ललित वत्स रायजादा
भक्तिकालीन साहित्य में भारतीय नारी का जो स्वरूप प्राप्त होता है, वह इतिहास की दीर्घावधि का फल है। इस कालावधि में सामाजिक जीवन का स्वरूप अनेक बार परिवर्तित हुआ। सन्तों ने नारी के दो रूपों की अवधारणा की है- एक तो उसका कामिनी रूप है जिसे सन्तों ने गर्हित और त्याज्य बताया है, दूसरा उसका सती रूप है जो सन्तों के लिए बड़ा मान्य और ग्राह्य है। सन्त काव्य में नारी विषयक इसी दृष्टिकोण का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है।
संतों द्वारा नारी का उल्लेख मुख्यतः नारी निन्दा तथा आत्मा-परमात्मा के प्रेम-मिलन एवं विरह के प्रतीक के रूप में किया गया है। आत्मा तथा परमात्मा के मध्य संबंध को दाम्पत्य-रति के रूप में प्रतिबिम्बित किया है। नारी-निन्दा विषयक प्रसंग में, उसे माया तथा वासना का प्रतीक मानते हुए उससे सर्वथा मुक्त रहने का परामर्श दिया गया है। उनके द्वारा जब किसी विरहिणी अथवा सौभाग्यशालिनी नारी का वर्णन प्रस्तुत किया जाता है या वे किसी पारिवारिक परिवेश का चित्रांकन करते है तो ऐसे स्थलों पर नारी शब्द का प्रयोग उनके द्वारा प्रतीकात्मक रूप में किया गया है। नारी के संयोग तथा वियोग का वर्णन संत कवियों ने आत्मा-सम्बन्ध के संदर्भ में किया है। आत्मा की वियोगावस्था का ज्ञान कराने के लिए ही संतों ने नारी का विरहिणी रूप वर्णित किया है। उनकी दृष्टि में परमात्मा रूपी प्रियतम से आत्मा रूपी प्रियतमा विलग हो गई है और इस प्रकार की वियुक्तावस्था में वह प्रिय के साथ सम्मिलन स्थापित करने हेतु व्याकुल हो उठती है। संत कबीर कहते है-
‘‘दुलहिनी गावहु मंगलचार। हम घरि आये हो राजा राम भरतार।।’’
कबीर ने नारी को नरक का कुण्ड बताया है तथा परनारी को पैनी छुरी माना है। उनकी धारणा है कि परनारी के ही कारण रावण जैसे महाप्रतापी राजा का विनाश हुआ। संत कबीर ने स्पष्ट शब्दों में नारी के कनक और कामिनी रूप की निन्दा की है। कबीर ने जहाँ नारी के निन्दित रूप को व्यक्त किया है, वहाँ उनका प्रयोजन नारी के कामिनी रूप से ही है। ‘नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग। कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग’।। नारी के एक और रूप का वर्णन करते हुए कबीर कहते है-
‘नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग। कहे कबीर तिन कौन गति, जो नित नारी संग’।।
कबीर ने नारी को अवगुणों का मूल कहा है, नारी से बचने की चेतावनी देते है-
‘नारि नसावै तीनि गुन, जेहि नर पासै होई। भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि नसकई कोई’।।
‘एक कनक अरू कामिनी, दोइ अगिन की झाल। देखे ही तैं परजरै, परसां ह्वै पैमाल’।।
कबीर पतिव्रता नारी को बड़ा गौरव देते है। इसी भावना के कारण वे सती को
साधु, शूर, संत आदि की श्रेणी में रखते हैं-
‘साथ सती और सूरमा, ज्ञानी और गजदन्त। एते निकसि न बाहुरे, जो जुग जायँ अनन्त’।।
सूर ने भी नारी के कामिनी रूप की निन्दा की है-
‘सुकदेव कहयौ, सुनौ हो राव। नारी नागिनि एक सुभाव।
नागिनि के काटैं विप्र होई। नारी चितवन नर रहै भोई।
सन्त रैदास ने भी परनारी-प्रणय की निन्दा की है, लेकिन सौभाग्यवती नारी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने उसे संसार में सर्वाधिक सुखी बताया है।
गुरुनानक की मान्यता है कि जो नारी अपने प्रिय को पहचानती है, वह सौभाग्यवती है और जिसने अपने प्रिय को नहीं पहचाना, वही कुरूप, कुटिल, कुलक्षिणी और कुनारी है। गुरुनानक की चेतना निन्दा और प्रशंसा के जंजाल में नहीं फँसी है। वे निन्दा के स्थान पर निन्दित कर्म को त्यागने का परामर्श देते है तथा कुमारी और सती सुहागिन नारियों की सजल मन से प्रशंसा करते है।
सन्त कवि दादू ने नारी के कई रूप बताये हैं। उन्होंने नारी को कहीं कामिनी कहा है तो कहीं भामिनी, मोहिनी रूप की निन्दा की है, जबकि उन्होंने विरहिणी, आज्ञाकारिणी, सती, पतिव्रता आदि नारी रूपों के प्रति अत्यन्त आदर-भावना व्यंजित की है। दादू ने भी कबीर की तरह कटु होकर भामिनी की बड़ी भत्र्सना की है।
‘दादू नारी पुरिष कौ, जाणै जे बसि होई। पिव की सेवा ना करै, कामणिगारी सोइ’।।
इसके विपरीत पति के प्रति निष्ठावान नारी को दादू अद्वितीय मानते है-
‘दादू भावै पीव कौं, ता सम और न कोई’।।
सन्तों में सुन्दरदास ने नारी की व्यापकता के साथ निन्दा की है। ‘नारी-निन्दक संतों के शिरोमणि संत सुन्दरदास है’। सुन्दरदास के सन्दर्भ में कहा गया यह कथन
निराधार नहीं है। जिन अंगों की सुन्दर व्यंजना करते-करते कविगण न तो कभी ऊबते है और न कभी थकते है, उन्हीं अंगों का जब सुन्दरदास वर्णन करते है तब उस वर्णन को देखकर तथा उसे भावित कर मन में बड़ी वितृष्णा पैदा होती है। संत सुन्दर दास ने नारी के प्रत्येक अंग को नरक के समान कहने में भी तनिक संकोच नहीं किया है-
‘उदर में नरक, नरक अध द्वारन में, कुचन में नरक, नरक भरी छाती है।
कंठ में नरक, गाल, चिबुक नरक किंब, मुख में नरक जीभ, लालहु चुचाती है
नाक के नरक, आँख, कान में नरक बहै, हाथ पाऊँ नख-सिख, नरक दिखाती है।
सुन्दर कहत नारी, नरक को कुंड मह, नरक में जाइ परै, सो नरक पाती है’।
नारी रूप के निन्दक सुन्दरदास की चेतना जब पतिव्रता नारी की ओर उन्मुख होती है, तब वे उसके प्रति अत्यन्त विनीत दिखायी पड़ने लगते हैं। उन्होंने अपनी वाणी में सती और पतिव्रता नारी की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। सुन्दरदास ने पतिव्रता के लिए पति का ही सर्वस्व माना है -
पति ही सू प्रेमहोई, पति ही सू नेम होई। पति ही संू छेम होइ, पति ही संू रत है
पति बिनु पति नाहिं, पति बिनु गति नाहिं। सुन्दर सकल विधि, एक पतिव्रत है।।’’
संतों ने जहाँ पर माता का उल्लेख किया है, वहाँ वह सम्मान-भावना का बोधक है। कबीर ने माता की क्षमाशीलता को उद्दिष्ट करके हरि को जननी के रूप में भावित किया है- हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा
मलूकदास की दृष्टि में नारी मिसरी की छुरी है, जो संसार को भ्रमित करती है-‘‘एक कनक और कामिनी, यह दोनों बटपार। मिसरी की छुरी गर लायके, इन मारा संसार।।
संतों ने ईश्वर भक्ति के ही संदर्भ में नारी की अवतारणा की है। चँूकि नारी बड़ी आकर्षणमयी होती है, उसका कामाकर्षी रूप साधारण साधक को साधना से विचलित कर देता है, इसीलिए निर्गुण संतों ने नारी के कामिनी रूप की बड़ी भत्र्सना और अवमानना की है परन्तु ये नारी के पतिव्रत और सती रूप की उपेक्षा नहीं कर सके हैं। समस्त संत नारी के पतिव्रत और सती रूप के प्रति अत्यन्त विनीत हैं, क्योंकि ऐसी नारियाँ मंगलविधायिनी शक्ति से सम्पृक्त होती हैं। इसीलिए नारी के कटु निन्दक कबीर पतिव्रता कुरूप नारी पर भी करोड़ों रूपसियों को न्यौछावर करने में जरा सा भी नहीं हिचकिचाते हैं।
पतिव्रता मैली भली काली कुचिल कुरुप, पतिव्रता के रूप पर बारौ कोटि सरूप।।
संदर्भ सूची
1. कबीर ग्रन्थावली: साखी- 20/15
2. संत बानी संग्रहः भाग- एक, पृ.‘54
3. कबीर साखी संग्रह- पृ 155
4. सं. सिंह जयदेव /डाॅ. सिंह वासुदेव, साखी, कामी नर कौ अंग, पृ.-173
5. -----वही----पृ, 174
6. कबीर साखी संग्रह, पृ. 23
7. सूरसागर (ना.प्र.स.), नवमस्कंध, पद सं.--446
8. दादू दयाल की बानीः भाग एक, 8/54
9. -------वही--------पृ 8/33
10. डाॅ. गोस्वामी कृष्णा, संतकाव्य में नारी, पृ.-116
11. सुन्दर विलास, पृ-47
12. सुन्दर विलास- सुन्दरदास, पृ 72
13. कबीर ग्रन्थावली, परिशिष्ट, पद 111
14. मलूकदास जी की बानी, शब्द-2, पृ. 12
डाॅ. ललित वत्स रायजादा
डी.ई.आई., प्रेम विद्यालय,
दयालबाग, आगरा, उ0प्र0