलस्टाॅय से प्रभावित थे। अहिंसा की प्रकृति को गीता से प्रेरणा लेकर श्री अरविन्द ने जड़तावादी प्रवृत्ति की संज्ञा दी। जो अशुभ और दुष्टता के प्रतिनिधि है उन्हें यदि रौंदने और कुलचने के लिए छोड़ दिया जाय तो वे अपने ऊपर इतनी बड़ी तबाही बुलायेंगे कि जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। अतः इसके लिए बल प्रयोग करना भी दया का काम होगा। हमारे अपने हाथ-पांव साफ़ रहें, हमारी अपनी आत्मा पर कोई दाग न लगे, बस इतने से ही संसार का संघर्ष और विनाश का विधान नहीं रूक जाता। इसकी जो जड़ है, पहले उसे मानव जाति से उखड़ जाना चाहिए।12 इस प्रकार जहाँ गांधी जी ने साधन और साध्य दोनों की नैतिकता पर बल दिया वहीं श्री अरविन्द उचित साध्य की प्राप्ति हेतु अपनाये जाने वाले प्रत्येक साधन को उचित मानते थे।
डाॅ0 वी0पी0 वर्मा ने अरविन्द व गाँधी के निष्क्रिय प्रतिरोध में सूक्ष्म अन्तर स्पष्ट किया है। निष्क्रिय प्रतिरोध में शत्रु के विरूद्ध व्यापक हिंसा को अनुचित नहीं माना जाता जबकि सत्याग्रह में मन को निरन्तर शुद्ध रखना आवश्यक है। निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग केवल राजनीतिक स्तर पर किया जा सकता है जबकि सत्याग्रह का प्रयोग राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी स्तरों पर किया जा सकता है। सत्याग्रह इस अर्थ में निष्क्रिय प्रतिरोध से श्रेष्ठ है कि इसमें आध्यात्मिक एवं नैतिक उद्देश्य को ही अंतिम साध्य माना जाता है। सत्याग्रही की अंतिम आशा तथा सान्त्वना ईश्वर ही है। गाँधी जी का सत्याग्रह 1906-1908 तक प्रतिपादित निष्क्रिय प्रतिरोध से अधिक व्यापक है। गाँधी जी निरपेक्ष अहिंसा पर बल देते हैं जबकि तिलक और अरविन्द ने नैतिक आधार पर हिंसा का खण्डन नहीं किया।13
श्री अरविन्द का निष्क्रय प्रतिरोध सिद्धान्त आन्तरिक शुद्धता से शून्य न था। क्योंकि यदि व्यक्ति का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होगा तो वह उचित और अनुचित साधन की पहचान ही नहीं कर पायेगा। श्री अरविन्द ने साध्य की पवित्रता पर बल दिया है, उसके लिए शुद्ध अन्तःकरण आवश्यक है। श्री अरविन्द ने अहिंसा का विकल्प हिंसा बताया है किन्तु हिंसा का आश्रय लेते समय प्रतिरोधी के समक्ष कृष्ण व अर्जुन का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है न कि किसी छलकपट पूर्ण राजनीतिज्ञ का।
वास्तुतः श्री अरविन्द के निष्क्रिय प्रतिरोध के लिए युद्ध एवं शान्ति की नैतिकता पृथक्-पृथक् है वहीं गाँधी जी के लिए दोनों परिस्थितियों में नैतिकता निरपेक्ष है। नैतिकता सम्बन्धी दृष्टिकोण में इस अन्तर के कारण ही सत्याग्रही युद्ध एवं शान्ति दोनों में अहिंसा की पूजा करता है जबकि निष्क्रिय प्रतिरोधी परिस्थिति के अनुसार अहिंसावादी व हिंसावादी दोनों हो जाता है।
श्री अरविन्द का निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त गोखले के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त से भिन्न था। इस सम्बन्ध में गांधी और गोखले के विचारों में समता थी। 1909 में लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में गोखले ने कहा था- निष्क्रिय प्रतिरोध आन्दोलन’ क्या है? वह अपनी प्रकृति में मूलतः आत्म-रक्षात्मक है, और इसमें नैतिक तथा आध्यात्मिक शस्त्रों की सहायता से युद्ध किया जाता है। निष्क्रिय प्रतिरोधी अपने शरीर पर कष्टों को झेलकर अत्याचार का प्रतिरोध करता है, पशुबल का सामना वह आत्म-बल से करता है।14’’
गोखले तथा श्री अरविन्द के निष्क्रिय प्रतिरोध सिद्धान्त में निम्नलिखित अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है-
1. गोखले ने आध्यात्मिक निष्क्रिय प्रतिरोध में प्रत्यपकार की कार्यवाही को कोई स्थान नहीं दिया किन्तु श्री अरविन्द गीता का उदाहरण देकर प्रत्यपकार की कार्यवाही का समर्थन करते हैं।
2. गोखले का निष्क्रिय प्रतिरोध आक्रामक न होकर सुरक्षात्मक है किन्तु श्री अरविन्द का निष्क्रिय प्रतिरोध तभी तक सुरक्षात्मक है जब तक इसके संचालन में शासन हस्तक्षेप नहीं करता। प्रतिरोध का दमन सहना प्रत्येक आन्दोलनकारी का कत्र्तव्य है किन्तु यदि दमन पराकाष्ठा पर पहुँच जाय तो प्रत्युत्तर में निष्क्रिय प्रतिरोध आक्रामक रूप धारण कर सकता है।
3. गोखले का कथन है कि निष्क्रिय प्रतिरोधी को केवल उसी कानून का उल्लंघन करना चाहिए जो उसकी चेतना के प्रतिकूल हों तथा जहाँ तक संभव हो सके कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए किन्तु श्री अरविन्द कहते हैं कि अवपीड़क कानून का उल्लंघन करना प्रत्येक आन्दोलनकारी का नैतिक व विधिक कत्र्तव्य है।
ऐसा प्रतीत होता है कि अरविन्द हिंसा को धर्माचरण घोषित करके गांधी के घोर अहिंसावाद का विरोध करते हैं। इस प्रकार अरविन्द, गाँधी व गोखले तीनों ने धर्म से प्रेरणा ली किन्तु अरविन्द का दृष्टिकोण गाँधी व गोखले से भिन्न था। अरविन्द ने ‘सक्रिय प्रतिरोध’ पर धार्मिक आवरण डालकर गाँधी द्वारा साधन और साध्य के मध्य उठाये गये विवाद को समाप्त कर दिया। धर्म की दृष्टि में यदि साध्य उचित है तो साधन अनुचित हो ही नहीं सकता। स्वतंत्रता आन्दोलन जैसे पवित्र यज्ञ की रक्षा के लिए ‘सक्रिय प्रतिरोध’ को अपनाना कोई अद्भुत कार्य नही हैं। श्री अरविन्द ने इसे प्राचीन ऋषियों की परम्परा15 माना जिन्होंने यज्ञ की रक्षा एवं असुरों के नाश हेतु धनुष का आह्वान किया।
सन्दर्भ ग्रंथ-
1ण् अरविन्द, वंदे मातरम्, अर्ली पोलिटिकल राइटिंग्स, श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी, पृष्ठ 16.
2ण् सिंह, डाॅ0 कर्ण, प्राॅफ़ेट आॅफ इण्डियन नेशनलिज़्म- अरविन्द, पृष्ठ-49.
3ण् वही, पृष्ठ 95
4ण् अरविन्द, वंदे मातरम-अर्ली पोलिटिकल राइटिंग्स, श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी, पृष्ठ 85-86.
5ण् वही, पृष्ठ 99.
6ण् वही, पृष्ठ 104-5.
7ण् रवीन्द्र, श्री अरविन्द जीवन और दर्शन, पृष्ठ 25.
8ण् वर्मा, डाॅ0 वी0पी0, पोलिटिकल फि़लाॅसफ़ी आॅफ़ श्री अरविन्दो, पृष्ठ 247.
9ण् गाँधी, मोहन दास करम चंद, यंग इण्डिया, दूसरी जिल्द, पृष्ठ 491.
10ण् अरविन्द, वंदे मातरम्-अर्ली पालिटिकल राइटिंग्स, श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी, पृष्ठ 99.
11ण् श्री अरविन्द, अर्चना, वार्षिक, 5 अगस्त, 1950, पृष्ठ 59,
12ण् अरविन्द गीता-प्रबन्ध, अनुवादक- वेदालंकार, जगन्नाथ, पृष्ठ 46.
13ण् वर्मा, वी0पी0, आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन, पृष्ठ 90.
14ण् गिरिकर, रघुनाथ देव, गोपाल कृष्ण गोखले, पृष्ठ 160.
15ण् अरविन्द, वंदे मातरम्, अर्ली पोलिटिकल राइटिंग्स, श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी, पृष्ठ-122.
डाॅ0 अपर्णा मिश्रा
एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग,
काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
ज्ञानपुर, सन्त रविदास नगर (भदोही), उ0प्र0।