Friday 1 July 2011

उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाट्य साहित्य में अभिनय, रंगमंच और रस

डा0 (श्रीमती) षषि वर्मा
प्रवक्ता हिन्दी
वी0वी0इ0 कालिज षामली
जिला - मुजफ्फरनगर 


अभिनय नाट्य कला का एक अनिवार्य एंव आवष्यक तत्व हैं। नाट्य अभिनेता रंगमंच पर अपने अंग संचालन द्वारा भावों की अभिव्यक्ति कर नाटक की पूर्ण प्रस्तुति करता हैं। अतः अभिनय जीवन की सहजात क्रियाओं की रंगमंचीय अभिव्यक्ति भी हैं और प्रतिबिम्ब भी।
उपेन्द्रनाथ अष्क के नाटकों में चारों प्रकार के अभिनय की आयोजना की गयी हैं। मूलतः नाटक कायिक और वाचिक होते हैं। लेकिन उन्होने अप्रत्यक्षतः सात्विक एंव आहार्य का भी रूप विद्यमान रहता हैं। ‘‘जय-पराजय’’ से लेकर भॅंवर तक की नाट्य यात्रा में अभिनय के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाटक पठनीय भी हैं और रंगमंच पर अभिनीत भी। उनके नाटकों के समस्त किरदारों को सहज रूप में रंगमंच पर उतारा जा सकता हैं।
रंगमंच-परिवेष, प्रतीक और रंग संकेतः-
रंगमंच विभिन्न प्रकार की वस्तुओं द्वारा अभिनय के लिये तैयार किया गया एक मंच हैं, जिसमंे तख्त, पर्दे, रंग सज्जा और विभिन्न प्रकार की वेषभूशाओं का समन्वय रहता हैं। ध्वनि और रंग-संकेतो का समायोजन रहता हैं। किसी भी जीवन दृष्य की स्थितियों को रंगमंच की साज-सज्जा द्वारा ही संकेतित किया जाता हैं। यह रंगमंच ही जीवन के विभिन्न दृष्यों का प्रतिदर्षन करता हैं।
उपेन्द्रनाथ ‘‘अष्क’’ के नाट्य-साहित्य में रस-योजना और रस-निश्पत्तिः-
रसयोजना से तात्पर्य नाटकों में रस की सृश्टि करने से हैं। भाव विभाव अनुभाव और संचारी भावों के योग से रस की सृश्टि होती हैं। अष्क के नाटकों में भी विभिन्न मानवीय भावनाओं के माध्यम से रस निश्पत्ति की गयी हैं। षान्त, करूण, वीर रस की छटा उनके नाटको में परिलक्षित होती हैं। यहाॅं हम संक्षेप में अष्क जी के नाटकों में रस योजना और रस निश्पत्ति का अध्ययन करेंगे -
‘‘जय-पराजय’’ नाटक ऐतिहासिक कथानक को लेकर लिखा गया नाटकीय, आख्यान हैं, जिसका अंगीरस हैं- ‘‘वीर रस’’ राणा लक्षसिंह का नारियल स्वीकृति का निर्णय, चण्ड का संघर्श और फल प्राप्ति का उद्देष्य- ऐसे घटनात्मक प्रतिफल हैं, जिसमें नाटक की रस योजना का सम्पूर्ण रूप निखर उठता हैं।
लक्षसिंह द्वारा नारियल स्वीकृति की घटना, चण्ड द्वारा पिता के आन्तरिक भाव का सम्मान, माता हंसाबाई की आज्ञा का पालन, अपने सौतेले भाई की रणमल से प्राण रक्षा, तथा उसे युवराज के सिंहासन पर पदासीन कराने का अभियान ऐसे कार्य हैं, जिनमें उत्साह भाव का सम्पूर्ण स्वरूप मुखरित होता हैं। उल्लास, उमंग, हर्श, रोमांच, उन्माद, प्रसन्नता, तत्परता और संघर्श ऐसे आन्तरिक संवेग हैं, जिनकी समन्वित प्रस्तुति से उत्साह का भाव मुखरित होता हैं। उसी भाव की उत्पत्ति से नाटक में वीर रस की उत्पत्ति होती हैं।
राणा लक्षसिंह का निम्न कथन उनकी वीरत्व भावना का पोशक हैं- ‘‘मैं विचारक सुधारक अथवा प्रबन्धक कुछ भी नही। मैं तो केवल सिपाही हॅूं, तलवार पर भरोसा रखने वाला, बात पर कट मरने वाला, राजपूत सिपाही हॅूं।’’-1
इसी भाॅंति युवराज चण्ड का व्यक्तित्व भी वीरत्व के दर्प से परिपूर्ण हैं, वह त्याग, विराग, साहस, दृढ़ता, न्यायप्रियता और राश्ट्र सम्मान के रक्षार्थ सच्चा राजपूत हैं।
‘‘अधिकार! आप विक्षुब्ध न हो पिताजी, राजपूत का अधिकार उसकी तलवार हैं और रहते दम वह उससे कोई नही छीन सकता। रहा, यह राज्य! सो पिताजी, चण्ड आपके चरणों पर सहर्श ऐसे सहस्रों राज्य न्यौछावर कर सकता हैं।’’-1
निश्चय ही प्रस्तुत नाटक का ताना-बाना सुनियोजित ढंग से बनाया गया हैं, जिसमें षान्त, श्रृंगार और वीर रस की छटा प्रतिबिम्बित होती हैं। राघव और भारमली के प्रेम में श्रृंगार तो हंसाबाई और चण्ड के प्रसंग में जुगुप्सा का भाव निहित हैं। अतः नाटकीय रस चेतना की दृश्टि से यह एक सफल नाटक हैं।
‘‘पैंतरे’’ नाटक सामान्य जीवन की चतुराई और उद्देष्य प्राप्ति की सफलता पर आधारित नाटक हैं, जिसमें षान्त रस की सुन्दर आयोजना हुई हैं। नाटक के सभी पात्र फिल्म में काम लेने के उद्देष्य से निदेषक की मनुहार करते हैं, सेवा चाकरी करते हैं, आधुनिक अकर्मण्य पुरूश समाज की सोच और समझ परिश्रम से मनुहार करने की प्रवृत्ति और सुविधाओं से सम्पन्न अभिजात वर्गीय जीवन जीने की लालसा का बड़ा सुन्दर चित्रण इस नाटक में किया गया हैं।
प्रस्तुत नाटक में अष्क जी की नाट्य कला का अभिनव रूप परिलक्षित होता हैं।
व्यंग्य और विनोद उन्होने बम्बई के फिल्मी जीवन से लिया हैं, लेकिन उसे प्रस्तुत करने का ढंग इतना विषिश्ट और अनुपम हैं कि अन्य नाटकों की अपेक्षा यह नाटक अधिक लोकप्रिय हुआ हैं।
‘‘अब तो बस एक ही आरजू हैं। आप जैसे नुक्तारस डायरेक्टर के कदमों में काम करने का मौका मिल जाये तो बस बम्बई की जिंदगी सफल हो जाये।’’-1
जीवन के अनेक परिदृष्य हैं, जो स्वतः खुलते जाते हैं, फिल्मी जीवन की अयथार्थ जिंदगी।
‘‘बड़े खिलाड़ी’’ नाटक में सुजला की षादी की समस्या मूल प्रष्न हैं, जो केवल की दहेज लोलुपता और चापलूसी के कारण पूर्ण होती-होती टूट जाती हैं। हरीष तथा अन्य पात्र इस सम्बन्ध के टूटने से प्रसन्न हैं, बड़े खिलाड़ी का प्रारम्भ जीवन के नैराषय से प्रारम्भ होता हैं-
‘‘मैं क्या कहॅूं डैडी से, जिन्होने मुझसे पूछा तक नही और बात चला दी।’’-2
सुजला की पीड़ा का अन्त तब होता हैं, जब पं0 पाराषर जी केवल से सुजला की षादी का प्रस्ताव रद्द कर देते हैं। प्रस्तुत नाटक में जीवन की सहजात गतिविधियों का निरूपण हैं। जिसमें निराषा, अवसाद, पीड़ा, कश्ट, सहिश्णुता, विवषता के साथ जीवन के इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति का हर्श भी हैं। अतः इस नाटक में करूण रस की झांॅकी के साथ षांत रस की सुन्दर आयोजना हैं।
‘‘अंजो-दीदी’’ नाटक का श्री गणेष जीवन की स्वर्णिम कल्पना के साथ-साथ होता हैं। अंजो अपने आदर्ष और व्यवस्था के अनुरूप अपने परिवार को चलाने में असमर्थ रहती हैं। फलतः असमय संसार से विदा हो जाती हैं। उनका आदर्ष उनके पति वकील साहब को अन्त तक सालता रहता हैं। अंजो के पति वकील इन्द्रनारायण का कथन हैं- ‘‘नही भाई, अंजो की मौत के बाद मैने कसम खा ली थी, कि अब मैं न पियॅूंगा। न मैं चोरी से पीने लगता, न उसे वैसा फिर आता और न वह मरती।’’-3
संघर्श, व्यथा, वेदना और असफल जीवन की दारूण स्थिति का अवसाद नाटक में षोकमय वातावरण की सृश्टि करता हैं। अतः इस नाटक का अंगीरस हैं-करूण। नाटक का अन्त दुखद ही हैं।
‘‘कैद’’ नाटक में अप्पी की आत्मा जीवन पर्यन्त छटपटाती रहती हैं। प्राणनाथ का समर्पण और स्नेह उसके मन को जीतने में असमर्थ ही रहता हैं। वह दिलीप को आजीवन बिसार नही पाती। नाटक का प्रारम्भ भी अप्पी के वेदनापूर्ण कथन से होता हैं-
‘‘आजादी की आग में जलकर कुंदन बन गये तुम और न टूटने वाली बेडि़याॅं मेरे पाॅंव में बॅंधती चली गयी।’’-1
प्रस्तुत नाटक में छटपटाहट, बैचेनी और अप्राप्ति का भटकाव हैं। अप्पी आजीवन इस दर्द से छटपटाती रहती हैं। प्राणनाथ के व्यक्तित्व में उसे किंग कांग की भयानक मूर्ति की छाया परिलक्षित होती हैं। अप्पी का दर्द - ‘‘किंग कांग को मैं आज तक भी नही भूली हॅूं।’’-2
नाटक के अन्त में दिलीप जब अपने मित्रों के साथ अप्पी को अकेला छोड़कर चला जाता हैं, तब अप्पी की जीवन स्थिति अत्यन्त दयनीय बन जाती हैं। निःसंदेह इस नाटक में आक्रोष, छटपटाहट, व्यंग्य, व्यथा, क्रोध, घृणा आदि अनुभाव और संचारी, भावों के संयोग से करूण रस की सुन्दर सृश्टि हुई हैं।
‘‘उड़ान’’ नाटक में मदन माया का इच्छित पुरूश हैं जो साहसी और पुरूशार्थी हैं। षंकर क्रूर और निर्दयी हैं। लेकिन रमेष भावुक कवि-हृदय कल्पना लोक का महीन पुरूश हैं। माया के जीवन की विडम्बना हैं कि वह किसका वरण करें। अतः नाटक का प्रारम्भ करूणा - जनित  हैं  और अन्त में माया मदन की वास्तविकता को
जानकर अत्यन्त दुःखी होती हैं और स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा करती हैं। माया का कथन- ‘‘मतलब तुम मुझसे प्रेम नही करते जाओ! तुम अपने रास्ते चले जाओ इस बर्बर षिकारी से मैं स्वयं निपट लूॅंगी।’’-1
अतः नाटक का अन्त भी अत्यन्त करूणाप्रद हैं। इसलिये इस नाटक का अंगीरस भी करूण रस हैं।
‘‘भॅंवर’’ नाटक की प्रतिभा प्रोफेसर नीलाभ के व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। अन्य पात्रों में ज्ञान, जगन, हरदत्त, निर्मल और नीहार के व्यक्तित्व में उसे नीलाभ का प्रतिबिम्ब परिलक्षित नही होता हैं। अतः वह इसी पीड़ा से त्रस्त आजीवन कुमारिका ही बनी रहती हैं- उसकी पीड़ा-
‘‘हरेक आदमी अपने खोल के अन्दर महज एक बच्चा हैं।’’-2
प्रतिभा अन्त में स्वयं अपनी सोयी हुई व्यथा से पीडि़त और दुखी दिखाई देती हैं और सोचती हैं- ‘‘अपनी खोल के भीतर क्या मैं भी सिर्फ एक बच्ची हॅूं, बच्ची जो चाॅंद को चाहती हैं और खिलौने से जिसकी तसल्ली नही होती।’’-3
प्रस्तुत कथन में प्रतिभा की आन्तरिक पीड़ा का निदर्षन हुआ हैं। अतः प्रस्तुत नाटक षोकपूर्ण भावो की पुश्टि करने वाला करूण रस से आप्लावित हैं।
‘‘अलग-अलग रास्ते’’ नाटक में करूण रस भी हैं और षान्त रस भी। रानी के जीवन की व्यथा कथा करूण रस से आप्लावित हैं। रानी का स्वतन्त्र निर्णय ही उसके जीवन के प्रति करूणा की सृश्टि करता हैं। अपने पति त्रिलोक की दहेज लोलुप प्रवृत्ति के प्रति रानी को बेहद घृणा हैं- ‘‘पूरन उन्हंे दरवाजे से लौटा दो मैं न जाऊंगी।’’-4
अन्त में रानी अपने पिता से दृढ़ निष्चय करके कहती हैं- ‘‘(अवरूद्ध कण्ठ से) जहाॅं तक सींग समाऐगें, चली जाऊंगी, किन्तु इस घर में एक पल भी नही रहॅूंगी।’’-1
प्रस्तुत नाटक में रानी का जीवन चित्र करूण रस से परिपूर्ण हैं वही उसकी बहन राज अनेक कश्ट सहकर भी अपने पति के घर जाने के लिये सहर्श तैयार हो जाती हैं- ‘‘मैं आपके पाॅंव पड़ती हॅूं, पिताजी मुझे इसी घड़ी भेज दीजिए। मेरे देवतातुल्य ससुर को और अपमानित मत कीजिए।’’-2
राज के इस निर्णय में जीवन की अपरिमित षांति निहित हैं। निष्चय ही ‘‘अलग-अलग रास्ते’’ नाटक में करूण और षान्त रस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई हैं।
‘‘स्वर्ग की झलक’’ षांत रस प्रधान नाटक हैं। इसमें मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की परिस्थितियों और घटनाओं का विवरण हैं। रघु के सामने समस्या हैं कि वह षिक्षित लड़की से विवाह करें या अषिक्षित से इस जटिल प्रष्न को सुलझाने में ही उसे जीवन में कुछ कटु और सरस जीवन सन्दर्भों का अनुभव होता हैं। जिसका निदान एक कम पढ़ी लिखी, संस्कारित लड़की से पाणिग्रहण करने में होता हैं। अतः यह नाटक षांत रस की अभिव्यक्ति करने वाला सुन्दर नाटक हैं।
‘‘छटा बेटा’’ नाटकीय कौषल से परिपूर्ण अद्वितीय नाटक हैं। यह नाटक पं0 बसंतलाल के परिवार के विभिन्न व्यक्तियों की भावनाओं, जीवन स्थितियों और घटनाओं का निरूपण करते हुए जीवन की सहज प्राणधारा का निरूपण करता हैं। इसमें हास्य, व्यंग्य और

विनोद के अनेक स्थल हैं। पारस्परिक संघर्श एंव उनके पुत्रों की समस्या हैं। अतः यह नाटक परिवार की सम्पूर्ण स्थिति का निरूपण करते हुए हास्य रस की सुन्दर अभिव्यक्ति करता हैं। व्यंग का एक चित्र- ‘‘डा0 लुम्बा...........‘‘आपरेषन जो वह करता हैं, उनमें से 75 प्रतिषत सीधे स्वर्ग के पासपोर्ट सिद्ध होते हैं।’’-1
इस प्रकार अष्क जी के नाट्य षिल्प की सबसे बड़ी विषेशता यह हैं कि वे पात्रों के मनोविज्ञान को समझकर उसी जीवन स्थिति को कुषल पात्रों के माध्यम से रंगमंच पर प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। सम्प्रेशण की यह क्षमता ही नाटक में रस की सृश्टि करती हैं। अतः ये नाटक पठनीय ही नही, मनुश्य की व्यथा और वेदना से जोड़ने वाले सम्प्रेशणीय नाटक भी हैं।
1. जय-पराजय, पृ0सं0 54 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986
2. जय-पराजय, पृ0सं0 121 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986
3. पैंतरे, पृ0सं0 59 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1967
4. बड़े खिलाडी, पृ0सं0 61 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1969
5. अंजो-दीदी, पृ0सं0 111 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1995-1996
6. कैद, पृ0सं0 65 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972
7. कैद, पृ0सं0 74 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972
8. उड़ान, पृ0सं0 151 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972
9. भॅवर, पृ0सं0 111 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1961
10. अलग-अलग रास्ते, पृ0सं0 89 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1963
11. अलग-अलग रास्ते, पृ0सं0 124 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963
12. अलग-अलग रास्ते, पृ0सं0 118 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963
13. छठा बेटा, पृ0सं0 91 नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1971