Saturday 2 July 2011

भारतीय लोकतंत्र और नव सामाजिक आंदोलन


सोनू कुमार

शोध-छात्रा, सेंटर फाॅर पफेडरल स्टडीज,
हमदर्द विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।

सामाजिक आंदोलनों को लंबे समय से चला आ रहा सतत सामूहिक प्रयास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह ऐसे प्रयास होते हैं, जो सामान्यतः सरकार के कृत्यों के विरफ( खड़े होते है, तथा राज्य के नीतियों एवं आचरण में परिवर्तन की मांग का रूप ले लेते है। नव सामाजिक आंदोलन भी एक परिवर्तन की मांग है, इनमें ऐसे मांगो को रखा गया है, जिन्हे वस्तुवः अब तक के सामाजिक आंदोलनों द्वारा उपेक्षित छोड़ दिया गया था या बहुत कम महत्त्व दिया गया था। इस लेख में पर्यावरणात्मक, मानवध्किार संरक्षण, नारीवादी, छात्रा एवं जन-जागरण आंदोलनों को स्थान दिया गया है। साथ ही यह जानने का प्रयास किया गया है कि ऐसे आंदोलनो में रखे गये मांग एवं उनके द्वारा लाया गया परिवर्तन भारतीय प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्रा को कहां तक बढ़ावा दिया है?
नव सामाजिक आंदोलन मानव जीवन की गुणवत्ता पर आधरित वैसे आंदोलन हैं जो उत्तर आध्ुनिक राजनीति के अंर्तगत आते हैं। ये ऐसे आंदोलन है जो मानव जीवन में पफैले अन्याय के प्रति नयी चेतना से प्रेरित होकर समकालीन विश्व के कुछ हिस्सों में उभरकर सामने आए हैं। इन्हें नया इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें पहचान और स्वायतता से जुड़े ऐसे मुद्दों को उठाया गया है, जो इत्तर-वर्गीय मुद्दे हैं और ये सामाजिक आंदोलनों के आध्ुनिक रूप हैं। इन आंदोलनों की मुख्य विशेषता यह है कि ये राजनीतिक जीवन के साधरण लेन-देन से बाहर कार्य करते हैं। इनका सरोकार मानव जीवन की गुणवत्ता का विकास करना है। नव सामाजिक आंदोलन का लक्ष्य केवल केन्द्र या राज्य की सत्ता में ही सुधर करना नहीं है, बल्कि इनके साथ-साथ वैयक्तिक एवं सामूहिक नैतिकता को भी बनाता है। ये आंदोलन किसी एक वर्ग या समूह से नहीं जुड़े होते, बल्कि ये सामूहिक हित से जुड़े होते हैं। भारत में इन आंदोलनों की शुरूआत 1960 के दशक में हुई थी। इनमें पर्यावरण आंदोलन, मानवाध्किार आंदोलन, नारीवादी आंदोलन छात्रा आंदोलन, जन-जागरण आंदोलन आते हैं।
पर्यावरणात्मक आंदोलन
पर्यावरण आंदोलन न सिपर्फ भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर भी चर्चा का विषय बना हुआ है। आज विश्व स्तर पर पर्यावरण राजनीति और कुटनीति का अंग बन गया है। पर्यावरणीय मुद्दे पर विश्व सम्मेलन आयोजित किये जा रहे हैं। वैश्विक तापन आज विश्व समुदाय की प्रमुख समस्या बनी हुयी है। पर्यावरण को वैज्ञानिक तरीके से देखा जाये तो इसका आशय है, सम्पूर्ण विश्व, जिसमें जीव-जंतु तथा उनका प्रकृति-निवास और हवा, पानी, मृदा आदि सभी कुछ निहित है, एक अंतर्सम्बध्ति व्यवस्था है। राजनीति में इसका अध्ययन पर्यावरणवाद के रूप में किया जाता है और पर्यावरणवाद एक विचारात्मक आंदोलन है जो पश्चिमी दुनिया की राजनीति में 1970 के दशक में आरंभ हुआ। भारत में पर्यावरण आंदोलन के उदभव को चिपको आंदोलन ;1973द्ध के रूप में देखा जा सकता है।
पर्यावरण आंदोलन में अर्थशास्त्रा और राजनीति के एक विस्तृत दृष्टिकोण को भी शामिल किया जा सकता है। इस आंदोलन द्वारा आर्थिक न्याय की मांग किये जाने का मतलब महज संसाध्नों का वितरण हीं नही है, वरन् एक वृहत्तर दृष्टिकोण रखना भी है। जैसे अपने प्राकृतिक संसाध्नों पर लोगों के अध्किार को मान्यता देकर जीवन की गुणवत्ता में सुधर करना एवं सम्मान के साथ रहने तथा निर्णयन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना है। मानव पर्यावरण संबंध्ी के सन् 1972 का स्टाकहोम सम्मेलन वर्तमान और भविष्यगत पीढि़यों पर पर्यावरण की दशाओं और उसके प्रभाव से संबंध्ति कई अध्ययनों और प्रतिवेदनों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है। इस सम्मेलन में वर्तमान और भविष्यगत पीढि़यों के लिए पर्यावरण की रक्षा और सुधर करने संबंध्ी चिंता व्यक्त की गयी।
भारतीय पर्यावरण आंदोलन उपनिवेशोत्तर राज्य द्वारा अनुपालित विकास संबंध्ी औपनिवेशिक प्रतिमान की आलोचना करता है। स्वातंत्रायोत्तर राज्य जनता की आवश्यकताओं पर आधरित कोई भी विकास कार्यसूची तैयार करने में असपफल रहा और आध्ूनिक पूँजीवादी कार्यसूची की वकालत करता रहा, जिसने पर्यावरण असंतुलन और गरीबी को बढ़ावा दिया। भारत में राष्ट्रीय पार्कों, अभ्यारण्यों, संरक्षित क्षेत्रों आदि परंपरागत पर्यावरणवाद का परिचायक है। परंपरागत पर्यावरणवाद के जवाब में भारत में पर्यावरण आंदोलन ने गरीबों के पर्यावरणवाद वाली विचारधरा का समर्थन किया। यह विचारधरा न केवल विकासवाद का आलोचक है, बल्कि ‘आत्मनिर्भर ग्राम अर्थव्यवस्था’ का समर्थक भी है। इसका तात्पर्य यह है कि भारतीय पर्यावरण आंदोलन प्राकृतिक संसाध्नों तक पहुँचा व उनके प्रयोग के संबंध् में समदृष्टि के मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित करता है। भारतीय पर्यावरण आंदोलन की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ मुख्य रूप से महिलाओं, गरीबों और अलाभान्वित लोगों को शामिल किया जाता है, जो पर्यावरण अवनति से प्रत्यक्षतः प्रभावित है।
गाडगिल एवं गुहा भारत में पर्यावरण आंदोलन के भीतर चार विस्तृत सूत्रों की पहचान की है, जो अभिवृष्टि विचारधरा एवं रणनीति पर आधरित है। प्रथम वे आंदोलन जो अति उपयोग रोकने और गरीबों व उपान्तिक वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित करने हेतु नैतिक आवश्यकता पर बल देते हैं। मुख्य रूप से गाँध्ीवादी ही इस सूत्रा के प्रणेता है। द्वितीय सूत्रा संघर्ष के माध्यम से अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त किये जाने की आवश्यकता पर बल देता है। इस सूत्रा के कार्यकत्र्ता माक्र्सवादी विचारक है। तृतीय व चतुर्थ सूत्रा पुर्ननिर्माण की वकालत करते है, जैसे प्रदत्त प्रसंग व समय के उपयुक्त प्रौद्योगिकियाँ लागू करना।1
भारत में पर्यावरणवाद और पर्यावरण आंदोलन की उत्पत्ति का श्रेय चिपको आंदोलन को दिया जाता है, जिसके नेता सुंदर लाल बहुगुणा थे। यह आंदोलन 1977 मेें तब पारिस्थितिकी आंदोलन बन गया जब चिपको की पर्यावरणात्मक क्रिया को जनहित विज्ञान के द्वारा इस नारे के रूप में मंजूर किया गया-
‘‘जंगल हमें क्या देते हैं?
भूमि, जल और शु( वायु!’’2
यह आंदोलन कापफी हद तक सपफल रहा। इस आंदोलन की सपफलता का हीं परिणाम था कि देश के दूसरे भागों में भी इस प्रकार के आंदोलन आरंभ होने लगे। जैसे कर्नाटक में वन-विनाश को रोकने के लिए अप्पिको आन्दोलन चलाया गया। नर्मदा बचाओं आंदोलन भी एक पर्यावरणीय आंदोलन है। यह आंदोलन बड़ी बाँधें के निर्माण के कारण होने वाला विस्थापन एवं पर्यावरणीय विनाश को रोकने के लिए चलाया गया है। यह आंदोलन अन्य सभी आंदोलनों में अद्वितीय है क्योंकि इसने लोगों को सूचना के अध्किार प्राप्त करने पर बल दिया जो आज प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने में अहम भूमिका अदा कर रहा। इन सभी पर्यावरणीय आंदोलनों के अलावा वर्तमान समय में भी कई आंदोलन सक्रिय है। पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए ही उड़ीसा के पास्को परियोजना तथा महाराष्ट्र के जैतापुर परमाणु संयंत्रा का विरोध् किया जा रहा है।
मानवाध्किार आंदोलन
वर्तमान समय में हम सभ्यता के ऐसे दौर से गुजर रहें है, जब मानवाध्किारों को सार्वजनिक घोषणाओं द्वारा मान्यता प्राप्त हुयी है और कई देशों ने इन्हें अपने देश के संविधन में समाहित कर लिया है। ऐसा दावा किया जाता है कि व्यक्ति कुछ सर्वव्यापक तथा सर्वविदित मानवीय अध्किारों के साथ पैदा होता है जिसे हम मानवाध्किार की संज्ञा दे सकते है। जाॅन लाॅक भी व्यक्ति के जन्म से ही तीन प्राकृतिक अध्किारों की चर्चा करते हैं। ये हैं, जीवन का अध्किार, स्वतंत्राता का अध्किार एवं सम्पत्ती का अध्किार। उनके ये विचार न केवल Úांस की क्रांति बल्कि आवो चलकर मानव अध्किार आन्दोलन का भी प्रेरणा श्रोत बना।3 परन्तु वर्तमान युग की दूसरी विडम्बना यह भी है कि इन मानव अध्किारों की बड़े पैमाने पर उल्लंघन व अवज्ञा हो रही है। इन दिनों राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय हिंसा बढ़ी है, जो मानवाध्किार हनन को सबसे अध्कि परिलक्षित करता है। आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अध्किारों के हनन की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही है। जीवन का अध्किार, स्वतंत्रा अभिव्यक्ति का अध्किार, यातना से सुरक्षा, सम्मानपूर्ण जीवन स्तर बनाए रखने का अध्किार, अमानवीय व्यवहार, बंध्ुआ मजदूरी, बाल मजदूरी आदि से संबंध्ति कई प्रकार की मानवीय समस्याएँ व्याप्त है।
भारत में मानवाध्किार संरक्षण अध्निियम 1993 के अनुसार मानव अध्किारों से तात्पर्य संविधन द्वारा प्रत्याभूत अथवा अंतर्राष्ट्रीय समझौते में अंर्तनिहित उन अध्किारों से है, जो जीवन स्वतंत्रा समानता एवं प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा से संबंध्ति तथा भारत में न्यायलयों द्वारा प्रर्वतनीय है। मूल अध्किारों के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता, अंतः करण की स्वतंत्राता, शांतिपूर्ण सभा व सम्मेलन करने की स्वतंत्राता, कानून के समक्ष समानता आदि को सम्मिलित किया गया है। ये सभी अध्किार न्यायलय द्वारा प्रर्वतनीय है। निर्देशक तत्वों में शिक्षा, समान कार्य के लिए समान वेतन, सामन न्याय और निःशुल्क विध्कि सहायता आदि से संबंध्ति है। ये राज्य के लिए मार्गदर्शन है। न्यायाध्ीश पी.एन. भगवती ने संविधन की अनुच्छेद 21 के दायरा को इतना बढ़ा दिया कि इसमें मानव जीवन से जुड़े सभी अध्किार जैसे- भोजन, कपड़ा, आश्रय, शु( वायु आदि आ जाते हैं।
स्वतंत्राता के पश्चात मानवाध्किार आंदोलन को सामान्यतः दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है आपात पूर्व और उत्तर आपातकाल राज्य द्वारा साम्यवादियों के दमन के खिलापफ, विरोध् प्रदर्शन हेतु 1948 में पश्चिम बंगाल नागरिक स्वतंत्राता समिति का गठन हुआ। नक्सलवादियों पर राज्य के नृशंस प्रहार के साथ 1960 के दशक के अंत में मुख्य नागरिक स्वतंत्राता आंदोलन का सूत्रापात हुआ। इस आंदोलन में न्याय और समानता के लिए समाज के उत्पीडि़त हिस्सों में लोकतांत्रिक अध्किारों के मुद्दे को उठाया गया।
1975 में लगाया गया आपात भी नागरिक अध्किार आंदोलन को प्रेरणा एवं दिशा दी। उस समय मौलिक अध्किारों को यह कहते हुए निलंबित कर दिया गया था कि इनका प्रयोग सुविध सम्पन्न तबके द्वारा अध्किांश व्यक्तियों के हितों के लिए कार्यक्रमों को लागू करने में बाध डालने के लिए किया जाता है। आपातकाल ने ऐसे बौध्कि और राजनीतिक परिवेश का निर्माण किया जिसने नागरिक और लोकतांत्रिक अध्किार आंदोलन को अपने वर्तमान स्वरूप में जन्म दिया। अध्किांश वर्तमान नागरिक स्वतंत्राता संगठन नागरिक और लोकतांत्रिक अध्किारों से लड़ने के लिए इसी अवध् िमें अस्तित्व में आये।
वर्तमान समय में मानव अध्किारों से संबंध्ति विभिन्न राज्य में कई समूह व संगठन कार्यरत है। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1976 में पीपल्स यूनियन पफाॅर सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइटस ;पी.यू.सी.एल. और पी.यू.डी.आर.द्ध नामक संगठन का गठन हुआ।4 बाद में यह संगठन पी.यू.सी.एल. और पी.यू.डी.आर. में विभाजित हो गया। पी.यू.सी.एल. नागरिक अध्किारों और लोकतांत्रिक अध्किारों को बांटता है, तथा यह संगठन सामान्यतः लोकतांत्रिक प्रणाली को अपने घेरे में नहीं लेता है। सामाजिक परिवर्तन के संबंध् में इसका व्यापक उदारवादी नजरिया है। इसके विपरीत पी.यू.डी.आर. का विश्वास है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अध्किारों को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता और इन्हें ऐसे आंदोलनों का समर्थन करना चाहिए जो उत्पीडि़त तबको के सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को उठाते हैं। नन्दिता हक्सर कहती हैं कि नागरिक स्वतंत्राताओं का आंदोलन कोई वैकल्पिक विचारधरा प्रस्तुत नहीं करता। आंदोलन का एक मात्रा उद्देश्य पहरेदार के रूप में काम करते हुए राज्य पर नियंत्राण रखना है।5 दोनों संगठन में वैचारिक मतभेद होते हुए भी कई सामाजिक मुद्दों पर दोनों मिलकर कार्य करते हैं। इन दोनों के अलावा भी कई महत्वपूर्ण और राज्य स्तरीय संगठन भी हैं, ‘आन्ध््र प्रदेश नागरिक संघ’ ;सीपीडीआरद्ध, पंजाब में ‘लोकतांत्रिक अध्किारों हेतु संघ’ ;ए.एपफ.डी.आर.द्ध। स्वतंत्राता के बाद विभिन्न मानवाध्किार समूहों ने कई मुद्दों को उठाया। ए.आर. देसाई ने 1960 के दशक से 1980 के दशक तक गरीबों के मानवाध्किारों के उल्लंघन के कई उदाहरण प्रलेखित किये हैं।6
संयुक्त राष्ट्र संघ, एमनेस्टी इन्टरनेशनल और मानवाध्किार समूहों के दबाव के कारण भारतीय संसद ने सन् 1993 में मानवाध्किार संरक्षण को स्वीकार किया। परिणामतः 1994 में एक अध्निियम बनाकर राष्ट्रीय मानवाध्किार आयोग का गठन किया गया। यह आयोग पीडि़तों और मानवाध्किार समूहों से शिकायते प्राप्त करता है। तथा मिडिया के खबरों के आधर पर स्वयं संज्ञान भी ले सकता है। जैसे पिछले दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में हुए पुलिस कार्यवाही के संबंध् में आयोग ने स्वयं संज्ञान लेकर ही पुलिस से रिपोर्ट मांगी।7 कुछ राज्यों में भी मानवाध्किार आयोग की स्थापना की गयी है- असम, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्य इस श्रेणी में आते है। राष्ट्रीय और राज्य मानवध्किार आयोगों ने हिरासत में मृत्यु, मुठभेड़ में मृत्यु, बलात्कार प्रकरण, बाल श्रम, शरणार्थियों के साथ बुरा बर्ताव से संबंध्ति कई मामलों में हस्तक्षेप किया है तथा भारत में मानवाध्किार सुनिश्चित करने हेतु अग्रसर हैं।
नारीवादी आंदोलन
अन्य सामाजिक समूहों की भांति भारतीय महिलाएँ स्वतंत्राता पूर्व और स्वतंत्राता प्राप्ति के पश्चात सामाजिक आंदोलन में शामिल रही हैं। समाज के सभी पहलुओं में भेदभावपूर्ण स्थिति में रखी गयीं, बहुत सी पीड़ाएँ झेल रहीं महिलाएँ व उनकी समस्याएँ स्वतंत्रातापूर्व काल में सामाजिक सुधरकों की चिंता का विषय बनी हुयी थी। स्वतातंत्रायोत्तर काल में बड़ी संख्या में साधरण जन संगठन और नागरिक समाज संगठन विभिन्न विचारधराओं को मानने वाले संगठन आदि ने महिलाओं के मुद्दे को उठाया। संविधन में भी महिलाओं के उत्थान के लिए विशेष प्रावधन किया गया है। परंतु भारतीय समाज मूलतः पितृसत्तात्मक समाज है, जिसमें महिलाओं की स्थिति समाज में अभी भी द्वितीयक है। सीमोन-डी-बुआ के मतानुसार महिलाओं को अभी भी निकृष्ट लिंग ;सैकण्ड सैक्सद्ध में सम्मिलित किया जाता है।
भारत में नारीवादी आंदोलन का स्वरूप शहरों एवं गावों में भिन्न-भिन्न है। ग्रामीण नारीवादी आंदोलनों द्वारा उठाए गए मूल मुद्दे इस प्रकार है- घरेलू हिंसा के विरु( आंदोलन, शराब बिक्री का विरोध्, दहेज का विरोध् एवं बलात्कार के विरु( कड़े उपाय अपनाने की आवश्यकता। शहरी महिलाओं का हित ग्रामीण महिलाओं से अलग है। लेकिन दोनों में एक समानता है कि दोनों शोषण का शिकार हुई हैं। शहरी, महिलावादी आंदोलन के प्रमुख मांगों को निम्न बिन्दुओं के द्वारा रेखांखित किया जा सकता है- समाज कार्य के लिए समान वेतन, कार्य स्थल पर यौन शोषण की समाप्ति एवं कार्य स्थल पर महिलाओं को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध् कराना।
भारत में महिलावादी आंदोलन का आरम्भ पार्टी के आधर पर हुआ। 1978 में साम्यवादी दल से संबंध्ति आॅल इण्डिया डेमोक्रेटिक वीमेंस ऐसोसिएशन की स्थापना हुई। सार्वजनिक जीवन में कार्यरत महिलाओं की समस्या को दूर करने के लिए सेवा ;ैम्ॅ।द्ध ;सेल्पफ एम्प्लाॅयड वीमेंस ऐसोशिएशनद्ध की स्थापना द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन देने का समर्थन दिया गया और महिलाओं के घरेलू कार्य के महत्व को भी उजागर किया गया। 1980 के दशक में महिलावादी आंदोलन अखिल भारतीय हो गया। रूप कँवर को सती बनाने के विरु( महिलाओं ने देशव्यापी आंदोलन किया, क्योंकि राजस्थान में रूप कँवर को अपने पति की चिता पर बलपूर्वक बैठा दिया गया था।8 नारीवादी आंदोलन के समकालीन चरण में समानता के बजाय विभेद पर बल दिया जा रहा है। इसके अंर्तगत महिलाओं ने उन विशिष्ट मुद्दों को उठाया जो महिला जीवन से संबंध्ति थे। जैसे- गर्भपात, घरेलू हिंसा, दहेज भ्रूण हत्या, आदि।
भारतीय लोकतंत्रा के 60 वर्ष से अध्कि के कार्यकरण में महिलाओं की स्थिति में निर्णायक सुधर हुआ है। लेकिन महिलाओं की स्थिति आज भी शोषित और वंचित है। यद्यपि समाज में सभी महिलाओं की समस्या लगभग समान है कुछ लोग पर धर्मिक आधर पर महिलावादी आंदोलन को विभाजित करने का प्रयत्न किया जा रहा है। 1985 के ‘शाहबानो वाद’ के पश्चात यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या गुजारा भत्ता लेने का अध्किार मुस्लिम महिलाओं को नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप में कहा है कि महिलाओं को गुजारा भत्ता दिया जाना चाहिए।9 लेकिन कट्टरपंथियों के दबाव में राजीव गांध्ी सरकार ;1986द्ध ने सिविल प्रक्रिया में संशोध्न कर दिया, जिसके अनुसार गुजारे भत्ते का अध्किार मुस्लिम महिलाओं को नहीं है। वर्ष 2006 में पुनः ‘इमराना वाद’ पर धर्मिक विवाद महत्वपूर्ण हो गया, जबकि सभी ध्र्मों के महिलाओं के हित एक समान है, इसलिए धर्मिक आधर पर मतभेद से महिलावादी आंदोलन कमजोर होगा। भविष्य में महिलावादी आंदोलन का लक्ष्य संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण को लागू करवाना है, ताकि महिलाएँ निर्णयन की प्रक्रिया में सहभागी बन कर अपनी स्थिति में सुधर ला सकें।
छात्रा आंदोलन
नव सामाजिक आंदोलन में छात्रा आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। चूँकि छात्रा समाज का सबसे जागरूक वर्ग होता है, इस कारण किसी भी आंदोलन को मूर्त रूप दिये जाने हेतु छात्रों का सक्रिय सहयोग आवश्यक होता है। देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग समय पर विद्यार्थी आंदोलन शिक्षा की समस्याओं से लेकर राजनीतिक मुद्दों तक होते रहे हैं। एक प्रकार से छात्रा आंदोलन सामान्यतः विद्यमान आर्थिक और राजनीतिक संकट और सामाजिक व्यवस्था की परिवर्तनशील प्रकृति का एक हिस्सा है। शिक्षा आयोग के अनुसार विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के लिए व्यवस्कों में अनुशासन का घटता हुआ स्तर और उनकी नागरिक चेतना और निष्ठा में कमी उत्तरदायी है। कई अध्ययन से यह बात सामने आया कि छात्रा आंदोलन का एक प्रमुख कारण बढ़ती हुई बेरोजगारी है।
विद्यार्थीगण बहुत ऐसे तत्कालीन मुद्दों को लेकर भी विरोध् प्रदर्शित करते हैं, जो उन्हें विद्यार्थी के रूप में प्रभावित करते है। कक्षा में कमरों और हाॅस्टल में अध्कि और बेहतर आधरभूत सुविध की मांग करते हैं। पफीस वृ(ि, परीक्षाओं का संचालन, काॅलेज तथा विश्वविद्यालय प्रशासन के विरु( भी छात्रा आंदोलनरत देखे जाते हैं। शिक्षा आयोग ने शिक्षा व्यवस्था से संबंध्ति कुछ ऐसे कारकों की सूची दी है, जिनके कारण छात्रा आंदोलन पनपते हैं-
अनेक पाठ्यक्रम संबंध्ी कार्यक्रम की घिसीपिटी और असंतोषजनक प्रकृति
अनेक समस्याओं में अध्यापन व अध्गिम की अपर्याप्त सुविधएँ
अपर्याप्त विद्यार्थी अध्यापक संपर्क
कई अध्यापकों में अध्यापन कुशलता की कमी।10

जन-जागरण
जन-जागरण को नव सामाजिक आन्दोलन के अंतर्गत स्थान दिया जा सकता है। जन-जागरण के प्रसार में गैर सरकारी संगठन और नागरिक समाज का अतुलनीय योगदान है। वैसे तो पिछले कई दशकों से सामाजिक कार्यकर्ताओं के छोटे समूहों द्वारा संचालित आंदोलन भारत के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक सामाजिक वर्जनाओं के कारण हाशिएँ पर पफेंके गये गरीब जनसमूहों से जुड़े मुद्दों पर संघर्षरत रहें हैं पर 1990 को दशक में वैश्विक राजनीतिक आर्थिक शक्ति संगठनों एवं संस्थाओं की प्रभुत्ववादी नीतियों के खिलापफ आवाज उठाते हुए बुनियादी गठबंध्नों और मंचों के साथ ये आंदोलन रूबरू हुए हैं। इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप ही भारत में सूचना का अध्किार कानून लाया गया। जन-जागरूकता आंदोलन को सपफल बनाने में सोशल नेटवर्किंग साइट व मिडिया की भूमिका अहम रही है। इनके रचनात्मक सहयोग के कारण हीं पिछले दिनों सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे द्वारा चलाया जा रहा भ्रष्टाचार विरोध्ी आंदोलन प्रभावशाली बन पाया तथा व्यापक जनसम्र्थन प्राप्त कर पाया।
नव सामाजिक आंदोलन का लोकतंत्रा पर प्रभाव
कोई भी राजनीतिक व्यवस्था समाज में विद्यमान सभी विवादों को हल करने में सक्षम है, ऐसा कहना अतार्किक और एकपक्षीय है। यह दृष्टिकोण सामाजिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी घातक है। सभी समाज के अपने अन्तरविरोध् होते हैं। विद्यमान व्यवस्था कुछ मुद्दों को तो हल कर सकती है, परंतु ऐसे में समाज के विभिन्न घटकों के बीच नये विवाद भी जन्म ले सकते हैं। मतभेद लोकतंत्रा की एक विशेषता है और सामाजिक आंदोलन संगठित मतभेद का हीं एक रूप है। सामाजिक आंदोलन शिकायतों और समस्याओं की अभिव्यक्ति हेतु एक संभावना प्रदान करते हैं। ये राज्य पर दबाव डालते हैं, स्वच्छ लोकतंत्रा हेतु आवश्यक प्राध्किरण पर नियंत्राण रखते हैं। सामाजिक आंदोलन जन सामान्य की मांगे है, जिन्हें राजनीतिक व्यवस्था उपेक्षित करती है।
सत्तावादी एवं परंपरावादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक आंदोलन निरर्थक है। वे एक बेहतर सामाजिक व्यवस्था की मांगों में बाध है। इनके अनुसार असहमति अच्छी नहीं है और इसे सहन नहीं किया जा सकता। इसलिए ये सामान्यतः सामाजिक आंदोलन को गैर जिम्मेदार मानते हैं। उत्तर आध्ूनिक सि(ान्तकारों के अनुसार उपरोक्त दृष्टिकोण अतार्किक है। इनके अनुसार सामाजिक आंदोलन लोकतांत्रिक बहुलवाद का उदाहरण है, जो आवश्यक हीं नही बल्कि अपरिहार्य है। वर्तमान भूमंडलीकरण और उदारीकरण के युग में व्यक्ति के जीवन स्तर पर राज्य और समाज दोनों का आक्रमण हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में सामाजिक आंदोलन की महत्ता और बढ़ गयी है। चाहे मानवाध्किार संरक्षण का मामला हो या पर्यावरण संरक्षण या पिफर नारी सशक्तिकरण सभी मुद्दों पर सामाजिक आंदोलन ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। संक्षेप में सामाजिक आंदोलन के महत्व को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
सामाजिक आंदोलन लोगों की राजनीतिक चेतना का ही परिणाम होते हैं, और अपनी मांगों को मनवाने हेतु यह एक जन-चेतना की अभिव्यक्ति है।
सामाजिक आंदोलन राजनीतिक मुद्दो पर लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देते हैं। संघर्ष की कार्यसूची को सामने रखते हुए लोगों की चेतना का विकास करते हैं। राजनीतिक भागीदारी और जनचेतना लोकतंत्रा की रीढ़ है।
सामाजिक आंदोलन जन-साधरण की आकांक्षाओं, आवश्यकता और अपेक्षाओं को व्यक्त करते हैं। परिणामस्वरूप नीति निर्माताओं को अपने निर्णयों के प्रति सजग बनाते हैं।
सामाजिक आंदोलन नीति निर्माताओं पर प्रभाव डालते हैं और उन्हें इस बात के लिए बाध्य करते हैं कि वे उनके हितों को ध्यान में रखकर कानून बनाएँ।
नवमाक्र्सवादी विचारक हैबरमास के अनुसार लोकतंत्रा एक सत्तावादी तंत्रा के रूप में परिवर्तित हो रहा है। अतः राज्य के लिए अब उपभोक्ता वर्ग हीं सबसे प्रमुख बन चुका है। इस कारण सामाजिक आंदोलन व्यक्तियों के सार्वजनिक और निजी जीवन दोनो की सुरक्षा के लिए अत्यध्कि महत्वपूर्ण हो गया है। रजनी कोठारी के अनुसार भारत में लोकतंत्रा भ्रष्टाचार एवं अपराध्ीकरण के कारण लोगों के लिए एक तमाशा बन गया है, लोगों में असंतोष और निराशा व्याप्त है। इस संदर्भ में सामाजिक आंदोलन महत्वपूर्ण हो गया है।
भारत में अब तक हुए सामाजिक आंदोलन की दिशा सकरात्मक रही है, परंतु इनकी दशा अत्यंत सराहनीय नहीं कही जा सकती। आवश्यकता इस बात की है कि इन आंदोलनों को न केवल व्यापक जनसमर्थन मिले, राष्ट्र के बौ(िक वर्ग द्वारा वैचारिक समर्थन एवं सराहना मिले, बल्कि यह भी आवश्यक है कि सरकार द्वारा ऐसे आंदोलनो को ध्यान में रखते हुए उसके खिलापफ सख्ती का प्रयोग न करके समस्या के समाधन पर विशेष बल दिया जाये। बहु-सांस्कृतिक भारत में लोकतांत्रिक प्रतिनिध्त्वि को सूनिश्चित करने के लिए ऐसे सामाजिक आंदोलन आवश्यक है, जिससे उन लोगो की भी सत्ता में प्रतिनिध्त्वि तथा नीति निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित हो सके जो अभी तक है इससे वंचित रह गयें है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1ण् ध्नश्याम शाह, भारत में समाजिक आंदोलनः संबंध्ति साहित्य की एक समीक्षा, नई दिल्लीः सेज एवं रावत, 2009, पृ. 240
2ण् वही, पृ. 241
3ण् ।दकतमू भ्मलूववकए च्वसपजपबे ;ज्ीपतक म्कपजपवदद्धए छमू ल्वतारू च्ंसहतंअम डंबउपससंदए 2007 च्ण् 47ण्
4ण् घनश्याम शाह, 2009, पूर्व उ(ृत, पृ. 235
5ण् छंदकपजं भ्ंोंतए श्ब्पअपस सपइमतजपमे उवअमउमदज पद प्दकपंश्ए ज्ीम संूलमतेए श्रनदम 1991ए चण् 5
6ण् घनश्याम शाह, 2009, पूर्व उ(ृत, पृ. 236
7ण् ज्ीम ज्पउमे व िप्दकपंए क्मसीपए श्रनदम 7ए 2011ण्
8ण् ।दनचउं त्वलए ष्ज्ीम ॅवउमदश्े उवअमउमदजष्ए पद छपतरं ळवचंस श्रंलंस ंदक च्ण्ठण् डमीजं ;म्कण्द्धए ज्ीम व्गवितक ब्वउचंदपवद जव च्वसपजपबे पद प्दकपंए छमू क्मसीपरू व्गवितक न्दपअमतेपजल च्तमेेए 2010ए च्ण् 415ण्
9ण् थ्तंदबपदम त्ण् थ्तंदामसए प्दकपंश्े च्वसपजपबंस मबवदवउलए 1947.2004ए 2दक म्कपजपदए छमू क्मसीपरू व्गवितक न्दपअमतेपजल च्तमेेए 2005ए चण् 683ण्
10ण् घनश्याम शाह, 2009, पृ. 202.

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.