Saturday 2 January 2010

‘‘स्वामी विवेकानन्द का प्रारम्भिक जीवन परिचय’’


प्रेम प्रकाश सिंह 
शोध छात्र, राजनीति विज्ञान,
सतीश चन्द्र काॅलेज, बलिया |


वर्तमान भारत के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सुधारों के अग्रदूतों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान सर्वोपरि है जिन्होंने न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में भारतीय धर्म और अध्यात्म को प्रतिष्ठापित किया। उन्होंने भारत में हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार किया और विदेशों में भारतीय सनातन सत्यों और मूल्यों का प्रचार किया। भारत के अध्यात्म का सन्देश विदेशों में प्रत्येक युग में पहुँचा किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय अध्यात्म के माध्यम से भारत की प्रतिष्ठा को एक ही पल में अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में स्थापित कर दिया। स्वामी जी कहते थे कि ‘‘धर्म, भारत के राष्ट्रीय जीवन के समग्र संगीत का मुख्य स्वर एवं केन्द्र है।’’1 स्वामी जी की आस्था ‘सार्वभौमिक धर्म’ में थी। विभिन्न धर्मों व पद्धत्तियों से उनका कोई विरोध नहीं था। उनके लिए वेदान्त दर्शन अन्तिम एकता की खोज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वे धर्म को सृजनात्मक, निर्माणात्मक मानते थे, विध्वंसात्मक नहीं। वे कहते थे कि ‘‘किसी एक धर्म का पालन करते समय दूसरे धर्मों का विरोध या निन्दा नहीं करनी चाहिए।’’2 स्वामी विवेकानन्द साम्प्रदायिकता और धार्मिक विद्वेष के कट्टर विरोधी थे। स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में, ‘‘सतर्क रहकर चेष्टा करनी होगी कि धर्म से किसी संकीर्ण सम्प्रदाय की सृष्टि न हो पाए। इससे बचने के लिए हम अपने को एक असाम्प्रदायिक सम्प्रदाय बनाना चाहेंगे। सम्प्रदाय से जो लाभ होते हैं वे भी उसमें मिलेंगे और सार्वभौमधर्म का उदारभाव भी होगा।’’3 उन्होंने धार्मिक संकीर्णता के परित्याग का आह्वान किया और उसके लिए सतत् प्रयास भी किया। वे कहते थे कि ‘‘मैं सभी धर्मों की आराधना करूँगा। अपनी माता जी से, शिक्षकों से एवं मित्रों से बचपन में जो कुछ उन्होंने ग्रहण किया, युवावस्था में वही उनमें प्रस्फुटित हुआ।’’4
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कुलीन कायस्थ परिवार में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। उनकी माताजी अन्य धर्म प्राण हिन्दू माताओं की भाँति पुत्र प्राप्ति के लिए कठोर व्रत उपवास किए थे और भगवान शिव की अराधना करती थीं। उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपनी एक रिश्तेदार महिला से बाबा विश्वनाथ की विशेष पूजा-अर्चना कर अपने लिए आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। माता भुवनेश्वरी देवी ने पुत्र प्राप्ति को बाबा विश्वनाथ का प्रसाद माना अतः बालक को ‘‘वीरेश्वर’’ नाम दिया किन्तु परिजनों ने बालक का नाम ‘‘नरेन्द्र’’ रखा और उन्हें ‘‘नरेन्द्र नाथ दत्त’’ नाम दिया गया।।
बालक ‘नरेन्द्र’ का जन्म जिस दत्त वंश में हुआ वह अपनी समृद्धि, विद्वता, सहृदयता और स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए विख्यात था। उनके दादा दुर्गा चरण दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रतिष्ठित एडवोकेट थे। बालक नरेन्द्र की शिक्षा की व्यवस्था घर से प्रारम्भ हुई। बालक नरेन्द्र को सोने से पूर्व एक ज्योति दिखाई देती थी जिसका उल्लेख वे बचपन में अपने मित्रों से किया करते थे। कालान्तर में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से साक्षात् होने पर उन्होंने स्वामी विवेकानन्द से पूछा था- ‘‘नरेन, सोने से पूर्व क्या तुम्हें ज्योति दिखती है?’’ नरेन्द्र के लिए यह प्रश्न विस्मयकारी था। छः वर्ष की आयु में बालक नरेन्द्र को सरकारी स्कूल में अध्ययन हेतु भेजा गया। किन्तु अभिभावकों को स्कूली वातावरण सन्तोष जनक नहीं लगा तो नरेन्द्र का स्कूल जाना बन्द हो गया और घर पर ही एक प्राइवेट शिक्षक से उनकी प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था की गई। बालक नरेन्द्र भगवान शिव के समक्ष बैठकर घण्टों ध्यानमग्न हो पूजा करते थे। बचपन में वे पूछा करते थे कि एक व्यक्ति को दूसरे से ऊँचा क्यों समझा जाय? पिताजी से पूछते कि ‘‘मुझे जगत् में कैसे रहना उचित है?’’ पिता का उत्तर था ‘‘कभी किसी बात पर विस्मित न होना।’’ एक बार माताजी ने कहा ‘‘बेटा, फल की ओर ध्यान दिए बिना तू सदा सत्य का पालन किए जाना। सत्यनिष्ठा के फलस्वरूप सम्भव है तुझे कभी-कभी अन्याय व कटु परिणाम सहन करना पड़े किसी भी परिस्थिति में तू सत्य को न छोड़ना।’’5 स्वामी विवेकानन्द जी कहा करते थे कि ‘‘अपने ज्ञान के विकास के लिए मैं अपनी माताजी का ऋणी हूँ।
1870 ई0 में बालक नरेन्द्र जब सात वर्ष के थे तो उनका एक उच्च विद्यालय में प्रवेश कराया गया। प्रारम्भ में अंग्रेजी के प्रति, झुकाव न होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजी में पारंगत होने का गौरव प्राप्त किया। अपने उम्र के साथियों में वे सबसे अधिक चंचल, साहसी, तेजस्वी और लोकप्रिय थे। अन्ध विश्वास और डराने वाली बातों के प्रति वे अपने मित्रों से सच्चाई की जाँच किए बिना विश्वास न करने की बातें किया करते थे। कालान्तर में अपने भाषणों में स्वामी जी कहते थे कि ‘‘ किसी बात पर केवल इसी कारण विश्वास न कर लो कि वह किसी ग्रन्थ में लिखी है। किसी चीज पर इसलिए विश्वास कर लो कि किसी व्यक्ति ने उससे सत्य कहा है। किसी बात पर केवल इस कारण भी विश्वास न करना कि वे परम्परा से चली आ रही हैं। अपने लिए सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो। उसे तर्क की कसौटी पर कसो। इसी को अनुभूति कहते हैं।’’6
बचपन के इन क्रीड़ा-कौतुकपूर्ण जीवन के साथ-साथ किशोर नरेन्द्र के हृदय में परिव्राजक सन्यासी जीवन के प्रति आकर्षण प्रगाढ़ होता गया। अपनी हथेली की एक रेखा को अपने मित्रों को दिखते हुए वे प्रायः कहा करते थे ‘‘मैं अवश्य ही सन्यासी बनूँगा, एक हस्तरेखाविद ने मेरे बारे में बताया है।’’7
किशोरावस्था में प्रवेश के साथ ही नरेन्द्र के व्यवहार में विशेष परिवर्तन होने लगा। उनका झुकाव बौद्धिक जीवन और अध्यात्म की ओर बढ़ने लगा। वे साहित्य, इतिहास, धर्मग्रन्थ, समाचारपत्र आदि पढ़ने लगे। वे सार्वजनिक सभाओं में जाने लगे। अब वे संगीत प्रेमी बन गए थे क्योंकि संगीत उनके मन को बहलाने का एक साधन था। एक बार परिवार के साथा नरेन्द्र रायपुर (म0प्र0) गए। रास्ते में बैलगाड़ी से यात्रा करनी थी। रास्ते में वृक्ष, लताएँ, रंग बिरंगे फूल, पशु-पक्षी, गगनचुम्बी पर्वत शिखर आदि को देखकर नरेन्द्र मंत्र मुग्ध हो गए। वे ईश्वर की अनन्त शक्ति की कल्पना में डूब गए। रायपुर से कलकत्ता लौटकर नरेन्द्र ने हाईस्कूल की परीक्षा दिया और वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। अब उनकी जिज्ञासा बंगला साहित्य और अंग्रेजी की उच्चकोटि की पुस्तकों को पढ़ने की ओर बलवती हुई। 1879 में उच्च शिक्षा के लिए नरेन्द्र का प्रवेश प्रेसीडेंसी काॅलेज कलकत्ता में कराया गया। अगले वर्ष उनका प्रवेश ‘‘स्काटिश जनरल मिशनरी बोर्ड’’ द्वारा स्थापित ‘‘जनरल एसेम्बलीज इन्स्टीट्यूशन’’ में हुआ जो बाद में ‘स्काटिश चर्च काॅलेज’ के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने पाश्चात्य तर्कशास्त्र, पाश्चात्य दर्शन तथा यूरोप के प्राचीन व अर्वाचीन इतिहास का गहन अध्ययन किया। काॅलेज शिक्षा के दौरान ही युवक नरेन्द्र का स्वामी रामकृष्ण से साक्षात् हुआ। रामकृष्ण परमहंस से भेंट ने नरेन्द्र नाथ का जीवन कालान्तर में परिवर्तित कर दिया। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन के बाद नरेन्द्र में अन्तर्निहित आध्यात्मिक पिपासा जागृत हो उठी और वे प्रभु में लीन रहने लगे। यहाँ तक कि उन्हें बी0ए0 की परीक्षा का भी ध्यान नहीं रहा। सहपाठियों ने उन्हें याद दिलाया तो परीक्षा मे बैठे और उत्तीर्ण हुए। नरेन्द्र की प्रतिभा से प्रभावित होकर काॅलेज के प्राचार्य और अंग्रेजी के प्राध्यापक प्रो0 हेस्टी ने कहा था, ‘‘नरेन्द्र एक वास्तविक प्रतिभाशाली युवक है। मैंने दूर-दूर की यात्रा की है किन्तु ऐसी प्रतिभा एवं सम्भावनाओं वाला युवक कहीं भी नहीं मिला, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालय के दर्शन के छात्रों में भी कोई नहीं मिला। वह जीवन में निश्चय ही कुछ कर दिखाएगा।’’8
युवक नरेन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा संगीत के माध्यम से भी अभिव्यक्त हुई। उन्होंने संगीत विशारदों से वाद्य एवं स्वर संगीत दोनों ही सीखा। वे कई प्रकार के वाद्य में पारंगत थे। गायन में तो उनकी कोई तुलना ही नहीं थी। उन्होंने एक मुसलमान शिक्षक से हिन्दी, उर्दू, फारसी और बंगला शिक्षक से बंगला के भक्तिमूलक सीखा। फलस्वरूप नरेन्द्र इन भाषाओं के भक्तिरस के गाने गा-गाकर उसमें लीन हो जाते थे।
नरेन्द्र के विवाह के लिए परिवार, शुभचिन्तक और मित्रों ने भगीरथ प्रयास किया किन्तु वे विवाह बंधन में बँधना नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि अगर वे इस बँधन में में बँध जाएंगे तो उनका चिर प्रतीक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकेगा। उनके भाग्य में वैवाहिक सुख नहीं बल्कि विश्व विख्यात सन्यासी बनना लिखा था, वही हुआ। इस प्रकार नरेन्द्र ज्ञान, शिक्षा, संगीत, भक्ति आदि को लिए हुए सन्यास की ओर बढ़े।
स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। भारत भ्रमण में उन्हें नवज्ञान और अनुभव का दर्शन हुआ। भारत की विविधता में एकता को देखा। भारत के पुनरुत्थान के लिए नया सोंच दिया। वे भारत के साधु सन्तों की कार्यशैली से क्षुब्ध थे। स्वामी विवेकानन्द ने प्राचीन भारतीय ग्रन्थों दर्शन और जीवनशैली का अध्ययन किया, साथ ही पाश्चात्य दर्शन, इस्लामिक और ईसाई दर्शन को भी जानने-समझने का पूरा प्रयास किया। वे ‘ब्रह्मसमाज’ और उसके संस्थापकों राजाराम मोहन राय, देवेन्द्र नाथ ठाकुर और केशव चन्द्र सेन से भी प्रभावित थे। समी जी पाखण्ड, कर्मकाण्ड आदि के दिखावे और अन्धविश्वास से दुःखी थे और इसका विरोध करते थे।
नरेन्द्र नाथ की पवित्रता में गहरी आस्था थी। उनकी पवित्रता ऐसी आध्यात्मिक शक्ति थी जिसे संचय कर भावी जीवन में उदात्त इच्छाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता था। उन्होंने अपने समक्ष हिन्दू परम्परा के ऐसे ब्रह्मचारी विद्यार्थी का आदर्श रखा था, जो कठोर परिश्रम करता था, संयममय जीवन को महत्त्व देता था, पवित्र चीजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और मनसा-वाचा-कर्मणा शुद्ध जीवन बिताया करता था। वे कहते थे कि हिन्दू शास्त्रग्रन्थों ने ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ गुण माना है; इसी की सहायता से मानव सूक्ष्मतम आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति कर सकता है। नरेन्द्र नाथ की गहन एकाग्रता, तीव्र स्मरण शक्ति, गहन अन्तर्दृष्टि, अदम्य मानसिक क्षमता, ब्रह्मचर्य, शारीरिक बल, अटूट इच्छा शक्ति और अध्यात्म व दर्शन का गहरा अध्ययन आदि ने शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में 11 सितम्बर, 1893 को स्वामी विवेकानन्द ने पल भर में ही भारत को जो प्रतिष्ठा दिलाया वह ऐतिहासिक एवं अतुलनीय है। 4 जुलाई, 1902 को 37 वर्ष की अल्प आयु में भारत का महान सपूत और अध्यात्म का प्रचारक असमय काल के गाल में समा गया अन्यथा आज भारत का अध्यात्म व दर्शन पूरे विश्व में छा गया होता।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. वर्मा, विश्वनाथ प्रसाद: आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचारक
2. फडि़या, बाबूलाल: आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तक, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा, 2006
3. फडि़या, बाबूलाल: आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तक, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा, 2006
4. वर्मा, विश्वनाथ प्रसाद: आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचारक
5. स्वामी निखिलानन्दः विवेकानन्द,एक जीवनी, डिही एण्टली रोड,कलकत्ता, 1996, पृ0-7
6. स्वामी निखिलानन्द: विवेकानन्द, एक जीवनी, अद्वैत आश्रम(प्रकाशन विभाग), पृ0-9
7. स्वामी निखिलानन्द: विवेकानन्द, एक जीवनी, अद्वैत आश्रम(प्रकाशन विभाग), पृ0-10
8. स्वामी निखिलानन्द: विवेकानन्द, एक जीवनी, अद्वैत आश्रम(प्रकाशन विभाग), पृ0-13