ऋचा शुक्ला
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में शासन-व्यवस्था के सभी पक्षों का सम्यक्वर्णन प्राप्त होता है। सैन्य व्यवस्था किसी भी शासन का महत्त्वपूर्ण अंग है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए सैन्य विज्ञान अधिक महत्त्व का विषय बन गया है। यद्यपि सैन्य विज्ञान को आज के अधिकांश विद्वान्न नवीन विधा के रूप में स्वीकार करते हैं परन्तु यदि हम संस्कृत के ग्रन्थों, नाटकों, पुराण, महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, स्मृति ग्रन्थों पर दृष्टिपात्करें तो हमें पग-पग पर सैन्य विज्ञान एवं जनता के हितों की रक्षा के लिये प्रशासन की सुव्यवस्था के दर्शन होते हैं। इनमें राज्य के सप्तांग की कल्पना की गयी है। यह बात सत्य है कि सैन्य विज्ञान इस रूप में नहीं विद्यमान था जिस रूप में आज है, पर प्राचीन काल में भी सैन्य शिक्षा का प्रावधान था और वह अधिकांश प्रायोगिक हुआ करती थी।
कौटिलीय अर्थशास्त्र में तत्कालीन सैन्य विज्ञान की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है जिसमें से आंशिक भी यदि कोई राज्य अपना ले तो अधिकाँश समस्याएँ स्वतः ही हल हो जायेंगी। अर्थशास्त्र प्राचीन भारतीय राज शास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें हमें प्राचीन भारतीय यथार्थवादी परम्परा के दर्शन होते हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र मात्र धन-संग्रह के उपायों का ही वर्णन नही करता अपितु जनता के भरण-पोषण के तरीकों, राज्य की शान्ति व सुव्यवस्था के उपायों तथा विभिन्न उपायों द्वारा भूमि आदि के अर्जन का भी वर्णन करता है। स्वयं आचार्य कौटिल्य ने ग्रन्थ की प्रारम्भिक पंक्तियों में कहा है कि पृथिवी की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिये पुरातन आचार्यों ने जितने भी अर्थशास्त्र विषयक ग्रन्थों का निर्माण किया उन सबका सार संकलन कर प्रस्तुत अर्थशास्त्र की रचना की गयी है।1 अर्थशास्त्र में शासन व्यवस्था का पूर्ण विवेचन उपलब्ध है। कौटिल्य ने प्रारम्भ में ही अर्थशास्त्र की चार विद्याओं का उल्लेख किया है –
आन्वीक्षकी
(सांख्य, योग एवं लोकायत), त्रयी (धर्म-अधर्म), वार्ता (अर्थ-अनर्थ) और दण्डनीति (सुशासन-दुःशासनकाज्ञान)।2
सैन्यसंगठन: अधिकांश प्राचीन विद्वानों की भाँति कौटिल्य भी छः प्रकार की सेनाओं का उल्लेख करते हैं3 – मौलबल (राजधानी की रक्षा करने वाली वंश परम्परानुगत सेना), भृतकबल (सवैतनिक सेना), श्रेणीबल (विभिन्न कार्यों में नियुक्त शस्त्रास्त्र में निपुण व्यापारियों व अन्य जन समुदायों की सेना), मित्रबल (मित्र राजा या सामन्तों की सेना), अमित्रबल (शत्रु राजा की सेना जिस पर विजय प्राप्त कर लिया गया है), तथा अटवी बल (आटविक जंगली जातियों की सेना) । इन छः सेनाओं के अतिरिक्त औत्साहिकबल4 नामक सातवीं सेना का भी अर्थशास्त्र में उल्लेख मिलता है।
गुप्तचरव्यवस्था :कौटिल्य के अर्थशास्त्र में गुप्तचरों को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वर्तमान में गुप्तचरों का कार्य मात्र अपराधों का पता लगाना रह गया है परन्तु कौटिल्य के समय में अर्थात्प्राचीन भारत में यह कार्य गुप्तचरों के लिये नितान्त गौण था। गुप्तचर इसलिये थे कि राजा प्रजा की समस्याओं, उसके कष्टों, उसकी पीड़ाओं को जान सके तथा उसका समुचित समाधान कर सके ताकि प्रजा सर्वविधिसुखी व सम्पन्न रह सके। इस प्रकार तत्कालीन गुप्तचरों का सीधा सम्बन्ध प्रजा के कल्याण से था। प्रजा की सुख-शान्ति में बाधा उत्पन्न करने वालों और राज की य नियमों के पालन करने-कराने में रोक लगाने वालों का दमन कैसे हो? इसकी सूचना राजा तक पहुँचाना गुप्तचरों का प्रमुख कार्य था|
सैन्यअनुशासन: कौटिल्य ने सैन्य अनुशासन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने युद्ध समय, सेना की कूच, युद्ध-स्थान, आन्तरिक व बाह्य परिस्थितियों एवं आपदा-प्रबन्धन के उपायों पर भी प्रकाश डाला है। वह शत्रु पर आयी विपत्ति, राजा के व्यसन में लिप्त होना, स्वयं की शक्ति सम्पन्नता और शत्रुसेना की कमजोरी को युद्ध की आवश्यक परिस्थितियाँ स्वीकार करते हैं।5 उनके अनुसार यह अवसर शत्रु पर चढ़ाई के लिये उपयुक्त है, क्योंकि इस समय शत्रु का पूर्ण विनाश किया जा सकता है।
सामरिकअस्त्र-शस्त्र:सैन्यअस्त्र-शस्त्रों का भी अर्थशास्त्र में प्रचुर उल्लेख है। प्राचीन ग्रन्थों में मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और मन्त्रमुक्त इन चार प्रकार के अस्त्रशस्त्रों का उल्लेख मिलता है। परन्तु कौटिल्य ने मात्र दो प्रकार के यन्त्रों का उल्लेख किया है-स्थिर यन्त्र और चल यन्त्र। दस प्रकारके स्थित यन्त्र होते हैं – १-सर्वतोभद्र (मशीनगन), २-जामदग्न्य, ३-बहुमुख, ४-विश्वासघाती, ५-संघाटि, ६-यानक, ७-पर्जन्यक (वरुणास्त्र), ८-बाहुयन्त्र, ९-ऊर्ध्वबाहु, १०- अर्धबाहु।
व्यूह निर्माण एवं शिविर व्यवस्था :प्राचीन भारतीय ग्रन्थों विशेषकर धनुर्वेद में सात प्रकार के व्यूह का उल्लेख प्राप्त होता है परन्तु कौटिल्य मात्र चार व्यूहों का ही उल्लेख करते हैं – दण्डव्यूह, भोगव्यूह, मण्डलव्यूह और असंहतव्यूह। उनके अनुसार इन व्यूहों से अनेक व्यूह बनते हैं जिनके निर्माता असुर गुरु शुक्राचार्य और देव गुरु बृहस्पति हैं। बज्रव्यूह, अर्धचन्द्रिकाव्यूह, कर्कटकव्यूह, श्येनव्यूह, मकरव्यूह, शकटव्यूह, सूचीव्यूह, सर्वतोभद्रव्यूह आदि व्यूहों के निर्माण का वर्णन अर्थशास्त्र में प्राप्त होता है।
संघ-निर्माण:आचार्य कौटिल्य का मत है संघलाभ, सेनालाभ, और मित्रलाभ इन तीनों में संघलाभ उत्तम है क्योंकि संगथित होने से संघों को शत्रु दबा नहीं पाता है6 तथा जिन राज्यों ने मिलकर संघ बना लिया हो, उनके साथ साम और दाम नीति का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि वे अजेय होते हैं।7 उनका यह मत आज बहुत ही प्रासंगिक है क्योंकि इस समय वैश्विक स्तर पर, महाद्वीपीय स्तर पर अनेक संगठन एवं संघ है और लगभग प्रत्येक देश कम से कम किसी एक संघ/संगठन का सदस्य है।
वर्तमानप्रासंगिकता: कौटिलीय अर्थशास्त्र में सेना, गुप्तचर, दूत, अस्त्र-शस्त्रों, दुर्ग, व्यूह रचना आदि का वैज्ञानिक वर्णन प्राप्त होता है, जो आज भी नितान्त अप्रासंगिक नहीं है। वर्तमान परिवेश में प्राचीन शास्त्रों में निहित इन तत्त्वों को (देशकालानुरूप परिवर्तन कर) अंगीकार किये जाने की आवश्यकता है। यदि आज इन तत्त्वों को अपनाया जाये तो व्यक्ति के साथ-साथ समाज राष्ट्र और विश्व का भविष्य अधिक सुरक्षित रह सकता है। ऐसा इसलिये सोचा जा सकता है क्योंकि तत्कालीन सैन्य-व्यवस्था के अन्तर्गत युद्ध मानवता की भावना से लड़ा जाता था जो आज के रक्तपाती समय के लिये एक शिक्षा है। यदि इस प्राचीन व्यवस्था को कोई भी राष्ट्र आज अपना सके तो न केवल युद्ध करने वाले देशों का कल्याण होगा अपितु मानवता और हमारी आने वाली पीढियों को अधिक से अधिक लाभ होगा।
आज परमाणु परीक्षणों, घातकअस्त्र-शस्त्रों के निर्माण एवं उनके प्रयोग द्वारा वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिकीय संकट उत्पन्न हो गया है। परिणाम स्वरूप हिमस्खलन, ग्लेशियरों का पिघलना, सामुद्रिक जल स्तर वृद्धि, संक्रामक रोगों का प्रकोप, भूकम्प, भूस्खलन, वर्षा, सूखा, चक्रवात की प्रबल सम्भावना है। जलवायु परिवर्तन वैश्विक जैव विविधता के लिये एक खतरा है। इसका व्यापक प्रभाव कृषि क्षेत्र, जल संसाधन, मानव स्वास्थ्य, द्वीपीयजीवन, समुद्र तटीय अर्थव्यवस्थाओं, सामुद्रिक पर्यावरण, उदाहरणार्थ शैवालों की मृत्यु, ताप बढ़ने से मछलियों की मृत्यु, मूँगे की चट्टानओं का विरंजी करण, मछलियों के खाद्य प्लैंक्टन का अभाव, जीवों की प्रजातियों का विनाश, प्रकृति के साथ अनुकूलन क्षमता का ह्रास, वनस्पतियों का विनाश, उनके स्वरूप में परिवर्तन, उपलब्धता दर में ह्रास के साथ-साथ सम्पूर्ण मानवता पड़ेगा।
उपसंहार : सैन्य-व्यवस्था किसी भी राष्ट्र का महत्त्वपूर्ण अंग होती है जिससे राज्य और उसके निवासियों का जीवन सुरक्षित रहता है, तथा जो शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जनता के समस्त क्रियाकलाप तभी शान्तिपूर्वक चल सकते हैं जब उन पर अनुशासन रखने वाली कोई शक्ति हो अन्यथा सर्वत्र अव्यवस्था का बोलबाला हो जायेगा। लोकतन्त्र की रक्षा हेतु आवश्यक है कि ऐसी नीति अपनायी जाये जिससे प्रजा सुखी और सम्पन्न रहे। अर्थशास्त्र में अधिकारियों की नियुक्ति का जो प्रावधान है यदि आंशिक रूप से भी उसे अपनाया जाये तो स्थिति में बहुत सुधार हो सकता है। सम्बन्धित अधिकारियों (अध्यक्षों) की व्यवस्था के साथ-साथ राज्य पर आयी विपत्ति से रक्षा के लिये तथा आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिये सेना का होना ही आवश्यक नही है, अपितु उचित अनुपात में योग्य सेना का होना महत्त्वपूर्ण है जो आपत्ति के समय पीठ न दिखाये। इसके लिये आवश्यकता है कौटिल्य द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करने की जिससे सेना की गुणवत्ता में वृद्धि हो सके।
इन सभी बिन्दुओं को देखते हुए प्राचीन भारतीय सैन्य- व्यवस्था पर दृष्टिपात्करना आवश्यक हो जाता है। कौटिल्य ने सेना की जो व्यवस्था की है वह बहुत ही सुगठित है उसमें किसी छिद्रान्वेषण का अवकाश नहीं है।
सन्दर्भ
1.पृथिव्यालाभेपालनेचयावन्त्यर्थशास्त्राणिपूर्वाचार्यैःप्रस्थापितानिप्रायशस्तानिसंहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रंकृतम्।अर्थशास्त्र, १
2. आन्वीक्षकीत्रयीवार्तादण्डनीतिश्चेतिविद्याः।वही, १/१
3. मौलभृतश्रेणिमित्रामित्राटवीबलानांसारफल्गुतां।वही, २/३३
मौलभृतकश्रेणीमित्रामित्राटवीबलानांसमुद्दानकालाः।वही, ९/२
4. सैन्यमनेकमनेकजातीयस्थमुक्तमनुक्तंवाविलोपार्थंयदुत्तिष्ठति, तदौत्साहिकम्।वही,२/२
5.बलव्यसनावस्कन्दकालेषुपरमभिहन्यात्।अभूमिष्ठंवास्वभूमिष्ठः।प्रकृतिप्रग्रहोवास्वभूमिष्ठंदूष्यामित्राटवीबलैर्वाभङ्गंदत्त्वाविभूमिप्राप्तंहन्यात्।वही, १०/३
6- सङ्घलाभोदण्डमित्रलाभानामुत्तमः।वही, १/११
7- सङ्घाहिसंहतत्वादधृष्याःपरेषाम्।ताननुगुणान्भुञ्जीतसामदानाभ्याम्।वही, १/११
सन्दर्भ-सूची-
1.
गैरोला, वाचस्पति, 2006, कौटिलीयम्अर्थशास्त्रम्,चौखम्भाविद्याभवनवाराणसी.
2.
विश्वनाथशास्त्रि,सं.,
कौटिलीयमर्थशास्त्रम्, सम्पूर्णानन्दविश्विद्यालय, वाराणसी 1991.
3.
प्रसाद, मणिशंकर, 1998, कौटिल्य के राजनीतिक
एवं सामाजिक विचार,
मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स.
4. Choudhary,R, Kautilya'sPolitical Ideas and Institutions, Chowkhamba 1971
5. Kangle R. P, 1997, KautilyaArthashastra Laurier Books, Motilal, New Delhi.
6. Kohli, Ritu, Kautilya’s Political Theory – Yogakshema: The Concept of Welfare State, Deep and Deep Publications 1995.
_pk 'kqDyk
'kks/kPNk=k] laLd`r
foHkkx]
bykgkckn fo'ofo|ky;]
bykgkcknA