Friday 1 July 2011

न्यायिक सक्रियताः-एक समग्र अवलोकन


’कोमल प्रसाद यादव एवं दिलीप कुमार

प्रस्तावना
भारतीय संविधान द्वारा सरकार के तीनों अंगो कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के कार्यो का स्थूल विभाजन किया गया है, और तीनो अंगो से यह अपेक्षा की गई है कि वे एक दूसरे के कार्यो में हस्तक्षेप न करें। परन्तु इसी के साथ संविधान में यह भी व्यवस्था की गई है कि यदि सरकार के तीनों अंगो में से कोई अपने कार्य की परिसीमा का उल्लंघन करता है या अपनी शक्तियों के आधिक्य में कार्य करता है, तो ये सभी अंग एक दूसरे अंग पर नियंत्रण स्थापित करें। कार्यपालिका पर इसी को ध्यान में रखते हुए न्यायिक तथा संसदीय नियंत्रण स्थापित किया गया है। और  विधायिका पर न्यायपालिका द्वारा तथा न्यायपालिका पर विधायिका द्वारा नियंत्रण स्थापित किया जाता है। जब विधायिका द्वारा अपनी शक्ति के अधिक्य में किसी विधेयक को पारित किया जाता है। तब न्यायपालिका उसका पुनर्विलोकन करके यह अवधारित करती है कि विधायिका द्वारा पारित विधेयक संविधान के प्रावधानों के अधीन है या नही, और यदि विधेयक या उसका कोई प्रावधान संविधान के प्रावधानों के अनुसार नही है, तो न्यायपालिका उस विधेयक या उसके भाग को जो संविधान के अनुसार नही है, को अधिकारातीत घोषित कर सकती है। इसी तरह यदि कार्यपालिका अपने कार्य को करने में उपेक्षा करती है या अपनी शक्तियों का सीमा से अधिक प्रयोग करती है तो न्यायपालिका तथा विधायिका उस नियंत्रण लगा सकती है। जब न्यायपालिका अपनी सीमा के आधिक्य में कार्य करती है तो विधायिका कानून पारित करके न्यायपालिका के कार्य की सीमा नियत करती है। इस सीमाओं तथा परिसीमाओं के होते हुए भी भारत में न्यायपालिका तथा विधायिका के बीच टकराव हो जाता है और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत का संविधान कल्याणकारी राज्य की स्थापना करता है और संविधान को क्रियांवित कराने तथा अन्तिम रूप से संविधान का निर्वचन करने की शक्ति न्यायपालिका में निहित है। इस शक्ति का प्रयोग जब उच्चतम न्यायालय कठोरता से करता है तब न्यायालय की आलोचना होने लगती है। और यह कहा जाने लगता है कि न्यायालय अधिक सक्रिय हो गया है।
उच्चतम न्यायालय ने अपने समक्ष लाये गये कई महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय देने में कार्यपालिका की ओर से किये जा रहे विलम्बों का भी उल्लेख किया है। न्यायालय की इस कार्यवाही को सरकार की ओर से अपने कार्यो में हस्तक्षेप माना जा रहा है, जबकि न्यायिक क्षेत्र में न्यायालय के इस कार्य को न्यायिक सक्रियता माना जा रहा है।
न्यायिक सक्रियता का अर्थ
न्यायिक सक्रियता को कहीं भी परिभाषित नही किया गया है, न ही न्यायिक सक्रियता के क्रमिक प्रक्रम का संविधान में वर्णन किया गया है। न्यायिक सक्रियता को ब्लैक,स.ला. डिक्शनरी1 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार ‘‘न्यायिक सक्रियता एक न्यायिक दर्शन है जो न्यायधीशो को प्रगतिशील एवं नवीन नीतियों जो अपीलीय न्यायधीशों से अपेक्षित मर्यादा से हमेशा से संगत नही है, के पक्ष में न्यायिक पूर्व निर्णय कठोर अनुपालन से विचलित हो, को अभिपे्ररित करती है। सामान्यतः यह सामाजिक अभियंत्रण की अपेक्षा वाले निर्णयों में स्पष्ट होती है और यदा-कदा ये निर्णय विधायी एवं कार्यपालिक विषयों में घुसपैठ या बलात् पैठ प्रवेश का प्रतिनिधित्व करते है।’’
इस शब्द का प्रयोग वर्तमान समय में इस कारण किया जाना प्रारम्भ हुआ है कि न्यायालय अपने समक्ष लाये गये विवादों का अत्यधिक प्रभावी ढंग से निस्तारण कर रहा है और इस कार्य में कार्यपालिका को निर्देश भी कर रहा है। इस प्रकार ‘‘न्यायिक साक्रियता’’ पदावली का सामान्य अर्थ यह है कि न्यायालय अपने समक्ष दाखिल किये गये मुकदमों में शीघ्रता से कार्यवाही करने के साथ ही कार्य पालिका को मुकदमें से सम्बन्धित कागजातों को पेश करने तथा आवश्यक कार्यवाही करने का निर्देश दे इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि न्यायिक सक्रियता न्यायिक पुनर्विलोकन का ही विस्तारित रूप है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री पी0 एन0 भगवती ने न्यायिक सक्रियता पर अपना अभिमत व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘‘जिन व्यवस्थाओं में न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार है उसमें न्यायिक सक्रियता होगी ही लेकिन अन्तर यह है कि न्यायिक सक्रियता कहीं तकनीकी स्तर की होती है, और कहीं सामाजिक सक्रियता के रूप में। माननीय न्यायमूर्ति के अनुसार परिवर्तन के वर्तमान दौर में न्यायिक सक्रियता का समाजिक सक्रियता में रूपान्तरित होना स्वाभाविक है।’’
न्यायमूर्ति श्री वी0 आर0 कृष्ण अय्यर के अनुसार न्यायालय उसे उन्हे पूरा करने का निर्देश देता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जब कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में असफल रहती है और न्यायालय उसे कर्तव्यों को निर्वहन करने का निर्देश देता है, तब इसे न्यायालय की सक्रियता कहा जाता है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायमूर्ति श्री ए0एम0 अहमदी तथा उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश कुलदीप सिंह के अनुसार न्यायिक सक्रियता जैसे शब्द को मान्यता नही दी जा सकती है, और यह भ्रामक शब्द है। न्यायमूर्ति अहमदी के अनुसार न्यायिक सक्रियता शब्द का सृजन प्रेस द्वारा किया गया है और यह भ्रामक शब्द है। इनके अनुसार न्यायालय किसी विवाद पर निर्णय लेने के पूर्व साक्ष्य की माँग करता है और जब न्यायालय सरकार से संबन्धित विवाद पर सरकार से साक्ष्य या विवाद से संबन्धित जानकारी की माँग करता है, तब न्यायालय की इस कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता का नाम दे दिया गया है।
न्यायिक सक्रियता के रूप
न्यायधाीशों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर न्यायिक सक्रियता को दो वर्गो में विभक्त किया गया है। प्रथम रूढि़वादी या अनुदारवादी न्यायिक सक्रियता और द्वितीय उदारवादी न्यायिक सक्रियता।

1) अनुदारवादी न्यायिक सक्रियता
अनुदारवादी न्यायिक सक्रियतावादी न्यायालय की शक्तियों को संसद या विधायिका द्वारा पारित उदार नीतियों को अवैध घोषित कर देते है। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने बंगाल लैण्ड डेवलपमेंट एण्ड प्लानिंग एक्ट 1948 को उचित एंव समतुल्य प्रतिकर प्रदान न करने के कारण पं0 बंगाल राज्य बनाम श्रीमती बेला बनर्जी2 के मामले में अवैध घोषित कर दिया। इस निर्णय के फलस्वरूप संविधान का चतुर्थ संशोधन अधिनियम पारित कर प्रतिकर की पर्याप्तता को अन्यान्य बनाया गया। परन्तु पुनः पी0 ब्रजवेलू बनाम स्पेशल डिप्टी कलेक्टर3 के मामले में बाजार के मूल्य के अनुसार प्रतिकर निर्धारण की अपेक्षा जारी रखी गयी। आर0 सी0 कपूर बनाम भारत संघ4 के मामले में भी उचित सिंद्धान्तों के आधार पर प्रतिकर न निर्धारित किये जाने के कारण बैंकों में राष्ट्रीय करण संबन्धी विधि को अवैध माना गया। अन्ततोगत्वा संविधान में 25 वे संशोधन अधिनियम 1971 द्वारा अनु॰ 31 (2) के अन्तर्गत प्रयुक्त ‘प्रतिकर’ शब्द की जगह ‘‘राशि’’ रखा गया। इस तरह उच्चतम न्यायालय ने अनुदार सक्रियता वाद का सहारा लेकर यथा स्थितिवाद को कायम रखने की भूमिका निभाया। इस प्रकार न्यायिक सक्रियता का नकारात्मक रूप सम्पत्ति अभिमुख्य और यथास्थिति वादी रहा है, जिसके द्वारा सरकार का प्रगतिशील नीतियों को अप्रभावकारी बनाया गया है।
2 उदारवादी न्यायिक सक्रियता
उदारवादी न्यायिक सक्रियता का स्वरूप सकारात्मक रहा है। न्यायिक सक्रियता का उदारवादी स्वरूप गैर आर्थिक अधिकार उन्मुख रहा है। जिसे सकारात्मक सक्रियतावाद का नाम दिया जा सकता है। सकारात्मक सक्रियतावाद वितरणात्मक न्याय और मानवाधिकारों को लागू करने के लिए अपनाया गया है। वितरणात्मक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय ने तकीकतन विधि सृजन किया है। मुख्य न्यायाधिपति वारेन ने साकारात्मक सक्रियता वाद के औचित्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘‘न्यायालय जान-बूझकर विधि निर्माण नही करता है। यह कांगे्रस की भूमिका को हथियाने के उद्धेश्य से नही करता है बल्कि हमारे कार्यो की प्रकृति के कारण हमें ऐसा करना पड़ता है। जब दो वादकारी न्यायालय में आते है, एक यह कहता है कि कांग्रेस के अधिनियम का आशय यह है, दूसरा कहता है कि कांग्रेस के अधिनियम का आशय कतिपय या तो दोनो में से एक या दोनों के बीच का है। हम कानून का निर्माण करते है, क्या हम ऐसा नही करते?
भारत में वरिष्ठ न्यायालयों ने संविधि में अन्तराल की पूर्ति हेतु न्यायिक सक्रिता का प्रयोग किया है।
न्यायिक सक्रियता का विकास
न्यायिक सक्रियता का विकास अचानक नही हुआ है, बल्कि इसका विकास होने में कई वर्ष व्यतीत हुए है। न्यायालय ने जब अपनी भूमिका से बढ़कर कार्य किया है, तब न्यायिक सक्रियता का विकास हुआ है। न्यायिक सक्रियता की संकल्पना का त्वरित गति से विकास उच्चतम न्यायालय द्वारा मेनका गाॅधी बनाम भारत संघ5 के मामले में दिये गये निर्णय के उपरान्त हुआ न्यायालय की भूमिका पर अपना विचार व्यक्त करते हुए संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डाॅ0 भीम राव अम्बेडकर द्वारा संविधान निर्मात्री सभा में यह मत व्यक्त किया गया था कि न्यायालय को केवल नागरिकों के बीच विवादों पर निर्णय देना चाहिए। न्यायालय कई वर्षो तक इसी अनुक्रम में कार्य करता रहा लेकिन आर्थिक तथा सामाजिक सुधारों से सम्बन्धित मामलोें का निस्तारण करने लगा जिस कारण न्यायालय की भूमिका में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ और यह कहा जाने लगा कि न्यायालय सक्रियता से अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगा है। न्यायालय ने अपनी सक्रियता के कारण ही केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य6 के मामले में संसद को यह निर्देश दिया था कि वह संविधान में संशोंधन करते समय संविधान के मूल ढाॅचें में परिवर्तन नही कर सकती है।
न्यायालय की सक्रियता का सोपान जनहित वाद रहा है भारतीय संविधान के प्रवर्तन के बाद ही प्रशासन तन्त्र अर्थात् कार्यपालिका ने स्वच्छदता का मार्ग अंगीकार कर लिया था और सत्तारूढ़ राजनीतिको ने अपने अधिकारों का दुरूपयोग किये और उनके द्वारा ऐसे कानून निर्मित किये गये जिसमें राजनीतिकों तथा प्रशासकों को मनमाना पूर्ण कार्य करने के लिए छूट मिल गयी। इन कानूनो के अधीन राजनीतिकों तथा प्रशासको द्वारा मानमोन ढंग से की गई कार्यवाई के विरूद्ध न्यायालय में याचिकायें दाखिल की गई जिन्हे जनहित याचिका के रूप में स्वीकार किया गया।
संविधान के अनु0 32 के अधीन जनहित याचिकाओं पर सर्वप्रथम 1979 में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति विष्णु चन्द्रचूड़ ने की थी लेकिन इसके बाद पश्चातवर्ती मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति पी0 एन0 भगवती ने जनहित मामलों को एक दिशा प्रदान की और न्यायधीश को भेजे गये पत्रों को भी जनहित याचिका के रूप में स्वीकार करना प्रारम्भ किया सन् 1979 में इस मुकदमें के साथ ही देश में जनहित वाद का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ और न्यायालयों ने उन मामलो की प्रगति पर भी ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया है जो कार्यपालिका के कार्यों से संबंधित है, और सामान्य जनता से संबन्धित है। उच्चतम न्ययालय ने दो वर्षो के दौरान राजनीतिक और सामाजिक महत्व के कई ऐसे निर्णय दिये है जिससे न्यायालय के प्रति यह धारणा समाप्त हो गयी है कि वह कभी कानूनी तथा तकनीकी शब्दों की व्याख्या करने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नही कर सकता। उच्चतम न्यायलय तथा कई उच्च न्यायालयों ने राजनीतिकों, पुलिस अधिकारियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के विरूद्ध नोटिस जारी किया और उन्हे फटकार लगाकर उनके विरूद्व निर्णय दिया।
मेनका गाॅधी के निर्णय7 के बाद न्यायिक सक्रियता की संकल्पना त्वरित गति से विकसित हुई। भारत संघ बनाम साकलचन्द सेढ8 के मामले में ही न्यायमूर्ति फजल अली और न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने स्पष्ट किया था कि संविधानिक संहिता को समझते समय और उसका निर्वचन करते समय गत समय की जड़े, विद्यमान समय की पत्तियां और भविष्य के बीज सक्रियतावादी न्यायधीश के निगाह में होने चाहिए। मेनका गाॅधी के निर्णय के बाद उच्चतम न्यायालय ने दैहिक स्वतन्त्रता का विस्तार सक्रियतावादी दृष्टिकोण अपनाकर किया है। अस्तु दी पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिवर्टीज बनाम भारत संघ9 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दूरभाष से संबन्धित एकान्तता के मानवाधिकार को स्वीकार किया है। इसका आधार मानवाधिकारों के सार्व भौमिक घोषणा के अनु॰ 12 और नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनु0 17 को माना गया। संविधान के अनु0 21 के सक्रियतावादी निर्वाचन को अंगीकृत करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इस वाद में यह मत व्यक्त किया कि ऐसी अन्तराष्ट्रीय प्रसंविदाएं अथवा अभिसमय जो भारतीय संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकारों की व्याख्या करते है या प्रभावकारी बनातें है उन्हें मूलाधिकारों की लघु मुखाकृति मानकर प्रभावी माना जा सकता है।
इसी प्रकार ऐपेरल एक्सपोर्ट प्रमोशन कांउसिल बनाम ए0 के0 चोपड़ा10 के मामले में सक्रियतावादी रूप अपनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने काम-काजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के सन्दर्भ में महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के विभेदीकरण उन्मूलन अभिसमय 1979 तथा वीजिंग घोषणा के मानकों को लागू किया।
इसी प्रकार गीता हरिहरन बनाम रिजर्व बैंक आफ इन्डिया11 के मामलें में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि देश की नागरिक विधि का अर्थान्वयन करते समय न्यायालयों का दायित्व है कि वे अन्तर्राष्ट्रीय मामलों का सम्यक सम्मान करें।
न्यायिक सक्रियता का एक रूप यह भी है कि न्यायालय विधायिका को विधि निर्माण हेतु अभिप्रेरित करे। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य12  के मामले में तीन सदस्यीय पीठ का सर्वसम्मत निर्णय सुनाते हुए मुख्य न्यायधीश जे0 एस0 वर्मा ने कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने तथा यौन क्षमता को सुनिश्चित करने के लिये विधि की कमी महसूस करते हुए विस्तृत निर्देश के रूप में विधान प्रस्तुत किया जो तब तक लागू रहेगा जब तक विधानमण्डल समुचित विधि का निर्माण नही कर देता इस तरह उच्चतम न्यायालय ने विधायिका का कार्य अपने हाथों में ले लिया।
इसी तरह डी0 के लघु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य13 के मामले में द्रिसदस्यीय पीठ का निर्णय सुनाते हुए न्यायधीश डाॅ0 ए0 एस0 आनन्द ने पुलिस अभिरक्षा में हुई मृत्यु पर नाराजगी व्यक्त करते हुए गिरफ्तारी के मामले में जब तक विधिक उपबन्ध नही बना दिये जाते है तब तक के लिए 11 विधायी प्रकृति के निर्देश जारी कियें
उच्चतम न्यायालय का सक्रियतावादी दृष्टिकोण दैहिक स्वतन्त्रता के क्षेत्र विस्तार्य के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण निवारण संबन्धी विधियों के क्षेत्र में एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ14 के मामले में ‘‘पूर्णदायित्व का सिद्धान्त’’ एम0सी0 मेहता बनाम भारत संघ15 के मामले में ‘‘प्रदूषक भुगतान करे’’ एवं एम0सी0 मेहता बनाम भारत संघ16 के मामले में ‘‘पूर्ण सावधानी का सिद्धान्त’’ का सूत्रपात किया है।
न्यायिक सक्रियता की ग्राहयता के कारण
न्यायिक सक्रियता की ग्राहयता के दो प्रमुख कारण है (1) दैहिक स्वतन्त्रता के क्षेत्र का विस्तार राज्य के नीति निदेशक तत्वों को उदार व्याख्या कर प्रर्वतनीयता के माध्यम से तथा (2) न्यायिक सक्रियता न्यायिक जागृति पर आधारित होने के कारण सहज रूप मंे ग्राहय बन गई।
न्यायिक सक्रियता के ग्राहयता के आयाम को स्पष्ट करते हुए धन्नालाल बनाम कलावती बाई17 के मामले में न्यायधीश आर0सी0 लाहौटी ने स्पष्ट किया कि न्यायिक पूर्वोक्ति के अभाव में न्यायालय को सशक्त तर्क, तार्किक स्रोत, सामान्य प्रज्ञा तथा लोक कल्याण के लिये कार्य करने की प्रबल धारणा पर आधारित होना चाहिए। न्यायिक सक्रियता जब उपरोक्त सीमाओं का अतिक्रमण करने लगती है तो यह न्यायिक अति सक्रियता का रूख अख्तियार कर लेती है तो न्यायालय के निर्णय के समादर और ग्राहयता की रेखा क्षीण होने लगती है।  जैसे पर्यावरण के संरक्षण के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय द्वारा इतने निर्देश जारी किये गये कि निर्देशो के अम्बार का पालन उनके अनुपालन में ही संभव है। उदाहरण स्वरूप बेल्लोर सिटिजन्स वेलफेयर फोरम बनाम भारत संघ18 के मामले में तमिलनाडु चर्मशोधन शालाओं से उत्पन्न पर्यावरण समस्या के सन्दर्भ में केन्द्र सरकार पुलिस अधीक्षक तथा जिलाधिकारियों आदि को निर्देश
निष्कर्ष
न्यायालय ने उपरोक्त मामलों में जिस सक्रियता से कार्यवाही किया है उससे न्यायालय की इस सक्रियता के औचित्य पर विवाद छिड़ा हुआ है। न्यायिक सक्रियता के पक्षधर लोगों का कहना है कि न्यायालय ने अपनी भूमिका का सही निर्वहन करना प्रारम्भ कर दिया है, जबकि विरोधियों का यह कहना है कि न्यायपालिका कार्यपालिका तथ्य विधायिका के कार्यो में हस्तक्षेप कर रही हैं यहाॅ यह उल्लेखनीय है कि कार्यपालिका या विधायिका का कोई भी कार्य न्यायपालिका की अधिकारिता से बाहर नही है और चूंकि कार्यपालिका और विधायिका अपने-अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वहन करने में अक्षम रही है, इसलिए न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि वह उनके अवैध क्रिया कलापों को नियंत्रित करे। भारतीय संविधान में न्यायपालिका का गठन इसलिए किया गया है कि यदि कार्यपालिका या विधायिका अधिकारातीत या अक्षम होने का परिचय दे, तो न्यायालय उनके अधिकारातीत होने को नियंत्रित करे तथा अक्षमता को दूर करे। न्यायालय की सक्रियता से कई घोटाले तथा भ्रस्टाचार के मामले प्रकाश में आये है, जिस कारण सामान्य जन की न्यायलय के प्रति विश्वास में वृद्धि हुई है और यह देश के लिए ही नही बल्कि लोकतन्त्र के लिए भी शुभ संकेत है। न्यायालय की संक्रियता ने राज्य की शेष संस्थाओं को न केवल अपने कर्तव्यों के निवर्हन के निर्देश दिये है बल्कि भ्रस्टाचारियों तथा कानून का सक्रियता से उल्लंघन करने वालों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। न्यायालय की यह सक्रियता वास्तव में प्रशंसनीय है और इससें यह प्रत्याशा उत्पन्न हुई है कि यदि न्यायालय इसी तरह सक्रिय रहा तो कुछ हद तक कार्यपालिका तथ्य इसके अभिकरण अपने कर्तव्यों का निवर्हन करने के लिए बाध्य होंगे और विधि के शासन की स्थापना में महत्वपूर्ण प्रगति होगी।
                      कोमल प्रसाद यादव
                         दिलीप कुमार
                         विधि प्रवक्ता
                ने॰ग्रा॰भा॰ वि॰वि॰ इला॰ उ॰प्र॰

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. ब्लैक,स् ला डिक्शनरी (1979) पृष्ठ-760
2. ए॰आई॰आर॰, 1954 सु॰को॰, 1701
3. ए॰आई॰आर॰, 1965 सु॰को॰, 1017
4. ए॰आई॰आर॰, 1970 सु॰को॰, 564
5. ए॰आई॰आर॰, 1978 सु॰को॰, 597
6. ए॰आई॰आर॰, 1973 सु॰को॰, 1641
7. ए॰आई॰आर॰, 1978 सु॰को॰, 597
8. ए॰आई॰आर॰, 1977 सु॰को॰,
9. (1997) 1 एस॰सी॰सी॰ 301
10. (1999) 1 एस॰सी॰सी॰ 759
11. (1999) 2 एस॰सी॰सी॰ 228
12. (1997) 1 एस॰सी॰सी॰ 3011
13. (1997) 1 एस॰सी॰सी॰ 416
14. ए॰आई॰आर॰, 1987 सु॰को॰, 965
15. ए॰आई॰आर॰, 1988 सु॰को॰, 1037
16. (1997) 2 एस॰सी॰सी॰ 535
17. (2002) 6 एस॰सी॰सी॰ 16
18. ए॰आई॰आर॰, 1996 सु॰को॰, 2715