Saturday 2 July 2011

गांधी के विविध दृष्टिकोण-एक अनुशीलन



- डाॅ0 मीनाक्षी शुक्ला

आदर्श विचारों के पटल पर जीवन जीने वाले महामानवों ने परमात्मा का दर्जा पाया है, इतिहास इस दर्शन सत्य का साक्षी है, पूज्य बापू महात्मा गांधी भी इसी दर्शन तथ्य की एक कड़ी है। उनका जीवन एक विचारपंुज भविष्य की संततियांे के लिये एक अमूल्य धरोहर है।
महात्मा गांधी के चिन्तन का क्षेत्र बहुत व्यापक एवं बहुआयामी है। गांधी जी मात्र विचारक, नेता तथा समाज सुधारक ही नहीं थे अपितु राजनीति, चिंतन एवं दर्शन को नया मोड़ देने वाले सक्रिय राजनीतिज्ञ, सन्त एवं विचारशील चिन्तक थे। वे भारतीयता के सांचे में ढ़ले सत्य, अहिंसा, विश्व शान्ति, प्रेम की प्रतिमूर्ति एवं सन्त होने के साथ-साथ एक बहुत बड़े रणनीतिकार ;ैजतंजमहपेजद्ध थे। गांधी जी के चिन्तन एवं कर्म का यद्यपि एक सन्दर्भ विशेष रहा है लेकिन वे केवल भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं आधुनिक भारत की परीधि में ही आबद्ध नहीं किए जा सकते। वे चिरन्तन मानवीय समस्याओं से जुड़े होने के कारण शाश्वत मूल्यों के उपासक रहे। समस्याएँ चाहे पश्चिमी दुनिया की हो अथवा तृतीय विश्व के नवोदित राष्ट्रो की उनके समाधान में कहीं न कहीं प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः गांधीजी की सम्बद्धता झलकने लगती है। एक नवीन मानव एवं एक नूतन समाज की संरचना की अवधारणा के सन्दर्भ में गांधी दर्शन का पारायण एवं अनुशीलन आवश्यक है। गांधीजी ने चिन्तन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने विचार व्यक्त किए है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का वर्णन हम निम्नांकित कुछ शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते है।
गांधी दर्शन में ईश्वर विचारः-
ईश्वर प्रत्यय गांधी दर्शन का वह केन्द्र बिन्दु हैं, जिसके चतुर्दिक उनकी अहिंसा, सत्याग्रह आदि सभी विचार केन्द्रित है। उनका ईश्वर विषयक विचार वैष्णव मत के ईश्वरवादी विचार से प्रभावित है यदि महात्मा गांधी को किसी भी भक्त की तरह ईश्वर भक्त कहा जाय तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योकि ‘ईशावास्यमिदं सर्व:यकिंच जगत्या’ उनके अन्दर की श्रद्धा है। महात्मा गांधी की ईश्वर की अवधारणा वास्तव में सत्य की अवधारणा से पृथक नहीं की जा सकती है। ईश्वर सच्चिदानन्द है सच्चिदानन्द का ‘‘सत्’’ सŸाा का बोधक है ईश्वर एक सार्वभौम सŸाा है जिसके सिवा अन्य किसी की सŸाा नहीं है। सार्वभौम होने के कारण वह निरपेक्ष रूप से सत्य है तथा सभी प्रकार के सापेक्ष सत्य इस निरपेक्ष सत्य में समा जाते है।1 ईश्वर सभी प्रकार के भेदों से मुक्त हैं।‘‘वह स्वयं न तो नर है और न नारी। उसके लिये न तो पंक्ति भेद है न योनि भेद। वह नेति-नेति है।2 वह केवल सत् अर्थात् सŸाा हैै। लेकिन यह सŸाा सत्य स्वरूप है जिसे गांधी ने एक प्रकार की अकथनीय, अज्ञात तथा सर्वव्यापक शक्ति माना हैं। वह शक्ति विघुत शक्ति की भंाति कोई भौतिक शक्ति नहीं बल्कि एक चेतन शाक्ति  है।3
अपने विचार के परवर्ती काल में गांधी ईश्वर को सत्य ने कहकर ‘सत्य ईश्वर है’ ऐसा कहने लगे। उनका मत है कि जब ईश्वर व सत्य पूर्णतया एक रूप है तो ‘ईश्वर सत्य के स्थान पर सत्य ईश्वर है कहने में कोई दोष नहीं है। पुनः सत्य एक ऐसा भाव है जिसका निषेध ईश्वरसमर्थक एवं ईश्वर विरोधी कोई भी नहंी कर सकता है। यह व्यापक एवं सार्वभौम भाव है।
गांधी  जी का मत है कि ईश्वर संबधी अंधविश्वास के कारण मानव को बहुत हानि हो चुकी है, अतः ईश्वर के स्थान पर उस भाव को बल देना चाहिए जो उससे अधिक प्राथमिक है। यह भाव सत्य है। अतः ईश्वर सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता । सत्य को ईश्वर कहने का एक अनिवार्य परिणाम यह निकलता है कि हमारी पूजा-आस्था का विषय सत्य हो जाता है क्योंकि हर जाति, देश वर्ण के लोग ‘सत्य की पूजा’ सत्य में आस्था आदि को परमदृष्टि से मूल्यवान मानते ही है’ इस प्रकार गांधी का ईश्वर संबंधी विचार अद्वितीय है जो कि हर युग में प्रांसगिक सिद्ध सकता है।
गांधी दर्शन में एक नैतिक विचारः-
गांधी जी अहिंसा को जीवन  में सदगुण  के रूप में अत्यधिक  महत्व देते है। उनके नैतिक दर्शन को इसलिए अहिंसावादी नीतिशास्त्र कहा जाता है। गांधी जी के शब्दो में ‘‘अहिंसा का अर्थ  है प्रेम का समुद, वैरभाव का सर्वथा त्याग, अहिंसा में दीनता-भीरूता न हो, डर कर भागना भी न हो। अहिंसा में दृढ़ता, वीरता, निश्छलता होनी चाहिये’’।4 अहिंसा और सत्य सिक्के के दोनों पहलू के समान ओत प्रोत है फिर भी अंहिसा साधन है और सत्य साध्य है।
गंाधी के शब्दो में, अहिंसा सत्य की खोज का आधार है। सत्य की खोज  व्यर्थ है यदि अंहिसा की भित्ति पर उसकी स्थापना नहीं होती। उन्होंने तो यहाॅ तक कहा है कि ‘‘बिना अहिंसा के सत्य की साधना ही असम्भव है।’’ उनके लिए तो सत्य ही सर्वव्यापी ईश्वर है, जो सम्पूर्ण संसार को प्रेम के द्वारा बांधे हुए है और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ है कि हम उन प्राणियों से प्रेम करें जिनमंे वे आंशिक रूप से विद्यमान है इसलिए व यंग इंडिया (31.12.1391) में कहते हैं यदि हम सत्य-स्वरूप ईश्वर को पाना चाहते है तो हमें इसके लिए निश्चय ही पे्रम या अंहिसा का मार्ग अपनाना होगा।5
वर्तमान समय में समूचा विश्व किसी न किसी रूप में हिंसक प्रवृत्ति का शिकार है, ऐसे समय में गांधी जी के अहिंसा दर्शन का व्यवहारिक पक्ष बहुत प्रासंगिक हो गया है,‘अहिंसा’ मानव जाति के जीवन का एक मूल नियम है।
गांधी के दर्शन में सामाजिक स्तरीकरण  की अवधारणः-
मानव समाज के लंबे ,इतिहास में ऐसा कोई युग अपवाद स्वरूप ही मिलता है, जिसमें व्यक्तियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति एक दूसरे के समान रही हो, आदिम समाजों मे भी मुखिया की प्रभुता, व्यक्तिगत शक्ति, और पारिवारिक संपत्ति के आधार पर ऊँच-नीच का भेद सदैव बना रहा हैं। कुछ समाजों में यह भिन्नता जन्म के आधार पर होती है, जबकि कुछ समाजों मंे इसका निर्धारण व्यक्तियों की कुशलता और योग्यता के आधार पर किया जाता है, पहली स्थिति को हम बंद स्तरीकरण दूसरी को खुला स्तरीकरण कहते है। बंद स्तरीकरण का अर्थ है कि व्यक्ति को एक बार जो स्तर प्राप्त हो जाता है, वह किसी प्रकार उसको परिवर्तित नहंी कर सकता भारत में स्तरीकरण का प्रमुख आधार व्यक्ति की जातिगत सदस्यता हैं। खुला स्तरीकरण का अर्थ एक ऐसी व्यवस्था से हंै, जिनकी प्रवृत्ति पूर्णतया खुली होती हंैं। व्यक्ति जब चाहे अपने प्रयत्नो के, द्वारा उच्च स्थान प्राप्त कर सकता है।
गांधी जी की सामाजिक स्तरीकरण संबंधी अवधारणा खुले हुये स्तरीकरण के अंतर्गत आती हैं । गांधी जी के शब्दो मंे, एक स्वस्थ सामाजिक जीवन, सहयोग के प्रतिष्ठा तथा श्रमविभाजन एवं कार्य-विशिष्टीकरण पर ही टिक सकता है, इसलिए आवश्यक है प्रत्येक अपनी शक्ति के अनुरूप योगदान करता रहें, गांधी वर्णव्यवस्था के प्रारंभिक रूप को महत्व देते है परन्तु स्वीकारते  है कि यह व्यवस्था कालक्रम मंे विकृत हो गई, अतः स्पष्ट है कि वे भी वर्तमान हिंदू समाज में प्रचलित जाति भेद से क्षुब्ध थे। गंाधी जी का कहना है कि प्रारभिंक वर्णविचार में छोटे-बडे़ का भेदभाव नहीं था, बल्कि वहाँ तो आधार था-व्यक्ति की अपनी कार्य-क्षमता तथा समाज में कार्यविभाजन की अनिवार्यतः प्रारम्भ में समदृष्टि थी, समाज के सभी कार्य एक जैसे है। गांधी का मत है कि यदि किसी ब्राह्मण कुल के व्यक्ति में ब्राह्मणोचित प्रवृŸिायांँ नहीं हैं तो वह जन्म से ब्राह्मण होने पर भी ब्राह्मण नही रह जाता । गांधी ने सामाजिक स्तरीकरण का आधार वर्गव्यवस्था को स्वीकार किया है, साथ ही सामाजिक व्सवस्था के अन्तर्गत श्रम-विभाजन एवं कार्यविशिष्टीकरण के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना चाहा, जो वर्तमान युग के लिए प्रासंगिक है तथा वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में भी इस विचार को व्यवहारिक रूप देने की आवश्यकता हैं।
गांधी का आर्थिक चिंतन-
मानव इतिहास के किसी अन्य युग की अपेक्षा वर्तमान युग में मानव की सम्पूर्ण क्रियाएँ उसकी आर्थिक गतिविधियों से प्रभावित होती हैं। आर्थिक शक्तियाँ इतिहास की धारा के मार्ग को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण शक्ति रही है।
मनुष्य को अपने जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता होती है। मनुष्य की आत्मिक आवश्यकताएँ तो धर्म के माध्यम से पूरी की जा सकती हैं लेकिन उसे जीवित रहने के लिए अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति करनी ही होती है। यदि मनुष्य के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती हैं तो वे समाज के भावी जीवन के लिए शुभ संकेत देने वाली नहीं होती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब कभी भी राज्य की गलत आर्थिक नीतियों के कारण जनता की आर्थिक आवश्यकताओं पर कुठाराघात हुआ है, वहीं पर शासन के विरूद्ध क्रान्तियाँ हुई हैं। जिस समय गांधी जी ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया उस समय भारत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। चारों तरफ निर्धनता, बेरोजगारी, भूखमरी एवं अशिक्षा का साम्राज्य था। भारतीय अर्थव्यवस्था जनता की आंकाक्षाओं की पूर्ति में पूर्णरूपेण अक्षम सिद्ध हो चुकी थी। अतः ऐसी परिस्थितियों में गांधी जी ने एक सम्पूर्ण आर्थिक दर्शन प्रस्तुत किया और उसका सांगोपांग विवेचन किया।
गंाधी का अर्थशास्त्र व्यवहारिक एवं वास्तविक आर्थिक समस्याओं पर आधारित हैं। उन्होने बेकारी , आर्थिक , मजदूरों का शोषण एवं उनके साथ अमानुषिक व्यवहार, आर्थिक असमानता, अस्त्रशस्त्र आर्थिक सŸाा के केन्द्रीकरण, मशीनीकरण, यंत्र उद्योगों मे पिछडे देशो का शोषण, गांवों का शोषण गांवों में बढ़ती कंगाली, दरिद्रता, चरखा और खादी, स्वदेशी, पशुपालन (गौपालन) संरक्षकता, सादा जीवन उच्च विचार, भौतिक-नैतिक समृद्धि का संतुलन जैसी आर्थिक समस्याओं पर न केवल चिंतन किया है, बल्कि व्यवहारिक निदान भी दिया है।
उदाहरण:- गांधी जी पूर्ण रोजगार के सिद्धान्त  में कहते है ‘‘कि राज्य का कर्तव्य जो काम करने योग्य है, अगर वह काम मांगता है, तो काम उसको मिलना चाहिए राज्य इस जवाबदेही से मुकर नही सकता।
गांधी के अनुसार देश की स्थिति एवं साधनों को देखते हुए कृषि कुटीर उद्योग श्रम उद्योगों को बढ़ावा दे, ताकि सभी व्यक्ति काम प्राप्त कर सकें, आज भी भारत की 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं कुटीर उद्योग में  कार्यरत है। उनके अनुसार आधुनिक तकनीकी एवं पूंजी प्रधान उद्योगों तथा रोजगार अवसर में सम्यक् समन्वय होना चाहिए, पूंजी संगहण को बढ़ावा न दें। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार का आर्थिक सिद्धान्त’’ में  वे कहते हैं - कि सामान्य लोगों का जीवन सरल हो, जितनी आवश्यक आवश्यकतायें है उनकी पूर्ति हो, भौतिक समृद्धि नैतिक समृद्धि में संतुलन हो तभी लेते हुए संयम रखना होगा अपनी आवश्यकताओं को साधनों के अनुकूल करना होगा, आवश्यकताओं से नैतिकता और आध्यात्मिकता का अंश देना होगा तभी भारत के प्रत्येक नागरिक को संतोष मिल पायेगा।
गांधीजी ने लिखा, ‘‘ मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वहीं तुम्हें भी सुलभ होनी चाहिए। इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता लेकिन इसका यह अथक नहीं कि हमारे पास उनके जैसे महल होने चाहिए। सुखी जीवन के लिए महलों की कोई आवश्यकता नहीं। हमें महलों में रख दिया जाए तो हम घबड़ा जाए। लेकिन तुम्हें जीवन की वे सामान्य सुविधाएँ अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपभोग अमीर आदमी करता है। मुझे इस बात में बिल्कुल भी संदेह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तक तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक वह तुम्हें ये सारी सुविधाएँ देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता।6 पूर्ण स्वराज्य का आशय यह है कि वह जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही किसान के लिए, जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा उतना ही भूमिहीन खेतीहर के लिए, जितना हिन्दुओं के लिए होगा उतना ही मुसलमानों के लिए, जितना जैन, यहूदी और सिक्ख लोगों के लिए उतना ही पारसियों और ईसाईयों के लिए। उसमें जाति-पांति, धर्म अथवा दरजे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा।7 इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गांधीजी ऐसी अर्थव्यवस्था की स्थापना चाहते थे जो समाज में आर्थिक असमानता को न्यूनतम करे तथा सभी नागरिकों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करा सके।
नारी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हुए गांधी दर्शन -
महात्मा गांधी एक बहुआयामी लेखक व दार्शनिक थे, मानव जीवन संबंधी कदाचित् कोई क्षेत्र ऐसा होगा जो उनके वैचारिक मंथन से अछूता रहा हो। समाज के उन वर्णों को जो सदियों से दलित और पतित रहे हैं तथा जिनका सदियों से शोषण होता रहा है और जिन्हें समाज में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है रहा है, के उत्थान के प्रति प्रारम्भ से ही गांधीजी के जीवन में एक विशेष सोच झलकती है। वर्तमान समय में भारतीय संविधान एवं कानून में महिलाओं को पुरूषों की समानता का जो दर्जा दिया गया है तथा राज्य को उनके कल्याण एवं उत्थान हेतु नीतियाँ निर्मित करने एवं उनके क्रियान्वयन के निर्देश दिए गए हैं, उनके मूल में गांधीजी की यह मान्यता है। गांधी जी कहते हैं कि -स्त्री पुरूष की साथिन है, जिसकी बौद्धिक क्षमताएंे पुरूष के सामानांतर है, उसे भी प्रत्येक अंग, उपांग में उतनी ही स्वतंत्रता का प्रयोग करने का अधिकार है, जितना पुरूष को, यदि पुरूष अपनी प्रवृत्ति क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी माना गया है, उसी तरह स्त्री भी अपनी प्रवृत्ति क्षेत्र में मानी जानी चाहिए। स्त्रियों केे प्रति यह सहज अवस्था तब आयेगी जब उनको हम एक मित्र की नजर से देखेंगे। पुरूषों की तरह स्त्रियों को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए।
स्त्री पुरूष समानता का तात्पर्य यह है कि पुत्रों - कन्याओं में विभेद न किया जाये, उनके साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए समानता का सीधा अर्थ है कि स्त्रियों को अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करने का अवसर मिलना चाहिए क्योंकि ईश्वर ने उन्हें एक दूसरे के पूरक के रूप में सिरजा है।
महात्मा गाध्ंाी ने जीवन के अनुभवों से यह शिक्षा प्राप्त की थी कि मानव समाज के निर्माण एवं विकास में महिलाओं की भूमिका महत्वूपर्ण रही है अथवा यह कहा जा सकता है कि समाज के निर्माण एवं विकास को सजाने एवं संवारने में पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं की भूमिका अधिक रही है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गांधीजी ने अपने सत्याग्रह आन्दोलन में स्त्रियों को सहभागी बनाया क्योंकि इसके लिए जिस त्याग, तपस्या, संयम, धैर्य एवं सहनशीलता की आवश्यकता होती है वह पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों मंे कई गुना अधिक होती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गांधीजी स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री शिक्षा एवं समाज में उसे पुरूषों के समकक्ष स्थान दिलाने के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने कहा कि, ‘‘शिक्षा, बलिदान की भावना और स्वयं, अपनी गरिमा में आस्था स्त्रियों स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं।’’8
गांधीजी के प्रयत्नों के फलस्वरूप भारत में ऐसा सामाजिक परिवर्तन आया कि बिना किसी कानून सुधार के भारतीय समाज के स्त्रियों को समानता एवं स्वतंत्रता का अधिकार पुरूषों को समान प्रदान किया।
गांधी जी के विचारों की समय समय पर आलोचनाएं होती रही है। कभी कहा गया है कि उन्होंने किसी नवीन सिद्धान्त की खोज नही कि किसी ने उनके नैतिक सिद्धान्त को अव्यावहारिक कहा, साथ ही यह भी कहा गया कि इस बदलते हुए युग में उनका अहिंसा तथा अपरिग्रह का सिद्धान्त सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की दृष्टि में अनुपयुक्त है वर्तमान राजनीतिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में उनके सिद्धान्त किसी भी रूप में उपयोगी और प्रासंगिक नहीं रह गये हैं।
इन आलोचनाओं के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि गांधी नैतिक एवं आध्यात्मिक क्रान्ति के महान देवता के रूप में सदैव स्मरण किये जायेंगे जिसके बिना इस पथभ्रष्ट को शान्ति प्राप्त नहीं होगी।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि शान्ति, प्रेम और अहिंसा के दूत महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन में मानवता के उच्चतम आदर्शों का समावेश निहित है। उनके जीवन दर्शन में ही उनका प्रेम, शान्ति, आत्मनिर्भरता एवं सहिष्णुता का अमर संदेश झलकता है। उनकी विलक्षण राजनीति दूरदृष्टि और सात्विक विचारों में आज 21 वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक सभी द्वन्द्वों का समाधान निहित है। महात्मा गांधी के कालजयी विचार, सामाजिक एवं धार्मिक समन्वय, सहयोग, समभाव, सत्य, अंहिसा, एवं व्यक्ति का आत्मसम्मान यह सब आज विश्वस्तरीय मान्यता प्राप्त सिद्धान्त है। उन्होंने अपने जीवन भारत के स्वाधीनता संग्राम तथा मानवता के उद्धार को समर्पित किया। जीवन के अन्तिम क्षणों तक मानवी और आध्यात्मिक सिद्धान्तों में उनकी दृढ़ आस्था रही। आज के  तेजी से परिवर्तित हो रहे विश्व परिदृश्य में जहाँ आपसी तनाव एवं मतभेद बढ़ते ही जा रहे हैं, तब उनकी अहिंसा की दी हुई शिक्षा अधिक प्रासंगिक और प्रभावशाली हो जाती है क्योंकि आज का मानव जिन कठिनाइयों से गुजर रहा है, गांधी का मार्ग ही उसका पथ अलोकित कर सकता है तभी शान्ति, सुरक्षा उन्नति एवं समृद्धि के पथ पर बढ़ता हुआ मानव एवं घृणाविहीन, युद्धविहीन एवं प्रेमपूर्ण विश्व की रचना कर सकता है।
गांधीजी क्रियाशील एवं व्यवहारिक दार्शनिक थे जो सिद्धान्त एवं व्यवहार के एकीकरण पर बल देते थे। वे एक ऐसे मार्ग-अन्वेषक थे, जिनके निश्चित लक्ष्य थे। उनका दर्शन एक व्यापक दर्शन था, जिसके अनुसार मनुष्य के तीन अनिवार्य घटक हैं- आत्मा, बुद्धि एवं हृदय। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित किए गए दर्शन की बुनियाद सत्य और अहिंसा है जो शाश्वत प्रासंगिकता लिए हुए हैं।
डाॅ0 मीनाक्षी शुक्ला
दर्शनशास्त्र विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद।
संदर्भ

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2. गांधी प्रार्थना-प्रवचन, (नई दिल्ली सस्ता साहित्य मंडल) प्रकाशन 1953, पृ0-131
3. गांधी, हरिजन, 22-6-47 पृ0 200
4. हिन्दी नवजीवन, 20 सित, 1928
5. धीरेन्द्र मोहन दŸा-महात्मा गांधी का दर्शन पृ0-73
6. गांधीजी, ‘मेरे सपनों का भारत, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद सन् 1999, पृ0 10, यंग इण्डिया, 26 मार्च, 1931
7. यंग इण्डिया, 5 मार्च 1931
8. नवजीवन, 21 अप्रैल, 1921

संदर्भ ग्रन्थ सूची
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2. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी - महात्मा गांधी - सहस्राब्दी का महानायक  गांधी सम्बन्धी चिंतन परक निबंध, 2009, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन।
3. महात्मा गांधी - हिंद स्वराज्य, सस्ता साहित्य मंडल नई दिल्ली, सन् 1958।
4. महात्मा गांधी - मेरे सपनों का भारत, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद सन् 1960।
5. प्रो0 बी0एम0 शर्मा, डाॅ0 रामकृष्ण दत्त शर्मा, डाॅ0 सविता शर्मा - गांधी दर्शन के विविध आयाम, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर।
6. महात्मा गांधी -  अहिंसा और  सत्य, उ0प्र0 स्मारक निधि, वाराणसी, सन् 1965ं
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18. प्रतिभा जैन - गांधी चिन्तन: ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर।
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