Friday 1 July 2011

कालिदास की दृष्टि मंे अष्टमूर्ति शिव का स्वरूप


डाॅ0 देव नारायण पाठक 
असि0 प्रोफेसर संस्कृत विभाग
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

संस्कृत साहित्याकाश की ज्योतिर्मयी परम्परा को अमरत्व प्रदान करने वाले, कविताकामिनीकान्त, कविकुलकमलदिवाकर, भारतीय संस्कृति के अनवद्य गायक कालिदास के काव्य में एकेश्वरवाद का सिद्धान्त अष्टमूर्तिशिव की परिकल्पना में प्रतिफलित हुये हैं। अष्टमूर्ति शिव से कल्याण कामना करते हुये कवि कहते हैं कि-
या सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति  यया प्राणिनः प्राणवन्तः,
प्रत्यक्षाभिः प्रपत्रस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।1
अर्थात् जो विधाता की प्रथमा सृष्टि अर्थात् जलमीय मूर्ति है, जो विधिपूर्वक हवन की गई सामग्री को वहन करने वाली अर्थात् अग्निरूपाा मूर्ति है, जो हवन करने वाली अर्थात् यजमानरूपा मूर्ति है, जो दो कालों का विधान करने वाली अर्थात् सूर्य एवं चन्द्र रूपा मूर्ति हे, श्रवणेन्द्रिय का विषय अर्थात् शब्द ही है गुण जिसका, ऐसी जो संसार को व्याप्त करके स्थित है अर्थात् आकाश रूपा मूर्ति, जिसे सम्पूर्ण बीजों की प्रकृति कहा गया है अर्थात् पृथ्वी रूपा मूर्ति तथा जिससे सभी प्राणी प्राणों से युक्त होते हैं अर्थात् वायुरूपा मूर्ति-इन प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत होने वाली मूर्तियों से युक्त ‘शिव’ आप इन आठों मूर्तियों को धारण करने वाले शिव एक हैं और शिव के इस स्वरूप का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इनका प्रत्येक रूप प्रत्यक्ष का विषय है। हम जो कुछ देख सकते हैं, जो कुछ जान सकते हैं वह सब शिवस्वरूप ही हैं यहाॅ हम मात्र संकेत कर देना चाहते हैं कि कालिदास का काव्य काश्मीर शैव दर्शन के विचारों से अनुप्रणित है। इस अद्वयवादी दर्शन के अनुसार एक मात्र शिव की ही सत्ता है, शिव से व्यतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह सम्पूर्ण सृष्टि शिव का ही आत्मप्रसार है, न उससे रहित और न उससे इतर। शिव ही एक मात्र आधार है, जिसका स्पन्दन समस्त प्राकर के भेदों का कारण है। वह ही प्रमाता और प्रमेय, ज्ञाता और ज्ञेय आदि रूपों मे अवभासित हो रहा है-
तेन शब्दार्थचिन्तासु न सावस्था न यः शिवः।
भोक्तैव भोग्यभावेन सदा सर्वत्र संस्थितः।।2
एक ही तत्व का अनेक रूपों में अवभासन उसका परमार्थ है, वही स्वयं को ब्राह्माण्ड के रूप में प्रकट करता है तथा विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने पर भी अपने यथार्थ स्वरूप से च्युत नहीं होता है। यहाॅ पर भी इस अष्टमूर्ति शिव की अवधारणा में यह बात स्पष्ट है कि हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण शिवमय है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश-ये पन्चमहाभूत, सूर्य और चन्द्र तथा यज्ञकर्ता-ये आठ शिव के रूप है।
जलरूपा मूर्ति-स्रष्टा की सर्वप्रथम रचना इसे माना गया है। सृष्टि की अभिलाषा से युक्त हो विधाता ने जल की रचना कर उसमें बीज का निक्षेप किया, जिससे स्थावर और जंगम समस्त सृष्टि का अविर्भाव हुआ। मनुस्मृति में भी कहा गया है-
‘अप एव ससर्जाऽऽदौ तासु बीजमवासृजत्।3
कुमारसम्भव में भी पुनः कवि ने सर्वप्रथम जलरूपा सृष्टि के रचे जाने की बात कही है-
यदमोघमपामन्तरूप्तं बीजमज त्वया।
अतश्चराचरं विश्वं प्रभवस्तस्य गीयसे।।4
इस प्रकार जल समस्त जीवन का, समस्त जगत् का आधार है। जीवन के आधारभूत तत्व में रूप में जल के महत्व को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं आज आवश्यकता इस बात की है कि शिव की यह प्रथममूर्ति-अशिव, अमंगलकारी प्रदूषण से युक्त न हो। क्योंकि शिव यदि जीवन का आधार है तो अशिव जीवन का अपघातक और इस अशिव कारक तत्व से जगत् में पेय जल, संरक्षित भूमिगत जल और वर्धिष्यमाण वृष्टिकारक जल सभी में संकट की स्थिति अनुभूतिगम्य है।
अग्निरूपा मूर्ति-अग्नि को देवताअेां का मुख कहा गया है-‘अग्निमुखा वै देवाः’ क्योंकि देवताओं तक हव्य को पहुँचाने का माध्यम अग्नि ही है। ऋग्वेद में यज्ञीय अग्नि को यजमान का आशुदूत कहा गया गया है जो यज्ञ में नियमानुसार प्रदान की गयी हव्य सामग्री को (4,12,1) देवताओं तक पहुँचाता है (1,1,4)। यही अग्नि की हव्यवाहक नाम की सार्थकता है। अग्नि विधिपूर्वक हेतु सामग्री का ही वहन करती है। अग्नि के बिना सृष्टि रूप यज्ञ असम्भव है। अग्नि ऊर्जा का प्रतीक है। जठराग्नि (शारीरिक ऊर्जा) बडवाग्नि (जलीय ऊर्जा) और दावाग्नि रूप सामान्य अग्नि की अपेक्षा यज्ञीय अग्नि में शिवत्व की स्थापना का आशय-इस ऊर्जा के समुचित संरक्षण एवं उपयोग के लिये प्रयत्नशील रहना है।
अग्नि की हव्यवहकता के कारण ऋग्वेद में मेघ को भूमि को तृप्त करने वाला तथा अग्नि को द्यूलोक को तृप्त करने वाला कहा गया है-
भूमिं पर्जन्य जिन्वन्ति दिवंजिन्वन्त्यग्नयः।।5
कालिदास ने भी रघुवंश में विधिपूर्वक किये गये हवन से जलवृष्टि की बात कही है-
हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु।
वृष्टिर्भवति सस्यानामवगग्रहविशेषिणाम्।।6
ऋग्वैदिक कालीन देवताओं को निवासस्थान के आधार पर तीन कोटियों में रख गया है द्युःस्थानीय, अन्तरिक्ष स्थानीय और पृथ्वी स्थानीय। इनमें पृथ्वी स्थानीय तेज रूप देवता अग्नि है।
होतृरूपा मूर्ति-कालिदास ने मानव को सृष्टि यज्ञ के ‘यजमान’ पद पर प्रतिष्ठित किया है। मनुष्य का होेतृत्व पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आज के पर्यावरणीय समस्त असंतुलन और तद् जन्य संकट के मूल में मानव का होतृत्व से भोक्तृत्व में पर्यवसान है। यद्यपि यह सत्य है कि यज्ञ के फल का भोक्ता या अधिकारी भी यजमान ही होता है किन्तु इस भोक्तृत्व के पूर्व उसे यज्ञ में त्याग और निःस्वार्थ समर्पण के साथ सक्रिय योगदान देना होता है। मनुष्य का होतृत्व उसकी कर्मनिष्ठा में निहित है।
कालिदास के इस अष्टमूर्ति स्वरूप में सम्यक् अवलोकन से यह स्पष्ट है कि मनुष्य भी इन आठमूर्तियों में एक है; ऐसा नहीं कि वह इन सबमें सर्वोपरि है, अपितु सभी समान हैं। मनुष्य के हाथ से लोक मंगल का विधान तभी हो सकेगा जब वह इस समानता को ह ृदय से अंगीकार कर ले। सृष्टि के कण-कण में शिव का वास मान लेने पर मुनष्य आत्मश्लाघा की चकाचैध से निकल सकेगा। परिणामतः प्रकृति के प्रति साहचर्य एवं सह-अस्तित्व के भाव का विकास सरलता से हो सकेगा। किन्तु मनुष्य के स्वार्थ-प्रेरित अविवेकपूर्ण आचरण से चतुर्दिक् अमंगल का विधान व्याप्त है। प्रकृति के अन्य समस्त तत्व कभी भी स्वार्थवश प्रवृत्त नहीं होते-
विदितं वो यथा स्वार्था न मे काश्चित्प्रवृत्तयः।
ननु मूर्तिभिरष्टाभिरित्थंभूतोऽस्मि सूचितः।।7
और शिव की ये अष्टमूर्तियाॅ परस्परापेक्षा का निर्वाह करते हुये सृष्टि को संचालित करती है-
कलितान्योन्यसामथ्र्यैः पृथिव्यादिभिरात्मभिः।
येनेदं ध्रियते विश्वं धुर्येर्यानमिवाध्वनि।।8
ये तत्व भी मानवीय संरक्षण द्वारा संवर्द्धित होते हुये समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस अन्यान्योश्रितत्व को आत्मसात् कर लेने पर मानव सर्व स्वामित्व के मिथ्याभिमान से विमुख होकर पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर सकेगा। भोगेच्छा का सम्बन्ध रजोगुण से है, जैसा कि गीता में कहा गया है-
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।9
अर्थात् रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मां का सकामभाव से आरम्भ, अशन्ति और विषयभोगों की लालसा-ये सब उत्पन्न होते है। किन्तु यही भोगेच्छा जब स्वार्थाभिभूत हो सम्पूर्ण प्राणिवर्ग के अमंगल की आधारशिला पर अधिष्ठित हो जाये तो घोर तामसीवृत्ति की परिचायक होगी। इसीलिये कालदास अष्टमूर्ति शिव से प्रार्थना करते हैं कि-
अष्टाभिर्यस्य कृत्स्नं जगदपि तनुभिर्बिभ्रतों नाभिमानः,
सन्मार्गालोकनाय व्यपनयतु स वस्तामसीं वृत्तिमीशः।।
सर्वमांगल्य (शिव) की भावना ही तमसोन्मुखी मानवी वृत्ति पर नियंत्रण कर सकती है। ऐसा होने पर प्रकृति भोग्या नहीं रह जाती, परिणामतः चित्त का विकार, चित्त के विस्तार में रूपान्तरित हो जाता है। यज्ञ करते हुये दिलीप10  तथा दशरथ11 को कालिदास ने अष्टमूर्ति शिव के एकांश के रूप में वर्णित किया है।
कालिदस का असुर स्वरूप निरूपण इस बात का साक्षी है कि प्रकृति को उसकी इच्छानुसार गति न करने देकर, जब-जब प्रकृति को अपने अनुरूप नियमित करने की, संचालित करने  की चेष्ठा जिसने की, वह ही असुर पद वाच्य हुआ। यथा तारकासुर का वर्णन करते हुये इन्द्र ने कहा- हे भगवन्! प्रचण्ड किरणों वाला सूर्य भी उस तारकासुर से इतना डरता है कि उसके नगर पर केवल उतनी ही किरणें फैलाता है जिनसे तालाब के कमल भर खिल सकें, चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ पूरे महीने चमकता है, पवन उसके पास पंखे की वायु से अधिक वेग से नहीं बहता क्योंकि उसे डर है कि वेग से बहने पर तारकासुर की फुलवारी के फूल झड़ जायें और उसे चोर का दण्ड भोगना पड़ें। छहों ऋतुयें अपने समय का विचार छोड़कर उपवन की मालिनों के समान एक साथ अपने अपने ऋतु के फूलों को उपजा कर तारकासुर की सेवा करती हैं।12
आज का मनुष्य प्रकृति के सन्दर्भ में तारकासुर से पृथक् कहाँ है? ऋतु का व्यतिक्रम करके प्रत्येक ऋतु के फल, फूल, सब्जियाँ सभी तो आज हम प्राप्त कर लेते हैं। प्रकृति से प्राप्त होने योग्य जितनी सुविधायें हैं उनको स्वकीय सवार्थसाधन में प्रयुक्त करने में हम यत्किंचित् भी संकोच नही करते।
सूर्य एवं चन्द्ररूपा मूर्ति-भौतिक तत्वों से बनी प्रकृति देश की रचना करती है और अखण्ड काल को अहोरात्र के रूप में विभाजित करने वाली सूर्य एवं चन्द्ररूपा मूर्ति है। पृथ्वीतल पर दिवस का विधायक, ऋतुविपर्यय का कारक , ऊर्जा, उष्मा तथा प्रकाश का मूलस्रोत सूर्य है, जिससे पर्यावरण के विविध तत्व- तापमान, प्रकाश, ऊर्जा, जलवायु, वनस्पति, प्राणिवर्ग आदि सभी प्रभावित होते हैं।
आकाशरूपा मूर्ति-आकाश से तात्पर्य शून्य स्थान से है। आकाश की सत्ता का ज्ञान उसके गुण शब्द के द्वारा होता है-‘शब्दगुणकमाकाशम्। तच्चैकं विभु नित्यं च।13 आकाश नित्य है, सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित है, इसका प्रत्यक्ष श्रवणेन्द्रिय के द्वारा होता है। कालिदास ने पन्चमहाभूतों में अन्यों का परिचय उनके गुण के माध्यम से नहीं दिया है किन्तु आकाश को उसके गुण के माध्यम से अभिव्यक्त करने के मूल में सम्भवतः यह भाव निहित है कि अन्य तत्वों का दूषण तो उन्हें तत्वों को विकृति कर देता है यथा जलप्रदूषण, वायुप्रदूषण आदि किन्तु शून्य आकाश में उत्पन्न हुआ विकार उसके गुण-शब्द का दूषण करता है। शब्द या ध्वनि का दूषण आज पर्यावरणीय गम्भीर समस्या के रूप में देखा जा रहा है। आकाश के शिवत्व की अभिरक्षा के लिये आकाश को ध्वनि प्रदूषण विनिर्मुक्त करना होगा।
पृथ्वीरूपा मूर्ति-यह सम्पूर्ण बीजों का उत्पत्ति स्थल है पृथ्वी की इस प्रसवार्थता को महाभारत में भी स्वीकार किया गया है ‘भूमेः स्थैर्यं गुरूत्वं च काठिन्यं प्रसवार्थता’ ओर अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में इसे समस्त वनस्पतियों का ध्रुव आधार कहा गया है। पृथ्वीरूपा इस मूर्ति के शिवत्व की रक्षा अपरिहार्य है अन्यथा अशिवत्वकारी भूमि सम्बन्धी प्रदूषणों के परिणामस्वरूप बीज की अनुत्पत्ति, सम्पूर्ण प्राणियों के समक्ष भीषण क्षुधा का संकट उपस्थित कर सकती है।
वायुरूपा मूर्ति-वायुरूपा मूर्ति वह है ‘यया प्राणिनः प्राणवन्तः’ जिससे प्राणी प्राणवान् होते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार वायु अनेक गैसों का आनुपातिक मिश्रण हैं, जिसमें सभी गैसों का सन्तुलन बने रहना वनस्पति और प्राणियों के प्राणरक्षा के लिये अनिवार्य है। वायु के शिवत्व की हानि सम्पूर्ण प्राणियों के समक्ष प्राणसंकट उपस्थित कर देगा। इसीलिये शास्त्रों में ‘वायुरायुः’ का कथन युक्त है।
शिव के ये आठ रूप समस्त पर्यावरण के प्रतीक हैं। इन सब तत्वों की जटिल अन्तःक्रिया से सारी सृष्टि या पर्यावरण का प्रसार हुआ है, ये सभी तत्व शिवमय (मंगलमय) हैं। अतः प्राकृतिक पर्यावरण में कुछ भी नितान्त निरर्थक, अनुपयोगी, अशिव नहीं , जब तक कि उसके सहज अनुपात में बलात् व्यतिक्रम न किया जाये। यह शिवात्मक अष्टमूर्ति कल्याणमयी न रहे तो इसका विकार सारी सृष्टि को विकृत कर देगा। शिव की मंगलमूर्तियाँ प्रसन्न रहें-यही सतत यत्न करना चाहिये।
अन्त में कहने का भाव यह है कि वैदिक एवं औपनिषदिक आर्षचक्षु सम्पन्न मनीषियों ने एकता में अनेकता की भावना का और अनेकता में एकता की भावना का अनुसन्धान करते हुये बहुदेववाद और एकेश्वरवाद आदि की स्थापना की है। ‘पुरूष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्’ अर्थात् जो कुछ इस समय वर्तमान है, जो कुछ भूतकाल में उत्पन्न हुआ है तथा जो कुछ भविष्य में उत्पन्न होने वाला है-वह पुरूष ही है-के द्वारा सर्वेश्वरवाद का सिद्धान्त स्थापित होता है। अलग-अलग नामों से अभिहित होने वाले देवतागण (बहुदेववाद) वस्तुतः एक ही हैं  (एकेश्वरवाद), जिन्हें लोग भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। भारतीय संस्कृति के अनवद्य गायक कालिदास के काव्य में उक्त विचार अत्यन्त सामरस्य के साथ अष्टमूर्तिशिव की परिकल्पना में प्रतिफलित हुये हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1ण् अभिज्ञान शाकुन्तलं 1.1
2ण् स्पन्दकारिका 29
3ण् मनुस्मृति, 1.8
4ण् कुमारसम्भव, 2.5
5ण् मनुस्मृति, 3.76
6ण् रघुवंश, 1.62
7ण् कुमारसम्भव, 6.26
8ण् कुमारसम्भव, 6.76
9ण् श्रीमद्भागवद्गीता, 14.12
10ण् रघुवंश, 3.66
11ण् रघुवंश , 9.21
12ण् कुमारसम्भव, 2.36
13ण् तर्कसंग्रह प्रत्यक्षपरिच्छेद, पृ. 9