Saturday 2 July 2011

‘‘पात×जल-योग-परम्परा में चित्त का स्वरूप’’


डाॅ. अनीता स्वामी
सहायक आचार्या,
इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110054

।ठैज्त्।ब्ज्
पत×जलि के अनुसार ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध्ः’ अर्थात् ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध्’ का नाम ही योग है। अतएव चित्त के पूर्ण ज्ञान एवं विश्लेषण से ही योग-प्राप्ति सम्भव है। वस्तुतः ज्ञान, इच्छा और संकल्प के समुच्चय का नाम चित्त है। प्रकृति में सत्त्व, रजस् तथा तमस् त्रिगुण विद्यमान रहते हैं। प्रकृति का प्रथम कार्य चित्त सत्त्वगुणप्रधन है। प्रवृफति के इस प्रथम विकार चित्त का क्या स्वरुप है? चित्त का परिमाण क्या है-अणु, मध्यम अथवा विभु? चित्त का व्यापार कैसे होता है? एक व्यक्ति में एक चित्त होता है अथवा अनेक चित्त? चित्त स्वतंत्रा है अथवा परतंत्रा? ऐसे अनेक प्रश्न मानव मन को उद्वेलित करते हंै। अतः इन सभी प्रश्नों का समाधन आवश्यक है।
प्रस्तुत शोध पत्र के द्वारा इन सभी प्रश्नों का समाधन करने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत शोध पत्र के अन्तर्गत बौद्वों के चित्त सम्बन्ध्ी सि(ान्त का खण्डन करते हुए योगाचार्यों के चित्त सम्बन्ध्ी मत की स्थापना को प्रस्तुत किया गया है जिससे चित्त के विषय में प्रचलित मत वैभिन्न्य का निराकरण किया जा सके।
   
प्रवृति के प्रथम विकार चित्त का क्या स्वरुप है? चित्त का परिमाण क्या है-अणु, मध्यम अथवा विभु? चित्त का व्यापार कैसे होता है? एक व्यक्ति में एक चित्त होता है अथवा अनेक चित्त? ऐसे अनेक प्रश्न मानव मन को उद्वेलित करते हंै। अतः इन सभी प्रश्नों का समाधन आवश्यक है। भारतीय-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखने पर चित्तस्वरुप के विषय में मत-वैभिन्न्य प्राप्त होता है। चित्त का स्वरूप न्याय-वैशेषिक सम्मत अणु-परिमाण वाला है अथवा सांख्यसम्मत मध्यम-परिमाण वाला है, अथवा इन दोनों से अतिरिक्त मीमांसकसम्मत विभु-परिमाण वाला है-इस शंका के समाधनार्थ वाचस्पति मिश्र द्वारा तत्त्ववैशारदी में चित्तपरिमाण के विषय में अन्य दार्शनिक सम्मत विप्रतिपत्तियों का निराकरण प्रस्तुत किया गया है। चित्त के ‘विभुपरिमाण’1 का खण्डन करते हुए कहा गया है कि देह-प्रदेश में ही चित्त के सभी कार्य देखे जाने से देह से बाहर चित्त के सद्भाव में कोई प्रमाण नहीं है।2 इसी प्रकार चित्त के ‘अणुपरिमाण’ का खण्डन करते हुए कहा गया है कि चित्त ‘अणुपरिमाण’ वाला भी नहीं है, अन्यथा दीर्घशष्कुली ;मालपूएद्ध को खाते समय युगपत् रूपादि पाँचो ज्ञान नहीं हो सकेंगे। और न ही युगपत् होने वाले ज्ञानों में अनुभूत नहीं होने वाले क्रम की कल्पना करने मंे कोई प्रमाण है। और न ही एक अणु मन का नाना देशवर्ती अनेक इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध हो सकता है।3 चित्त के मध्यम-परिमाण का समर्थन करते हुए कहा गया है कि अन्ततोगत्वा यह स्वीकार किया जाता है कि चित्त शरीर के परिमाण के बराबर ‘मध्यमपरिमाण’ वाला है। और चित्त घटप्रासादवर्ती प्रदीप की तरह संकोचविकासशील है। अतः ‘मध्यमपरिमाण’ वाला चित्त कमशः पुत्तिका ;मध्ुामक्खी और हस्तिशरीर ;हाथी के शरीरद्ध का आश्रय पाकर संकुचित और विकसित होता है।4 अतः चित्त का आकार अर्थात् परिमाण शरीरपरिमाण के ही बराबर है, ऐसा सांख्याचार्य मानते हैं। भाष्यकार के अनुसार घट अथवा राजप्रसाद में रखते हुए दीपक की भाँति संकोचविकासशील चित्त शरीर के परिमाण के आकार वाला है। और ऐसा मानने पर ही चित्त का आतिवाहिक भाव और देहान्तरसंसरण उपपÂ होता है।5 भाष्यकार के अनुसार आचार्य पत×जलि का यह आशय है कि चित्त तो विभु है, किन्तु सांख्यदर्शन में जो संकोच विकासशीलता बतलायी गयी है, वह चित्त की वृत्ति का स्वभाव है चित्त का नहीं।6 चित्त को आचार्य पत×जलि के मत में, जो विभु कहा गया है, उससे यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि एक ही चित्त सर्वत्रा विद्यमान है, क्योंकि आचार्य हरिहरानन्द आरण्य ने इस विभुत्व से सूत्राकार और भाष्यकार का क्या तात्पर्य है, को इस प्रकार स्वीकार किया है कि चित्त आकाशादि की भाँति सर्वत्रा विद्यमान नहीं है, अपितु सक्रिय, अमूर्त, हस्तादि से अपरिमेय, दीर्घ ”स्वादि आकारों से मुक्त तथा ब्रह्माण्डस्थ समस्त पदार्थों से अबाध् रूप से सम्ब( है। इसी कारण उसे विभु कहा जाता है अनन्त आकाश की तरह सर्वत्रा व्यापक होने से नहीं।7 ऐसा विचार करने से भी चित्त का यही स्वरुप निर्धरित होता है। सांख्य-योग मत में चित्त त्रिगुणात्मक-प्रकृति का सबसे प्रथम विकार है। इसी बात को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जड़-तत्त्व कुल चैबीस हैं। उनमें से प्रकृति अव्यक्त तथा गुणों की साम्यावस्था मात्रा होने के नाते पुरुष के प्रयोजन की पूर्ति करने में शून्य है। शेष जो तेईस व्यक्त-तत्त्व हंै, उनमें से चित्त के सूक्ष्मतम होने के नाते अन्य कोई तत्त्व उसका बाध् नहीं कर सकता। अतः चित्त ब्रह्माण्ड व स्थूल समस्त पदार्थों को अबाध् रूप से जानने के लिये समर्थ साध्न है। इतना मात्रा ही चित्त के विभुत्व का तात्पर्य है। आकाशादि की भाँति सर्वव्यापक मानने पर चित्त को एक ही मानना पड़ेगा। एक मानने पर असंख्य व्यक्तियों के शरीरों से उसका सम्बन्ध् स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में एक व्यक्ति के चित्त में सात्त्विक-कर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य और ध्र्म के उदय होने से सभी प्राणी ज्ञानी, वैराग्यवान् और ध्र्मात्मा हो जाएँगे, तथा एक व्यक्ति के चित्त में चित्त के तामसिक ध्र्म अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य और अध्र्म के उदय से सभी अन्य प्राणी भी अज्ञानी, अविरक्त, अनीश्वर तथा अध्र्मी हो जाने चाहिए, साथ ही प्रति शरीर द्वारा किए हुए पाप-पुण्य की व्यवस्था भी न हो सकेगी तथा एक व्यक्ति के सुखी या दुःखी होने से अन्य सब व्यक्तियों को भी सुखी या दुःखी हो जाना चाहिए किन्तु प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रति प्राणी के सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य, ध्र्म-अध्र्म आदि की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होने से चित्त को एक स्वीकार नहीं किया जा सकता।
श्रीबालरामोदासीन ने अपने ‘पात×जलदर्शनप्रकाश’ में भाष्यानुसारी वाचस्पतिमिश्र के ‘विभुत्वं मनसः’ द्वारा प्रतिपादित मन के विभुत्व पक्ष पर असहमति व्यक्त करते हुए सांख्य-योग में चित्त के ‘मध्यमपरिमाण’ का मतैक्य व्यक्त किया है। प्रो. विमला कर्णाटक द्वारा अपनी बालप्रिया टीका में बालरामोदासीन के कथन का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
‘मन के विभुत्व’ की अवधरणा तो प्रवादमात्रा है, वास्तविक नहीं। स्वयं पत×जलि को भी मन का विभुत्व मान्य न होगा, क्योंकि सांख्य-योग समानतन्त्रा है। योग के अनुसार मन के विभुत्व का प्रतिपादन तो भाष्यकार की बु(ि की उपजमात्रा है। क्योंकि सांख्ययोगमत में प्रकृति को छोड़कर कार्यरूप महदादि सभी पदार्थ परिच्छिÂ हैं। कोई भी विभु ;व्यापकद्ध तत्त्व क्रियामत् अथवा उत्पत्तिमत् नहीं हो सकता है। इसीलिये न व्यापकत्वं मनसः करणत्वादिन्द्रियत्वाद्वा’, ‘सक्रियत्वाद् गतिश्रुतेः’- इन दो सांख्यसूत्रों के द्वारा मन के विभुत्व का निराकरण किया गया है तथा ‘न निर्भागत्व तद्योगाद् घटवत्’- इस सांख्यसूत्रा के द्वारा महर्षि कपिल ने अक्षपादसम्मत मन के अणुत्ववाद का खण्डन करते हुए मन के ‘मध्यमपरिमाण’ को सि(ान्तित किया है। सांख्य-योग के समानतन्त्रा होने से योग को भी मन का ‘मध्यमपरिमाण’ स्वीकृत है, ऐसा मानना औचित्यपूर्ण है।8 क्योंकि योग-दर्शन प्रकृति और पुरुष को मूलभूत सत्ता के रूप में स्वीकार करता है अतएव ये दोनों ही विभु तत्त्व हैं। चित्त का विभुत्व सम्भव नहीं है क्योंकि कोई भी परिणमित वस्तु विभु नहीं हो सकती। इस प्रकार मन का ‘मध्यमपरिमाण’ सि( हो जाने पर मन में क्रियावत्त्वादि ध्र्मों की भी सहज सघõति हो जाती है।
निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि सांख्ययोग के अनुसार चित्त का ‘मध्यमपरिमाण’ मानने में किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं है। अतएव भाष्यकार ने चित्त के ‘मध्यमपरिमाण’ का खण्डन करने के लिये किसी भी तर्क को उपन्यस्त नहीं किया है। इस प्रकार बालरामोदासीन ने स्वचिन्तन को - ‘अत एव चा{स्वरबोध्कमाचार्यपदोपादानमित्यलं बहुना’ - इत्याकारक उपसंहारात्मक वाक्य द्वारा प्रदर्शित किया है।9
सूत्राकार व भाष्यकार भी चित्त को संख्या में बहुत तथा प्रति शरीर नियत मानते हैं। इन्होंने बन्ध्न के कारणों को शिथिल करने और प्रचार के संवेदन को जानने से संयमसि(ियुक्त योगी के स्वचित्त का परशरीर में प्रवेश करना लिखा है।10 यदि सूत्राकार एक ही चित्त को सर्वत्रा विद्यमान तथा सब शरीरों से सम्ब( मानते तो ऐसा नहीं लिखते। क्योंकि उस स्थिति में योगी का चित्त व्यापक होने से सर्वकाल में ही परशरीर में प्रविष्ट होता। ऐसी अवस्था में संयम प्रयोग का वर्णन व्यर्थ हो जाता है। भाष्यकार के द्वारा प्रयुक्त शब्दों से स्पष्ट है कि चित्त प्रति शरीर नियत है, क्योंकि स्वचित्त को स्वशरीर से निकालना तभी हो सकता है, जबकि चित्त शरीर के अन्दर ही सीमित परिमाण वाला हो। सर्वत्रा व्यापक आकाश को कोई योगी अपने शरीर से बाहर नहीं निकाल सकता, तथा आकाश के समान प्रथम ही सर्वगत होने से उसे अन्यों के शरीर में प्रवेश कराने का भी विकल्प नहीं उठता। ये समस्त ध्र्म किसी नियत परिमाण वाली वस्तु के ही होते हैं, सर्वत्रा विद्यमान वस्तु के नहीं। भोज ने इन्द्रियों के मार्ग से चित्त का विषयों की ओर प्रसार करना तथा रसवहा और प्राणवहा नाडि़यों का होना भी लिखा है।11 भाष्यकार एवं वाचस्पतिमिश्र के अनुसार योगी को चित्त के आवागमन के नाडी-मार्ग का परिज्ञान होना भी आवश्यक है। इस प्रकार चित्त का अनुसरण करने वाली इन्द्रियाँ भी दूसरे के शरीर में तत्तत् निर्दिष्ट स्थानों में प्रविष्ट हो जाती हैं।12 प्रसार और वहनादि ध्र्म किसी परिच्छिन्न परिमाण युक्त वस्तु के होते हैं, सर्वत्रा विद्यमान वस्तु के नहीं।
सांख्ययोगसि(ान्त के अनुसार चित्त स्वतन्त्रा है और प्रत्येक पुरुष के लिये पृथक्-पृथक् है।13 चित्त को वस्तु का ज्ञान करने के लिये आवश्यक है कि वह वस्तु से उपर×िजत हो जाये। अर्थात् जब चित्त वस्तु से उपरक्त हो जाता है, तब वह वस्तु ज्ञात हो जाती है और जब तक चित्त वस्तु से उपरक्त नहीं होता, तब तक वस्तु चित्त को अज्ञात रहती है। भाष्यकार के अनुसार वस्तु के स्वरुप के ज्ञात और अज्ञात होने के कारण चित्त परिणामी सि( होता है।14 अर्थात् कभी चित्त वस्त्वाकाराकारित रहता है और कभी वैसा नहीं रहता। इससे सि( होता है कि चित्त का स्वरुप परिणत होता रहता है। यही चित्त की परिणामशीलता है। प्रायः पात×जलयोग के समस्त व्याख्याकारों द्वारा चित्त के परिणामित्व को स्वीकार किया गया है।5
बौ(ों के चित्त सम्बन्ध्ी सि(ान्त का खण्डन व योगाचार्यों द्वारा स्वमत स्थापना
भाष्यकार व्यास, बौ(ों के चित्त-सम्बन्ध्ी सि(ान्त को स्वीकार न करते हुए खण्डन करते हैं-
पात×जलयोग के अनुसार चित्त का स्वरुप बौ(ों के अनुसार चित्त का स्वरुप
1. चित्त एक है, शु( सत्त्व रुप है। चित्त क्षणिक है।
2. चित्त अनेकार्थ है। चित्त प्रत्येक अर्थ में नियत है।
3. चित्त स्थायी है, अवस्थित है। चित्त विज्ञान स्वरुप है अनवस्थित है।
4. चित्त ज्ञानग्राहक रुप है। चित्त ज्ञानरुप है।
5. चित्त स्वप्रकाशक नहीं है। चित्त स्वप्रकाशक व विषयों को भी प्रकाशित करने वाला है।
बौ( मत: चित्त नामक पदार्थ प्रत्येक पदार्थ के लिये अलग-अलग नियत है केवल ‘ज्ञान’ रुप है और केवल एक क्षण तक रहने वाला है।
खण्डन: बौ(ों के अनुसार यदि चित्त प्रत्येक ज्ञेय ;पदार्थद्ध के लिये नियत, केवल ज्ञान रुप एवं क्षणिक है तब तो सभी चित्त एकाग्र ही है, कोई चित्त कभी विक्षिप्त हो ही नहीं सकता।16 अर्थात् उनके मत को मानने पर तो चित्त की विक्षिप्तता ही सर्वथा अनुपपन्न हो जायेगी। इस प्रकार उन्हें समाध् िऔर एकाग्रता की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी। जब चित्त सदा एकाग्र ही है तब एक क्षण के लिये चित्त एक वस्तु को ही देखेगा और वह उसकी एकाग्रावस्था होगी अर्थात् चित्त सदा समाध्स्थि ही रहेगा।
बौ(ों के अनुसार जब इस चित्त को अन्य सभी विषयों से आहृत कर किसी एक पदार्थ में समाहित किया जाता है तब एकाग्र होता है।17 भाष्यकार के अनुसार इस मत से तो उनके स्वमत का ही खण्डन हो जाता है क्योंकि तब तो चित्त प्रत्येक अर्थ के लिये नियत नहीं हुआ।18
विज्ञानवादी बौ(: प्रथम विकल्प ‘तुल्य-ज्ञान-प्रवाह’ के रुप में चित्त को एकाग्र मानता है।19 इनके अनुसार एकाग्रता पूरे ज्ञान-प्रवाह-रुप चित्त का ध्र्म है।20
खण्डन: भाष्यकार के अनुसार प्रवाहचित्त अर्थात् ज्ञानप्रवाह ‘एक’ रुप में स्थित ही नहीं होता, क्षणिक होने के कारण।21 क्षणिक होने के कारण उस प्रवाहचित्त का एक अंश ही एक क्षण में स्थित रह सकेगा अन्य अंश तो उस क्षण में अनुपस्थित ही रहेंगे। इसलिये ‘एक’ रुप में इस प्रवाहचित्त का अस्तित्व ही नहीं है। इसलिये ‘एकाग्रता’ प्रवाहचित्त का ध्र्म नहीं हो सकता।
द्वितीय विकल्प: एकाग्रता ज्ञानप्रवाहरुप चित्त के किसी एक अंश का ध्र्म है।22
खण्डन: तब तो वे ज्ञानप्रवाहांशरुपी सभी चित्त, चाहे समान प्रकार के ज्ञान के रुप में प्रवाहित हो रहे हों अथवा भिन्न प्रकार के ज्ञान के रुप में, उनका प्रत्येक अंश एक-एक अर्थ के लिये नियत होने के कारण ‘एकाग्र’ ही हुआ। इस प्रकार इस विकल्प को स्वीकार करने में तो विक्षिप्तचित्तता अर्थात् चित्त में विक्षिप्त होने की सम्भावना ही नहीं रह जाती।23 इसलिये सि( हुआ कि चित्त एक है, स्थायी है और अनेक पदार्थों के ज्ञान के लिये होता है।24
दोनों प्रकार के बौ(मतों का सामान्यरुप से खण्डन:
भाष्यकार कहते हैं कि यदि एक ही चित्त से असम्ब( सर्वथा अलग-अलग ज्ञान उत्पन्न होते हों ;1द्ध तो पिफर भला कैसे अन्यचित्त द्वारा देखे गये पदार्थ का स्मरण करने वाला अन्य चित्त कैसे हो सकता है?25 ;2द्ध अन्य चित्त के द्वारा अर्जित कर्मसंस्कारों का पफलभोग करने वाला अन्य चित्त कैसे होगा?26
इस अनुपपत्ति का बौ(ों के द्वारा कोई समाधन भी किया जाये तो वह भ्रामक-समाधन ‘गोमयपायसीय’ न्याय को भी तिरस्कृत करता है।27 न्यायाभासत्वेन ततो{यध्कित्वाद्।28 ‘गोमयपायसीयन्याय’ क्या है? यह एक प्रकार का भ्रामक तर्क होता है। इसे पाश्चात्य तर्कप(ति में ष्थ्ंससंबल व िनदकपेजतपइनजमक उपककसमष् कहते हैं। इसका स्वरुप इस प्रकार है-
पायसं गोमयम् - खीर ;भीद्ध गोबर है,
गव्यत्वात्। गव्य ;गो विकारद्ध होने के कारण।
यद्यद् गोमयं तत्तद् गव्यम्। जो-जो गोबर है, वह-वह गव्य है।
पायसमपि गव्यम्, खीर भी गव्य है।
अतः पायसमपि गोमयम्। इसलिये खीर भी गोबर है।
इसके अतिरिक्त बौ(ों की मान्यता में अन्य असंगतियाँ भी है। एक प्राणी में भिन्न-भिन्न और अनेक चित्त माने जाने पर ‘अपने आप’ का भी अनुभव नहीं हो सकता।29 कैसे? इस प्रकार से कि जिसे ‘मैंने’ देखा था, वह ‘मैं’ छू रहा हूँ। जिसे ‘मैंने छुआ था, वह ‘मैं’ देख रहा हूँ-इन प्रयोगों में ‘मैं’ रुप का अनुभव, सभी अनुभवों के भिन्न रहने पर भी ज्ञाता ;चित्तद्ध में एक रुप से ;अभिन्नद्ध रुप से उपस्थित रहता है।30 एक ही रुप से अनुभूयमान ‘मैं’ रुप का अनुभव ;अनेकद्ध अलग-अलग चित्तों में स्थित रहता हुआ एक सामान्यज्ञाता का बोध् कैसे करा सकता है?31 और यह अभिन्नस्वरुप ‘मैं’ रुप का ज्ञान ;सबकेद्ध निजी अनुभव का विषय है।32 और ‘प्रत्यक्षप्रमाण’ का महत्त्व अन्य प्रमाणों के द्वारा कम नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्य ;सबद्ध प्रमाण ‘प्रत्यक्ष’ के बल से ही व्यवहार में आ पाते हैं।33 इसलिये चित्त ‘एक’ ‘अनेकार्थ’ और ‘स्थायी’ है।34
विज्ञानवादी बौ(मत: चित्तात्मवादी वैनाशिकों की यह आशघड्ढा हो सकती है कि चित्त ही अग्नि के समान स्वप्रकाशक और विषयप्रकाशक भी है।35
खण्डन: योगदर्शन में चित्त को स्वप्रकाशक नहीं माना गया है। सूत्राकार के अनुसार दृश्य होने के कारण चित्त अपना प्रकाशक नहीं हो सकता है।36 भाष्यकार के अनुसार चित्त स्वप्रकाशक नहीं है, जैसे अन्य इन्द्रियाँ और शब्दादि विषय ‘दृश्य’ होने के कारण स्वप्रकाशक नहीं है।37 इस विषय में पूर्वपक्ष की ओर से अग्नि का दृष्टान्त दिया जाता है कि-जिस प्रकार अग्नि ‘परप्रकाशक’ होने के साथ-साथ स्वप्रकाशक भी होती है, वैसे ही चित्त भी है। तो इसका खण्डन भाष्यकार करते हैं कि चित्त के प्रसघõ में ‘अग्नि’ दृष्टान्त नहीं है।38 भाव यह है कि अग्नि भी स्वप्रकाशक या स्वाभास नहीं है, इसलिये वह भी अनुदाहरण ही है। क्योंकि अग्नि भी अपने अप्रकाशित रुप को प्रकाशित नहीं करता।39 अग्नि भी घटादि के समान चक्षुरादि इन्द्रियों के माध्यम से चित्त के द्वारा ही प्रकाशित होती है। जन्मान्ध् व्यक्ति के लिये अग्नि का रुप भी घटादि के रुप के समान अप्रकाशित रहता है। इसलिये ‘स्वप्रकाशता’ अग्नि में सर्वथा अनुपपन्न है।40
इस प्रकार भाष्यकार-व्यास ने चित्त का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया है। योग-दर्शन में चित्त शब्द के स्थान पर मन शब्द का भी प्रयोग किया गया है। यद्यपि चित्त मन से भिन्न अन्य अन्तरिन्द्रिय है। योगसूत्राकार द्वारा प्रयुक्त चित्त शब्द से अभिप्रेत मन है, इसमें सन्देह किसी को भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि कई बार वे एक ही प्रकरण में चित्त और मन दोनों शब्दों का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ- मैत्राी, करुणा आदि वृत्तियों को वे चित्त-प्रसादन अथवा चित्त की एकाग्रता का उपाय स्वीकार करके प्रच्छर्दनविधरणाभ्यां वा प्राणस्य एवं विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्नामनसः स्थितिनिबन्ध्निी इत्यादि41 कहते हुए वे प्राणायाम एवं विषयवती प्रवृत्ति को मन की स्थिरता का उपाय बताते हुए चित्त के स्थान पर मन शब्द का प्रयोग करते हैं। भाष्यकार व्यास भी पूर्वोक्त प्रच्छर्दनविधरणाभ्यां वा प्राणस्य की व्याख्या के समय ‘वा’ पद द्वारा निर्दिष्ट चित्त प्रसादन के ही इतर उपाय को स्पष्ट करते हुए ताभ्यां वा मनसः स्थितिं सम्पादयेत्।42 शब्दों द्वारा चित्त-प्रसादन एवं मन की स्थिरता को अभिन्न स्वीकार कर लिया है। जिससे स्पष्ट होता है कि भाष्यकार ने मन एवं चित्त को पर्यायवाची ही स्वीकार किया है। व्यास की यह मान्यता अनुचित नहीं है। क्योंकि स्वयं सूत्राकार ने भी अग्रिम सूत्रा विषयवती वा प्रवृत्तिर्मनसः स्थितिनिबन्ध्निी में चित्त-प्रसादन एवं मन के स्थिति- निबन्ध्न को अभिन्न ही माना है। इस प्रकार प्राणायाम के पफल का निर्देश करते हुए पुनः साध्नपाद के अन्त में सूत्राकार मन में ‘धरणा हेतु योग्यता’ को पफल मानते हैं।43 तथा उन्हीं के अनुसार धरणा चित्त का देश विशेष में बन्ध् है।44 अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि योगसूत्राकार व भाष्यकार की दृष्टि से मन और चित्त अभिन्न है अथवा उन्होंने मन के लिये भी चित्त पद का प्रयोग किया है।
उपसंहार
निष्कर्षतः पात×जल योगदर्शन के समग्र अध्ययन से यही निर्णीत होता है कि सूत्राकार, भाष्यकार, वृत्तिकार एवं टीकाकार चित्त को प्रति शरीर नियत, एकदेशी, संख्या में बहुत तथा समस्तब्रह्माण्डगत किसी भी पदार्थ को संयम के प्रयोग से साक्षात् कर लेने की योग्यता के कारण विभु मानते हैं।45 ऐसा न मानने पर शास्त्रा में जो कैवल्यावस्था में चित्त का स्वकारण में प्रविलय माना है वह भी नहीं बन सकेगा।46 क्योंकि उस अवस्था में एक चित्त के ही समस्त शरीरों से सम्ब( होने के कारण यदि चित्त का प्रविलय होगा, तो सारे ही पुरुषों को कैवल्य की सि(ि हो जाएगी तथा संसार का उच्छेद हो जाएगा, और यदि चित्त का प्रविलय नहीं होगा तो संसार कुशल-अकुशल, सि(-असि( सबके लिए बना ही रहेगा, पफलतः इस योगशास्त्रा में जो कैवल्य का उपदेश प्रतिपादित कया गया है, वह किसी भी पुरुष का कैवल्य संभव न हो सकने से असि( और व्यर्थ हो जाएगा। अतः चित्तों को प्रति शरीर नियत, एकदेशी, असंख्य तथा सृष्टि का परम सात्त्विक और सूक्ष्मतम तत्त्व होने के कारण अखिल विश्व के किसी भी पदार्थ को प्रकाशित करने की सामथ्र्य वाला होने से ही विभु माना गया है, जो युक्तिसंगत है।

1.;पद्ध तदभावादणु मनः। वै. सू. 7/1/23
    ;पपद्ध यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु। न्या. सू. 3/2/63
2. देहप्रदेशवर्तिकार्यदर्शनाद् देहाद्बहिः सद्भावे चित्तस्य न प्रमाणमस्ति। त. वै. 4/10
3 न चैतदणुपरिमाणम्, दीर्घशष्कुलीभक्षणादावपर्यायेण ज्ञानप×चकानुत्पादप्रसघõात्। न चाननुभूय-       मानक्रमकल्पनायां प्रमाणमस्ति। न चैकमणु मनो नानादेशैरिन्द्रियैरपर्यायेण संबन्ध्मर्हति। वही
4 तत्परिशेष्यात्कायपरिमाणं चित्तं घटप्रासादवर्तिप्रदीपवत्। संकोचविकासौ पुत्तिकाहस्तिदेहयो- रस्योत्पत्स्येते। शरीरपरिमाणमेवाकारः परिमाणं यस्येत्यपरे प्रतिपÂाः। वही
5 घटप्रासादप्रदीपकल्पं सघड्ढोचविकाशि चित्तं शरीरपरिमाणाकारमात्रामित्यपरे प्रतिपÂाः। तथा चान्तराभावः संसारश्च युक्त इति। यो. भा. 4/10
6 वृत्तिरेवास्य विभुनाश्चित्तस्य सघ्कोचविकाशिनीत्याचार्यः। यो. भा. 4/10
7 चित्तं न दिगध्किरणं वस्तु कालमात्राव्यापीक्रियारूपत्वाद्। न ह्यमूत्र्तं चित्तं हस्तादिभिः परिमेयम्, तस्मात्तस्य दीर्घ”स्वत्वादीनि न कल्पनीयानि। दिगवयवरहितत्वात् चित्तं विभु-सर्वभावैः सह सम्बन्ध्वत्। न च विभुत्वं सर्वेशव्यापित्वं व्यवसायरूपत्वाच्चेतसः। भा. 4/10
8  प्रो. विमला कर्णाटक, पात×जलयोगदर्शनम्, बालप्रिया टीका, वाराणसी, 1992 पृ. 1538-39,
9 वही
10; 1 बन्ध्कारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः। यो. सू. 3/38
    2 कर्मबन्ध्क्षयात्स्वचित्तस्य प्रचारसंवेदनाच्च योगी चित्त स्वशरीरान्निष्कृष्य शरीरान्तरेषु निक्षिपति। यो. भा. 3/38
11 चित्तस्य यो{सौ प्रचारो हृदयप्रदेशादिन्द्रियद्वारेण विषयाभिमुख्येन प्रसरस्तस्य संवेदनं ज्ञानमियं चित्तवहा नाडी अनया चित्तं वहति, इयं च रसप्राणादिवहाभ्यो नाडीभ्यो विलक्षणेति। रा. मा. वृ. 3/38
12 1 निक्षिप्तं चित्तं चेन्द्रियाण्यनुपतन्ति। यो. भा. 3/38
   2 इन्द्रियाणि च चित्तानुसारिणी परशरीरे यथाध्ष्ठिानं निविशन्त इति। त. वै. 3/38
13 तस्मात्स्वतन्त्रो{र्थः सर्वपुरुषसाधरणः स्वतन्त्राणि च चित्तानि प्रति पुरुषं प्रवर्तन्ते। यो. भा. 4/16
14 अयस्कान्तमणिकल्पा विषया अयः सध्र्मकं चित्तमभिसम्बध्योपर×जयन्ति। येन च विषयेणोपरक्तं चित्तं स विषयो ज्ञातस्ततो{न्यः पुनरज्ञातः। वस्तुनो ज्ञाताज्ञातस्वरुपत्वात् परिणामि चित्तम्। वहीं 4/17
15 1 अत एव चित्तं परिणामीत्याह-वस्तुत इति। त. वै. 4/17
   2 अतो ज्ञाताज्ञातवस्तुकत्वान्यथा{नुपपत्त्या चित्तस्योपरागाख्यपरिणामः सि( इत्यर्थः। यो. वा. 4/17
   3 इन्द्रियद्वारा चित्ताध्ष्ठिानगता विषयाश्चित्तमाकृष्य उपर×जयन्ति-स्वाकारतया परिणमयन्तीत्यर्थः। उपरागापेक्षं चित्तं विषयाकारं भवति न भवति वा। अतो ज्ञानान्यत्वं प्राप्यमाणं चित्तं परिणामीति अनुभूयते। भा. 4/17
   4 तस्मात् वस्तुनो ज्ञाताज्ञातस्वरूपत्वात् परिणामि चित्तम्। यो. वि. 4/17
   5 वस्तुतो ज्ञाताज्ञातस्वरूपत्वात् परिणामि चित्तम्। ना. भ. वृ. 4/17
   6 अत एव चित्तं तदर्थोपरागमपेक्ष्य कदाचिद्वस्तु जानाति कदाचिÂेति ज्ञाताज्ञातविषयत्वात्परिणामीति भावः। म. प्र. 4/17
   7 अनेन चित्तं परिणामि ज्ञाताज्ञातविषयत्वाच्छ्रोत्रादिवदिति चित्तस्य परिणामित्वे{नुमानमुक्तं भवतीत्यभिसन्ध्ःि। यो. सु. 4/17
   8 एवं च विषयस्य ज्ञाताज्ञातत्वान्यथा{नुपत्त्या चित्तस्योपरागाख्यपरिणामः सि(ः। यो. प्र. 4/17
   9 अतो ज्ञाता{ज्ञातविषयतया चित्तं परिणाम्यपीति भावः। यो. सि. च. 4/17
16 यस्य तु प्रत्यर्थनियतं प्रत्ययमात्रां क्षणिकं च चित्तं तस्य सर्वमेव चित्तमेकाग्रं नास्त्येव विक्षिप्तम्। यो. भा. 1/32
17 यदि पुनरिदं सर्वतः प्रत्याहृत्यैकस्मिन्नर्थे समाध्ीयते तदा भवत्येकाग्रमित्यतो। यो. भा. 1/32
18 न प्रत्यर्थनियतम्। वही
19 यो{पि सदृशप्रत्ययप्रवाहेण चित्तमेकाग्रं मन्यते। वही
20 तस्यैकाग्रता यदि प्रवाहचित्तस्य ध्र्मः। वही
21 तदैकं नास्ति प्रवाहचित्तं क्षणिकत्वात्। वही
22 अथ प्रवाहांशस्यैव प्रत्ययस्य ध्र्मः। वही
23 स सर्वः सदृशप्रत्ययप्रवाही वा विसदृशप्रत्ययप्रवाही वा प्रत्यर्थनियतत्वादेकाग्र एवेति विक्षिप्त- चित्तानुपपत्तिः। वही
24 तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं चित्तमिति। वही
25 यदि च चित्तेनैकेनानन्विताः स्वभावभिन्नाः प्रत्या जायेरन्नथ कथमन्यप्रत्ययदृष्टस्यान्यः स्मर्ता भवेत्। यो. भा. 1/32
26 अन्य प्रत्ययोपचित्तस्य च कर्माशयस्यान्यः प्रत्यय उपभोक्ता भवेत्। वही
27 कथ×िचत् समाध्ीयमानमप्येतद् गोमयपायसीयं न्यायमाक्षिपति। वही
28 द्रष्टव्य, त. वै. 1/32
29 कि×च स्वात्मानुभवापह्नवश्चित्तस्यान्यत्वे प्राप्नोति। यो. भा. 1/32
30 कथम्? यदहमद्राक्षं तत् स्पृशामि यच्चास्प्राक्षं तत् पश्यामीत्यहमिति प्रत्ययः सर्वस्य प्रत्ययस्य भेदे सति प्रत्ययिन्यभेदेनोपस्थितः। यो. भा. 1/32
31 एकप्रत्ययविषयो{यमभेदात्मा{हमिति प्रत्ययः कथमत्यन्तभिन्नेषु चित्तेषु वर्तमानं सामान्यमेकं प्रत्ययिनमाश्रयेत्? वही
32 स्वानुभवग्राह्यश्चायमभेदात्मा{हमिति प्रत्ययः। वही
33 न च प्रत्यक्षस्य माहात्म्यं प्रमाणान्तरेणाभिभूयते।
प्रमाणान्तरं च प्रत्यक्षबलेनैव व्यवहारं लभते। वही
34 तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं च चित्तम्। वही
35 वैनाशिकानां चित्तात्मवादिनामिति शेषः। चित्तमेव स्वस्य विषयस्य च प्रकाशकमग्निवद्भविष्यति, कृतमपरिणामिना{न्येनेत्याशघड्ढा वैनाशिकानां स्यादित्यर्थः। यो. वा. 4/19
36 1 न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्। यो. सू. 4/19
   2 तच्चित्तं स्वाभासं स्वप्रकाशकं न भवति पुरुषवेद्यं भवतीति यावत्, कुत? दृश्यत्वात् यत्किल दृश्यं तद्द्रष्टृवेद्यं दृष्टं यथा-घटादि, दृश्यं च चित्तं तस्माÂ स्वाभासम्। भो. वृ. 4/19
   3 तच्चित्तवृत्तिरूपं न स्वाभासं न स्वप्रकाशं स्वगोचरप्रकाशं विना न प्रकाशव्यवहारक्षमम्। ना. भ. वृ. 4/19
   4 तच्चित्तवृत्तिरूपं न स्वाभासं न स्वप्रकाशं भवति। आकाशं स्वप्रतिष्ठिमितिवत्। स्वगोचरप्रकाशं विनैव प्रकाशव्यवहाराज्जानामीच्छामीत्यादिरूपैर्दृश्यतयानुभवादित्यर्थः। भा. ग. वृ. 4/19
   5 रूपी घट इतिवत् सुख्यहं, क्रु(ो{हं, शान्तं मे मन इति दृश्यत्वाच्चित्तं स्वाभासं स्वप्रकाश न भवतीत्यर्थः। म. प्र. 4/19
   6 तच्चित्तं स्वाभासं स्वप्रकाशकं न भवति किन्तु पुरुषवेद्यं कुतो दृश्यतवात्। च. 4/19
;अपपद्ध ‘घटो{यं रूपवान्’ इतिवत् ‘सुख्यहम्’ ‘क्रु(ो{हम्’ ‘शान्तं मे मनः’ इति दृश्यत्वाच्चित्तं स्वाभासं स्वप्रकाशं न भवति। यो. सु. 4/19
;अपपपद्ध यथा इन्द्रियाणि शब्दादयश्च दृश्यत्वाÂ स्वाभासानि तथा तत् मनोपि न स्वाभासं भवति दृश्यत्वादित्यर्थः। यो. प्र. 4/19
;पगद्ध तच्चित्तं न स्वाभासं न स्वप्रकाशं, स्वस्वार्थगोचरवृत्त्यभावकाले आत्मवÂ स्वस्वार्थयोर्भासकमिति यावत्। यो. सि. च. 4/19
37 यथेतराणीन्द्रियाणि शब्दादयश्च दृश्यत्वान्न स्वाभासानि तथा मनो{पि प्रत्येतव्यम्। यो. भा. 4/19
38 न चाग्निरत्रा दृष्टान्तः। वही
39 ;पद्ध न ह्यग्निरात्मस्वरुपमप्रकाशं प्रकाशयति। वही
     ;पपद्ध शून्यवादी बौ( आचार्य नागार्जुन ने भी चित्त के द्वारा आत्म-प्रकाशन के लिये दिये गये अग्नि के दृष्टान्त का खण्डन किया है-
विषमोपन्यासो{यं ह्यात्मानं प्रकाशयत्यग्निः।
न हि तस्यानुपलब्ध्ःि दृष्टा तमसीव कुम्भस्य। विग्रहव्यावर्तनी 35
    ;पपपद्ध अग्न्यादौ च स्वभासत्वमेव नास्तीति वक्ष्यति, अतो न तत्रापि व्यभिचारः। दृष्टान्ते च सर्वदैव स्वप्रकाश्यत्वाभावो{स्तीति। यो. वा. 4/19
40 अग्निर्नात्रादृष्टान्तः स्वभासस्योदाहरणम्, शब्दादिवदग्ने रुपध्र्मो{ग्निनिष्ठो वा घटाद्यापतितो वा चक्षुषैव प्रकाश्यते। न ह्यग्निनिष्ठरुपं तेजोध्र्मभूतमात्मस्वरुपप्रकाशं प्रकाशयति। भा. पृ. 4/19
41 यो. सू. 1/34-35
42 यो. भा. 1/34
43 धरणासु च योग्यता मनसः। यो. सू. 2/53
44 देशबन्ध्श्चित्तस्य धरणा। वहीं 3/1
45 द्रष्टव्य, सूत्रा भाष्य और वृत्ति 3.19.2, 4.4, 15,16,21
46 ;पद्ध ते पंच क्लेशाः दग्ध्बीजकल्पा योगिनश्चरिताध्किारे चेतसि प्रलीने सह तेनैवास्तं गच्छन्ति। यो. भा. 2/10
;पपद्ध ते सूक्ष्माः क्लेशा ये वासनारुपेणैव स्थिता न वृत्तिरुपं परिणाममारभन्ते ते प्रतिप्रसवेन प्रतिलोमपरिणामेन हेयास्त्यक्तव्याः। स्वकारणस्मितयां कृतार्थं सवासनं चित्तं यदा प्रविष्टं भवति तदा कुतस्तेषां निर्मूलानां संभवः। भो. वृ. 2/10
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