Saturday 2 January 2010

कुषाण कालीन आर्थिक दशा



सुरभि श्रीवास्तव
शोध छात्रा, प्रा0 इति0 विभाग,
उ0प्र0 राजर्षि टण्डन मुक्त वि0वि0, इलाहाबाद।


प्राचीन भारत के इतिहास में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से कुषाण काल एक युग-प्रवर्तक काल रहा है। प्राचीन साहित्यिक तथा अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल में विभिन्न कलाओं, शिल्पों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई साथ ही साथ सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह काल अपना उल्लेखनीय स्थान रखता है।
अरब सागर से हिन्द महासागर तक प्रसारित कुषाण साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में प्राचीन विश्व के रोम, पार्थिया तथा चीन जैसे तीन बड़े साम्राज्यों के समकक्ष था। पश्चिमी चीन से यू-ची जाति विस्थापन के क्रम में बैक्ट्रिया पर्थिया होते हुए भारत आई और इसी यू-ची जाति के एक कबीले कुई-शांग जिन्हे कुषाण नाम से जाना गया। कुषाण राजवंश ने समाज के आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक साहित्यिक एवं कलात्मक विविध क्षेत्रों में विशेष योगदान दिया।
कुषाण कालीन साहित्यिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों से इस काल के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। कृषि, पशुपालन, उद्योग तथा विदेशी व्यापार ने कुषाणों की आर्थिक स्थिति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। स्वर्ण मुद्रा का प्रथम अंकन भी इसी काल में देखने को मिलता है जो साम्राज्य में शान्ति-समृद्धता व प्रगति का प्रतीक है तथा उन्नत आर्थिक-स्थिति का द्योतक है।
समाज का उत्कर्ष आर्थिक जीवन की सम्पन्नता समुन्नति पर निर्भर करता है।(1) व्यक्ति का भौतिक सुख उसके आर्थिक-विकास से प्रभावित होता है। प्राचीन काल से ही आर्थिक जीवन का मूल आधार कृषि तथा व्यापार रहा है। आर्थिक जीवन किसी भी समाज की सर्वतोमुखी अभिवृद्धि का आधार होता है और पुरषार्थ भी इस तथ्य की ओर संकेत करते है। आर्थिक कार्यक्रम व्यक्ति का मानवीय सम्बन्ध ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्बन्ध भी अभिव्यक्त करता है। (2)
कुषाण-कालीन आर्थिक अध्ययन हेतु बौद्ध ग्रंथ, मिलिंदपन्हो, दिव्यावदान, महावस्तु, ललित विस्तर, अवदानशतक, सौदरानंद, जैन ग्रंथ अंग विज्जा, स्मृतियां, एवं अभिलेख, मुद्रा आदि पुरातात्विक साक्ष्य पूर्ण प्रकाश डालते हैं। कुषाणों आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि था। इस काल में भी कृषि एवं कृषकों के महत्व को स्वीकार किया गया था।
कृषि
कृषि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। वास्तव में मानव सभ्यता का इतिहास कम से कम औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व तक कृषि के विकास का इतिहास है। कृषि और सिंचाई तत्कालीन आर्थिक जीवन को निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण आधार देती है। अतः कुषाण काल से ही होने वाला आर्थिक विकास जिससे सामाजिक स्तरीकरण प्रभावित हुआ कृषि, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। कृषि का विकास कुषाण काल से ही प्रारम्भ हो गया था और गुप्त काल तक आते-आते उसका स्वरूप और अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। कृषि के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया लोहे और लौह निर्मित कृषि उपकरणों के व्यापक स्तर पर प्रयोग ने(3) कुषाण कालीन जैन ग्रन्थ अंग विज्जा जिसे गुप्त युग में परिष्कृत किया गया, लोहे के कई प्रकारों का विवरण प्रस्तुत करता है।(4)
वृहत्संहिता में भी कृष्ण-अयस और कृष्ण लौह का उल्लेख प्राप्त होता है। कृषि में लौह-उपकरणों के प्रयोग ने कृषि के विकास और उत्पादन-क्षमता में अपूर्व वृद्धि की। कुषाण कालीन कृषि व्यवस्था में कृषि योग्य भूमि को दो कोटियों में विभक्त किया गया था-
(1) क्षेत्रीय - जहाँ फसल खेत में बोते थे।
(2) आसविक - जहाँ फसल वनों में बोई जाती थी।
कृषि हेतु इस काल में सिंचाई के लिये व्यापक प्रबन्ध किये गये थे। सिंचाई, कुओं, तालाबों, नहरों से की जाती थी।
कुषाण काल में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था थी खेतों में सिंचाई की सुविधा देना राजा का नैतिक कर्तव्य था। राज्य की ओर से कृत्रिम सिंचाई के साधन जुटाये गये थे। सिंचाई के लिये दो साधन अपनाये गये थे।
(1) वृष्टि (2) यान्त्रिक
सामूहिक प्रयास से भी तालाबों के खोदने का चलन था। मठों, तालाबों, जलकुण्डो इत्यादि का निर्माण कराया जाता था। कृषि और सिंचाई तत्कालीन आर्थिक जीवन को निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण आधार देती है। अतः कुषाण काल से ही होने वाला आर्थिक विकास जिससे सामाजिक स्तरीकरण प्रभावित हुआ कृषि, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में दिखाई पड़ता है।
कृषि कार्य हलों की सहायता से किया जाता था। इसके अतिरिक्त कुदाल (फावड़ा) हँसिया तथा सूप आदि का प्रयोग करते थे। स्पष्ट है कि हँसिया से खेत काटा जाता था तथा मड़ाई करके निकाले गये अनाजों को सूप से साफ करते थे। तैयार किया अनाज विभिन्न प्रकार के संग्रहको में रखा जाता था जिनके नाम है - खवाह पल्लग, कुम्भी, मुख आदि। कृषि में गेहूँ-धान तथा गन्ने को प्राथमिकता दी जाती थी। इसके अलावा जौ, मसूर, मूँग आदि का उत्पादन होता था। कपास, लौंग, पीपल आदि की खेती होती थी। फलों में आम, सेब, अंगूर, अंजीर, अनार आदि विशिष्ट थे।
पेशावर क्षेत्र के सर्वेक्षण से सम्पूर्ण नदी मार्ग के किनारे-किनारे पाये जाने वाले विस्तृत कृषि-क्षेत्र प्रकाश में आए है और पहाड़ी ढलानो पर ऐसे प्राचीन क्षेत्र देखे गये है जिनमें ऊपर के कृषि क्षेत्रों से नीचे वाले क्षेत्रों में वर्षा के जल को लाने की विभिन्न विधाओं का प्रयोग किया था। कृषि सुरक्षा के नियम बनाये गये थे। कृषि औजारों की चोरी सामान्य रूप से होती थी जो लोग मेड़ को तोड़ देते थे या गलत प्रकार का बीज बेचते थे वे शासन द्वारा दण्डित किये जाते थे। इस प्रकार कुषाण काल में कृषि उत्पादन एवं व्यापारिक लाभ ने जन जीवन को समृद्ध किया।
पशुपालन
कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी समाज की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने वाला महत्वपूर्ण व्यवसाय होता है। किसी की देश की आर्थिक व्यवस्था इस पर निर्भर करती है। पशुपालन व्यवसाय की दृष्टि से ही नहीं वरन भारतीय धर्म पूर्ति में भी सहायक माने गये है। कुषाण काल में पशुओं का आधिक्य होने के कारण तत्जनित विशेष लाभ थे।(5) बौद्ध साहित्य से भी यह ज्ञात होता है कि कुषाण काल में पशुपालन एक विज्ञान रूप में प्रतिपादित हो चुका था। ललित विस्तर नामक ग्रन्थ भी इस बात की पुष्टि करता है। इस ग्रन्थ में अश्व-लक्षण, हस्ति लक्षण, गो लक्षण, अज लक्षण, मित्र लक्षण आदि के अध्ययन-अध्यापन का वर्णन विस्तार से हुआ है।
पशुपालक, गो-पालक, महिषी-पालक एवं तृण धारकों की निजी श्रेणियाँ का होना निःसन्देह उनकी उन्नति का सूचक है।(6) कुषाण काल में गाय, भैस, बकरी आदि पाले जाते थे जिनका उपयोग दूध व अन्य खाद्य पदार्थो हेतु किया जाता था। गाय के दूध से दही, मक्खन, घी बनाया जाता था। गाय से उद्भूत बछड़े बड़े होकर हल और गाड़ी खीचने के उपयोग में लाये जाते थे। गाय की लोकप्रियता का प्रधान कारण, उसका जीविका प्रदान करने के लिए सर्वोच्च साधन का होना था। अतः आर्थिक एवं धार्मिक दोनो ही दृष्टि से गायों का महत्वपूर्ण स्थान था। बैल भी कुषाण कालीन अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण अंग थे। बैलों को हल में लगाकर खेतों में जोता एवं बैल-गाड़ी के कार्यो में प्रयोग किया जाता था।
कुषाण कालीन अभिलेखों, साक्ष्यों से यह भी विदित होता है कि यह लोग भैंस भी पालते थे। जिससे इन्हें दूध प्राप्त होता था।
कुषाण युग में घोड़ा भी एक अत्यन्त उपयोगी पशु था। घोड़े का पालन-पोषण व्यापारिक दृष्टि से किया जाता था। महावस्तु से विदित है कि कम्बोज में घोड़े का व्यापार भी होता था।(7) इसके अतिरिक्त ऊँट भी तद्युगीन समाज में बोझा उठाने के लिए तथा एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिये प्रयोग में लाये जाते थे।
इसके अतिरिक्त बकरियों के परिपालन का भी मुख्य उद्देश्य उनसे दूध प्राप्त करना एवं अन्य खाद्य पदार्थो हेतु किया जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य पशुओं में सिंह, व्याध्र और हाथियों का वध चर्म प्राप्ति हेतु किया जाता था। हाथी भी कुषाण-कालीन समाज का अत्यन्त मुख्य पशु था इससे उन्हें मूल्यवान दाॅत की प्राप्ति होती थी। इनकी अस्थियों से पात्र बनवाये जाते थे। कुषाण युग में कुछ विशेष पक्षियों का भी पालन-पोषण होता था जिनसे उनसे विभिन्न औषधियाँ की प्राप्ति होती थी। पक्षियों में मुख्य रूप से तीतर, कपिन्जल आदि मुख्य थे।
इस तरह से कुषाण काल में पशुपालन अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने वाला एक अति महत्वपूर्ण व्यवसाय था।
व्यापार एवं व्यवसाय
कुषाण सभ्यता तत्कालीन विकासशील अर्थ-व्यवस्था पर आधारित थी जो शान्ति की स्थापना तथा विश्व व्यापार के नए मार्गो के खुलने से सम्भव हुई थी। धीरे -धीरे कुषाण नरेश नगरों के उत्खननों से स्थानीय उद्योगों को दिए गए प्रोत्साहन भी स्पष्ट होने लगे और नगरीय सभ्यता के विकास के साथ कृषि पर पूर्ण निर्भरता भी घटती रही और समयानुसार व्यापार एवं व्यवसाय आर्थिक जीवन के केन्द्र-बिन्दु बन गये। व्यवसायों को समूहों द्वारा क्रियान्वित किया जाता था तथा उनके लिये अभिलेखों में श्रेणी शब्द का प्रयोग हुआ है।
‘‘श्रेणी का तात्पर्य एक ही व्यवसाय करने वाले किसी भी जाति के समुदाय से था।’’
इस काल में श्रेणियों ने बैंकों के रूप में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था। इसे हम भारत में बैंकिग प्रणाली का प्रारम्भिक रूप कह सकते हैं। कुषाणों ने विदेशी वाणिज्य-व्यापार को पर्याप्त प्रोत्साहन देने के लिए बड़ी संख्या में सिक्के जारी किये थे।
सिक्को के व्यापक प्रयोग ने बैंकिग व्यवस्था के उदय एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। कुषाण कालीन सर्वाधिक 88 श्रेणी श्रेणियों की सूची महावस्तु(8) में मिलती है। इस विस्तृत श्रेणी सूची से कुषाण कालीन आर्थिक उन्नति परिलक्षित होती है। कुषाणों का भारत के चीन, मध्य एशिया एवं पश्चिमी देशों दक्षिण पूर्व एशिया आदि के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारत-रोमन-व्यापार था। कृषाणों का आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार दोनों ही चार्मोत्कर्ष सीमा पर था। जिनमें उन्नतिशील अवस्था में था, कृषाणों का विदेशी व्यापार।
कुणाण काल में वाराणसी, सूपरिक, राजगृह, श्रावस्ती आदि स्थान प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे।(9) व्यापार दो प्रकार के होते थे एक स्थायी व्यापार और दूसरा अस्थायी व्यापार अथवा चलायमान व्यापार।
 कुषाण काल के प्रमुख बंदरगाह नगरों एवं अन्य व्यापारिक केन्द्रों के विषय में विस्तृत विवरण पेरीप्लस, प्लिनी तथा टालमी के ग्रंथों में मिलते हैं जिनकी आंशिक पुष्टि भारतीय साक्ष्यों से भी होती हैं। ताम्रलिप्ति पूर्वी भारत का सबसे बड़ा बन्दरगाह था। पश्चिमी तट के बन्दरगाहों में भृगुकच्छ, प्रतिष्ठान, नैर, सौपारा, कल्याण, नीलखण्ड आदि थे जिनमें से भृगुकच्छ पश्चिमी भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बंदरगाह था।
आयात-निर्यात
कुषाण काल में उत्तर-पश्चिम के स्थल मार्ग और पश्चिम के समुद्री मार्गसे विविध प्रकार की सामग्री का आयात-निर्यात होता रहा।(47) कुषाण काल में चीन एंव बैक्ट्रिया के मध्य व्यापार अपने सर्वोच्च-शिखर पर था। चीन से बैक्ट्रिया सिल्क आयत करता था और इसके स्थान पर चीन को घोड़े निर्यात करता था। आयात-निर्यात की वस्तुओं की सम्पूर्ण जानकारी पेरिप्लस एवं प्लिनी के विवरणों से भी मिलती हैं। पेरिप्लस में उल्लेख मिलता है कि भारतीय मिर्च, अदरक और विलासपूर्ण-वस्तुओं का रोम में विशेष आकर्षण था।(11) इसके अतिरिक्त सिल्क, मखमल, सूती वस्त्र, बहुमूल्य पत्थर, मोती और खनिज-पदार्थ, रेशमी वस्त्र नील, हाथीदाँत गोमेद आदि वस्तुएँ देश के प्रत्येक भाग से लाकर बेरिगाजा बन्दरगाह से निर्यात होती थीं।
कुषाण काल में अन्तरदेशीय व्यापार दूर-दूर तक होता था। जैसे तक्षशिला और वाराणसी के बीच,12 विदिशा बारीक हाथी दाँत के उद्योग के लिए प्रसिद्ध था।
विदेशीं से विशेषतः रोम से कृषाण-साम्राज्य के दृढ़ सम्बन्ध थे। कुषाणों के अधिकृत मार्गो से चीनी-बर्तन, चीन के बने रेशमी कपड़े, हाथी-दाँत कीमती रत्न, मसाले तथा सूती कपड़े रोम को जाते थे।(13) रोम से भारत में बड़ी मात्रा में सोना आयात होता था।
सिक्के
तत्कालीन सिक्के भी कृषाण कालीन अर्थ व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। इन सिक्कों का अत्यधिक पाया जाना इस ओर संकेत करता हैं कि कृषाणों का आर्थिक जीवन सुचारू रूप से फल-फूल रहा था। व्यापार-व्यवसाय में सुविधा की दृष्टि से कुषाण शासको ने सोने के अधिकाधिक सिक्के चलवाये। कुषाण ही प्रथम राजवंश थे जिसने शुद्ध स्वर्ण के सिक्के चलवाये जो उनकी आर्थिक स्थिति एवं संपन्नता को द्योतक हैं। इस काल में भी शक, पार्थियन और यूनानी शैलियों का अनुकरण करके मुद्रायें उभार करके बनवाई गई थी। कुषाण युग में व्यापार में विनिमय के माध्यम-रूप में साहित्य में तीन प्रकार के सिक्को का उल्लेख(14) प्राप्त हैं। दीनार, पण, और कार्षापण। कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल-कदफिसस ने केवल तंाबे के सिक्के जारी किये थे।
उद्योग धन्धे
व्यापार और उद्योग परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रकते हैं। कुषाण काल में व्यापारिक उन्नति के साथ-साथ उद्योग के विकास के भी साक्ष्य उपलब्ध है।
दीर्घ निकाय में 24 उद्योंगो तथा मिलिन्दपन्हों में 75 उद्योगो का वर्णन हैं। राजकीय नियन्त्रण से इस समय उद्योग स्वतन्त्र थे। कुषाण काल में ऊनी और सूती वस्त्र उद्योग विकसित अवस्था में था।
दूसरे विकसित उद्योगो में प्रमुख थे, धातु की बनी हुई सामग्रियां तथा बहुमुल्य पत्थरों जैसे पन्ना, नीलम, पोखराज, हीरा, मोती आदि का व्यवसाय कुषाण काल में फल-फूल रहा था।(15)
निष्कर्ष
कुषाण कालीन व्यापारिक लाभ ने जनजीवन को समृद्ध किया जनता की इस समृद्धि से गान्धार कला को बढ़ावा मिला जो कि कुषाण कालीन सामाजिक आर्थिक और धार्मिक भावना को व्यक्त करती हैं।
इस प्रकार इस काल में व्यापारिक गतिविधियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी। कुषाण नवेशों में अपने साम्राज्य का विस्तार करके एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना की तथा मध्य एशिया, पश्चिमी देशों से सम्बन्ध स्थापित किया, अतः द्वितीय शताब्दी ई0 पू0 से लेकर तृतीय शताब्दी ईस्वी तक का समय व्यापार-व्यावसाय की दृष्टि से तो भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है ही साथ ही साथ सामाजिक वा आर्थिक गतिशीलता की दृष्टि से भी इसका विशिष्ट स्थान हैं।
संदर्भ ग्रन्थ
1. दूबे डाॅ राजदेव, स्मृति कालीनः भारतीय समाज एवं संस्कृति
2. वेवर मैक्स, द स्टडी आफ सोशल एंड इक्नामिक आॅर्गेनाइजेशन पृ0 150-54
3. कौसाम्बी, डी0 डी0 द कलचर ऐण्ड, सिविलाइजेशन आॅफ ऐन्शिएण्ट इण्डिया, पृष्ठ 171-72
4. अंगविज्जा पृ0 233-258
5. ललित बिस्तर, पृ0 19-20
6. अवदान शतक, पृष्ठ 6-7, 6-8
7. महावस्तु, पृष्ठ 21, 213
8. महावस्तु, पृष्ठ 3, 113, 442
9. लहरी वी0, इन्डीजनस स्टेट्स आफ नार्दन इण्डिया, पृ0 159
10. प्रसाद पी0 सी0, फाॅरेन ट्रैड एण्ड कामर्स इन एंशियन्ट इण्डिया पृ0 67
11. मजूमदार-आर0सी, क्लेसिक्ल एकाउन्ट्स आफ इण्डिया पृ0 290
12. पुरी, वी0 एन, इंडिया अंडर दि कुषाणज, बम्बई- 1965, पृ0 107
13. मोतीचन्द्र, सार्थवाह पृ0 97
14. पुरी, वी0 एन, इंडिया अंडर दि कृषाणज पृ0 115
15. ललित विस्तर, 493, 18, 19, 21, अवदान शतक पृ0 1, 17