Saturday 2 July 2011

भारतीय दर्शन में अहिंसा की अवधारणा और सर्वोदय


गंगेश्वरी प्रसाद
दर्शन शास्त्र उ०प्र० राजर्षि टण्डन 
 मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद


दार्शनिक चिन्तन के विकास में भारत वर्ष एवं पाश्चात्य देशों में अहिंसा के सिद्धान्त का बड़ा योगदान रहा हैं। यह जगत प्रतिक्षण बदल रहा हैं इसमें संहार की इतनी शक्तियाँ हैं। इसके बावजूद भी मनुष्य जाति का विनाश नहीं हुआ है। इसका अर्थ यही निकलता है कि सभी जगह अहिंसा व्याप्त हैं अहिंसा ही सृष्टि का आधार है। इसके बिना सृष्टि रह नहीं सकती है। वास्तव में अहिंसा जीवन धर्म हैं। अगर मनुष्य एवं पशु के बीच कोई मौलिक भेद है तो यह है कि मनुष्य दिनों दिन इस धर्म का अधिकाधिक दर्शन कर सकता है। गाँधी जी ने कहा है कि ‘‘सारा समाज अहिंसा पर उसी प्रकार कायम है जिस प्रकार गुरूत्वाकर्षण से पृथ्वी अपनी स्थिति में बनी हुई है। अहिंसा में सभी गुणों का समावेश हैं। इसे श्रद्धा और विश्वास के सहारे ही पाया जा सकता है।
अहिंसा भारतीय दर्शन में आचार शास्त्र की आधारशिला हैं एवं निर्वाण प्राप्ति में अहिंसा का स्थान अद्वितीय हैं। अहिंसा का अर्थ ‘‘किसी कि हत्या न करना’’ है। अहिंसा को व्यापक अर्थ में ले तो ‘‘किसी जीव को कष्ट न पहुचाना’’ है। इसका पालन मन, वचन, कर्म तीनों से होना चाहिए।
प्रो० मैत्र जी के शब्दों में, ‘‘अहिंसा सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है, यह सभी सद्गुणों एवं श्रेष्ठाओं की जननी हैं।’’
गांधी जी के अनुसार, ‘‘अहिंसा कायरों एवं दुर्बलों का शस्त्र नहीं है।’’
बुद्ध, महावीर एवं अन्य विचारकों ने अपने नीतिशास्त्र को अहिंसा पर आधृत किया है।
अहिंसा परमोधर्मः ‘‘अहिंसा परमधर्म माना गया’’ है।
भारतीय दर्शन के लगभग सभी दार्शनिकों ने पूर्व अथवा आंशिक रूप से अहिंसा को अपने दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। बौद्ध और जैन दर्शन में निर्वाण प्राप्ति अहिंसा के बिना सम्भव ही नहीं हैं।
बुद्ध जी के सारे उपदेश चार आर्य सत्यों में सन्निहित है। इसी चार आर्य सत्यों से अनासक्ति, वासनाओं का, दुःखों का अन्त, मानसिक शान्ति, ज्ञान, प्रज्ञा तथा निर्वाण सम्भव हो सकते हैं। चतुर्थ आर्य सत्य ‘‘दुःख निरोध मार्ग’’ में सम्यक कर्मान्त अर्थात बुरे कर्मो का त्याग (हिंसा, स्तेय, स्त्री-भोग) करके ही निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। हिंसा का त्याग अर्थात् अहिंसा अर्थात दूसरे जीवों की हिंसा न करने का आदेश दिया गया है।
बौद्ध दर्शन में हिंसा न करने को कहा गया है। ‘‘गृहस्थ को चाहिए कि वह किसी प्राणी की हिंसा न करें, चोरी न करे, असत्य न बोले, शराब आदि मादक पदार्थो का सेवन न करे, व्यविचार से बचे और रात्रि में असमय भोजन न करे।’’१
बुद्ध ने कहा है ‘‘भिक्षुओं, प्राणी हिंसा की प्रेरणा नहीं करनी चाहिए जो, प्रेरणा करे, उसको धर्मानुसार दण्ड करना चाहिए। भिक्षुओं, गाय का चाम नहीं धारण करना चाहिए। जो धारण करे, उसे दुक्कटका दोष। भिक्षुओं, कोई भी चर्म नहीं धारण करना चाहिए जो धारण करे, उसे दुक्कटका दोष।’’२
जैन दर्शन के अनुसार अहिंसा का अर्थ हैं ‘‘अहिंसा का परित्याग जैन दर्शन में जीव का निवास गतिशील के अतिरिक्त स्थावार द्रव्यों में जैसे पृथ्वी, वायु, जल में भी माना है। सन्यासी इस व्रत का पालन तत्परता से करते हैं। परन्तु साधारण मनुष्य के लिए जैनों ने दो इन्द्रि वालें जीवों की हत्या नहीं करने का आदेश दिया। जैनियों की अहिंसा निषोधात्मक आचरण के साथ भावात्मक भी है। उनके अनुसार हिंसा के त्याग के साथ जीवों के साथ पे्रम भाव भी व्यक्त करना है। जैनियों के अनुसार हिंसात्मक कार्य के लिए प्रोत्साहित करना भी अहिंसा सिद्धान्त का उल्लंघन है। हिंसा करना अधर्म है हिंसा का त्याग किये बिना मोक्ष सम्भव नहीं है।
जैन दर्शन में कहा गया है। इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर जीव है, उनकी न तो जान में हिंसा करो, न अनजान में, दूसरों से भी किसी भी हिंसा न कराओ।’’३ ‘‘मुझे अपना शरीर जैसा प्यारा है, उसी तरह सभी प्राणियों को अपना-अपना शरीर प्यारा है। ऐसा जानकर सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिए।’’४
गाँधी जी के अनुसार, क्रोध, घृणा, ईष्र्या, विद्वेष तथा स्वार्थ से प्रेरित होकर किसी प्राणी को अपने वचन अथवा कर्म द्वारा किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना और कष्ठ पहुंचाने का विचार भी न करना अहिंसा है।
गाँधी जी के दर्शन में अहिंसा का महत्वपूर्ण स्थान है उनका पूरा दर्शन अहिंसा पर आधारित है। गांधी जी के अनुसार अहिंसा का अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में प्रयोग करना चाहिए। सत्याग्रही के व्यक्तिगत जीवन में हिंसा का प्रयोग उनके अनुशासन की अपर्याप्तता का प्रमाण हैं।
किन्तु गांधी जी किसी के कल्याण के लिए हिंसा को अहिंसा ही मानते है। गांधी जी के अनुसार, ‘‘यदि मेरे बच्चे को किसी पागल कुत्ते ने काट लिया है और उस बच्चे को असहाय पीड़ा से मुक्त कराने का अन्य कोई उपाय नहीं है तो उसके जीवन का अन्त मैं अपना कर्तव्य समझूंगा’’। यहां पर गांधी जी ने हिंसा की तुलना शल्य चिकित्सक द्वारा रोगी पर चाकू का प्रयोग करने से की है जो कि हिंसा नहीं विशुद्ध अहिंसा के अनुसार आचरण करता है। अर्थात् गाँधी जी के अनुसार अहिंसा का यत्रवत पालन के बजाय कर्म के मूल में निहित कर्म के उद्देश्य के आधार पर हिंसा, अहिंसा का निर्णय करके करना चाहिए।
गाँधी जी ने कहा है, ‘‘अहिंसा ही सत्य का प्राण है।’’५, अहिंसा ही सत्येश्वर का दर्शन करने का सीधा और छोटा-सा मार्ग है।’’६ ‘‘यदि हमारा यह विश्वास हो कि मानव-जाति ने अहिंसा की दिशा में बराबर प्रगति की है, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि उसे उस तरफ और भी ज्यादा बढ़ना है। इस संसार में स्थिर कुछ भी नहीं है, सब कुछ गतिशील है। यदि आगे बढ़ना नहीं होगा तो अनिवार्य रूप से पीछे हटना होगा।’’७
गीता में अहिंसा को स्थान दिया गया है। किन्तु अहिंसा और कर्तव्य के बीच चुनाव में कर्तव्य को ही चुनने को बताया गया है जो गांधी जी के सिद्धान्त कर्म के मूल में निहित कर्म के उद्देश्य के आधार पर हिंसा और अहिंसा का निर्णय करने के समान ही है।
इस प्रकार बौद्ध और जैन किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करते हैं जबकि गांधी जी और गीता नैतिक निर्णय और भलाई के लिए हिंसा को अहिंसा मानते हुए विशुद्ध अहिंसा कहते हैं।
बौद्ध, जैन, ईसा, गांधी, गौतम एवं मुहम्मद सभी ने किसी न किसी रूप में समाज की भलाई के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलने को कहा है। गांधी ने अहिंसा का प्रयोग व्यापक स्तर पर किया है। गाँधी जिस सर्वोदयी समाज की कल्पना करते हैं वह अहिंसा की भित्ति पर आधारित है। हिंसा में शत्रुता है परन्तु अहिंसा में प्रतिष्ठित होने से वैर त्याग स्वयमेव हो जाता है। योगसूत्रकार पतंजलि कहते हैं-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।८
बिना अहिंसा के सर्वोदयी समाज का पतन हो जायेगा। अहिंसा ही उसमें प्राण फूँकती है। अहिंसक भावना से ही पूँजीपति प्रन्यास सिद्धान्त का समर्थन करता है, शरीर श्रम को स्वीकार करता है एवं मजदूरों को अपना मित्र और समाज का अंग समझता है। अहिंसा के बिना स्वराज्य खतरे में पड़ जायेगा और रामराज्य की कल्पना छिन्न-भिन्न हो जायेगी। इसलिए गाँधी अहिंसा का पुरजोर समर्थन करते हैं। अपरिग्रह में अहिंसा है, अस्तेय में अहिंसा है और अस्वाद में भी अहिंसा है। अहिंसा के बिना एकादश व्रत अप्रासंगिक हो जायेगा। अतः अहिंसा वरण के योग्य है। अहिंसा साधुता का विस्तार है एवं सद्गुणों का एकायन भी है। अहिंसा सर्वोच्च जीवन का आदर्श है। मानव का मानव के प्रति एक सुखद संस्पर्श!
गाँधी ने जिस अहिंसा का विचार व्यक्त किया है वह प्रेम की साधिका है एवं सामाजिक सद्भाव की विस्तारिका है। साध्य की साधना है! सत्य की वन्दना है!! एवं सत्याग्रही की अस्मिता है!!! अहिंसा सर्वोदयी समाज का विकास है। अहिंसा के बिना किसी भी सुन्दर समाज की परिकल्पना व्यर्थ है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बिना अहिंसा के न व्यक्ति और न ही समाज की किसी भी तरह की प्रगति हो सकती है। आध्यात्मिक व्यक्ति तो बिना अहिंसा के एक कदम भी आगे नहीं चल सकता। हमारे मनीषियों ने इसके महत्व को समझा और इसको व्यष्टि एवं समष्टि के लिये आवश्यक बताया। बुद्ध और महावीर ने इसे अपने जीवन दर्शन का नियामक तत्व बनाया। योगदर्शन ने इसे साधक की मनोवृत्ति के संतुलन के लिये अपरिहार्य माना। यहाँ पर गाँधी ने अहिंसा का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया है। गाँधी की देन है कि उन्होंने इसे धार्मिक और नैतिक क्षेत्रों से ऊपर उठाकर राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में उपयोग करके दिखलाया। अहिंसा का यह भारतीय मूल्य प्राचीनतम है परन्तु वास्तव में गाँधी ने इसे अपनाकर, इसका इतने वृहद् स्तर पर प्रयोग करके एक अभूतपूर्व कार्य कर दिया। कहा जाता है कि उन्होंने अहिंसा को उपकृत किया एवं उसके आगे के विकास के लिये पूरे विश्व में मार्ग खोल दिया और अब उत्तरदायित्व विश्व के उन तमाम व्यक्तित्वों का हैं- जो स्वयं को सत्य का पे्रमी समझते हैं- कि अहिंसा के माध्यम से एक वैश्विक समरसता स्थापित करें।
ग्रन्थ . सूची
१ - सुत्तिनिपात धम्मिनिक सुप्त २५।
२ - विनयपिटक, महावग्ग, नियम ५।२।५-६।
३ - दशवै० ६।१0
४ - रविषेण: पद्मपुराण १४।१८६।
५ - हि०न०जी० १५।१0।२५।
६ - ह०से० १0।११।३३।
७ - हरिजन, ११-८-४॰
८ - पतंजलि - योगसूत्र साधनपाद/३४वाँ सूत्र