Saturday 2 January 2010

गुणवत्ता युक्त शैक्षिक परिवर्तन में शिक्षक की भ्ूमिका


सीमा चैहान
शोध-छात्रा, शिक्षा विभाग,
चै0 चरण सिंह विश्वविद्यालय परिसर, मेरठ।


               शिक्षा में परिवर्तन हो रहे हैं या कहा जाए कि किए जा रहे हैं। हर क्षेत्र की तरह शिक्षा में परिवर्तन भी अवश्यंभावी है और आवश्यक भी। शिक्षा में इनका सही दिशा में होना इसलिए भी अपेक्षित है कि इसका प्रभाव मानवीय कार्यकलाप के हर क्षेत्र पर पडे़गा। यदि शैक्षिक परिवर्तन में देरी होगी या इसमें कमियां होंगी तो विकास की प्रक्रिया हर अवयव में प्रभावित होगी। यह उचित ही है कि परिवर्तन के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है और भारत में शिक्षा जगत से जुडे़ हुए लोग रूचि ले रहे है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शैक्षिक परिवर्तनों पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो विगत वर्षो में बनी विभिन्न समितियाँ व शिक्षा आयोग की रिपोर्ट के आधार पर बनी शिक्षा नीति सबसे पहले सामने उभरती है। आज भी अनेक शिक्षाविद् मानते है कि यदि ईमानदारी से कोठारी आयोग की रिपोर्ट पर क्रियान्वयन किया जाता तो आज शैक्षिक परिदृश्य पूरी तरह अलग होता। स्कूलों, कालेजों तथा अब विश्वविद्यालयों द्वारा जो वर्ग-भेद आर्थिक संपन्नता और विपन्नता के कारण पैदा हो रहा है वह इतना विषाक्त रूप नहीं लेता। कुल मिलाकर केन्द्र बिंदु शिक्षा की गुणवत्ता, उसमें व्यवसायिक कौशलों का समावेश, उद्योग जगत से शिक्षा से जुड़ाव आदि के आसपास ही निहित है। इन पर ध्यान न देकर अनेक समस्याओं को जन्म दिया गया है। यदि कोठारी आयेाग की काॅमन स्कूल व्यवस्था, मातृभाषा में शिक्षा कार्य अनुभव और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार वाली संस्तुतियां को निष्ठापूर्वक क्रियान्वित की गई होती तो आज अन्य समिति व आयोग बनाने की आवश्यकता ही नही पड़ती।
भारतीय समाज में गुरू का सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम से समाज को विकासोन्मुख बनाता है। शिक्षक के ऊपर ही यह निर्भर करता है कि वह किस प्रकार के नागरिक तैयार करता है। 20वीं शताब्दी के अन्तिम दो दशक विश्व के विकास में अपना विशेष स्थान रखते हैं। ज्ञान के विस्फोट के साथ आज शिक्षक व्यवहार की प्रक्रिया को, उसकी रूचि, कार्यकुशलता, योग्यता आदि के साथ आबद्ध कर उसका वैज्ञानिक रूप में अध्ययन किया जाने लगा है। आज शिक्षक के व्यक्तित्व के समायोजन का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्योंकि शिक्षक ही राष्ट्र का निर्माता है तथा समाज का एक अति महत्वपूर्ण उत्तरदायी नागरिक है। विद्यार्थियों को शिक्षक से बड़ी-बड़ी आशाएं होती हैं। विद्यार्थियों के जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं का समाधान उसे करना पड़ता है तथा विद्यार्थी के आचरण व क्रियाकलापों पर शिक्षक के मन मस्तिष्क की गहरी छाप पड़ती है। बालक के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षक को राष्ट्र का निर्माता कहा जाता है तथा इसी कारण समाज में सर्वाधिक सम्मान शिक्षक को दिया जाता है।
इन दिनों शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में जिस शब्द का काफी इस्तेमाल हो रहा है वह है ”गुणवत्ता युक्त शिक्षा“ परन्तु गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए गुणवत्ता युक्त शिक्षकों का होना अनिवार्य है परन्तु विगत एक दशक से शिक्षक प्रशिक्षण और शैक्षिक योजनाओं से जुड़े रहने के व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रायः अधिकांश शिक्षकों में गुणवत्ता का स्तर दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है। यह कटु सत्य है इसमें शिक्षकों के प्रति आक्षेप, आरोप अथवा अपमान की भावना लेशमात्र भी नही है। गुणवत्ता की समस्या नए-पुराने, महिला-पुरूष तथा शहर-ग्रामीण शिक्षकों में कमोवेश समान रूप से विद्यमान है। ऐसा नही है कि योग्य शिक्षकों की नितांत कमी है पर समग्र रूप से तुलना करने पर इनका अनुपात बहुत कम है। गुणवत्ता स्तर पर कमी का एक दूसरा पहलू भी है। प्रायः सभी शिक्षकों में दक्ष शिक्षकों की बेहद कमी है जिनकी प्राथमिक स्तर पर विशेष आवश्यकता है। योग्य शिक्षकों में भी अधिकांश शिक्षक किसी एक विषय में ही पारंगत होते हैं। विषयगत योग्यताओं के अलावा अन्य क्रिया कलापों जैसे खेल-कूद, साहित्य, कला, संगीत आदि सृजनात्मक क्षेत्रों में भी रूचि रखने वाले शिक्षकों की काफी कमी है। प्रारम्भिक शिक्षा में खासतौर पर गा्रमीण क्षेत्रों में शिक्षकों में पायी जाने वाली चारित्रिक विकृतियाँ, धूम्रपान, मद्यपान, समाज विरोधी व्यवहार, यौन अपराध अधिक दोषी हंै।
ऐसे शिक्षक जिनके ऊपर भारत का अतीत निर्भर रहा है और आगे भी जिनके ऊपर भारत का भविष्य निर्भर है, जो भारत के भविष्य के कर्णधारों के निर्माता है, समाज को जिनसे बहुत सारी अपेक्षाएं है, ऐसे शिक्षकों की गरिमा, मान-सम्मान और आदर समाज में बना रहे इसके लिए समाज तथा सरकार को विद्यालयों में उन्हीं शिक्षकों का चयन करना होगा जो बहुत ही विद्वान, कर्मठ, उच्च शिक्षण अभियोग्यता, सृजनात्मकता, आत्मसंप्रत्यय तथा सकारात्मक अभिवृत्ति वाले हों।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. एन.सी.आर.टी., ”भारतीय आधुनिक शिक्षा“ (त्रैमसिक पत्रिका जनवरी-2002)।
2. एन.सी.आर.टी., ”भारतीय आधुनिक शिक्षा“ (त्रैमासिक पत्रिका जनवरी-2004)।
3. एन.सी.आर.टी., ”प्राईमरी शिक्षक“ (त्रैमासिक पत्रिका जनवरी-2004)।
4. राजपूत जे.एस., समृद्ध शिक्षा की तलाश, दैनिक जागरण लेख, 1 फरवरी 2007