Saturday 2 July 2011

वैदिक युगीन आर्थिक स्थिति


                                                 प्रो0उमेश कुमार

मानव जीवन का आधार अन्न है। अन्नों की प्राप्ति कृषि से होती है! कृषि के लिए भूमि और वर्षा की आवश्यकता है। अतएव अथर्ववेद में भूमि और पर्जन्य (वर्षा) को नमस्कार किया गया है - भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षभेदसे।1
कृषि-कार्य गौरव का कार्य माना जाता था, अतएव इन्द्र और पूषा देवों को कृषि -कार्य में लगाया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि द्यूत आदि दुर्गुणों को छोड़कर सुख के लिए कृषि करो-अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व।2
यजुर्वेद में राजा के चार प्रमुख कर्तव्य बताए गए हैं -1. कृषि की उन्नति 2. जन-कल्याण, 3. राष्ट्र की श्रीवृद्धि और 4. राष्ट्र को पुष्ट बनाना। इनमें कृषि को सबसे अधिक प्रमुखता दी गई है ।शतपथब्राह्मण में पूरे कृषि-कर्म को चार शब्दों में वर्णन किया गया है - 1. कर्षण-खेत की जुताई करना 2. वपन-बीज बोना 3. लवन-पके खेत की कटाई करना 4. मर्दन-मड़ाई करके स्वच्छ अन्न प्राप्त करना ।ऋग्वेद और अथर्ववेद में राजा वेन के पुत्र राजा पृथी (पृथु) को कृषि-विद्या का आविष्कारक बताया गया है। उसने कृषि-विद्या के द्वारा अनेक प्रकार के अन्न उत्पन्न किए- तां पृथी वैन्योऽधोक तंा कृषि सस्यं चाधोक ।3

ऋग्, यजुः और अथर्व वेदों में कृषि-कर्म से सम्बद्ध अनेक सूक्त हैं। इनमें कृषि संबंधी मुख्य बातें ये दी गई हैं। 1. बीज बोने से पहले खेत को ठीक ढंग से स्वच्छ करें। 2. कृषि-हेतु बैल, हल आदि उत्तम हों। 3. उत्तम कोटि के बीज बोए जाएँ। 4. अनुकूल ऋतु में बीज बोवें। 5. यथासमय सिंचाई-निराई करें। 6. खेती तैयार होने पर कटाई-मड़ाई करें ।
अथर्ववेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में भूमि के तीन मुख्य भेदों का उल्लेख है - उर्वर्यांय0 शष्याय0 इरिण्याय। 4 - उर्वरा (उपजाऊ), इरिण (ऊषर), शष्प्य (चारागाह के योग्य)
यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता और अथर्ववेद में मिट्टी के कतिपय भेदों का उल्लेख है। ये हैं - मृद् मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) रजस् भूमि (सामान्य मिट्टी), अश्मा,  (पत्थर वाली), किंशिल (छोटे कंकड़ वाली), इरिण्य (ऊषर वाली, खेती के लिए अनुपयुक्त), उर्वरा  (उपजाऊ, खेती के योग्य) सिकता,  (बालू वाली मिट्टी)

कृषि के दो भेदों का उल्लेख है - वष्र्याय चावष्र्याय च।5 ये हैं - 1. वष्र्य - वर्षा पर निर्भर रहने वाली कृषि, 2. अवष्र्य - वर्षा पर निर्भर न रहने वाली अर्थात् कूप, तालाब, नहर आदि सिंचाई के अन्य साधनों पर निर्भर। कृषि के अन्य दो भेदों का भी उल्लेख मिलता है। ये हैं - 1. कृष्ट पच्य - जुते खेत में कृषि द्वारा उत्पन्न अन्न। 2. अकृष्टपच्य - बिना जुती भूमि में उत्पन्न अन्न। जैसे - जंगली धान, फल - फूल - कृष्टपच्याश्र्च् मे ऽ कृष्टपच्याश्रच में ।6
वेदों में सिंचाई के इन साधनों का उल्लेख मिलता है - 1. वर्षा 2. कुल्या, नहरों से सिंचाई 3. नदियों से, 4. तालाबों आदि से 5. कुएँ के जल से।
तैत्तिरीय संहिता में दो फसलों का उल्लेख है। इन्हे शारदीय (खरीफ) और वासन्ती (रबी) कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता में ही अन्य चार फसलों का कटने की ऋतु के नाम से उल्लेख किया है। ये हैं । 1. ग्रीष्म 2. वर्षा, 3. शरद्, 4. हेमन्त-शिशिर में करने वाली फसलें। इनके अन्नों का भी क्रमशः निर्देश है - जौ, औषधियॅा, चावल (व्रीहि) तथा माष-तिल (उड़द और तिल)
  यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में 12 अन्नों के नाम दिए हैं। ये हैं 1. व्रीहि (धान) 2. यव (जौ) 3. माष (उड़द) 4. तिल 5. मुद्ग (मूंग) 6. खल्व (चना), 7 प्रियंगु (कंगुनी) 8 अणु (पतला चावल) 9. श्यामाक (सावँा) 10. नीवार (कोदों, तिन्नी धान) 11. गोधूम (गेहूँ) 12. मसूर ।

उर्वरक के लिए ऋग्वेद में ‘क्षेत्रसाधस‘ (खेत की शक्ति वढ़ाने वाला) शब्द है - क्षेत्रसाधसः।7 वेदों में खाद के लिए ये शब्द हैं - करीष, शकन, शकृत (गोबर), यह खाद्य गाय, बैल, भैंस आदि की होती थी। कृषिनाशक तत्वों को ‘ईति‘ कहते हैं। अथर्ववेद में कृषिनाशक इन तत्वों का उल्लेख है। 1. अतिवृष्टि और अनावृष्टि - विद्युत और सूर्य की कड़ी धूप कृषि को नष्ट न करें - मा नो वधीर्विधुता देव सस्यं, मोत वधीः सूर्यस्य रश्मिभिः।8 2. तीव्र धूप और हिमपात - ये दोनों कृषि को नष्ट न करें - न घ्रन तताप न हिमो जघान ।9 3. आखु (चूहा) - कृषिनाशकों मे चूहे का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है और इसे मारने का निर्देश है - हतं तर्द ............आखुम ।10 तर्द, पतंग, जभ्य, उपक्वस।11 तर्द (कठफोड़वा), पतंग (टिड्डी) जभ्य और उपक्वस कृषि को नष्ट करने वाले कीट - पतंग हैं। एक बार पूरे कुरू जनपद की खेती टिड्यिँा खा गई थीं।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में पशुपालन और पशुसंवर्धन से संबद्ध कई सूक्त हैं। प्राचीन काल में भारतवर्ष ही नहीं अपितु विश्व भर में पशु-संपदा वैभव का प्रतीक था। पशु-संपदा दैनिक जीवन का अभिन्न अंग था। घी, दूध, दही, मक्खन आदि दैनिक आवश्यकताएँ थीं। कृषिकर्म, यातायात और भारवाहन के लिए बैल, अश्व आदि की आवश्यकता थी। यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों के लिए गायों की आवश्यकता थी, अतएव पशुपालन और पशुसंवर्धन सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व के विषय थे। प्राचीन आर्यों ने इन्ही विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए गोष्ठ, गोशाला, व्रज आदि की स्थापना की थी। व्रज एक प्रकार से प्राचीन डेयरी फार्म थे।
ऋग्वेद में अतएव निर्देश दिया गया है कि ‘व्रजकृणुध्वम‘ अर्थात व्रज (बाड़ा) बनाओं, क्योंकि यह ‘नृपाणः‘ (दुग्धादि का दाता) है - व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणः।12
यह मनुष्यों की पेय और खाद्य वस्तुओं की आवश्यकता की पूर्ति करता है। व्रज गोशाल के रूप में होते थे, अतः इन्हें ‘गोष्ठ‘ कहते थे। यजुर्वेद में गोशाला के लिए ‘गोष्ठाान‘ शब्द भी आया है। व्रज घिरे हुए बाड़े के रूप में होते थे। इनमें गाय, बैल, भैंस, अश्व, भेड़, बकरी आदि सभी रहते थे। वेदों में गाय का बहुत महत्व बताया गया है। गाय को विराट बम्ह का रुप माना गया है। उसमें सभी देवों का निवास है।
एवद् वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम्।13
गावो भगः गाय सौभाग्य का चिन्ह है। गाय इन्द्र (परमात्मा) की प्रतिनिधि है। गाय सोम की पहली घूंट है - गावो भगो गाव इन्द्रो ----- गावो सोमस्य प्रथमस्य भक्षः। 14 गायों की प्रशंसा में अथर्ववेद में कहा गया है कि ये कृश को हष्ट-पुष्ट बनाती हैं और निस्तेज को तेजस्वी बना देती हैं अतः सभाओं में इनका गुणगान होता है। गाय को ‘अघन्या‘ बताते हुए उसे सौभाग्य का चिन्ह बताया है - अघन्येयं सा वर्धतंा महते सौभगाय। 15 गाय में इन गुणों का समावेश बताया गया है - वर्चस् (कान्ति), तेज, भग(ऐश्वर्य) यश, पयस् (दूध) और (सरसता)।
वेदों में  पशुुहत्या को दंडनीय अपराध माना गया है। यजुर्वेद ने स्पष्ट कहा है -
‘अभयं नः पशुभ्यः‘ पशु निर्भय रहें। ऋग्वेद में गोहत्या करने वाले का सामाजिक बहिष्कार करने का निर्देश है - आरे ते गोद्यनम्। 16 अथर्ववेद में कहा गया है कि द्विपाद (दो पैर वाले) और चतुष्पाद् (चार पैर वाले) जीवों की हत्या न करो। गाय, घोड़े और मनुष्य की हत्या न करो। निरपराध की हत्या करना दंडनीय अपराध है - अनागोहत्या वै भीमा।17 यजुर्वेद में पशुओं का नाम लेते हुए कहा गया है कि - गाय, गवय (नील गाय) द्विपाद पशु, चतुष्पाद पशु, ऊँट और भेड़ आदि को न मारो ।
वेदों में पशु-सम्पदा के अनेक लाभों का उल्लेख है। कुछ लाभ ये है - दूध, दही, घी, मक्खन आदि की प्राप्ति। बैलों आदि का कृषि में उपयोग। भारवाहक पशु के रूप में गर्दभ, बैल, ऊँट, खच्चर आदि का उपयोग। घोड़ों के द्वारा रथ - संचालन और उनका युद्ध में भाग लेना। भेड़ आदि के ऊन से ऊनी वस्त्रों का निर्माण। मृत पशुओं की खाल से चर्म उद्योग, जूत दृति (मशक), वर्म (कवच) आदि का निर्माण। पशुओं के गोबर (कदीष) का खाद के रूप में उपयोग। हाथी के दँात का कलाकृतियों में उपयोग। हाथी, घोड़े, ऊँट आदि का सवारी के लिए उपयोग
वेदों में लगभग 140 वृत्तियों (पेशों) का उल्लेख हैं। प्राचीन समय में शिल्प और उद्योग को आदर की दृष्टि से देखा जाता था अतएव रथकार और कर्मार आदि को राजकृत (राजा का निर्वाचक) में स्थान दिया गया था।

ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि एक ही परिवार के व्यक्ति विभिन्न उद्योग करते थे और वे प्रेम से रहते थे। मंत्र का कथन है कि मैं कारू (कवि, शिल्पी) हूँ, पिता भिषक (वैद्य) हैं और माता चक्की पीसती है। घर की आय के लिए हम विभिन्न काम करते हैं-
                    कारुरहं ततो भिषग उपलप्रक्षिणी नना।
                    ननाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिम ।।18
वैदिक युग में सूती, ऊनी और रेशमी वस्त्रों का वर्णन है। सूती वस्त्रों को ‘वासस‘ ऊनी को ‘ऊर्णायु‘ ओर रेशमी को ‘ताप्र्य‘ कहते थे। जुलाहा या बुनकर को ‘वासोवाय‘ कहते थे। अथर्ववेद में एक सुंदर रूपक के द्वारा बुनाई का वर्णन है। वर्ष-चक्र एक करघा है, दिन और रात्रि दो स्त्रियँा हैं, ये वर्ष रूपी वस्त्र बुनती हैं। ऋतुएँ छः खूँटियँा हैं। रात्रि ताना है और दिन बाना - तन्त्रमेके युवती ----- वयतः।19 वस्त्र बुनने का काम अधिकतर स्त्रियँा (युवती) करती थीं। बुनने वाली स्त्री को बयया या वयित्री कहते थे। पुरूष भी बुनने का काम करते थे।
रथकार, तक्षा तष्टा (तक्षन्) त्वष्टा - बढ़ई के लिए इन चारों शब्दों का प्रयोग मिलता है। इनका हस्तकौशल प्रशंसनीय माना जाता था, अतः उन्हें ‘धीवानः‘ (बुद्धिमान) कहा गया है। ये रथ, गाड़ी आदि बनाते थे। उन पर नक्काशी करते थे।
 लौहकार या लोहार को कर्मार कहते थे। ये लोहे और अन्य धातुओं के बर्तन आदि बनाते थे। इनको ‘मनीषिण‘ (कुशल कारीगर) कहा गया है - कर्मारा ये मनीषिणः।20 ये लोहे को तपाकर विविध शस्त्र-अस्त्र भी बनाते थे। लोहे को तपाने के कारण इन्हें ‘अयस्ताप‘ भी कहते थे। इससे ज्ञात होता है कि लोहा तपाने के लिए बड़ी भट्टियँा बनाई जाती थीं।
यजुर्वेद में यान्त्रिक का उल्लेख है। यह कारीगर या मिस्त्री है। तैत्तिरीय संहिता में कुछ यन्त्रों का उल्लेख है। जैसे - वातयंन्त्र-वायु विज्ञान संबंधी यंत्र, ऋतुयन्त्र-ग्रीष्म आदि ऋतुओं का बोधक यंत्र, दिग्यंत्र - दिशा - बोधक यंत्र, तेजोयंत्र-प्रकाश का नियंत्रक यंत्र, ओजोयंत्र ऊर्जा नापने का यंत्र।
स्थयति - राजा या मिस्त्री, ये उच्च कोटि के भवन बनाते थे। सोने के आभूषणों को ‘हिरण्यय‘ कहते थे। मणिकार - यह सुवर्ण आदि के आभूषणों में मणि या रत्न जड़ता था । चर्मकार यह चमड़े का सामान बनाता था। वेदों में चमड़े के जूते (उपानह्) मशक (दृति) ढोल (दुन्दुभि) चाबुक (कशा) धनुज्र्या (धनुष की डोरी) चमड़े का कवच, आदि का उल्लेख है। चमड़े से बने सामान के लिए ‘चर्मण्य‘ शब्द है ।पेशिता - नक्काशी या कढाई का काम करने वाला। ये वस्त्रों पर बेल - बूटें या कसीदा काढ़ने का काम करते थे।

सूचीकर्म - सिलाई का काम करने वाला । रजयित्री  - वस्त्रों की रंगाई का काम करने वाली। यह काम प्रायः स्त्रियँा करती थीं। वृक्षों की छाल आदि से रंग तैयार किया जाता होगा।
अंाजनीकारी - अँाख के लिए अंजन या सुरमा बनाने वाली। मधु निर्माण अच्छा व्यवसाय था। शहद की मक्खी के लिए सरघा शब्द है। उनसे प्राप्त शहद को ‘सारघ मधु‘ कहते थे।
चीनी उद्योग प्रारम्भिक अवस्था में था। अथर्ववेद में ‘इक्षु‘ का उल्लेख है - इक्षुणा।21
सुराकार - सुरा-निर्माण बड़ा व्यवसाय था - सुराकारम्।22 विभिन्न वस्तुओं का यांत्रिक विधि से अर्क निकाला जाता था। वाप्ता (नाई) यह उस्तरे (क्षुर) से बाल बनाता था। मलग (धोबी) यह वस्त्र धोता था। भिषक् (भिषज) - वैद्य या चिकित्सक के लिए है - भिषजम्।23 नक्षत्रदर्श - यह ज्योतिषी के लिए है। - प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम्।24 यह प्रसिद्ध व्यवसाय था। इसमें गणित और फलित दोनों ज्योतिष का समन्वय था। यजुर्वेद में ‘प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शनम्‘ कहकर इसे विज्ञान की कोटि में रखा गया है। प्रश्नविवाक - यह न्यायधीश के लिए है - मर्यादायै प्रश्नविवाकम्।25 न्यायालय बहुत व्यापक उद्योग था। इसी मंत्र मंे वादी के लिए प्रश्न्नि और प्रतिवादी के लिए अभिप्रश्निन् (उत्तरदाता) शब्द हैं। वणिक व्यापारी - वणिजम्।26 व्यापार बहुत व्यापक उद्योग था। द्यूत (जुआ) बहुत प्रचलित था। जुआरी को ‘कितव‘ कहते थे - अयेभ्यः कितवम्।27 द्यूत को भी कुछ लोगों में आजीविका का साधन बना लिया था। वेदों में इसे दुव्र्यसन माना है और इसे छोड़ने का आदेश दिया है। अक्षैर्मा दीव्यः।28
कृषिकर्म एवं विविध उद्योगों से उत्पन्न सामान के क्रय-विक्रय के लिए व्यापार ही एकमात्र साधन है। वेदों में व्यापारी के लिए वणिक और वाणिज दो शब्द आए हैं। अथर्ववेद में इन्द्र को एक व्यापारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है - इन्द्रमहं वणिजम0।29 व्यापार को ‘धनदा‘ अर्थात श्रीवृद्धि का साधन बताया गया है। क्रय के लिए पण और प्रपण शब्द है तथा विक्रय के लिए विक्रय और प्रतिपण शब्द हैं। व्यापार लाभ के लिए किया जाता है
वेदों से ज्ञात होता है कि क्रय-विक्रय का आधार अधिकंशतः वस्तु - विनिमय था। कुछ बहुमूल्य चीजें मूल्य से दी जाती थीं। अथर्ववेद में उल्लेख है कि कुछ औषधियँा, सोम आदि पवस्त (चादर) दूर्श (दुशाला) अजिन (मृगचर्म) गाय आदि पशुओं से खरीदी जाती थीं। ऋग्वेद के एक मंत्र में इंद्र को इस गायों के खरीदने का उल्लेख है - क इमं दशभिर्म - मेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः।30
ऋग्वेद में उल्लेख है कि बेचने समय जो मूल्य तय हो जाता है। वही मान्य है। बाद में कम या अधिक नहीं होगा। अथर्ववेद में व्यापार में सफलता के कुछ गुर भी दिए हैं, चरित्र एवं व्यवहार में शुद्धि। इससे विश्वसनीयता आती है, उत्थान, उत्साह, दृृढ़निश्चय। यदि दृढ़निश्चय और साहस प्रबल है, तो सफलता अवश्यंभावी है। उपोह - समीप लाना अर्थात् दूरस्थ वस्तुओं को क्रय करके अपने यहँा लाना। समूह-संग्रह करना, दूरस्थ वस्तुओं को लाकर बेचना अधिक लाभप्रद होता है। संग्रह की हुई वस्तुएँ विशेष परिस्थितियों में बहुत लाभ देती हैं। वेद में सूझबूझ को सौ गुना लाभ देने वाली देवी कहा है। व्यापार में अधिक लोभी होने से निन्दा का पात्र होता है - अद्योवचसः पणयो भवन्तु।31 ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा है कि अन्न आदि में मिलावट दंडनीय अपराध है - कुयवं नि अरन्धयः।32
विविध उद्योगों से जो वस्तुएँ तैयार होती थीं, उन्हे स्थल-मार्ग, जल-मार्ग और समुद्री मार्ग से भेजा जाता था। स्थल मार्ग से वस्तुओं को भेजने के लिए पशुआंे और यानों का उपयोग किया जाता था। इनमें मुख्य थे - यानों में रथ और अनस् (बैलगाड़ी) पशुओं में वृषभ (बैल) वध्रि (बधिया बैल) अश्व, रासभ - गर्दभ (गधा) अश्वतर - अश्वतरी (खच्चर) उष्ट्र (ऊँट) महिष (भैंस) अज (बकरा) अवि (भेड़) श्वा (कुत्ता) - अश्वेषितं रजेषितं शुनेषितम्।33 जलमार्ग से व्यापार के लिए छोटी और बड़ी नौकाएँ प्रयोग में लाई जाती थीं - नावा ।34
वैदिक काल में समुद्री - व्यापार बहुत प्रचलित था। - नवाम् आरूक्षः शतारित्राम।35 ऋग्वेद, अथर्ववेद में इसका उल्लेख है। बड़ी समुद्री नौकाओं में सैकड़ों पतवार लगते थे। इन्हें अथाह समुद्र में चलने वाला बताया गया है, जहँा कोई सहारा नहीं था ‘ अनारम्भणे अग्रमणे समुद्रे - शतारित्रंा नावम्।36 यह भी उल्लेख है कि ये पोत तीन दिन और तीन रात लगातार चलते रहते थे। इनमें 6 घोड़ें वाले तीन रथ थे - तिस्रः क्षपस्त्रिरहातिवृजद्भिः ---- समुद्रस्य पारे, त्रिभी रथैः शतपद्भिः षडश्वैः।37 ‘षडश्वैः‘ से ज्ञात होता है कि इनमें 6 अश्वशक्ति वाले इंजन होते थे। ‘शतपद्भिः‘ से पानी काटने वाला सौ पहिए अर्थ ज्ञात होता है।
ऋग्वेद में वरूण की स्तुति में कहा गया है कि वह आकाश में उड़ने वाले पक्षियों का मार्ग जानता है - वेदा यो वीनंा पदमन्तरिक्षेण पतताम्।38 आकाश में चलने वाले वायुयानों के लिए ऋग्वेद में
नौ (नौका) और रथ शब्दों का प्रयोग है। इन्हें ‘अन्तरिक्षपु्रद्‘ (अंतरिक्ष में चलने वाला) कहा गया है। मंत्र में इन्हें ‘आत्मन्वती‘ कहा है, इससे सूचित होता है कि इसमें कोई मशीन रखी जाती थी, जिससे ये सजीव - तुल्य होते थे।
नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षपु्रद्भिः अपोदकाभिः।39 ‘वीडुपत्मभिः और ‘आशुहेमभिः‘ शब्द इनकी तीव्र उड़ान को सूचित करते हैं - वीडुपत्मभिः आशुहेमभिः।40 अन्य मंत्र में अश्विनीकुमार के रथ को ‘श्येनपत्वा‘ बाज की तरह उड़ने वाला और मन से भी तीव्र गति वाला बताया गया है - रथोः अश्विना श्येनपत्वा मनसेा जवीयान्।41 इनमें तीन सीट, तीन हिस्से और तीन पहिए होते थे। यह श्येन (बाज) और गिद्ध की तरह उड़ता था - श्येनासो वहन्तु ।42
इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि आकाशीय मार्ग और आकाशीय यात्रा से परिचित थे। इनका व्यापार के लिए उपयोग होता था। इसका कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है ।
वेदों से ज्ञात होता है कि व्यापार के लिए कुछ सिक्कों का भी प्रचलन था। ऋगवेद में निष्क का प्रयोग सुवर्ण के आभूषण के लिए है। इसे गले में पहना जाता था। अथर्ववेद में सौ निष्क का दो बार उल्लेख है और इन्हें सोने का बताया है - शतं निष्काहिरण्ययाः।43 इससे ज्ञात होता है कि निष्क का मुद्रा या सिक्का के रूप में भी प्रचलन था। शतपथ ब्राम्हण में स्पष्ट उल्लेख है कि निष्क
सोने का सिक्का था। रूक्म भी सुवर्णालंकार था। यह छाती पर पहना जाता था। पहनने वाले को ‘रूक्मवक्षस्‘ कहते थे। अथर्ववेद में दो बाद ‘ पँाच रूक्म‘ का उल्लेख हुआ है - पंच रूक्मा।44 इसके साथ 5 वस्त्र गाय आदि का भी उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि रूक्म भी एक सिक्का था। यह अशर्फी के तुल्य सोने का सिक्का रहा होगा।
शतपथ ब्राम्हण में सुवर्ण को शतमान कहा है। सायण ने कहा है कि शतमान सौ रत्ती का सोने का सिक्का था। तैत्तिरीय संहिता में रत्ती को एक तोल माना है। इससे ज्ञात होता है कि शतमान सिक्के की इकाई रत्ती रही होगी। यह रत्ती लता का लाल बीज है इसके ऊपर काला चिन्ह होता है। शतपथ ब्राम्हण में चँादी के भी शतमान सिक्के का उल्लेख है।
कार्षापण को संक्षेप में पण कहते थे। कार्षापण चँादी का सिक्का था। प्राचीन भारत में इसका प्रचलन था।
अथर्ववेद के तीन सुक्तों में ऋण देने - लेने की चर्चा है इसमें ऋण लेने से होने वाली हानियों का उल्लेख है। अनृण (उऋण) रहने को सर्वोत्तम बताया है। अथर्ववेद में ‘अपमित्य‘ ऋण का उल्लेख हैं।
अपमित्य धान्यम् ---- अनृणो भवामि।45
अपमित्य ऋण उसे कहते हैं जो धान्य या द्रव्य इस शर्त पर लिया जाता है कि उसी तरह की वस्तु लौटाकर ऋण चुका दिया जाएगा। कौटिल्य ने ऐसे ऋणों को ‘आपमित्यक‘ कहा है। उस ऋण को उसी रूप में उतारना।
अथर्ववेद में ब्याज (सूद) विषय में दो शब्द आए हैं - कला और शफ - यथा कलंा यथा शफं यथर्णं संनयन्ति। 44कला का अर्थ है - सोलहवँा भाग (1/16) और शफ का अर्थ है आठवँा भाग (1/8) इससे ज्ञाता होता है कि सामान्यतया सूद सवा छह प्रतिशत लिया जाता था और अधिक से अधिक साढ़े बारह प्रतिशत ।ऋगवेद में धूर्त पणियों (व्यापारियों) को ‘बेकनाट‘ कहा है- इन्द्रो विश्वान् बेकनाटान्।47 यास्क ने बेकनाट उन सूदखोरों को कहा है जो अपना रूपया दुगुना बनाना चाहते हैं या बनाते हैं ।
                                       
1.अथर्व0 12.1.42 सम्पा श्रीराम शर्मा आचार्य,प्रका संस्कति संस्थान,बरेली,संस्क02009
2ऋग0  10.34.7 सम्पा श्रीराम शर्मा आचार्य,प्रका संस्कति संस्थान,बरेली,संस्क02009

3.अ0 8.10(4).11 वही
4. यजु0 16.33, 42.43 सम्पा श्रीराम शर्मा आचार्य,प्रका संस्कति संस्थान,बरेली,संस्क02009
5. यजु0 16.38 वही
6. यजु0 18.14 वही
7. ऋग0 3.8.7 वही
8. अ0 7.11.1
9. अ0 7.18.2
10. अ0 6.50.1
11. अ0 6.50.2
12. ऋग0 10.101.4
13. अ0 9.7.24
14. ऋग0 6.28.5
15. अ0 7.73.8
16़़ ऋग0 1.114.10
17. अ0 10.1.29
18. ऋग 9.112.3
19. अथर्व0 10.7.42
20. यजु0 30.7
21. अ01.34.5
22. यजु0 30.11
23. यजु0 30.10
24. यजु0 30.10
25. यजु0 30.10
26. अ0 3.15.1
27. यजु0 30.8
28. ऋग0 10.34.13
29. अय0 3.15.1
30. ऋग0 4.28.10
31. अ0 5.11.6
32. ऋ0 7.19.2
33. ऋग0 8.46.28
34. अ0 4.33.8
35. अ0 17.1.26
36. ऋग0 1.116.4
37. ऋग0 1.116.4
38. ऋग0 1.25.7
39. ऋग0 1.116.3
40. ऋग0 1.116.2
41. ऋग0 1.118.1
42. ऋग0 1.118.4
43. अ. 20.131.5
44. अर्थ0 9.5.25 और 26
45. अ0 6.117.2
46. अर्थ0 6.46.3
47. ऋग. 8.66.10

।ेेजजण् च्तवण् िन्उमेी ज्ञनउंत
क्मचंतजउमदज व िभ्पेजवतल
ठ ै ज्ञ ब्वससमहमए डंपजीवद