Saturday 2 January 2010

डाॅ0 धीरेन्द्र सिंह (रीडर एवं विभागाध्यक्ष)


सुनील कुमार सिंह 
(शोध छात्र) श्री म0 रा0 दास पी0 जी0 काॅलेज,
भुड़कुड़ा, गाजीपुर

पूर्व मध्यकालीन कृषि अर्थव्यवस्था पर तत्कालीन सामंती समाज का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यह सामंती मानकों के अनुकूल एक आत्मनिर्भर किन्तु बन्द कृषि अर्थव्यवस्था थी। इस काल में भूमि के विभेदीकरण एवं वर्गीकरण तथा कृषि की परंपरा में विकास के साथ ही भूमि एवं कृषि-सम्बन्धों में कई परिवर्तन हुए।
कृषि हेतु भूमि का प्राथमिक महत्व रहा है क्योंकि उपयुक्त भूमि के चयन पर ही कृषि कार्य की सफलता निर्भर करती है। भूमि के कृषि सम्बन्धी गुणों एवं उपयुक्तता के आधार पर उसके परीक्षण, विभेदीकरण एवं वर्गीकरण की परम्परा का पूर्व मध्यकाल में विशेष विकास दृष्टिगोचर होता है।
चरकसंहिता1 सुश्रुतसंहिता2 में मिलने वाली भूमि के वर्गीकरण की परम्परा पूर्व-मध्यकाल में भी प्रचलित रही। इसके अनुसार भूमि को तीन भागों में विभक्त किया गया था जांगन (शुष्क), अनूप (जलीय) एवं साधारण (दोनों के लक्षणों से युक्त)। भूमि के विभेदीकरण के अन्य आधार भी मिलते हैं। अमरकोश3, विश्वप्रकाश कोश4 आदि ग्रन्थों में उर्वरता एवं कृष्टा-कृष्ट के आधार पर भूमि का विभेद मिलता है। बाद के पूर्व मध्यकाल के ग्रन्थों में अमरकोश की अपेक्षा विभिन्न फसलों की कृषि हेतु उपयुक्त खेतों के अधिक वर्ग मिलते हैं। सिंचाई के साधनों के आधार पर भूमि एवं खेतों का विभाजन, जैसा कि अमरकोश तथा अन्य कोशग्रन्थों5 में मिलता है, दो वर्गों में किया जाता था- नदीमातृक तथा देवमातृक (वर्षा द्वारा सिंचित कृषि वाले क्षेत्र) मोटे तौर पर भूमि की माप की चार मुख्य पद्धतियाँ पूर्व मध्यकाल में प्रचलित थीं।
1. भूमि की सतह की वास्तविक नाप जो हस्त आदि की नाप पर आधारित थी।
2. भूमि की हल नलाम जो खेत के आधार पर थी।
3. बोने हेतु आवश्यक बीज के आधार पर भूमि की माप जैसे द्रौणिक शब्द उस खेत का बोधक था जिसके बोने के लिए एक द्रोण बीज की आवश्यकता होती थी।
4. धान्योत्पत्ति के आधार पर भूमि की स्थूल माप।
पूर्व मध्यकाल में भूमि सम्बन्धी अधिकारों के विषय में एक से अधिक परम्पराएं मिलती हैं। भूमि पर सामुदायिक अधिकार सामंती व्यवस्था के प्रभाव से क्षीण हो गया एवं वैयक्तिक अधिकार की परम्परा इस काल में सामान्य कृषकों का नही अपितु भू-स्वामियों का हित संवर्धन करने लगी। इस काल में सामंती प्रथा आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण पक्ष थी। सामंत भी प्रायः भू-स्वामित्व का दावा करने लगे। इसके कारण एक ओर उनके स्वामी नरेशों के भू-सम्बन्धी अधिकार कम हुए होंगे और दूसरी ओर किसानों के अपनी भूमि पर अधिकार क्षीण एवं सीमित हुए होंगे।
कृषि के लिए सिंचाई के महत्व का संचित ज्ञान पूर्व मध्यकाल में अधिक स्पष्ट एवं विस्तृत हुआ। प्राचीनकाल से ही सिंचाई के प्राकृतिक साधनों का महत्व लोग समझते थे एवं कृत्रिम साधनों का भी प्रयोग करते थे परन्तु पूर्व मध्यकाल में सिंचाई के कृत्रिम साधनों पर विशेष ध्यान दिया गया। पूर्व मध्यकाल के धर्मशास्त्र लक्ष्मीधर ने कृत्यकल्पतरू के दानकाण्ड़6 में एक नई परम्परा का सूत्रपात करते हुए कुएँ खुदवाने, तालाबों का निर्माण करने एवं पर्वतीय झरनों पर बाँध बनाने को धार्मिक पुण्य की प्राप्ति हेतु दान के अंतर्गत बताया। कुछ अभिलेखों में भी अरहट्ट आदि सिंचाई के कृत्रिम साधनों के दान तथा उनसे होने वाले पुण्य का उल्लेख मिलता है। पूर्व मध्यकाल में नहरों द्वारा सिंचाई पर भी ध्यान दिया गया। वास्तुशास्त्र के ग्रन्थ अपराजितपृच्छा में ‘सारणी’ शब्द नहर के लिए मिलता है।7 सारणी शब्द जलमार्ग के लिए क्षेमेन्द्र (11वीं शताब्दी) के बाल रामायण8 में भी प्रयोग किया गया है। राजतरंगिणी में भी सुयस द्वारा कश्मीर में नहरों के निर्माण9 और उसके फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि का उल्लेख मिलता है। यद्यपि पूर्व मध्यकाल में कुओं, जलाशयों, नहरों, अरहट्टों आदि सिचाई के कृत्रिम साधनों का अपेक्षाकृत अधिक विकास एवं प्रसार हुआ फिर भी जैसा कि उस काल के स्रोतों से ज्ञात होता है कि कृषि काफी हद तक सिंचाई के प्राकृतिक साधनों, विशेष रूप से वर्षा के जल पर आश्रित थी।
कृषि के उपकरण एवं साधन तथा कृषि-क्रिया के क्षेत्र में भी हम पूर्व मध्यकाल में अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण साक्ष्य पाते हैं। कृषि के उपकरण लगभग वही थे। पर इस काल के स्रोतों में उनका अधिक स्पष्ट उल्लेख मिलता है और उनके लिए प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों की संख्या में वृद्धि मिलती है। पूर्व मध्यकाल के ग्रन्थ कृषि पराशर में ही हम सर्वप्रथम हल के विभिन्न अंगों का क्रमबद्ध वर्णन पाते हैं। इसी ग्रन्थ में हम सबसे पहले फाल के प्रकार का उल्लेख पाते हैं।
कृषि-क्रिया में बैलों का प्राचीन काल से विशेष महत्व है। उनके समुचित पालन-पोषण, स्वास्थ्य रक्षा, रोगों के उपचार पर पूर्व मध्यकाल में विशेष ध्यान दिया गया। विष्णुधर्मोत्तर पुराण,10 अग्निपुराण11 कृषि पराशर आदि ग्रन्थों में इसके साक्ष्य मिलते हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के पहले किसी ग्रन्थ में इस विषय का प्रतिपादन नहीं किया गया। यह इस काल में कृषि के विकास एवं विस्तार में सहायक सिद्ध हुआ। अमरकोश, विश्व प्रकाशकोश, हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि एवं देशीनाममाला आदि से कृषि के उपकरणों के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। इन उपकरणों के लिए कोटिश या लोष्टभेदन, खनित्र (फावड़ा), दात्र या लवित्र (हंसिया), कुदाल, मदिका, स्तम्बधन (खुरपा) आदि शब्द मिलते हैं। कृषि की विधियों एवं कृषि-कार्य के सम्बन्ध में पूर्व मध्यकाल के स्रोतों से अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट जानकारी मिलती है। हर्षचरित में विन्ध्याटवी के आदिवासियों द्वारा कुदाल से ही जमीन गोड़कर बीज बोने एवं अन्न उत्पन्न करने का उल्लेख मिलता है।12 कृषि-क्रिया के पूर्व प्रचलित परम्पराएं भी जैसे-भू-कर्षण, खाद डालना, बीज-संग्रहण एवं बीज स्थापन, बीज-वपन, सिंचाई, निराई आदि परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। खाद के प्रयोग का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण वाराहमिहिर की वृहत्संहिता में ही सबसे पहले मिलता है। इसमें भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु सूखी (गोबर की ) एवं हरी खाद दोनों का उल्लेख मिलता है।13
पूर्व मध्यकाल में फसल की रक्षा के प्रति विशेष ध्यान देने का साक्ष्य मिलता है। लक्ष्मी धर ने अपनी पुस्तक कृत्यकल्पतरु के व्यवहारकाण्ड में शस्य-रक्षा एवं शस्यघात दण्ड के ऊपर सीमा विवाद शीर्षक के अन्तर्गत दो अलग प्रकरण दिये हैं। इन प्रकरणों में गौतम, मनु, नारद बृहस्पति, याज्ञवल्क्य आदि के मत उद्धृत किये गये हैं। महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ निशीथचूर्णि में फसलों की रक्षा हेतु खेतों के चारों ओर जल से भरी खाइयों का उल्लेख मिलता है।14 हर्षचरित में उल्लेख मिलता है कि कभी-कभी फसल को क्षति पहुँचाने वाले जंगली पशुओं एवं पक्षियों को डराने के लिए जंगली भैसों के हड्ड को खेत मेें खड़ा कर दिया जाता था।15
कृषि-क्रिया के सन्दर्भ में ज्योतिष एवं धार्मिक अनुष्ठानों का बड़ा महत्व था। प्रत्येक महत्वपूर्ण कृषि-कर्म को ज्योतिष के अनुसार शुभ समय में प्रारम्भ करने का प्रयास किया जाता था एवं धार्मिक अनुष्ठान किये जाते थे।
पूर्व मध्यकाल में वृक्ष संवर्धन सम्बन्धी ज्ञान के विस्तार के महत्वपूर्ण साक्ष्य मिलते हैं। वाराहमिहिर की वृहत्संहिता और उसके ऊपर भट्टोत्पल की टीका से वृक्षों के संक्रमण, विरोपण (एक स्थान से ले जाकर दूसरे स्थान पर लगाना) एवं उनकी कलम बाँधने की विधियों पर प्रकाश पड़ता है। पी0 के0 गोड़े16 ने ठीक कहा है कि कलम बांधने का उल्लेख वाराहमिहिर के पहले किसी प्राचीन भारतीय स्रोत में नहीं मिलता है।
इस काल में कृषि उत्पादन निर्बाध नहीं था। अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त सैन्य प्रचार युद्धों आदि से भी कभी-कभी फसलों को विशेष क्षति पहुँचती थी।
पूर्व मध्यकाल में कृषकों एवं कृषि कर्मकारों से सम्बन्धित शब्दावली का विस्तार होता है। अमरकोश में कृषकों के लिए चार शब्द मिलते हैं- क्षेत्राजीव, कर्षक, कृषीवल एवं कीनाश। पर हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि एवं अनेकार्थ संग्रह17 में कुल मिलाकर इसके लिए आठ शब्द-कुटुम्बी, कर्षक, क्षेत्री, हली, कृषिक, कार्षिक, कृषिवल एवं की नाश मिलते हैं।
इस काल में अधिया-बटाई पर कृषि करने वालों के वर्ग का विस्तार हुआ। इसका सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य यह है कि पराशरस्मृति18 में आर्धिक की परिकल्पना एक मिश्रित जाति के रूप में की गयी हैं। प्राचीन काल में कुटुम्बी समृद्ध गृहस्थ होते थे जो केवल कृषि से ही नहीं अपितु व्यापार एवं कुसीद से भी सम्बन्धित थे। पर इस काल में कुटुम्बी अधिकतर आर्धिक के रूप में समझे जाने लगे। यह सामान्य, स्वतंत्र कृषकों की स्थिति में गिरावट का सूचक है।
कृषकों में एकरूपता नहीं थी। उनके कई स्तर थे वर्गीकरण का प्राचीन आधार उनके द्वारा प्रयुक्त हल पर था। कृषि में किये जाने वाले श्रम के आधार पर भी कृषकों का वर्गीकरण किया गया। धान्योत्पत्ति एवं धान्यसंग्रह के आधार पर कृषकों के तीन वर्गों का उल्लेख ब्रह्मपुराण में मिलता है।
पूर्व मध्यकाल में सामान्य कृषकों पर करों का बोझ बढ़ गया था। मानसार19 से ज्ञात होता है कि सामंती अनुक्रम में राजा या सरदार उपज का ज्यादा भाग ग्रहण करते थे। करों में वृद्धि के साथ कर के ढाँचे में विस्तार,एवं कुछ परिवर्तन के साक्ष्य पाते हैं। विष्टि या बेगार के कारण सामान्य कृषकों के शोषण में वृद्धि हुई। एक भोग ग्राम में इस प्रकार की स्थित की संभावना अधिक रहती थी। ऐसे ग्राम अविकसित क्षेत्रों में अधिक रहे होंगे परन्तु 11वीं एवं 12वीं शाताब्दी में कृषि एवं व्यापार में विकास तथा सिक्कों के अपेक्षाकृत अधिक प्रचलन के कारण इनसे प्रभावित क्षेत्रों में लगभग बन्द आर्थिक व्यवस्था और कृषकों की इस प्रकार की प्रतिबद्धता की स्थिति कम होने लगी होगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. चरक संहिता, कल्पस्थान 1, मदनफलक, 6,7,9.
2. सुश्रुत संहिता, अध्याय 35, 34-42.
3. अमरकोश, 2. 1. 4.
4. विश्वप्रकाशकोश, पृ0 87, श्लोक 23; पृ0 174, श्लोक 11.
5. उदाहरणार्थ हलायुधकोश, सम्पादक जयशंकर जोशी, हिन्दी समिति, लखनऊ, 1967, 2-भूमिकाण्ड, श्लोक 161.
6. कृत्यकल्पतरु का दानकाण्ड, पृ0 276 और आगे, उद्धृत द्वारा बी0एन0एस0 यादव, एल0सी0एन0आई0, पृ0 259.
7. अपराजितपृच्छा, पृ0 188,त्र श्लोक 36.
8. मोनियर विलियम्स की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, पृ0 1208, स्तम्भ.
9. राजतरंगिणी, 5. 109.
10. विष्णुधर्मोत्तरपुराण, 2. 43. 1-27.
11. अग्निपुराण, 292. 23-35.
12. हर्षचरित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, 1912, 7.227 कुद्दालप्रायकृषिभिः।
13. वृहत्संहिता, 54 ; 17.18
14. निशीथचूर्णि 3, पृ0 519; द्रष्टव्य अच्छेलाल, प्राचीन भारत में कृषि, पृ0 188.
15. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित-एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ0 183.
16. ‘‘हिस्ट्री आॅफ दि आर्ट आॅफ ग्राफ्टिंग प्लांट्स’’, इंडियन कल्चर, जिल्द 13, पृ0 25-34.
17. चैखम्भा संस्कृत सिरीज आॅफिस, वाराणसी, 1964, पृ0 107.
18. पराशरस्मृति, 11.25.
19. मानसार, सम्पादक पी0के0 आचार्य, पृ0 284, श्लोक 29, 36.