Saturday 2 January 2010

पंचायती राजः आवश्यकता एवं उपादेयता


डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद यादव एवं कु0 प्रवीणा सिन्हा
वरिष्ठ प्रवक्ता, समाजशास्त्र विभाग, राजकीय महिला महाविद्यालय, पट्टी, प्रतापगढ।
शोध छात्रा , राजनीति शास्त्र, डाॅ0 राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद


भारत के लोगों के लिए पंच, पंचायत, ग्राम स्वराज जैसे शब्द नए नहीं हैं। ग्रामीण अंचलों में जहाॅं मीडिया की पहुॅच आज भी नहीं है वहाॅं के कबाइलीनुमा समाज के निरक्षर लोग भी इन शब्दों से भलीभाॅति परिचित है। ये लोग पंच को परमेश्वर मानते हैं और उसी के आदेशों, निर्णयों से प्रशासित होते हैं। देश के राजनेताओं और नीति नियामकों को यह बात भलीभाॅति मालूम होते हुए भी आजादी के 45 वर्षों बाद 1992 में देश के संविधान में तिहत्तरवें - चैहत्तरवें संशोधन द्वारा इस व्यवस्था को संवैधानिक रूप दिया गया। इस एक तथ्य से ही पता चलता है कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण और गाॅवों में रामराज लाने की रट लगाने वाले हमारे नेता तथा नौकरशाह प्रशासन में ग्रामीण जनता को सहभागी बनाने के प्रति कितने उदासीन हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमारे देश में प्राचीन काल से ही स्वशासित गाॅवों की परम्परा रही है। सुदूर गावों में ग्रामीण जन सहभागिता के आधार पर प्रशासन का कार्य करते हैं। आधुनिक भारत के सन्दर्भ में देखें तो स्थानीय निकाय का 1787 में मद्रास कस्बे में पहली बार विधिवत गठन किया गया। इस निकाय में भारतीय प्रतिनिधियों के अलावा कुछ विदेशी प्रतिनिधि भी थे। 19वीं शताब्दी के अन्त में अंग्रेजी हुक्मरानों ने ग्राम पंचायतों का भी गठन किया था लेकिन शहरी निकायों की तुलना में इन पंचायतों को काफी सीमित वित्तीय अधिकार प्राप्त थे। ग्राम पंचायतें वास्तव में जमींदारों का हित संरक्षण करती थीं और जमींदार अंग्रेजों के हित साधक बने हुए थे।1
ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को अधिकार सम्पन्न बनाने की पहली आवाज तब उठी जब कांग्रेस ने 1909 के लाहौर अधिवेशन में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया। इस बात को लेकर अंग्रेजी सरकार की काफी आलोचना हुई कि वह स्थानीय निकायों को आगे बढ़ने नहीं दे रही है। 1915 के बाद भारतीय राजनीति के क्षितिज पर महात्मा गाॅंधी के उदय के बाद ग्राम स्वराज का नया नारा निकला जो बाद में स्वाधीनता आन्दोलन का पर्याय बन गया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार में स्थानीय निकायों को कतिपय अधिकार दिये गये। 1935 में भारत सरकार अधिनियम के द्वारा भारत में पहली बार प्रान्तीय सरकारों का गठन हुआ। इससे स्थानीय निकायों के लिए एक अनुकूल वातावरण मिला।
संविधान निर्माण के समय स्थानीय निकायों तथा गाॅंधी के ग्राम स्वराज पर संविधान निर्माताओं के बीच काफी चर्चा हुई। अधिकांश नेतागण इससे सहमत भी थे कि डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर अपनी कुछ शंकाओं के कारण इस व्यवस्था के पक्षधर नहीं थे। दरअसल डाॅ0 अम्बेडकर को लगता था कि ग्राम स्वराज व्यवस्था को लागू करने से कुल मिलाकर वर्ण व्यवस्था को ही बढ़ावा मिलेगा। अम्बेडकर की यह शंका काफी हद तक उचित थी क्योंकि उन दिनों भारत के गाॅवों में वर्ण व्यवस्था का बोलबाला था और प्रायः सभी स्थानों पर उच्च जाति के लोगों का दबदबा था। अन्ततः गाॅंधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को नीति निर्देशक तत्वों वाले खण्ड में स्थान दिया गया।2
स्वतंत्रता के बाद देश की नीति निर्धारकों ने महात्मा गाॅंधी के विचारों से प्रेरणा लेकर देश में पंचायती राजव्यवस्था का शुभारम्भ किया। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने पंचायती राज व्यवस्था की उपादेयता को समझते हुए सामुदायिक विकास मंत्रालय का गठन किया और एस0के0 डे, को इस विभाग का मंत्री बनाया। 2 अक्टूबर 1952 को पंचायती राज व्यवस्था का सूत्रपात वास्तविक धरातल पर तब हुआ जब भारत सरकार के द्वारा ग्राम्य विकास हेतु सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्राम्य समूह को एक इकाई मानकर इसके विकास हेतु सरकारी कर्मचारी के साथ सामान्य ग्राम्यजन को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास किया गया। 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। समिति ने भारत में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था की स्थापना की संस्तुति की। ग्राम या नगर पंचायत, तहसील पंचायत तथा जिला पंचायत नाम की तीन संस्थाओं के साथ समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की मूल इकाई प्रखण्ड या समिति के स्तर पर होनी चाहिए। मेहता समिति ने गाॅवों के समूहों के लिए प्रत्यक्षतः निर्वाचित पंचायतों, खण्ड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत तथा जिला स्तर पर जिला परिषद गठित करने का सुझाव दिया था।3
मेहता समिति को 1 अप्रैल 1958 को सम्पूर्ण देश में लागू किया गया। राजस्थान राज्य ने सर्वप्रथम इस समिति की सिफारिशों को अपनाते हुए 2 सितम्बर, 1959 को पंचायती राज अधिनियम पारित किया और 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर नामक स्थान में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर इस व्यवस्था का उद्घाटन किया गया। इसके पश्चात् 1959 में आन्ध्र प्रदेश ने, 1960 में तमिलनाडु ने, 1963 में महाराष्ट्र ने, 1964 में पश्चिम बंगाल ने, इस व्यवस्था को अपनाने के लिए अधिनियमों का प्रणयन किया।
1977 में केन्द्र में सत्तासीन जनता पार्टी की सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने तथा स्थापित व्यवस्था के दोषों को दूर करने के लिए अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। अशोक मेहता समिति ने पंचायती राज व्यवस्था की समीक्षा के साथ-साथ इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कुल 132 सिफारिशों के साथ अपनी रिपोर्ट  केन्द्र सरकार को सौंपी। अशोक मेहता समिति त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के स्थान पर द्विस्तरीय व्यवस्था की सिफारिश की। रिपोर्ट में जिला स्तर के नीचे मण्डल पंचायत का गठन किये जाने की संस्तुति की गयी थी जिसमें लगभग 10 से 15 गाॅवों जिनकी कुल जनसंख्या 15,000 से 20,000 हो। ग्राम पंचायत समितियों को अनावश्यक बताते हुए मण्डल अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष एवं जिला परिषद के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से कराने की संस्तुति समिति ने की थी। मण्डल अध्यक्ष तथा जिला परिषद अध्यक्ष का कार्यकाल 4 वर्ष हो तथा विकास योजनाएँ जिलापरिषद द्वारा तैयार किये जाने की संस्तुति रिपोर्ट में की गयी थी।
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर पश्चिम बंगाल ने 1978में राज्य मंें पंचायत चुनाव सम्पन्न कराया तथा नवगठित पंचायती राज संस्थाओं को अधिकार प्रदान कर ग्रामीण विकास में पंचायती राज संस्थाओं की सहभागिता को सुनिश्चित किया। पश्चिम बंगाल राज्य प्रत्येक 5वर्ष पर संस्थाओं का चुनाव आयोजित करता रहा है। इस प्रकार पंचायती राज व्यवस्था को सही ढंग से लागू करवाने में पश्चिम बंगाल का स्थान प्रथम है। 1985में कर्नाटक सरकार ने भी पंचायती राज संस्थाओं को अधिकतम अधिकार देकर तथा समय पर चुनाव कराकर अन्य राज्यों के लिए माॅडल का काम किया। पंचायत राज व्यवस्था को एक ओर जहाँ असफल और अस्वीकार योग्य बताया जा रहा था वहीं इन दो राज्यों ने इस व्यवस्था को न केवल बखूबी संचालन किया बल्कि क्षेत्रीय विकास में आम ग्राम्य जन की भागीदारी को सुनिश्चित किया।4
ग्राम्य विकास में जनसहभागिता, गरीबी उन्मूलन, प्रशासनिक व्यवस्था मे जनसहभागिता इत्यादि विषयों को ध्यान में रखते हुए 1985 में केन्द्र सरकार द्वारा जी0वी0के0 राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद, जिला स्तर पर जिला परिषद, मण्डल स्तर का मण्डल पंचायत तथा गाॅंव स्तर पर ग्रामसभा के गठन की सिफारिश की। समिति ने विभिन्न स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षण की भी सिफारिश की थी। किन्तु समिति के सुझावों को सरकार ने अमान्य कर दिया। 1986 में पंचायती राज व्यवस्था की समीक्षा तथा सुझाव हेतु डाॅ0 लक्ष्मी सिंघवी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा किया गया। सिंघवी समिति ने पंचायती राज व्यवस्था को और प्रभावशाली बनाने के लिए गाॅवों के पुनर्गठन की संस्तुति करते हुए कहा कि गाॅवों में पंचायतों को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए पंचायतों को वित्तीय अधिकार दिए जायॅ तथा इन्हें और अधिक वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ ताकि ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाया जा सके। 1987में गठित सरकारिया आयोग ने पंचायतराज संस्थाओं को और सशक्त बनाने का विचार करते हुए कहा था कि ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए जिससे इन संस्थाओं को भंग ही न किया जा सके। 1989में पी0के0 थुंगन समिति का गठन केन्द्र सरकार द्वारा किया गया। इस समिति ने पंचायतीराज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने, निर्धारित समय पर चुनाव कराने तथा जिला परिषदों को योजना एवं विकास अभिकरण बनाने का सुझाव दिया।5
थुंगन समिति की संस्तुतियों को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाॅधी की प्रेरणा से संसद में 64वाॅ एवं 65वाॅ संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया था किन्तु विपक्षी दलों का समर्थन न मिल पाने के कारण यह पारित न हो सका। बाद में दिसम्बर, 1992 को 73वाॅ एवं 74वाॅ संविधान संशोधन विधेयक संसद द्वारा पारित किया गया। 17 राज्यों की विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित किये जाने के पश्चात् 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित किया गया। 24 अप्रैल, 1993 को अधिसूचित होने के साथ-साथ देश की सभी पंचायतीराज संस्थाओं को संवैधानिक आधार प्राप्त हो गया। 73वाॅ संविधान संशोधन ग्राम पंचायतों से सम्बन्धित है जबकि 74वाॅ संविधान संशोधन नगर पालिकाओं से सम्बन्धित है। इन दोनों संशोधनों को संविधान में स्थान देने के लिए भाग-9 की अंतस्थापना की गयी। संविधान का यह भाग मिजोरम, मेघालय एवं नागालैण्ड को छोड़कर सभी स्थानों पर लागू है।6
संविधान के भाग 9 में अनुच्छेद 243 के अन्तर्गत अनुच्छेद 243(क) से 243(ण) तथा अनुसूची 11 में पंचायतीराज व्यवस्था  से सम्बन्धित प्रावधान दिए गये हैं। कुछ प्रमुख प्रावधान इस प्रकार है-
(1) पंचायत व्यवस्था का प्रथम स्तर गाॅव सभा होगी जो एक या अधिक ग्रामों से मिलकर बनेगी। ग्राम सभा की शक्तियों के सम्बन्ध में राज्यविधान मण्डल कानून बनायेगा।
(2) 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों को दो स्तरीय ग्राम स्तर एवं जिला स्तर तथा 20 लाख से अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायत ग्राम स्तर, खण्ड स्तर एवं जिला स्तर की पंचायतों का गठन किया जायेगा।
(3) पंचायत सदस्यों का तथा ग्राम पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्येक पाॅच वर्ष पर किया जायेगा। खण्ड स्तर एवं जिला स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष  मतदान द्वारा किया जायेगा।
(4) पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा जनजाति के सदस्यों के लिए उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जायेगा तथा महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण होगा।
(5) पंचायतों का कार्यकाल 5वर्ष होगा किन्तु इनका विघटन 5वर्ष के पूर्व भी किया जा सकेगा। विघटन की दशा में 6 माह के अन्दर चुनाव कराना आवश्यक होगा।
(6) संविधान के अनुच्छेद 243(छ) में पंचायतों के अधिकार और शक्तियों का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार राज्य विधानमण्डल संविधान में विनिर्दिष्ट शक्तियों एवं शर्तों के अधीन रहते हुए निम्नलिखित विषयों के सम्बन्ध में शक्तियाँ और दायित्व निर्वहन के लिए उपबन्ध कर सकेंगी-
(क)आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार करना।
(ख) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाओं को कार्यान्वित करना जो उन्हें सौंपी जाय। इसके अन्तर्गत वे योजनाएँ और स्कीमें आती हैं जो 11वीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में है।
(7) राज्य विधानमण्डल पंचायतों को कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।
(8) पंचायतों की वित्तीय स्थितियों के सम्बन्ध मंें जाॅच करने के लिए प्रत्येक 5वर्ष पर वित्तीय आयोग का गठन किया जायेगा जो अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपेगा।
जुलाई 1994 में भारत सरकार के ग्रामीण मंत्रालय द्वारा संविधान के भाग-9 को अनुसूचित क्षेत्रों में भी लागू करने के लिए संस्तुति करने हेतु दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट दिसम्बर 1994 में केन्द्र सरकार को सौंपी गयी। समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि किसी ग्राम पंचायत मे एक से अधिक ग्राम हैे तो सभी गाॅवों में ग्राम सभा होनी चाहिए साथ ही आदिवासी क्षेत्रों में गाॅवों की परम्परागत संरचना, सांस्कृतिक रीति रिवाज तथा परम्परागत ग्राम परिषद को बनाए रखना चाहिए। रिपोर्ट  में यह भी कहा गया है कि पुलिस, आबकारी, वानिकी तथा राजस्व इत्यादि विभागों के निचले स्तर के कर्मचारियों की भूमिका आदिवासी क्षेत्रों में कम होनी चाहिए तथा इन्हें ग्राम पंचायतों के अधीन कार्य करना चाहिए साथ ही ग्राम सभाओं को ऐसे अधिकार देने चाहिए जिससे ग्राम वासी ग्रामीण संसाधनों का भरपूर तथा सार्थक उपयोग कर सकें।7
उल्लेखनीय है कि भूरिया समिति की कई सिफारिशों को संसद द्वारा स्वीकार कर कानून का रूप देते हुए अधिनियम पारित किया जा चुका है। इसके अन्तर्गत पाॅचवीं अनुसूची के आदिवासी क्षेत्रों की पंचायती संस्थाओं तथा ग्राम सभाओं को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं।
उपरोक्त अध्ययन हमें देश में पंचायती राजव्यवस्था के क्रमशः विकास एवं इसके लिए किए गये सरकारी प्रयास को दर्शाता है। केन्द्रीय स्तर पर पंचायती राजव्यवस्था को सशक्त बनाने के लिए निश्चय ही प्रयास किया गया है किन्तु इन प्रयासों का वास्तविक लाभ ग्रामीण जनता को नहीं मिल पा रहा है। यह व्यवस्था सैद्धान्तिक रूप से जितना उपयोगी दिखायी देती है व्यावहारक स्तर में उसमें उतनी ही विसंगतियाँ दिखायी पड़ती हैं। वास्तव में पंचायतीराज लोकतंत्र की प्रथम पाठशाला है। लोकतंत्र मूलतः शक्तियों के विकेन्द्रीकरण पर आधारित शासन प्रणाली है। शासन के ऊपरी सतह लोकतंत्र सैद्धान्तिक रूप से भले ही दिखायी देता हो किन्तु इसकी सच्ची तस्वीर तो गाॅव में दिखायी देती है। जनता में साक्षरता का अभाव, अपने अधिकारों से अनभिज्ञता, संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता आज भी गाॅवों में दिखायी देती है। ग्रामीण जनता की इस स्थिति का लाभ पूॅजीपतियों, राजनेताओं तथा क्षेत्र उन धूर्तबाज लोगों को मिलता है जो पंचायती राज व्यवस्था के नाम पर अपनी झोली भरते हैं। वास्तव में पंचायतीराज की उपादेयता तब ही है जब ग्रामीण जनता शिक्षित और जागरूक हो। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली भोली-भाली जनता पंचायती राजव्यवस्था और इसके अन्तर्गत उनकी बेहतरी के लिए किये गये प्रावधानों को न तो जानती है और न ही जानने का प्रयास करती है। यही कारण है कि ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत स्तर के अधिकारी ग्राम के विकास के लिए जारी किये गये धन का अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।8
लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था में पंचायती राज ही एक मात्र वह साधन है जो शासन को जन सामान्य के दरवाजे तक पहुॅचाता है। पंचायती राज व्यवस्था में स्थानीय लोगों में स्थानीय कार्यों के प्रति रुचि बनी रहती है। स्थानीय समस्याओं का स्थानीय तरीके से समाधान पंचायती राज व्यवस्था में ही सम्भव है किन्तु यह तभी सम्भव होगा जब स्थानीय स्तर की जनता शिक्षित और जागरूक होगी। स्थानीय स्तर पर शिक्षा का इधर कुछ वर्षों में प्रचार प्रसार तो हुआ है किन्तु इसी के साथ स्थानीय स्तर पर बाहुबलियों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। सत्ताधारी दल के  लोग भी बाहुबलियों को ही बढ़ावा देते हैं इसका परिणाम यह होता है कि स्थानीय स्तर पर जागरूक जनता भी अपने अधिकारों के प्रति उदासीन बने रहने में ही अपनी भलाई समझती है। किसी भी राष्ट्र में लोकतंत्र की उन्नति तभी संम्भव है जब स्थानीय स्तर से लेकर उच्च स्तर तक के शासन में सामान्य जन की सक्रिय भागीदारी हो। यह भागीदारी ही लोकतंत्र का मानदण्ड निर्धारित करती है। यह सब तभी सम्भव है जब पंचायतीराज का सफल क्रियान्वयन हो।
भारत जैसे देश में जहाॅं 70 प्रतिशत जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हो वहाॅं पंचायतीराज नामक स्थानीय स्वशासन का महत्व स्वतः सिद्ध और सर्वथा असंदिग्ध है। राष्ट्रपिता महात्मा गाॅंधी आधुनिक भारत में ग्राम स्वराज के लिए ग्राम पंचायत की सबसे बड़े पक्षधर थे। उन्होंने कहा था, ‘स्वतंत्रता स्थानीय स्तर से शुरू होनी चाहिए। प्रत्येक गाॅव में एक गणराज्य अथवा पंचायतराज होना चाहिए। प्रत्येक पंचायत राज के पास पूर्ण सत्ता और शक्ति होनी चाहिए। प्रत्येक गाॅव को आत्मनिर्भर होना चाहिए और अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूर्ण करना चाहिए ताकि सम्पूर्ण प्रबन्ध वह स्वयं चला सके। वास्तव में सच्चे लोकतंत्र के लिए स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ अनिवार्य हैं। हेराल्ड लाॅस्की के अनुसार, ‘हम लोकतंत्रीय शासन से पूरा लाभ तब तक नहीं पा सकते जब तक कि हम यह न मान लें कि सभी समस्याएँ केन्द्रीय समस्यायें नहीं हैं। साथ ही उन समस्याओं को उन्हीं स्थानों पर उन्हीं लोगों द्वारा हल किया जाना चाहिए जो उन समस्याओं से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में 227697 ग्राम पंचायतें, 5913 पंचायत समितियाँ तथा 475 जिला परिषदें कार्यरत हैं जिसमें जन प्रतिनिधियों की संख्या कुल लगभग 34 लाख है। किन्तु गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर शेष में पंचायत चुनाव नहीं कराये गये हैं। बिहार में तो 22 वर्ष के अन्तराल पर पंचायत चुनाव होने का रिकार्ड है। राज्य स्तर पर इस प्रकार की लापरवाही न केवल पंचायत राजव्यवस्था को हानि पहुॅचा रही है बल्कि भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली को भी आघात पहुॅचा रही है।
पंचायतों को कितने ही कार्य सौप दिए जायॅ और कितने ही अधिकार दे दिये जायें वे सब अर्थहीन हैं, यदि उन्हें सम्पन्न करने के लिए उन्हें वित्तीय साधन न उपलब्ध कराये जायें। कुछ राज्यों को छोड़कर वित्तीय संसाधन के मामलों में यह स्थिति अधिकांश राज्यों की है। सभी राज्यों में पंचायतों के तीनों स्तरों पर राज्य से अनुदान देने का प्रावधान है किन्तु कर्नाटक तथा महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में इस व्यवस्था को लागू नहीं किया गया है। पंचायत स्तर पर लगाये गये करों पर भी पंचायतों का पूर्ण अधिकार कुछ ही राज्यों में है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की ओर से जो धन पंचायतों को दिया जाता है वह किसी योजना या कार्यक्रम हेतु होता है। इस प्रकार पंचायतें स्वशासी तंत्र न होकर राज्य सरकार अथवा केन्द्र सरकार की कार्यान्वयन एजेन्सी मात्र बन कर रह गयी है। इन सब स्थितियों का अध्ययन करने के बाद पंचायती राज की उपादेयता तो समझ में आती है किन्तु इसकी सार्थकता संदिग्ध है। वास्तव में यदि पंचायती राज को सशक्त बनाना है तो उसे स्थानीय स्तर पर सशक्त बनाना होगा। पंचायती राज संस्थायें सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय, राष्ट्र निर्माण, राजनीतिक विकास इत्यादि का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। किन्तु यह तभी सम्भव होगा जब पंचायती राज संस्थाओं को राज्य सरकारों का सकारात्मक सहयोग मिले। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दलों तथा अन्य सामाजिक शक्तियों में पंचायतीराज संस्थाओं के प्रति एक प्रतिबद्धता आवश्यक है। गाॅधी के सपनों का भारत बनाने के लिए यह प्रतिबद्धता पहली और आवश्यक शर्त है।
सन्दर्भ सूचीः
1. आचार्य रमेश चन्द्र शास्त्रीः भारत में पंचायती राज, अजमेर,1961,पृ0 113
2. अर्जुन वाई, दर्शनांकरः लीडरशिप इन पंचायती
3. राज, पंयशील प्रकाशक जयपुर, 1979, पृ0 23
4. डी0वी0, राघव,ः पंचायती राज -रूरल डेवलपमेंट, आशीष पब्लि हाउस, दिल्ली,1980, पृ0 78
5. फडि़या, मंजुः भारतीय प्रशासनिकसेवा, हिमांशु पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 2004, पृ0 148
6. शमता सेठः पंचायती राज, हिमाशु पब्लिकेशन, उदयपुर, 2002, पृ0. 123
7. एस0के0 सिंहः पंचायती राज, कुरुक्षेत्र मासिक पत्रिका दिल्ली, जुलाई, 2001, पृ0 28
8. सीताराम सिंहः पंचायती राज और ग्रामीण सुरक्षा, कुरुक्षेत्र मासिक पत्रिका, मार्च1989, पृ0 38