Friday 1 July 2011

रागांग वर्गीकरण पद्धति एवं प्रमुख रागांग



डाॅ0 शुचि तिवारी
अध्यक्ष संगीत विभाग
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।

रागांग वर्गीकरण पद्धति स्वर साम्य की अपेक्षा स्वरूप साम्य पर आधारित है क्योंकि ‘‘राग ’’ की सामान्य पहिचान तो स्वरों द्वारा हो जाती है परन्तु सूक्ष्म पहिचान विशिष्ट स्वर समूहों द्वारा ही सम्भव है।’’1
इस पद्धति का उल्लेख मध्यकाल से ही होता आया है। रागों के प्रकारों में रागांग प्रकार के रागों का उल्लेख तथा वर्णन नान्य देव, शारंगदेव, कुम्भ आदि ग्रन्थकारों ने बताया है, किन्तु इसका विस्तार मध्यकाल से अधिक हुआ है ऐसा प्रतीत होता है। कल्ल्निाथ के अनुसार- ‘‘रागांग राग वे है, जिनमें ग्राम रागों की छाया हो।’’2 इससे कल्पना की जा सकती है कि एक मुख्य राग की छाया (किसी विशेष स्वर समुदाय द्वारा) भिन्न-भिन्न रागों मे उपस्थित  हो, तब उसे रस राग को रागांग कहा जता है मध्यकाल मेें रागांग पद्धति को हो भेद पद्धति भी कहा जाता था। पं0 भावभट्ट का 18 भेदों का योगदान इस क्षेत्र में सराहनीय है।
मध्यकाल में मिश्र रागों के निर्माण में इस पद्धति का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार के रागों का मिश्रण करके नए राग बनाने वालों में अमीर खुसरों अपना विशेष स्थान रखते हैं। अमीर खुसरों ने मुख्य रागों के साथ अन्य रागों को मिलाकर कई अन्य नए रागों की रचना की हैै।3
रत्नाकर के अनुसार ही इस समय में सब मिलाकर 264 से अधिक राग प्रचार में थे। रत्नाकर में 119 रागों का वर्णन उपलब्ध है। संगीत रत्नाकर मंे 30 ग्राम राग, 8 उप राग, 20 राग, 96 भाषा, 20 विभाषा, 4 अन्तर भाषा, 21 पूर्व प्रसिद्ध तथा अधुना प्रसिद्ध रागांग, 20 भाषांग, 15 क्रियांग तथा 30 उपांग, कुल 264 रागों के नाम है।4
रागांग का शाब्दिक अर्थ होता है राग का अंग। यानी राग में प्रयुक्त कुछ विशेष स्वर संगति जिसके द्वारा राग स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकें। जब प्राचनी व सिद्ध रागों की स्वरावली अन्य रागों में भी प्रयुुक्त होती दिखायी देती है तो वही उस राग का रागांग कहलाता है। प रे स्वर संगति कल्याण को दर्शाती है। रे प यह मीडयुक्त स्वर संयोग तुरन्त मल्हार अंग दर्शाता है।
निष्कर्ष यह है कि कुछ प्रमुख रागों में ऐसे स्वर समूह होते है जिनसे उनकी स्वतंत्र छवि बनती है। बस ऐसे ही स्वतंत्र छवि बनाने वाले स्वर समूह को रागांग कहते है तथा स्वतंत्र अंग वाले राग रागांग प्रमुख राग माने जाते है, ऐसे रागों में विस्तार की विस्तृत संभावनायें रहती है। आधुनिक काल में हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में रागांग वर्गीकरण पद्धति को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
आधुनिक काल मंे पं0 भातखंडे ने इस पद्धति में विशेष योगदान दिया हैं पं0 भातखंडे ने हिन्दुस्तानी संगीत में प्रचलित मुख्य रागों में से कुछ स्वर समूहों को चुना तथा उसके आधार पर रागों का वर्गीकरण किया। पं0 भातखंडे के अनुसार रागांग में अंग ऐसा भाग है, जो रागों में अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। किसी राग के आरोह में नियमित स्वर छोड़ना, किसी के आरोह या अवरोह विशेष प्रकार के रखना, किसी राग की स्वर रचना विशिष्ट प्रकार की रखना आदि। उदारहरणस्वरूप इसे काफी थाट के अंगों में समझा जा सकता है। पं0 भातखंडे जी ने काफी थाट के पाँच अंग माने है, काफी अंग, धनाश्री अंग, कानड़ा अंग, सारंग अंग, मल्हार अंग। इन रागों से विशेष प्रकार का स्वरसमूह चुनकर उनका प्रयोग जिन रागों में होता है, उन्हें उस रागांग से जाना गया है।
पं0 विष्णु दिगम्बर पलुष्कर जी के शिष्य श्री नारायण मोरेश्वर खरे जी ने प्रचलित रागों के अंगभूत टुकड़ों को चुना अथवा ऐसे प्रचलित रागों को खोजा जिनसे अन्य रागों का साम्य हो सके। इस प्रकार के रागों को एक वर्ग में रखकर ‘रागांग’ संज्ञा से सम्मानित किया गया तथा ऐसे रागांगों की संख्या तीस मानी गयी। इन्हीं रागांगों के राग वाचक स्वरों के आधार पर अन्य रागों के गायन-वादन का विधान ही इस वर्गीकरण की प्रमुख विशेषता है। ये तीस रागांग इस प्रकार हैं:-
1. कल्याण 2. बिलावल 3. खमाज
4 भैरव 5. काफी 6. मारवा
7 तोड़ी 8. पूर्वी 9. आसावरी
10. भैरवी 11. सारंग 12. ललित
13. भीमपलासी 14. श्री 15. विभास
16. प्ीलू 17. सोरठ 18. केदार
19. नट 20. कानड़ा 21. बागेश्वरी
22. शंकरा 23. हिंडोल 24. आसा
25. मल्हार 26. भूपाली 27. कामोद
28. भटियार 29. बिहाग 30. दुर्गा


इन्हीं 30 अंगों के अन्तर्गत समस्त रागों को वर्गीकृत किया गया।
भारतीय संगीत शास्त्र में भी तुलसी राम देवांगन ने रागांग पर एक अध्याय लिखा है जिनमें उन्होंने बताया कि उत्तर भारतीय संगीत में ऐसे अंग प्रमुख राग जिनके स्वतंत्र अंग सर्वमान्य है तथा जिनकी छाया या अंग प्रभाव दूसरे रागों में दिखायी देते है5 निम्नांकित है:-

1. विलावल अंग 2. काफी अंग 3. कल्याण अंग
4 धनाश्री अंग 5. सारंग अंग 6. कानड़ा अंग
7 मल्हार अंग 8. खमाज अंग 9. भैरव अंग
10. गौरी अंग 11. श्री अंग 12. तोड़ी अंग
13. मारवा अंग 14. भैरवी अंग 15. आसावरी अंग
16. पूर्वी अंग

प्राचीन महान संगीतज्ञों द्वारा प्रदर्शित तथा प्रचलित जाति गायन कालांतर में राग एवं उसी के अंग-प्रत्यंगों के जोड़-तोड़ के रूप रूपांतर से सृजित राग एवं इन्हीं रागों के रागांगों द्वारा अनगिनत हजारों राग काल क्रम में उत्पन्न होते रहे है और आगे भी होते रहेंगे तब अनावश्यक रूप से अवैज्ञानिक तथा असैद्धान्तिक कपोल-काल्पनिक थाट तथा थाट राग वर्गीकरण प्रचलन की बिलकुल आवश्यकता नहीं थी।
‘ अमुक थाट से अमुक राग उत्पन्न होता है’ यह तथ्य अथवा उक्ति राग वर्गीकरण व्याख्यान में ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक अथवा विज्ञान सम्मत नहीं प्रतीत होती है, थाट की उत्पत्ति से सैकड़ों वर्ष पूर्व ही राग की उत्पत्ति हो चुकी थी, जैसा कि शास्त्र कहता है कि छठवीं शताब्दी के मतंग मुनि कृत वृहद्देशी ग्रन्थ में प्रथम बार राग उल्लेख किया गया है और थाट का उल्लेख उसके सैकड़ों वर्षों बाद पंद्रहवी शताब्दी के लेखक पं0 लोचन कवि ने अपने ग्रंथ राग तंरगिणी में प्रथम बार किया। अब, जब राग की रचना थाट से सैकड़ों वर्ष पूर्व ही हो चुकी थी तब राग, थाट का जनक हुआ, न कि थाट राग का।
पं0 रातनजनकर जी ने स्वयं कि उक्ति में स्वीकार किया है कि ‘‘थाट राग वर्गीकरण में अड़चन उन्हीं रागों में अधिकतर आयेगी की जिनमें एक ही स्वर से शुद्ध विकृत ये दोनों दर्जें आते है।’’ क्या इस उक्ति से यह सवाल नहीं उठता है किह ऐसे तो सैकड़ों राग है जिनमें शुद्ध-विस्तृत दोनों दर्जें के स्वर आते है तो उन्हें किन-किन थाटों में रखा जाए और जिस थाट-व्यवस्था में अड़चन हो, वह वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक कैसे हो सकता है? यहाँ  यह कहने से तो समस्या का समाधान नहीं होगा कि हाँ अमुुक राग को इस दृष्टि से अमुक थाट में और उस दृष्टि से अमुक राग को अमुक थाट में रख दिया या रख दिया जाये।
हर कोई राग उसके अपने अंगों से ही पहचाना जाता है, थाट से नहीं। इस कथन की पुष्टि स्वयं पं0 भातखण्डे जी की निम्नोक्त उक्ति से भी की जा सकती है ‘‘प्रत्येक राग का अपना एक विशेष, दूसरे सब रागों से भिन्न स्वरूप होता है।’’ जैसे कोई दरबारी, अथवा जौनपुरी ( आसावरी थाट)गाने वाले कलाकार से दरबारी अथवा जौनपुरी के अंग ही सुनना चाहेंगे आसावरी अंग नहीं।
राग गायन वादन में राग के मुख्य अंगों का बड़ा महत्व होता है, थाटा का नहीं। दरबारी के राग रूप में आसावरी की तनिक भी छाया नहीं दिखाई देती, ललित के राग रूप में पूर्वी अथवा मारवा थाट को महत्वपूर्ण स्वरं पंचम का कोई अतापता नहीं दिखाई देता। बहार के राग रूप में काफी थाट अथवा काफी राग की इतनी सी झलक भी नहीं दिखाई देती। इस प्रकार कोई भी राग अपने-अपने राग वाचक अंगों  वाचक अंगों पर ही निर्भर रहता है, किसी भी मन गढ़न्त काल्पनिक थाट पर नहीं।
जयसुख लाल त्रिभुवनशाह केे अनुसार रागांग ’’ राग के राग वाचक मुख्य अंग को वैसे ही रखकर (1) कुछ स्वरों मे हेर - फेर यानी शुद्ध विकृत स्वरूप बदलने से (2) स्वरों की संख्या घटाने अथवा बढ़ाने से (3) विविध स्वर संगतियों को वक्रत्व प्रदान करने से, राग को अन्य रागों से मिलन कराने से जिनमें मूल राग का स्वरूप दिखता रहे। ऐसे रागों को रागांग राग कहते है। इसी प्रकार से शिवमत भैरव, बंगाल भैरव, अहीर भैरव, आदि कई राग प्रचार में है।6
रागांग ही राग उत्पत्ति तथा राग वर्गीकरण का वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक आधार है थाट नहीं किसी एक राग अथवा एकाधिक रागों के एक अथवा एकाधिक रागांग ही राग उत्पत्ति तथा राग वर्गीकरण का वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक सहज सरल बोधगम्य आधार, है, जिसे जाने बिना कोई अच्छा विद्यार्थी, अच्छा शिक्षक अथवा अच्छा कलाकार कदापि नहीं बन सकता। जिन्हें किसी एक अथवा एकाधिक रागों के अंग अथवा अंगो की जानकारी जितनी अधिक होगी वे उतनी ही आत्मविश्वास के साथ राग गायन वादन प्रस्तुत कर सकते है। उन्हें यह ज्ञान होगा कि किसी मौलिक राग का मुख्य अंग कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे प्रयोग करना है। मैलिक तथा मिश्र जाति के इन मुख्य अंगों के द्वारा ही हर कोई राग अपनी पहचान तथा प्रतिष्ठा स्थापित करता है, जिसे कहते है फलाना-फलाना अंग अर्थात् रागों के नाम से जैसे बिलावल अंग, भैरव अंग, तोड़ी अंग, सारंग अंग, मल्हार अंग आदि-आदि।
डाॅ0 जतिन्द्र सिंह खन्ना के अनुसार ‘’रागों को एक अंग हो सकता है किन्तु कुछ रागों का अंग एक प्रधान अंग के रूप में स्थापित हो चुका है और इस राग के साथ नाम तथा स्वरों की दृष्टि से कुद अन्य राग भी जुड़ गये है।’’  जैसे - एकराग मियाँ की तोड़ी है। इसके प्रधान अंग को तोड़ी अंग कहते है। यह राग की चलन तथा स्वर विस्तार से सम्बन्धित हैं। इसका प्रयोग जब भी कहीं होगा तो उसमें तोड़ी शब्द को प्रयोग होगा तोड़ी अंग लगाया जाएगा। जैसे गुर्जरी तोड़ी शब्द भी आया है तथा तोड़ी के स्वर भी सम्मिलित है। इसी प्रकार विलासखानी तोड़ी में स्वर तो भैरवी के है परन्तु इसकी चलन तोड़ी के समान है। इसलिए यह तोड़ी का प्रकार है।7
राग गायन-वादन के लिए हमें जानने की आवश्यकता है रागांगो की थाट की नहीं। तोड़ी अंग के बिना, तोड़ी अंग के राग भूपालतोड़ी, गुर्जरी तोड़ी, वैरागी तोड़ी आदि राग, तोड़ी थाट से, सारंग अंग के बिना, सारंग अंग के राग वृंदावनी, मधमाद, शुद्ध सारंग, सामंत सारंग, आदि राग काफी थाट से कान्हड़ा अंग के बिना, कान्हड़ा अंग के राग दरबारी, आड़ाना, नायकी, सुहा आदि राग आसावरी थाट से गाया बजाया जाना बिलकुल सम्भव नही। जौन पुर के सुल्तान हुसैन शर्की भी रागांग पद्धति को मानने वालों मे से थे। उन्होनें श्याम के बारह प्रकार बतायें है जिनका उल्लेख फकिरूल्ला के राग दर्पण के दूसरे अध्याय में मिलता हैं।8
अधिकतर या सभी विद्वानों की रागांग के बारे में राय जानकर यही पता चलता है कि थाट राग वर्गीकरण एक गणितीय वर्गीकरण है तथा संगीत को गणित की तरह बांटकर आसानी से वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। थाट अपने आप में जड़ है तथा उसे गाया बजाया नहीं जा सकता और राग अपने कुछ नियमों के अंतर्गत रहकर अपने अंगों के साथ सदा क्रियाशील है। जिस कारण एक ही राग हर किसी कलाकार द्वारा नये-नये अंदाज में अति सुन्दर रूप मंे पेश किये जाते है और उसका यह सौन्दर्य उस राग के मुख्य अंगों पर निर्भर करता है।
रागांग वर्गीकरण पद्धति कोरी कल्पना पर आधारित नहीं है, राग इससे जुड़ाव भी महसूस करते है जबकि थाट एवं राग में कोई भी साम्यता एवं जुड़ाव महसूस नहीं होता बल्कि लगता है कि थाट को जबरदस्ती रागों के साथ जोड़ा गया है। थाट वर्गीकरण पद्धति प्रचारित होने के कारण भी लोग रागांग वर्गीकरण पद्धतिको भूल नहीं पाये हैं। यह इस पद्धति के उपयोगी होने का ही प्रमाण है।
संदर्भ ग्रन्थ
1- भारतीय संगीत शास्त्र पृष्ठ 291, 292 तुलसी राम देवांगन।
2- संगीत रत्नाकर (भाग-2) पृष्ठ 15, कल्लिनाथ
3- राग दर्पण (द्वितीय अध्याय) पृष्ठ 62,, फकिरूल्ला
4- ैंदहममज त्ंजंदंांत व िैींतंदह क्मअए डनदेीपतंउए डंदवींत स्ंस च्नइसपेीमतेण्
5- भारतीय संगीत शास्त्र- तुलसी राम देवांगन
6- भैरव के प्रकार प्रथम संस्करण 1991 जय सुखलाल त्रिभुवन शाह ‘विनय’
7- संगीत की पारिभाषिक शब्दावली पृष्ठ 12 डा0जतिन्द्र सिंह खन्ना
8- राग दर्पण (द्वितीय अध्याय) पृष्ठ 78, फकिरूल्ला


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