Saturday 16 July 2011

डाॅ0 राम मनोहर लोहिया का समाजवादी चिन्तन


डाॅ0 रविशंकर सिंह
प्रवक्ता (राज0शा0)
श्री बजरंग पी0जी0कालेज दादर आश्रम
सिकन्दरपुर, बलिया

उत्तर प्रदेश महान राष्ट्रनेताओं, महापुरुषों, लेखकों एवं विद्वानों की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि है। इन्हीं महापुरुषों में डाॅ0 राममनोहर लोहिया का नाम शामिल है, जो स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय संसद की गौरवमयी परम्परा के निर्धारक बने तथा लोकसभा में उत्कृष्ट विपक्षी नेता का आधार स्तम्ीा निर्मित किया। समाजवाद को भारतीय परिवेश में ढालने वाले, भारत में समाजवादी आन्दोलन व चिन्तन के उन्नायक तथा गाँधीवादी समाजवाद के प्रणेता डाॅ0 राममनोहर लोहिया का जन्म उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में तमसा नदी के किनारे स्थित अकबरपुर में 23 मार्च सन् 1910 ई0 को एक व्यावसायिक परिवार में हुआ था।1 डाॅ0 राममनोहर लोहिया, महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर छात्र जीवन से ही राजनीति में रूचि लेना शुरू कर दिया था। सन् 1919 व 1920 के प्रथम असहयोग आन्दोलन के समर्थन में डाॅ0 लोहिया ने कुछ छात्रों के साथ विद्यालय का त्याग किया था।2
डाॅ0 राममनोहर लोहिया भारत में समाजवादी आन्दोलन के महान प्रणेता थे। इनके समाजवादी चिन्तन का तीन महत्वपूर्ण आधार है- पहला चैखम्भा राज्य, दूसरा सप्त क्रान्ति तथा तीसरा इतिहास चक्र का सिद्धान्त।
चैखम्भा राज्य-
डाॅ0 राममनोहर लोहिया के चिन्तन में चैखम्भा योजना का महत्वपूर्ण स्थान है।3 वे अपने इस सिद्धान्त में सत्ता के विकेन्द्रीकरण का समर्थन किया है। उन्होंने अपनी चैखम्भा योजना, ग्राम, मण्डल, प्रान्त और केन्द्र जैसे चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खम्भों में शक्ति के विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया है। उनके विचार में सर्वोच्च अधिकार केवल केन्द्र तथा संघबद्ध इकाइयों में ही नहीं रहने चाहिए बल्कि इसे तोड़कर छोटे-छोटे क्षेत्रों में जहाँ नर-नारियों के समूह रहते हैं, बिखरा देना चाहिए।4 लोहिया का चैखम्भा राज्य की योजना एक व्यापक योजना है। इसमें उत्पादन, स्वामित्व व्यवस्था, कृषि सुधार, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का प्रबन्ध भी सम्मिलित हैं। डाॅ0 लोहिया के शब्दों में, ‘‘चैखम्भा राज्य की कल्पना में स्वावलम्बी गाँव ही नहीं, वरन् समझदार और जीवित गाँव की धारणा है।5 चैखम्भा राज्य में सेना केन्द्र के आधीन सशस्त्र पुलिस, प्रान्त के आधीन और अन्य पुलिस मण्डल तथा ग्राम के आधीन रहेगी। इसी प्रकार आर्थिक क्षेत्र में डाॅ0 लोहिया, लोहे, इस्पात उद्योग पर केन्द्र का नियंत्रण तथा छोटी मशीनों वाले उद्योगों को ग्रामांे तथा मण्डलों के आधीन रखने का विचार देते हैं। डाॅ0 लोहिया का मत था कि राजस्व के रूप में जो पैसा केन्द्र सरकार के पास एकत्रित होता है, उसका केन्द्र, प्रान्त, मण्डल तथा ग्राम स्तर पर उचित अनुपात में विभाजन होना चाहिए, क्योंकि जब तक जनतांत्रिक संस्थाओं के पास पैसा नहीं होगा, वे अपने कार्यों का सही ढंग से सम्पादित नहीं कर सकेंगी। राष्ट्रों के बीच समता और विश्व सभ्यता के खुशहाली के लिए डाॅ0 लोहिया ने बालिग मताधिकार पर चुनी हुई और सीमित अधिकारों वाली विश्व सरकार का पाँचवा खम्भा भी जोड़ने पर बल दिये हैं। प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण के अन्तर्गत उन्होंने जिलाधीश का पद समाप्त करने के पक्षधर थे। क्योंकि यह केन्द्रीयकरण की बदनाम संस्था है।7 इस प्रकार डाॅ0 लोहिया का यह मानना है कि देश में राजनीतिक एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण द्वारा ही नागरिकों का कल्याण होना सम्भव है। चैखम्भा राज्य में ही सभी नागरिकों के प्रजातांत्रिक भागीदारी सम्भव हो सकेगी।
डाॅ0 लोहिया के चैखम्भा राज्य में केन्द्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण की परस्पर विरोधी अवधारणाओं को समन्वित करने का प्रयत्न किया गया है। इनकी चैखम्भा योजना गाँधीवादी, आत्मनिर्भर ग्राम और आधुनिक संघवाद के बीच का मार्ग है। इसको स्पष्ट करते हुए इन्दुमति केलकर का कहना है कि चैखम्भा शासन व्यवस्था न केवल जीवन का एक सुन्दर मार्ग है, अपितु यह भ्रष्टाचार उन्मूलन का एक मार्ग भी है।8 वास्तव में डाॅ0 लोहिया द्वारा प्रतिपादित चैखम्भा योजना में महात्मा गाँधी के आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी गाँव तथा आधुनिक केन्द्रीकृत संघीय शासन पद्धति का संतुलन पूर्ण संश्लेषण है। इस व्यवस्था के द्वारा व्यक्ति तथा प्रारम्भिक समुदायों को व्यापक अधिकार प्रदान कर उनमें उत्तरदायित्व, आत्मसम्मान, नैतिकता तथा सृजनशीलता जैसे गुणों के विकास पर बल दिया जाता है। केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था में व्यक्ति व्यक्तित्वहीन हो जाता है परन्तु विकेन्द्रीत शासन प्रणाली में व्यक्ति अपने तथा अपने राष्ट्र के निर्माण में पूर्ण योगदान दे सकता है।
सप्त क्रान्ति-
डाॅ0 राममनोहर लोहिया प्रजातांत्रिक समाजवाद के प्रबल समर्थक थे, जिसकी अभिव्यक्ति उनके ‘सप्तक्रान्ति’ रूपी विचार में मिलता है। इस विचार के केन्द्र में जनशक्ति है, जिसका आशय जनइच्छा से था। यह वह जनइच्छा है जो डाॅ0 लोहिया द्वारा अपनी कृति ‘सात क्रान्तियाँ’ में प्रस्तावित सात क्रान्तियों से व्यक्ति होती है। उनके अनुसार यदि जन इच्छा जागृत हो तो इन सात क्रान्तियों का बीजारोपण हो सकता है। ये सात क्रान्तियाँ हैंः-
1. नर-नारी समता के लिए
2. चमड़ी के रंग के आधार पर राजनीतिक, आर्थिक व आध्यात्मिक विषमता के विरूद्ध।
3. जन्मजात तथा जातिप्रथा की विषमताओं के खिलाफ
4. विदेशी दासता के विरूद्ध
5. निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ व योजनाबद्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए
6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ
7. अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ व सत्याग्रह के लिए9
डाॅ0 लोहिया के अनुसार राज्य को अपनी श्ािक्त का प्रयोग जनइच्छा को ध्यान में रखकर करना चाहिए। निरंकुश शक्ति और सेवाएँ जनशक्ति के समर्थन के बिना अप्रभावी और अर्थहीन होती है। उन्होंने अपने लेख ‘‘विश्वासघाती जापान तथा आत्मसंतुष्ट ब्रिटेन’’ में लिखा था कि ‘‘सैनिक और असैनिक अड्डे उस समय तक बेकार होते हैं जब तक उनके पीछे जनशक्ति का समर्थन न हो।’’10
डाॅ0 लोहिया के मत में वही व्यवस्थापिका जनता की सच्ची प्रतिनिधि सभा है, जिसमें वास्तविक रूप से जनइच्छा व्यक्त होती हो। यदि उसमें जनता की इच्छा को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से मान्यता न मिल सके तो वह जनता की सच्ची व्यवस्थापिका नहीं है। यह कहते हैं कि ‘‘लोक सभा या विधान सभा एक आईना है, जिसमें जनता अपने चेहरे को देख सके। चेहरे पर किस वक्त कैसी सिकुड़ने हैं, कैसी आफते हैं, कैसी तकलीफ हैं, कैसे अरमान हैं, क्या सपने हैं, ये सब उस शीशे में देख सकते हैं।
डाॅ0 लोहिया अपने सप्तक्रान्ति के विचार द्वारा स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व जैसे राजनीतिक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है।
इतिहास चक्र-
डाॅ0 राममनोहर लोहिया इतिहास की अद्वितीय व अनुपम व्याख्या प्रस्तुत की है। डाॅ0 लोहिया ने घोषित किया कि अब तक का मानव इतिहास वर्गों तथा वर्णों के बीच आन्तरिक गति का इतिहास रहा है। वर्ग संगठित होकर वर्ण बन जाते हैं और वर्ण शिथिल होकर वर्गों में परिणत होते हैं।12 इतिहास को गति देने वाले सिद्धान्त एक दूसरे से जुड़े होते हैं, क्योंकि ये एक-दूसरे के लिए कार्य-कारण प्रस्तुत करते हैं।
डाॅ0 लोहिया का इतिहास के चक्रीय सिद्धान्त में विश्वास था। उनके अनुसार इतिहास निर्वाध रूप से चक्रवत, गतिशील रहता है। विश्व के इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक युगों में बाँटना एक सांस्कृतिक बर्बरता है। समस्त सभ्यताओं में भाषा, आचरण, जीवन पद्धति एवं उद्देश्य बुनियादी तौर पर एक ही ढंग से विकसित एवं परिपक्व होते हैं। किन्तु उनमें अनेक आर्थिक, सामाजिक तथा भौगोलिक कारणों से ऐसे बदलाव आते हैं, जिनसे उनके उत्थान व पतन की स्थितियाँ बदल जाती हैं, चाहे कोई भी देश कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो। प्रारम्भ में भारत, रोम, चीन और अरब देश उच्चतम श्रेणी में रह चुके हैं, किन्तु उनका भी पतन हुआ। इसीलिए डाॅ0 लोहिया ने कहा है कि ‘‘शक्ति और समृद्धि हर युग में बराबर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदलती रही है। अब तक का समस्त मानव इतिहास वर्ग और वर्ण के आन्तरिक बदलाव और शक्ति व समृद्धि के एक क्षेत्र से दूसरे में बाह्य परिवर्तन का इतिहास रहा है।’’13
डाॅ0 लोहिया यह मानते हैं कि वर्ग तथा वर्ण सभी समाजों की विशेषताएँ हैं और सभी जगह मिलती है। इनके अनुसार, ‘‘जन्मजात या धार्मिक वर्गीकरण, वर्णों का आवश्यक गुण नहीं है। वर्ग और वर्ण में घनिष्ठता होती है। अस्थिर वर्ण को वर्ग कहते हैं, स्थायी वर्ग, वर्ण कहलाते हैं। प्रत्येक समाज में वर्ग से वर्ण और वर्ण से वर्ग का बदलाव हुआ है। यही परिवर्तन लगभग सभी आन्तरिक घटनाओं की जड़ में रहता है। यह करीब-करीब हमेशा ही न्याय और बराबरी की मार्गों से प्रेरित होता है।
डाॅ0 लोहिया के अनुसार, भारत में भी वर्ग एवं वर्ण के बीच बदलाव की कथा निरन्तर चलती रही है। इसकी सबसे प्रमुख विशेषता यह रही कि ‘‘आन्तरिक वर्ण-निर्माण और अद्यःपतन साथ-साथ चलता है, चाहे दोनों के बीच काल का जो भी अन्तर रहे। पूरे समाज का बढ़ता कौशल निश्चित रूप से विभिन्न वर्गों के आन्तरिक हरकत व उतार-चढ़ाव के साथ जुड़ा हुआ है।14 उन्होंने माना है कि देश-काल की परिस्थिति के अनुसार वर्ग और वर्ण दोनों अपने स्वरूप तथा उद्देश्य में भिन्न है। भारत में वर्ण व्यवस्था का आधार प्रारम्भ में कर्म था और कालान्तर में इसका आधार जन्म हो गया। लम्बे समय तक वर्ण-व्यवस्था के रहने के कारण भारतीय व्यवस्था तन्द्रा और सड़न की स्थिति में आ गयी। उसकी नई प्राण शक्ति वर्णों को ढीला करके वर्गों में बदल रही है और आन्तरिक असमानता को समाप्त करने का संघर्ष प्रारम्भ हो गया है। इसी सिद्धान्त के आधार पर डाॅ0 लोहिया ने यह भविष्यवाणी की कि आगे चलकर भारत में एक अन्य प्रकार की वर्ण व्यवस्था पैदा हो सकती है, जिसमें राजनीतिक दल, प्रबन्धक वर्ग, नौकरशाह और पूँजीपति वर्ग सभी अपने उच्चतम स्थानों पर स्थिर हो जाएँ और शेष आबादी निम्न स्तर के द्विज वर्णों में बँट जाये। नये वर्णों का निर्माण तो सदैव चलता रहता है। इस प्रकार डाॅ0 लोहिया का निष्कर्ष यह है कि ‘‘अब तक का समस्त मानवीय इतिहास वर्णों एवं वर्गों के मध्य आन्तरिक बदलाव, वर्गों की जकड़ से वर्ण बनाने और वर्गों के ढीले पड़ने से वर्ग बनने का इतिहास रहा है।15
डाॅ0 लोहिया भारत में समाजवादी आन्दोलन के महान अध्येता थे। इनके समाजवादी चिन्तन के उपर्युक्त तीनों सिद्धान्त आधार स्तम्भ हैं। डाॅ0 लोहिया का सारा जीवन क्रान्ति का आह्वान करता है। ये वामपंथी राष्ट्रीयता, उग्रपन्थी आर्थिकता, उग्रपन्थी धार्मिकता, सामाजिक रूढि़वादिता एवं उग्रपन्थी राजनैतिकता को अपने समाजवाद में किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। उनका मानना था कि इनकी उपस्थिति में समाजवाद खंडित हो जाता है। वे समाजवाद को भारतीय परिवेश के अनुकूल बनाने के पक्ष में थे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. शरद, ओंकार: लोहिया, राजरंजना प्रकाशन, इलाहाबाद पृ0 34
2. डाॅ0 लोहिया: माक्र्स, गाँधी एण्ड सोशलिज्म, नवहिन्द प्र0 हैदराबाद पृ0 140
3. लोहिया: आस्पेक्ट्स आॅफ सोशलिस्ट पालिसी, पृ0 17
4. डाॅ0 लोहिया: फ्रेगमेन्ट्स आॅफ ए वर्ड माइन्ड।
5. राममनोहर लोहिया, रीवा (म0प्र0) में दिये गये भाषण से, फरवरी 1950।
6. डाॅ0 लोहिया: क्रान्ति के लिए संगठन (भाग-17) पृ0 112।
7. डाॅ0 लोहिया: क्रान्ति के लिए संगठन भाग एक, पृष्ठ 113
8. केलकर, इन्दुमती: लोहिया सिद्धान्त एवं कर्म, नवहिन्द प्र0 हैदराबाद।
9. डाॅ0 लोहिया: सात क्रान्तियाँ।
10. हरिजन, 19 अप्रैल, सन् 1942 के अंक से
केलकर इन्दुमति: लोहिया सिद्धान्त और कर्म।
11. डाॅ0 लोहिया: पाकिस्तान में पलटनी शासन, समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, पृ0 12
12. डाॅ0 लोहिया: व्हील आॅफ हिस्ट्री, नवहिन्द प्र0 हैदराबाद 1963, पृष्ठ 38
13. डाॅ0 लोहिया: इतिहास चक्र, पृष्ठ 49
14. डाॅ0 लोहिया: इतिहास चक्र पृ0 41
15. वही, पृष्ठ 48

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