Saturday 2 January 2010

”पर्यावरण प्रबंधन में मानवाधिकार संरक्षण“


राजेश कुमार
शोध छात्र, राजनीति विज्ञान विभाग,
 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी


मानवाधिकार का तात्पर्य मानव अधिकारों से है। ये ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य को जन्मतः मिले हैं। ये मनुष्य की प्रकृति में ही निहित है और किसी रीति-रिवाज, परम्परा, रुढि़, कानून, राज्य, शासक या किसी अन्य संस्था की देन नहीं है। मानवाधिकार पहले है और राज्य या कानून जैसी चीजें बाद में है। यह बात अलग है कि समय के गुजरने के साथ-साथ राज्य या कानून इन्हें प्रवर्तित कराने वाले माध्यमों के रूप में उभरे हैं।1 इन संस्थाओं का लक्ष्य मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोकना भी है ताकि प्रत्येक मनुष्य लोकतांत्रिक अधिकारों का उपभोग कर सके, गरिमामय जीवन जी सके, अपना चहुँमुखी विकास कर सके और राज्य का एक सत्यनिष्ठ नागरिक बन सके। किन्तु इन तमाम दावों-प्रतिदाओं के बावजूद वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में सम्मानपूर्वक सुरक्षित जीवन यापन मानवजाति के समक्ष एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। तापमान के बढ़ते पारे ने जिस तरह से पूरे धमक के साथ पर्यावरण के बढ़ते संकट का आगाज किया है। उसमें मानव के सुरक्षित जीवन यात्रा तभी सम्पन्न हो सकती है जबकि समस्त नागरिकों को स्वच्छ पर्यावरण युक्त मानवाधिकार संरक्षण का अधिकार प्राप्त हो जिसमें मानव के साथ-साथ सम्पूर्ण जैव-जगत की स्थिति सामान्य बनी रहे।
मनुष्य के लिए मानवाधिकार संरक्षण कोई नई अवधारणा नहीं है बल्कि इसकी जड़ें अतीत की गहराइयों मंे छिपी हुई हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में मानवाधिकारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आज जबकि सम्पूर्ण मानवजाति शोषण, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न एवं आतंकवाद जैसे दुष्कृत्यों से प्रभावित है ऐसे अराजकतापूर्ण वातावरण में विश्व के समक्ष एक महत्वपूर्ण चुनौती बन जाती है कि मानवाधिकारों को कैसे सुरक्षित एवं संरक्षित किया जाए?
भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा उद्देशिका ;च्तमंउइसमद्ध में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की गयी थी जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की समता पर आधारित हो, किन्तु आज जब हम भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में मानवाधिकारों की चर्चा करते हैं तो यहाँ की समाज व्यवस्था से सम्बद्ध लिंग तथा जातिगत भेद-भाव, छुआछूत तथा अस्पृश्यता की भावना साकार हो जाती है। इसके बावजूद पिछले कई दशकों से वर्तमान विश्व में ‘मानवाधिकार’ शब्द चर्चा का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है। एक विशेष नजरिये से देखा जाए तो पश्चिमी राष्ट्र-राज्यों के विकास के बाद ही यह अवधारणा आयी और व्यापक पैमानें पर सर्वत्र मानवाधिकारों की मांग बढ़ी। इंग्लैण्ड के 1215 के ‘मैग्नाकार्टा’, अमेरिका के ‘बिल आॅफ राइट्स’ और फ्रांस की ‘मानवाधिकार घोषणापत्र’ में इस संकल्पना के बीच गुंथे-बिंधे थे।2 ऐसा नहीं है कि मानवाधिकार का भारतीय  पुरा समाज में कोई मतलब नहीं था किन्तु इसकी विधिवत शुरुआत अक्टूबर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के साथ हुई।3
मानवाधिकारों को कभी-कभी मूल अधिकार, अंतर्निहित या जन्मजात अधिकार या नैसर्गिक अधिकार भी कहा जाता है यानि कि मानव को प्रकृति द्वारा ही कुछ अधिकार प्राप्त हैं जिनको मानवाधिकार कहा जाता है। प्रत्येक नागरिक को इन्हें सुनिश्चित करना सम्बन्धित देश की सरकार का दायित्व है। मानवाधिकार इस सार्वभौमिक तथ्य की मानव प्रकृति की नायाब कृति है, को सच कहते हुए प्रत्येक व्यक्ति को गरिमापूर्ण सम्मानजनक जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है। विश्व की सभी सभ्यताओं, संस्कृतियों, जीवन-मूल्यों और आदर्र्शों का आधार भी है। आज का मानव जरूर अपने इन आदर्शों से दिग्भ्रमित हुआ है तथा कष्ट इस बात का है कि उसे अपने इस भुलावे का जरा भी अहसास नहीं है। इसी की परिणति है कि मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्थिति विश्व में सर्वत्र भयावह होती जा रही है। तीव्र आर्थिक विकास की चाहत में आज का मानव जिस तरह से भौतिक संपदा पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर प्रकृति का विनाश करता जा रहा है, क्या यह मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? जिसका सर्वाधिक प्रभाव निकट भविष्य मंे निर्धन, असहाय व सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछडे़े देशों व उनके निवासियों पर पड़ने की आशंका है।4 फरवरी 2007 को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित अन्तर्राष्ट्रीय पैनल आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में एक ऐसी ही भयावह तस्वीर पेश की है जिसके अनुसार यदि निकट भविष्य में पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया गया तो करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी व कुपोषण के कारण काल के गाल में समानें के लिए बाध्य होते चले जायेंगे। इसीलिए मानव ही मानव का भक्षक न बने पर्यावरण प्रबंधन की अवधारणा वैश्विक रूप लेती जा रही है।  
पर्यावरण के विषय में भी मानवाधिकारों के विषय की ही तरह अन्तर्राष्ट्रीय जगत की चिंता द्वितीय महायुद्ध के बाद ही देखने को मिलती है। महायुद्ध के विध्वंस ने इस बात को रेखांकित किया था कि आधुनिक हथियार पर्यावरण के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं। बमबारी ने बड़े-बड़े ऐतिहासिक नगरों को तबाह कर दिया था और हरे-भरे खेत बंजर कब्रिस्तानों में बदल गये थे। एटम बम के प्रयोग ने पर्यावरण के लिए एक नई चुनौती पैदा कर दी थी। हिरोशिमा और नागासाकी के अनुभव से यह बात सामने आ चुकी थी कि एक बार एटमी हथियार का प्रयोग करने पर भी वर्षों तक वातावरण प्रदूषित रहता है और रेडियोधर्मी धूल को बादल में दूर-दूर तक फैलाते हैं। एटमी हथियारों का प्रयोग भले ही दोबारा कभी नहीं हुआ, पर दोनों महाशक्तियों के बीच वर्षों चलने वाली प्रतिस्पद्र्धा में सैकड़ों परमाणविक हथियारों के परीक्षण हुए। दक्षिण-पश्चिमी प्रशान्त महासागर में अमेरिकी तथा फ्रांसीसी परमाणविक परीक्षणों से पैदा होने वाले प्रदूषण का असर जापानियों तथा मछुआरों पर पड़ा। परमाणु वैज्ञानिकों की यह चेतावनी भी कम चैकाने वाली न थी कि रेडियो विकिरण के कुप्रभाव से सिर्फ सीधे प्रभावित लोग ही रोगग्रस्त नहीं होते बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए भी कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ही पहले वायुमंडल में, फिर अन्तरिक्ष तथा सागर तल में ऐसे परीक्षणों पर रोक लगाने वाली संधियां संभव हुई।
अनेक वैज्ञानिकों ने जिम्मेदार नागरिकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि सिर्फ युद्ध काल में ही नहीं, शांति के युग में भी पर्यावरण जोखिम में पड़ सकता है। पश्चिमी यूरोप के देशों में 1960 के दशक के अंत तक यह बात स्वीकार कर ली थी कि उनके यहाँ औद्योगीकरण और शहरीकरण का तेजी से फैलना पर्यावरणीय स्वास्थ्य के लिए दुष्प्रभावकारक साबित हो रहा था। जर्मनी में धुँआ उगलने वाली फैक्टरियों से जो बादल उठते उनसे जीवनदायिनी रस की धार नहीं बरसती थी बल्कि एसिड्रीन खेतों को बंजर करने के लिए धरती पर उतरती थी।
पर्यावरण से हमारा तात्पर्य हमारे चारों ओर के वातावरण से है जिसमें हमारी सारी प्राकृतिक सम्पदायें शामिल हैं। जिनकी खास गुणवत्ता प्राणी जीवन तथा देश की अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को प्रमाणित करती है। किन्तु मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदैव हितकारी पर्यावरण का शोषण करता रहा है जिसके कारण अनेकों अनिष्टकारी समस्यायें उसका पीछा करती रही हैं। आज सम्पूर्ण मानव समाज तथा उसके सहयोगी जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, वायुमंडलीय सूक्ष्म जीवों, खाद्यान्नों, फल-सब्जियों तथा इस तरह के दूसरे अन्य क्षेत्रों में जिस तरह का पर्यावरण संकट विद्यमान है, क्या उससे सम्पूर्ण मानव जाति को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार सुनिश्चित हो पा रहा है?5 ”मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है किन्तु वह सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है“ दार्शनिक रुसो का यह कथन द्योतित करता है कि आज भी मनुष्य किसी न किसी रूप में अनेकों परेशानियों से घिरा हुआ है। जिनमें बढ़ता पर्यावरण संकट इस आसन्न संकट का एक बहुत बड़ा कारण बनता जा रहा है। जिसके लिए आज का प्रौद्योगिक मानव स्वयं जिम्मेदार है जिसने अपने निजी लाभ के लिए सम्पूर्ण प्रकृति का अनैतिक तरीके से विदोहन किया है। 1970 के दशक के आरंभ तक यह बात जगजाहिर हो चुकी थी कि किसी संक्रामक महामारी की तरह ही पर्यावरण के प्रदूषण का संकट भी ऐसा है जिससे व्यक्ति अपने घर में बैठा भी निरापद नहीं रहता। मारग्रेट तथा हैराल्ड स्प्राउट दंपत्तियों ने अपनी पुस्तक ‘स्पेशशिप अर्थ’ में यही रूपक बाँधा था कि जिस तरह एक छोटे से अन्तरिक्ष यान में सफर कर रहे सभी यात्री, यान के वायुमंडल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं और सहकार के लिए बाध्य, क्योंकि इसके अभाव में कोई अकेला जिंदा नहीं रह सकता, कुछ वैसी ही स्थिति इस पृथ्वी के बाशिंदो की भी है।
इन्हीं वर्षों में कई भीमकाय तेल वाहक टैंकर दुर्घटनाग्रस्त हुए और उनसे रिसने वाले तेल ने समुद्र के पानी के साथ बह हजारों मील दूर तट को प्रदूषित किया। इसके साथ एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ कि इस तरह की दुर्घटना से उत्पन्न हुए प्रदूषण के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाय और कैसे मुआवजा देने के लिए बाध्य या दंडित किया जाय? विडंबना यह थी कि भले ही दुर्घटना किसी भी राष्ट्र-राज्य के क्षेत्र से बाहर घटी हो, प्रभावित राज्य राहत और न्याय के लिए व्याकुल रहता था।
1972 में स्वीडेन की राजधानी स्टाकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में पहले अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी की हिस्सेदारी महत्वपूर्ण रही और उनका उस वक्त दिया गया भाषण आज भी यादगार समझा जाता है। श्रीमती गांधी ने जहाँ एक ओर पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देना बेहिचक स्वीकार किया, वहीं उन्होंने इस बात को भी जोरदार ढंग से सामने रखा कि इस मुद्दे का समाधान विकास की समस्या के साथ जोड़कर ही ढूंढा जाना चाहिए। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि पर्यावरण के लिए जो संकट वर्तमान में उत्पन्न हुआ है उसके लिए कुछ औपनिवेशिक शक्तियां कम जिम्मेदार नहीं। तेल हो या खनिज, अपनी जरूरत के लिए इन संसाधनों का दोहन करते वक्त प्रकृति के स्वास्थ्य की कोई चिन्ता सम्पन्न पश्चिमी देशों ने कभी नहीं की थी। पूंजीवादी जीवन शैली में फिजूलखर्ची, स्वार्थी, उपभोक्तावादी मानसिकता प्रबल थी जबकि भारत जैसे विपन्न देशों में गांधीवादी सोच के प्रति गहरा आकर्षण था, जहाँ यह बात सहज स्वीकार की जाती थी प्रकृति का भंडार हरेक मनुष्य की जरूरत को पूरा करने के लिए तो भरा-पूरा है, पर किसी समुदाय या राष्ट्र विशेष के लालच की तृप्ति में असमर्थ ही सिद्ध होता है।
पिछले कई दशकों से तीव्र औद्योगीकरण तथा मानव की उपभोक्तावादी नीतियों के चलते वातावरण में कार्बन-डाई-आॅक्साइड ;ब्व्2द्ध जैसी कई अन्य ग्रीन हाउस गैसें पृथ्वी के तापमान को तीव्र गति से बढ़ाती जा रही है जिसके कारण विश्व में प्रत्येक जगह कई भीषण पर्यावरणीय आपदायें अपना तांडवी रूप दिखा रही हैं। जिससे न केवल मनुष्य परेशान है बल्कि इसका असर सम्पूर्ण जैव-विविधता तथा विकास प्रतिरूपों पर पड़ा है। प्रकृति की कई संवेदनशील प्रजातियाँ तो विलुप्त होने के कगार पर आ चुकी हैं। भारत में पिछले दशक की तुलना में 0.4 से 0.6 डिग्री सेल्सियस तापमान की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है। जिसके कारण जलवायु में भी तेजी से परिवर्तन हो रहा है जो अप्रत्याशित है। राजस्थान और महाराष्ट्र में बाढ़ आना, असम में सूखा पड़ना, सुनामी लहरों का आना बढ़ते पारे और बदलती जलवायु का ही परिणाम है। इसके अलावा पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप से महानगरों में एयरोसोल का बढ़ना एक चेतावनी है। पृथ्वी पर रहने वाला हर संवेदनशील व्यक्ति आज वैश्विक तापमान के बढ़ते सिलसले को महसूस कर रहा है। हमारी पृथ्वी लगभग 4.5 अरब वर्ष पुरानी है। पृथ्वी पर मौजूद जीवाणुओं ने करोड़ों वर्र्षों तक कार्बन-डाई-आॅक्साइड सोखकर और आॅक्सीजन छोड़कर जीवों के साॅस लेने योग्य उपयुक्त स्थितियों का सृजन किया है। इसी क्रिया से पृथ्वी पर जीवन संभव हुआ है, लेकिन अब हम उस दौर में पहुँच रहे हैं जहाँ जीवन के लिए महत्वपूर्ण यह क्रियायें असंतुलित होती जा रही है।6 स्थानिक, कालिक और वैश्विक भौगोलिक सीमाओं को चीरकर जीवन को चुनौती दे रही यह पर्यावरणीय समस्या आज के समय में समूची मानवता के समक्ष खतरे के रूप में मौजूद है।7
वैश्विक तापमान बढ़ने से न केवल ग्लेशियर पिघल रहे हैं बल्कि उसके कारण समुद्री जलस्तर भी बढ़ रहा है। जिसके चलते आने वाले समय में समुद्र के तटवर्ती द्वीप डूबने के कगार पर हो जायेेंगे। नदियों में पानी तेजी से बढ़ने से बाढ़ की समस्या और नदियों के तटबन्ध टूटने की समस्या विकराल रूप ले सकती है। दूसरी तरफ पहाड़ों की बर्फ पिघल जाने के कारण भविष्य में नदियों में जल की आपूर्ति घटेगी जिसका प्रभाव पुनः हमारे जीवन पर ही पड़ेगा। क्योंकि नदियों से प्राप्त होने वाला जल जो कृषि के लिए प्रयोग में लाया जाता हैे वह सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हो पायेगा। यह याद रखना होगा कि विश्व की कई महान नदियों में पानी का स्रोत पर्वतों के ग्लेशियर ही हैं।8 पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार इस समय दुनिया का तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2010 तक इसमें 1.5 से 6.0 डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है। इसका प्रभाव हमारी कृषि पर भी पड़ेगा तथा खाद्यान्न उत्पादन में कमी आने की संभावना से इंकार नही किया जा सकता। उदाहरण के लिए गेहूँ जो हमारी मुख्य फसल है, के लिए आवश्यक ठंड का मौसम नहीं हो पायेगा वहीं जल्दी गर्मी आने के कारण गेहूँ के पकने की रफ्तार भी बढ़ सकती है। जिससे गेहूँ में पौष्टिकता हेतु आवश्यक तत्वों का समावेश नहीं हो सकेगा।9 खाद्यान्न सुरक्षा का अति संवेदनशील मुद्दा पर्यावरण के नाजुक संतुलन के साथ अखिल रूप से जुड़ा है। कहीं यह संकट जलाभाव के कारण उत्पन्न होता है तो कहीं जल बाहुल्य (बाढ़) के कारण। इसी तरह ऊर्जा सुरक्षा और ऊर्जा संकट भी अभी तक अभिन्न रूप से पर्यावरण केन्द्रित बहस ही गरमाते हैं। कोयला और पेट्रोल डीजल जैसे हाइड्रोकार्बन जनित ईंधन के उपयोग से वायुमंडल में व्याप्त होने वाली कार्बन गैसों के कारण, धरती के फटने व मौसम बदलने की समस्या का उल्लेख पहले किया जा चुका है। इनके विकल्प के रूप में जिन ऊर्जा संसाधनों का चर्चा होता है उनसे भी पर्यावरण को निरापद नहीं रखा जा सकता। मिसाल के तौर पर जल-विद्युत ऊर्जा उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बांधों का निर्माण जरूरी है। इस गम में डूबे प्रभावित क्षेत्र का नैसर्गिक प्राकृतिक संतुलन नष्ट होने के साथ-साथ बहुत बड़ी संख्या में विस्थापित शरणार्थी भी एक विस्फोटक राजनैतिक संकट उत्पन्न करते हैं। यह बात नर्मदा सरोवर से लेकर टिहरी तक बार-बार उजागर हो चुकी है।
1984 में घटी भोपाल गैस त्रासदी जिसकी कोई मिसाल मानव इतिहास में नहीं। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय उद्यम यूनियन कार्बाइड कंपनी की एक फैक्टरी से मिथाइल आइसोसायनाइट ;डप्ब्द्ध जैसी जहरीली गैस के रिसाव के कारण हजारों निर्दोश लोगों ने दम तोड़ दिया और बचे रहे हजारों प्रभावित लोगों के लिए भी यह संकट पैदा हो गया कि वे अब कभी भी निरोग नहीं रह सकेंगे। हिरोशिमा तथा नागाशाकी के नागरिकों की तरह ही उनकी संतानें भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रदूषण से पैदा होने वाले रोगों से अभिशप्त रहेंगी। इस औद्योगिक दुर्घटना ने एक बार फिर गैर जिम्मेदार मुनाफाखोरी और प्रदूषण के कारण होने वाले नुकसान के लिए जिम्मेदारी ठहराने का सवाल उठा दिया।
वैश्विक उष्णता के कारण जलस्रोत सूखते जा रहे हैं ऐसी स्थिति में जिन राज्यों के पास पानी नहीं होगा वे अपने निकटवर्ती राज्यों पर आक्रमण करने को बाध्य होंगे। जलस्तर में कमी, शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता, जीवन और प्रकृति के लिए आवश्यक जल की कमी, बढ़ते रेगिस्तान, सूखा, कृषि पर नकारात्मक प्रभाव इत्यादि अपने साथ कई जटिल सामाजिक समस्यायें लेकर आयेंगी जो नित नये संघर्र्षों को जन्म देंगी। आईपीसीसी के अनुसार पर्यावरणीय समस्या के कारण उत्पन्न सूखे की स्थिति के कारण सम्पूर्ण विश्व में लगभग 3 अरब 20 करोड़ लोगों के समक्ष सन् 2080 ई0 तक पेयजल की समस्या उत्पन्न हो सकती है एवं फसल चक्र अनियमित होने के कारण लगभग 60 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हो सकते हैं।10 भारत का जल संसाधन तो बड़े पैमाने पर प्रकृति एवं जलवायु संतुलन से नियमित रहता है, जिसमें आंशिक बदलाव मात्र से ही जल की कमी उत्पन्न हो जाती है। भारत में ही 1950 के दशक में 5 लाख तालाब थे जिससे 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती थी। इन तालाबों का प्रमुख कार्य वर्षा जल का संचयन और भू-जल के स्तर में वृद्धि तो था ही, सिंचाई जीव-जंतुओं का संरक्षण और बाढ़ से बचाव में भी ये बड़ी भूमिका निभाते थे। अब इनकी जगह कस्बों, खेल के मैदानों, गगनचुम्बी इमारतों और नये-नये भवनों ने ले ली है। जल संकट की यह स्थिति सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि यह समस्या अपनी प्रकृति में ही वैश्विक है क्योंकि विश्व की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के सापेक्ष जल संसाधनों में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। खासकर तीसरी दुनिया के देशों में जनघनत्व के लिहाज से जल-संसाधन अत्यन्त सीमित है। इन देशों के गाँवों में आज भी महिलाओं को पानी लाने के लिए कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है, किसानों को जल की कमी से सूखे की मार झेलनी पड़ती है। स्वच्छ और साफ जल न मिल पाने के कारण बच्चे पैदा होते ही निर्जलीकरण का शिकार होकर दम तोड़ देते हैं। आज हमारे द्वारा प्रयुक्त किये जा रहे पेयजल में प्राकृतिक प्रदूषण जैसे- फ्लोराइड, आर्सेनिक व कीटनाशकों की दर काफी ऊंची है और यह लगातार बढ़ती ही जा रही है। 1999 में केन्द्र सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 7 करोड़ भारतीय प्रदूषित जल पी रहे हैं जिसमें फ्लोराइड, आयरन, नाइट्रेट, आर्सेनिक तथा खारेपन की मात्रा अधिक है। हालाँकि सरकार ने भू-जल स्तर बढ़ाने का प्रयास किया है लेकिन आम जनता को भी आने वाले कल के प्रति जागरुक होने की आवश्यकता है। आज की भौतिकतावादी लिबास में आम जनता जल के संचयन और संरक्षण से कोई वास्ता नहीं रखती, इसलिए खतरों से अंजान ऐसे व्यक्तियों को अपना तथा भावी संतति के प्रति कत्र्तव्य बोध नहीं हो पा रहा है। अपनी गतिशील प्रकृति के कारण पानी एक साझी सम्पत्ति है इसलिए भू-जल को पुनः आवेशित करने की कृत्रिम विधियों को भी प्रोत्साहित करने की प्राथमिक आवश्यकता है जिससे पानी को एक बड़े व्यवसाय के रूप में परिणित होने से रोका जा सके।11
पर्यावरण प्रबंधन जो आज हमारे सामने एक ज्वलंत समस्या बन गयी है। यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक समान रूप से खतरनाक होती जा रही है। अमेरिका जैसे विकसित उपभोक्तावादी देश इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जबकि इसका असर सबसे ज्यादा विकासशील व पिछड़े राष्ट्रों पर पड़ने की आशंका है। ऐसा नहीं है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं के निदान हेतु कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे है। बल्कि पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर विकसित एवं विकासशील देशों के मध्य कोई अंतिम सहमति नहीं बन पा रही है। जिसका सबसे बड़ा कारण कीमत पर आकर रुकती है क्योंकि कोई भी देश अपनी अर्थव्यवस्था में से कोई भी राशि पर्यावरण एवं संरक्षण प्रयासों के नाम नहीं खर्च करना चाहता। दूसरी ओर विकसित देशों को आशंका है कि कहीं इसका प्रभाव उनके ऐशो-आराम पर न पड़े।12 इसलिए जरुरत है कि हम सभी इस बारे में कुछ ठोस कदम उठायें, कुछ सार्थक व सकारात्मक करें जो कि पर्यावरण के संरक्षण, पोषण व संवर्द्धन में सहायक हों ताकि लोगों के मानवाधिकार सुरक्षित रहंे तथा अपनी भावी पीढि़यों को विरासत में एक साफ,स्वच्छ व स्वास्थ्यवर्द्धक पर्यावरणयुक्त जीने का अधिकार दें। क्योंकि बढ़ता पर्यावरण संकट एक ऐसी समस्या है जो सब पर प्रभाव डालेगी, कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता।
भारत में आजादी के बाद जिस बदलाव की उम्मीद थी उसकी दिशा उल्टी तरफ चल पड़ी। इससे बदलाव तो आया पर इस बदलाव का सबसे बुरा असर आधुनिक विकास की दौड़ में हाॅफते जा रहे समाज पर पड़ा। यह समाज वह किसान वर्ग है जो यांत्रिक कृषि से दूर है तथा रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत चीजें जुटाने के लिए अपने दिन का एक बड़ा भाग खपा देने को मजबूर है। फ्रेडरिक एंगिल्स के अनुसार ”प्रकृति पर अपनी विजय के कारण हमें आत्म प्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि वह हर ऐसी विषय का हमसे प्रतिरोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विषय से प्रथमतः वही परिणाम प्राप्त हो सकते हैं जिनका हमने भरोसा किया था पर द्वितीयतः तथा तृतीयतः उससे बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित परिणाम होते हैं जिनसे पहले का असर जाता रहता है।“13 इस चेतावनी के बावजूद आज यह प्रभाव इतने व्यापक हैं कि जैवमंडल समाज की सहायता के बगैर मनुष्य विनाशक प्रभाव से नहीं निपट सकता। इसलिए अब प्रकृति के साथ मानव जाति की अन्तरक्रिया के तरीके को बदलना अनिवार्य हो गया है।14
पर्यावरणीय प्रदूषण का प्रभाव राष्ट्रीय सीमाओं से मुक्त होता है। मानव समाज का वायु, जल और भूमि पर प्राकृतिक अधिकार है। यह अधिकार विश्वव्यापी होता जा रहा है, क्योंकि वैश्वीकरण के युग में जिस तरह पूरी दुनिया ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित होती जा रही है, उसमें इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि विश्व में घटी किसी घटना का दूसरे मुल्कों में असर नहीं पडे़गा। आज समूचा विश्व परमाणु बम बनाकर भले ही गर्व कर रहा हो परन्तु वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार वायुमंडल में तकरीबन 4.08 अरब टन ओजोन गैस विद्यमान है जो हमारे लिए ‘रक्षा कवच’ का काम करती है। वह मात्र 1000 मेगावाट की शक्ति वाले परमाणु बमों के विस्फोट से नष्ट हो सकती है। पर्यावरण अवनयन की ये परिस्थितियाँ मानव को जीने का अधिकार प्राप्त करने को सचेष्ट करती है। इसलिए मानव अधिकार की सीमा में पर्यावरणीय प्रबंधन को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। मानव विकास का इतिहास प्रकृति के नियंत्रण और दोहन तथा मानव जाति के प्रगति का पर्याय है तो अविवेकपूर्ण दोहन विनाश का कारण बन सकता है। इसलिए भारतीय न्यायपालिका भी इस अवधारणा से अछूती न रह सकी और उसने स्वच्छ प्रदूषण रहित पर्यावरण को अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों की सूची से सम्बद्ध कर दिया।15
मानवाधिकार एवं पर्यावरण प्रबंधन पर एक साथ विचार करने का यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मानवाधिकार का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है तथा जीवन उसका मूलभूत अधिकार है जो पर्यावरणीय दशाओं और तत्वों के पारिस्थितिकीय प्रबंधन पर आधारित है। पारिस्थितिकीय संतुलन सभी जीवधारियों की उत्तरजीवियों के लिए अनिवार्य है। अतः जीवन का अधिकार पर्यावरण के संतुलन के अधिकार का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि एक संतुलित एवं प्रफुल्लित पर्यावरण से ही विकास के प्रयास जारी रह सकते हैं और मानव जीवन उच्चस्तर तक पहुँच सकता है। ‘ग्रीन इंडिया, 2045’ के अध्ययनों से पता चलता है कि पर्यावरण प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश से सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 15 प्रतिशत से ज्यादा का नुकसान हो रहा है। अतः पर्यावरण प्रबंधन कोई फैशन नहीं बल्कि एक अनिवार्यता है। यह समझना आज के मानव के लिए बहुत ही आवश्यक है ताकि लोगों को स्वच्छ, पर्यावरणयुक्त जीवन का अधिकार मिल सके। तभी सही अर्र्थों में मानवाधिकार सुरक्षित रखा जा सकता है। पर्यावरण प्रबंधन के माध्यम से मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का ढंग बदलना होगा और जीवन को प्रमुख मानते हुए पर्यावरणीय तथ्यों के संरक्षण और विकास के लिए सरकारों के साथ-साथ स्वयं भी जिम्मेदार बनना होगा। क्योंकि मानवाधिकार में जहाँ मानव अपने मूलभूत अधिकारों के लिए सरकार एवं प्रशासन तंत्र को जिम्मेदार मानता है वहीं पर्यावरण प्रबंधन में स्वयं भी उतना ही जिम्मेदार बन जाता है। इसलिए आज आवश्यकता एक ऐसे पर्यावरण प्रबंधन की है जिससे व्यक्तियों के मानवाधिकार भी सुरक्षित रहें।
संदर्भ सूची
1. धर, प्रांजल, ‘मानवाधिकार और वर्तमान भविष्य’, कुरुक्षेत्र, दिसम्बर ग्रामीण विकास मंत्रालय, नई दिल्ली,2006 पृ. 4
2. सिंहल, एस.सी. ‘समकालीन राजनीतिक मुद्दे’, लक्ष्मी अग्रवाल प्रका, आगरा-3,2001 पृ. 96
3. फडि़या, बी.एल.,‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ 1998, साहित्य भवन पब्लिेकशन, आगरा
4. सिंह, अनीता व यादव, चंदेश्वर, ‘मानवाधिकार:मानवीय संवेदना का द्योतक’, कुरुक्षेत्र, दिसम्बर 2006, पृ. 11
5- Sheth, Pravin, Environmentalism-Politics, Ecology and Development 1997, Rawat Publication, New Delhi, p. 161-162
6. दैनिक जागरण (वाराणसी), फरवरी 2008, ‘ग्लोबल वार्र्मिंग’, पृ. 14-15
7. धर, प्रांजल, ‘पर्यावरण एक साझी समस्या है’, योजना, जून 2007, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय,दिल्ली, पृ. 39
8. ।दनंस त्मचवतज 2004.05 डपदपेजतल व िम्दअपतवदउमदज-थ्वतमेजेए छमू क्मसीपए चह 132.134
9. दैनिक जागरण (वाराणसी), फरवरी 2008, ‘ग्लोबल वार्र्मिंग’, पृ. 14-15
10. दृष्टिकोण मंथन, नई दिल्ली, 16-28 फरवरी 2007, पृ. 17
11. उपाध्याय आशुतोष, ‘गुस्से में मौसम’ ,दैनिकहिन्दुस्तान(वाराणसी),मई 10, 2006
12. श्रीवास्तव, मयंक, ‘प्यासी धरती-प्यासे लोग’, कुरुक्षेत्र, जून 2007, अंक-8, नई दिल्ली, पृ. 12
13. डा. बेचन, डाॅ. ममता, परिस्थितिकी विकास के मूल तत्वः मिश्रा टेªडिंग कार्पोरेशन, वाराणसी
14. मानवाधिकार: नई दिशाएं, 2006, अंक-3, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली, पृ. 59
15. डाॅ. अनिरुद्ध प्रसाद, ‘पर्यावरण एवं पर्यावरणीय विधि की रूपरेखा’ 2001, सेंट्रल लाॅ पब्,ि इलाहाबाद, पृ. 467